सल्तनत को सुनो गाँववालो / भाग 8 / जयनन्दन

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अम्मा ने कहा, 'तुमलोगों की सोहबत का असर तो कुछ न कुछ होना ही था। मैं क्या, लगता तो ऐसा है कि यह पूरा गाँव ही नज्म पढ़ने और सोचने लगा है।'

सबने अम्मा को यों निहारा जैसे वे फलों से लदे किसी घने छायादार वृक्ष को देख रहे हों। तौफीक ने आज के कार्यक्रम की चर्चा करते हुए कहा, 'अम्मा, आज हम सभी लोग उपायुक्त से मिलने जा रहे हैं । नदी किनारे की फुलेरा बाँध का हमारी सहकारिता 'लतीफगंज विकास समिति' के नाम आबँटन करने संबंधी हमारे आवेदन पर आज सुनवाई और कार्रवाई होगी।'

'कौन-कौन जा रहे हैं ? क्या मुझे भी जाने की जरूरत है? '

'नहीं, आपको अभी परेशान नहीं होना है। आज हमारे सभी सदस्य अर्थात 42 लड़के जा रहे हैं और वे उपायुक्त के सामने पेश होंगे और उन्हें यह विश्वास दिलायेंगे कि वे किसी एक जाति, धर्म से नहीं हैं और उनका मतलब किसी खास व्यक्ति, जाति या कौम को फायदा पहुँचाना नहीं है। वे सभी पढ़े-लिखे और बेरोजगार लोग जाति और मजहब से ऊपर उठकर इस सहकारिता में शामिल हैं और अपने जीवन-यापन के लिए इस निरर्थक भूखंड को आय का माध्यम बनाना चाहते हैं।'

'इस योजना पर टेकमल और उसके गुर्गों का क्या रुख है, यह स्पष्ट हुआ है या नहीं।' अम्मा ने पूछा।

'हम तो यह मानकर ही चल रहे हैं कि उसका रवैया रास्ते में टाँग अड़ाने का ही होगा...लेकिन हमने भी पूरी तैयारी कर ली है। अपने पहलेवाले नेटवर्क को फिर से व्यवस्थित कर रहा हूँ और ऊँचे ओहदे पर पहुँचे अपने पुराने साथियों से अपनी निकटता को ताजा कर रहा हूँ। टेकमल को काउंटर करने के लिए हम किसी भी मोर्चे पर कमतर नहीं रहना चाहते।' तौफीक ने अपने आत्मविश्वास को जगाने की कोशिश की।

उत्साहित होकर भैरव कहने लगा, 'बाउजी बताते हैं कि आप अगर नौकरी करने के लिए शहर न चले गये होते तो टेकमल जैसा शातिर और गुंडा तत्व कभी यहाँ का सांसद न बना होता। आपका जिस तरह उन दिनों आम आदमी के दुख-सुख में साझीदारी बढ़ रही थी और सार्वजनिक मुद्दों के लिए जूझने की आपकी जीवटता के लोग कायल होते जा रहे थे कि बड़े से बड़ा जनसमर्थन चाहते तो हासिल कर लेते।'

'नहीं भैरव, ऐसा नहीं है। यह आकलन जरा अतिशयोक्ति भरा है। वोट और जनसमर्थन का आधार ज्यादातर मामलों में जाति और कौम ही बनता रहा है। आप काम चाहे कितना ही करें, आप कितना ही ईमानदार और कर्मठ हों, जब चुने जाने की बात होगी तो आप जाति और कौम के स्तर पर फेंका जायेंगे।'

अम्मा ध्यान से सुन रही थीं इनकी बातें। जरा चिन्तातुर होकर उसने पूछा, 'अगर ऐसा है तौफीक मियाँ, तब तो इस मुए टेकमल को कभी हराया नहीं जा सकेगा। इसकी जाति की तादाद तो कभी कम होगी ही नहीं।'

'लोहे को लोहा काटता है, अम्मा। हर चीज का अंत होता है, टेकमल का भी होगा।'

अब इनके शहर जाने का समय होने वाला था। एक-एक कर सभी लड़के जुटने लगे थे। तारानाथ, चन्द्रदेव, रामपुकार, खेमकरण, धेनुचंद और अन्य। लड़के छिड़े हुए प्रसंग पर ध्यानपूर्वक कान लगाये हुए थे। तारानाथ ने कहा, 'हम टेकमल के मामले में यह धारणा गलत साबित करके रख देंगे, अंकल, आप देखिएगा। हम सभी साथियों ने तय कर लिया है कि सल्तनत हमारी नेता होंगी और टेकमल के खिलाफ चुनाव लड़ेंगी। मेरा दावा है कि इन्हें जीतने से कोई नहीं रोक सकेगा।'

तौफीक, भैरव, अम्मा, सल्तनत आदि के लिए यह पहला मौका था जब इस तरह का विचार उनके सामने आया था, अतः एकबारगी वे सुनकर चैंक उठे। सल्तनत ने सान्निध्य भाव से देखा तारानाथ को और जरा मुस्कराते हुए कहा, 'तारा, क्या मुझे मरवा देने का इरादा है?'

सभी लोग हँस पड़े। अम्मा ने तारा का समर्थन किया, 'तारा ठीक कहता है, सल्तनत...तुम्हीं एक हो जो टेकमल को कड़ी टक्कर दे सकती हो।'

तारा ने फिर जोड़ा, 'अब किसी के लिए मार-काट कर लेना इतना आसान नहीं रह गया है। हमें कमजोर समझ लेने की जो गलती करेगा, उसे बहुत पछताना पड़ेगा। टेकमल से पूरे क्षेत्र के लोग त्रस्त हैं और उसे सबक सिखाने के लिए तत्पर हैं। आप इस क्षेत्र के हर गाँव में अपनी एक पहचान कायम कर चुकी हैं। फिर उसे धूल चटाने के लिए आपसे अच्छा उम्मीदवार भला कौन हो सकता है? '

'ठीक है तारा, इस बारे में हम सब मिलकर बाद में फैसला करेंगे। चलो, अभी समय हुआ जा रहा है। निकहत कहाँ है, उसे कहो, हमें कुछ नाश्ता कराये।' तौफीक ने प्रसंग को समेटते हुए जाने की हड़बडी दिखायी।

नाम सुनते ही निकहत हाजिर हो गयी। शायद पास ही से वार्तालाप सुन रही थी। उसने कहा, 'नाश्ता तैयार है...आप सभी लोग इस सभाकक्ष से नीचे आइए।'

सभी ने नीचे आकर नाश्ता किया और चाय पी। रसोई को पूरी तरह निकहत ने सँभाल लिया था और शिकायत का कोई मौका नहीं रहने दिया था। उसकी अम्मा मिन्नत भी काफी संतुलित व सामान्य व्यवहार करने लगी थी। रसोई में निकहत की पूरी मदद करने लगी थी। गली-कूचों में यत्र-तत्र आवारा भटकना तथा कुछ भी करने की सनक दिखाने लगना उसने लगभग बंद कर दिया था। अब सब महसूस कर रहे थे कि दुत्कार, फटकार, गाली-गलौज और जोर-जबर्दस्ती वाली बदसलूकी के कारण ही उसमें विक्षिप्तावस्था उभर आयी थी। अब जब उसे इस तरह सताने वाला कोई नहीं रह गया और सभी उससे अच्छी तरह नरमी एवं प्यार से पेश आने लगे तो उसे ठीक होने के लिए किसी इलाज की भी जरूरत नहीं पड़ी। सल्तनत और निकहत दोनों उसे खूब जी में लगातीं...रोज नहलवाकर उसके कपड़े बदलवा देतीं... उसके सिर में तेल लगाकर जूड़ा कर देतीं...उसकी उँगलियों के नाखूनों में पॉलिश और उसके पैर में आलता लगा देतीं। मिन्नत खिलखिलाकर हँसती और अपनी बेटियों को मुग्ध होकर देखती। सल्तनत शुरू से ही उस पर प्राण छिड़कती रही, मिन्नत इसे समझती थी, शायद इसीलिए वह जहाँ भी सोती मिन्नत उसके पार्श्व में जाकर उठँग जाती। उसका जरा-सा भी सिर दुखता, अपच हो जाता, सर्दी लग जाती...मिन्नत ताड़ लेती और उसके लिए रतजगा कर देती।

मतीउर हर महीने उसके लिए दो सौ रुपये का मनीआर्डर भेजता था। सल्तनत उसे बताती कि छोटे ने तुम्हारे लिए ये रुपये भेजे हैं। उसकी आँखें गीली हो जातीं। ऐसा लगता कि उसे देखने के लिए उसमें मन ही मन एक तड़प समा जाती है। मतीउर कुली-कबाड़ी वाली मामूली व अनिश्चित कमाई के बावजूद माँ के लिए अपने कर्तव्य पालन से बाज नहीं आता था। सल्तनत भावुक हो जाती थी यह सोचकर कि दो बड़े बेटे मोटी कमाई करते हैं, फिर भी उन्हें अपनी माँ के लिए एक पैसा देना गवारा नहीं। कई साल हो गये कभी सुधि भी नहीं ली कि माँ जीती है या मरती है। सल्तनत के मन में कभी खयाल आता कि ऐसे बेटों के बड़ा होने से क्या फायदा जो अपनी माँ से खुद को बड़ा समझने लगे। मतीउर अगर वापस आ गया तो माँ की तबीयत और भी बेहतर हो जायेगी।

सबके साथ चलने के लिए सल्तनत भी तैयार हो गयी। आज ही उसे फोन करके सूचित कर देना है और चिट्ठी भी लिख देनी है। एक दुकान का फोन नम्बर देकर रखा है, वहाँ मैसेज दे देने से वे लोग उस तक संप्रेषित कर देते हैं।

घर से निकलकर सभी लोग बस के लिए पक्की सड़क पर आ गये। इसी समय कहीं से अचानक रूपेश प्रकट हो गया। उसने एकांत में ले जाकर भैरव से कुछ कानाफूसी की और तुरंत अंतर्ध्यान हो गया। भैरव के माथे पर अचानक पसीने की बूंदें चुहचुहा आयीं। सल्तनत ने ताड़ लिया कि जरूर कोई परेशानी का सबब है। तौफीक लड़कों के साथ बातें करने में मशगूल थे। भैरव ने सल्तनत को बता दिया कि टेकमल भी अपने गुर्गों के साथ डीसी आफिस पहुँचा हुआ है, इसलिए वहाँ कुछ भी अप्रिय घट सकता है। भैरव कुछ लड़कों के साथ घर जाकर जवाबी तैयारी अपने साथ ले लेना चाहता था, लेकिन सल्तनत ने एकदम मना कर दिया कि आज पहले हम देख ही लें कि टेकमल और उसके आदमी कितने पानी में हैं।

सभी लोग उपायुक्त (डीसी) कार्यालय पहुँचकर अपनी बारी का इंतजार करने लगे। एक साथ पचास आदमी के समूह के कार्यालय में पहुँचते ही सरगर्मी बढ़ गयी और लोग बाग ध्यान से इस तरफ देखने लगे। इन्हें अंदर जाने के लिए जब बुलावा आया तो उसी समय अप्रत्याशित रूप से अंदर से टेकमल बाहर निकला। तौफीक जाते हुए और टेकमल निकलते हुए आमने-सामने पड़ गये। कुछ देर दोनों एक-दूसरे को ऊपर से नीचे तक घूरते रहे। फिर तौफीक ने अपने होंठों पर मुस्कान लाते हुए कहा, 'और कितना देखोगे, टेकमल। वहीं हूँ यार जो पहले था। हाँ, तुम जरूर बदल गये हो।'

टेकमल ने मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा दिया, तौफीक ने भी उसका सम्मान किया। टेक ने उसका हाथ हिलाते हुए कहा, 'मैं वही देख रहा था कि तुम जरा भी नहीं बदले। यह ठहराव क्या पूरा जीवन बनाये रखोगे? दुनिया की ज्यादातर चीजें क्षण-क्षण बदलती हैं...सूरज तक देखो दिन भर में कितना रूप बदलता है।'

'जमाने के साथ बदलकर चलना तो अच्छा जरूर होता है, टेकमल...लेकिन स्यार की तरह रंग बदलकर आँखों में धूल झोंकना अच्छा नहीं होता। खैर, तुम्हारी जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि मैं अब वाकई उन चीजों को बदल देना चाहता हूँ जो आँख में अर्से से खटक रही हैं।'

'कोशिश करके देख लो...हसीन सपने देखने के लिए तुम तो दिन को भी रात मानकर चलते रहे हो। देख रहा हूँ कि काफी भीड़-भाड़ जुटा ली है तुमने।' टेकमल ने सरसरी तौर पर एक उपहास की निगाह दौड़ायी लड़कों पर, 'कोई काम पड़े तो आ जाना मेरे पास।'

'यहाँ कोई रहे और तुमसे काम न पड़े...ऐसा हो ही नहीं सकता। शुक्रिया इस जर्रानवाजी के लिए...मैं जरूर आऊँगा तुम्हारे पास।'

'चलता हूँ।' मुख में राम बगल में छूरी वाली अपनी छायावादी धूर्तता दिखाते हुए टेकमल चला गया। आगे पीछे चलने के लिए सशस्त्र अंगरक्षक उसके साथ लग गये। खिड़की से अनायास नजर नीचे चली गयी तो तौफीक ने देखा कि बाहर आलीशान कारें और जीपें उसकी राह देख रही हैं। जीप में उसकी खूँखार सेना अस्लों से लैस होकर लदी हुई थी। ऐसे लोगों को, जो खुद ही जरायमपेशा हैं...जो खुद ही असुरक्षा के वायस हैं...न जाने क्यों प्रशासन सुरक्षा के नाम पर शोहदों का काफिला लेकर चलने की इजाजत दे देता है? किसी ने सूचित किया था कि जीप में इदरीश भी सवार है। घिन आ गयी थी तौफीक को। भैरव, सल्तनत और सभी लड़के बड़े हैरत से टेकमल का तौफीक से मिलना और बोलना-बतियाना देख रहे थे। लग रहा था जैसे दो दुश्मन नहीं जिगरी दोस्त मिल रहे हों। शायद इसे ही आज की राजनीति कहते हैं।

उपायुक्त ने हरेक लड़के से बातचीत की, उनके शैक्षणिक प्रमाणपत्र देखे और इस तथ्य को सच पाया कि सभी लड़के पर्याप्त शिक्षित हैं और अब तक बेरोजगार रहने के लिए अभिशप्त हैं। उसने तौफीक को संबोधित करते हुए पूछा, 'क्या ऐसा संभव नहीं है कि इस क्षेत्र के सांसद को विश्वास में लेकर आप इस योजना को आगे बढ़ायें? '

तौफीक ने बेबाकी से कहा, 'महोदय, यह सांसद उस नस्ल का नहीं है जो काम बनाता है, यह उस नस्ल का है जो काम बिगाड़ता है। मैं जानता हूँ कि वह आपसे मिलकर गया है तो अपनी टाँग अड़ाकर ही गया होगा। अगर वह विश्वास करने लायक होता तो हमें इन बेरोजगारों को लेकर संस्था बनाने की कोई जरूरत नहीं होती। इस आदमी के कारण आज पूरा इलाका भुखमरी के कगार पर खड़ा है। मैं आपको बता दूँ कि नेता बनने की ख्वाहिश लेकर मैं यह सब नहीं कर रहा...हाँ, यह ख्वाहिश लेकर मैं जरूर चल रहा हूँ कि इस टेकमल को अब नेता नहीं रहने देना है। मुझे अगर नेता बनना होता तो आज से पन्द्रह साल पहले उस समय मैं नेता बन गया होता जब इस टेकमल ने राजनीति का ककहरा भी नहीं सीखा था।'

'तौफीक साहब,' उपायुक्त ने अपने पुकारने के अंदाज से यह स्पष्ट कर दिया कि वह उनसे काफी प्रभावित है, 'आप एक अनुभवी और विवेकसंपन्न व्यक्ति हैं...मैं क्या बताऊँ, आप तो सबकुछ जानते हैं। पिछले दिनों आपलोगों ने अपने गाँव में जो काम किया है, उससे मैं अवगत हूँ, इसलिए मेरे मन में इस योजना के लिए कोई संशय नहीं है। मैं सचमुच चाहता हूँ कि बेकार और खाली पड़ी जमीन आपकी संस्था को लीज पर जरूर दी जाये। यह एक अनूठा और अनुकरणीय प्रयोग साबित हो सकता है। मेरे सामने...। '

'आप अगर ऐसा समझते हैं,' बीच में ही रोक दिया तौफीक ने, 'तो इस टेकमल के कहने से ना मत कीजिए, महोदय। आप एक प्रशासनिक पदाधिकारी हैं...देश आप जैसे समर्थ लोगों के ही बूते चलता है...टेकमल जैसे अवांछित और नालायक आदमी तो सांसद, विधायक और मंत्री बनते और मिटते रहते हैं। लेकिन आप अपनी मेधा और तेजस्विता से आये हैं और पूरा जीवनकाल आपको अपनी सेवा देनी है। इसकी बेजा धौंस और गुंडागर्दी की आप परवाह मत कीजिए। आप तय कर लेंगे और अपने पद की शक्ति के साथ डट जायेंगे तो यह डरपोक आदमी, जो अपनी जान जाने का डर लिये गुंडों पर आश्रित रहता है, आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। आप स्वयं देख लीजिए कि आपके इस निर्णय से कितने अभागे लोगों के जीवन का अंधकारमय अध्याय प्रकाशमय बन सकता है। आप बताइए कि इनके भविष्य को सँवारने के प्रति राष्ट्र का क्या कोई कर्तव्य नहीं होना चाहिए? अव्वल तो इन्हें भी किसी अच्छी आजीविका पाने का अवसर मिलना चाहिए था...जो नहीं मिला तो इन्हें उस काम के लिए भी रोक देना क्या सरासर नाइंसाफी नहीं होगी, जिसे अपनी तकदीर की रेखा बदलने के लिए ये खुद आगे बढ़कर अंजाम देना चाहते हैं? अब मैं कुछ नहीं कहूँगा, आप जो फैसला चाहें ले लें।' तौफीक जाने के लिए उठ गये। उनके साथ बैठे हुए भैरव, सल्तनत, तारानाथ, चन्द्रदेव आदि ने भी अपना आसन छोड़ दिया।

उपायुक्त ने आदर से पुकारते हुए कहा, 'तौफीक साहब, अब तो मैं सचमुच यह देखना चाहता हूँ कि आपकी योजना किस हद तक सफलता की ऊँचाई छू सकती है। जोखिम उठाना भी पड़े तो मैं उठाऊँगा...आपकी संस्था को जमीन दी जायेगी। जाइए, काम आगे बढ़ाइए। बीडीओ और कर्मचारी जाकर जमीन की नापी करके निशान लगा देंगे, फिर हम आवश्यक कार्रवाई के उपरांत आपके पास लीज का पेपर भिजवा देंगे। अगर वैधानिक कार्रवाई के तहत इसके लिए सचिव और मंत्री तक से स्वीकृति लेने की जरूरत होगी तो मैं वह भी करूँगा। कहिए, अब तो आप खुश हैं न।'

तौफीक ने दोनों हाथ जोड़ दिये, 'आपका बहुत बहुत धन्यवाद, सर...बहुत बहुत धन्यवाद।' कृतज्ञता से उनके स्वर आर्द्र हो गये। उपायुक्त ने उनके जुड़े हुए हाथ को अपनी हथेलियों में भरकर अपनी छाती से लगा लिया, 'तौफीक साहब, धन्य तो आज मैं हो गया हूँ...अपनी आठ साल की नौकरी में मैंने हजारों आदमियों से डील की लेकिन आपके जैसा ठोस और सच्चा आदमी मुझे पहली बार मिला। आपकी योजना क्या रूप लेती है, मैं जहाँ भी रहूँ, मेरी निगाह टिकी रहेगी।'

तौफीक ने उनकी आत्मीयता से उत्साहित होकर चलते-चलते भैरव, सल्तनत और कुछ खास-खास लड़कों से विशेष परिचय करवाया। वे खुश हुए कि गाँव में जागरूकता व एकजुटता की ऐसी कल्याणकारी हवा बहायी जा रही है।

तौफीक का यहाँ से निकलकर बैंक जाने का कार्यक्रम था। भारतीय स्टेट बैंक की स्थानीय शाखा में उनका एक पुराना दोस्त अधिकारी था। वे एक ट्रैक्टर फाइनांस करने के बारे में बात करना चाहते थे। कार्यालय से बाहर आकर उन्होंने दो लड़के तारानाथ और चन्द्रदेव को अपने साथ ले लिया और बाकी सबको सल्तनत एवं भैरव के साथ लगा दिया। कार्यालय परिसर से बाहर निकलकर वे बाजार की तरफ कुछ ही कदम चले होंगे कि पीछे की एक सकरी गली से अचानक सायँ-सायँ करके दो गोलियाँ चलीं और एकाध फुट के फासले से उनके बायें से निकल गयीं। वे बाल-बाल बच गये। यह स्पष्ट था कि निशाना उन्हें ही बनाया गया था। भैरव अपने ग्रुप के साथ कुछ ही दूर आगे बढ़ा था। सभी लोग दौड़कर उसके पास आ गये। सल्तनत बदहवास थी मगर तौफीक मुस्करा रहे थे। अब उसे यकीन हो गया था कि दुश्मनी किस स्तर तक नीचे गिरकर जान तक लेने पर उतारू हो गयी है। सल्तनत ने जरा घबराते हुए कहा, 'मामू, घर चलिए...बैंक का काम किसी और दिन होगा।'

तौफीक ने वहाँ मौजूद एक-एक कर सभी चेहरेां का जायजा लिया, फिर कहा, 'सल्तनत, हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं, वहाँ शिकस्त खानेवाले कायर इस तरह के हमले बारबार करेंगे। हमें इसके लिए तैयार रहना होगा कि हममें से किसी को कभी भी गोली लग सकती है, किसी की भी जान जा सकती है। दरअसल हम एक युद्ध लड़ रहे हैं भ्रष्टाचार और हरामखोरी के खिलाफ। मोर्चे पर साथ लड़नेवाले सिपाही घायल हो जाते हैं या मर जाते है, युद्ध फिर भी जारी रहता है। हमें भी इसी सहनशीलता का परिचय देना होगा। तुमलोग जाओ, मैं बैंक का काम कर ही लेता हूँ।'

तौफीक तारानाथ और चन्द्रदेव के साथ चल पड़े। सल्तनत हैरत से उन्हें जाते हुए देखती रह गयी। भैरव से उसने पूछा, 'कहीं उनलोगों ने पीछा करते हुए फिर निशाना साध लिया तो? '

भैरव ने कहा, 'यह आशंका उनके दिमाग में भी जरूर उभरी होगी...वे विशेष चैकसी बरत लेंगे। हो सकता है पुलिस को भी इत्तिला कर दें। चलो तुम फोन कर लो। इस तरह के हमले हमारे ऊपर भी हो सकते हैं।'

सल्तनत के चेहरे पर एक मायूसी उतर गयी। घर लौटी तो उससे खाना खाया न गया। लेट गयी वह चुपचाप। शाम को भैरव आया तो उसे समझाकर उसका जी बहलाने लगा, 'गीदड़भभकी देकर वह डराना चाहता है हमें। इतना आसान नहीं है किसी को मार देना। साले को जिंदगी भर जेल में चक्की पीसनी होगी। मरनेवाला तो मर जाता है लेकिन मारनेवाले की जिंदगी भी कम तबाह नहीं हो जाती है।'

'जिसकी पहुँच, ठेक और धाक होती है उसकी जिंदगी पर कोई फर्क नहीं पड़ता।'

'ठीक है तो हमलोगों ने हाथों में कौन-सी मेंहदी लगा रखी है। अगर उसकी ओर से गोलियाँ चलेंगी तो हम भी चुप नहीं बैठेंगे। मुँहतोड़ जवाब देंगे।'

'भैरव, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम टेकमल को पुख्ता भरोसा दिला दें कि हम उसके रास्ते में रोड़ा नहीं हैं और नाहीं हम उसकी कुर्सी के दावेदार हैं। हमें सिर्फ इस क्षेत्र के विकास और किसानों की खुशहाली से मतलब है। वह अगर इसमें मदद कर सकता है तो ठीक है, नहीं कर सकता है तो वह अपने रास्ते चले और हमें अपने रास्ते चलने दे। टकराव की कोई वजह ही न हो बीच में।'

'सल्तनत, ऐसा नहीं हो सकता। यहाँ कुछ भी होगा...विकास होगा, या विकास नहीं होगा, तो जाहिर है उससे टेकमल निरपेक्ष नहीं रह सकता। होगा, ऐसा वह चाहता नहीं, चूँकि इसमें मेहनत चाहिए, ईमानदारी चाहिए...और उसके बिना होगा तो श्रेय किसी और को मिलेगा और इसे निंदा का पात्र बनना होगा। इसलिए वह अपनी भलाई सिर्फ इसमें देखता है कि यहाँ कुछ भी न हो। दूसरे के जरिये से हो तो यह उसके लिए और भी आपत्तिजनक है। वह बर्दाश्त नहीं कर सकता इसे। अब हमें तय करना है कि हम क्या करें? एक गलत और गलीज आदमी से डर जाने की वजाय उसे रास्ते से हटा देना हमारे मिशन की सार्थकता है।' भैरव ने अपनी बात खत्म करके उसका चेहरा देखा...अब भी उदास और विरक्त था। उसने उसे छेड़ने की मुद्रा बना ली, 'एक बहादुर लड़की आज इतना कमजोर क्यों दिख रही है?'

सल्तनत की आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे। उसने कहा, 'आज हमारे बीच से कोई एक चला जाता तो हम कैसे झेल पाते इस सदमे को और कैसे बढ़ा पाते अपना अभियान! '

'बस भी करो सल्तनत, तुम तो आज जैसे एकदम पिघला हुआ मोम बन गयी हो। नीचे चलो, चाय पीते हैं। अब तक तौफीक अंकल भी आ गये होंगे।'

नीचे सचमुच तौफीक आ गये थे और चाय का दौर चल रहा था। तौफीक ने बताया, 'बात पक्की हो गयी है। एक महीने के भीतर हमें ट्रैक्टर मिल जायेगा।'

'सिक्यूरिटी के तौर पर जमीन बंधक एवं नगद भुगतान करने की भी व्यवस्था करनी होगी।'

अम्मा ने कहा, 'जमीन बंधक करना है तो मैं कर दूँगी।'

'तुम्हारे करने की जरूरत नहीं है...मैं अपने हिस्सेवाली जमीन मॉर्गेज कर दूँगा। रही बात डाउन पेमेंट की...वह भी इंतजाम हो जायेगा। मेरे संपर्क के कुछ बिजनेसमेन साथी हैं। थोड़ा-थोड़ा चार-पाँच साथी से ले लेने से काम निकल आयेगा। कुल कीमत का कम से कम दस प्रतिशत यानी चालीस हजार रुपये लगेंगे।'

'अंकल, आप तो हमलोगों के लिए संकट मोचक बन गये हैं। कोई भी समस्या हो समाधान तुरंत हाजिर है। उपायुक्त को जिस तरह आपने कन्विंस किया, किसी के लिए भी संभव नहीं था। टेकमल को वहाँ से निकलकर जाते देखने के बाद मुझे तो कोई उम्मीद नहीं थी।' भैरव ने अम्मा को विस्तार से पूरा प्रकरण बताया।

'सच पूछो तो उम्मीद मुझे भी नहीं थी। लेकिन मैं इसमें विश्वास करता हूँ कि बिना धैर्य खोये आदमी को अंतिम समय तक कोशिश जारी रखनी चाहिए। डीसी के रजामंद होने में मुझे अपने से ज्यादा उस डीसी का ही कमाल दिखता है कि वह एक बहुत ही इंसाफपसंद, ईमानदार और कोमल-हृदय आदमी है। इसके रहते हमलोग ज्यादा से ज्यादा जितना कर सकते हैं, कर लें। किसी क्षेत्र के विकास की एक कुंजी अगर वहाँ के चुने हुए जनप्रतिनिधियों के हाथ में होती है तो दूसरी कुंजी इन जिलाधिकारियों के पास भी होती है। तो कम से कम एक कुंजी के उपयोग का रास्ता तो हमारे लिए आसान हो ही गया है।'

'यह सब तो ठीक है, तौफीक मियाँ...हमें बहुत अच्छा लग रहा है सुनकर। मगर गोली चलानेवाले को कैसे रोकोगे? सल्तनत का मुँह देखो जैसे इसे साँप सूँघ गया हो।'

'सल्तनत...क्या हो गया तुम्हें? जब तक हमें कुछ नहीं हुआ तब तक कुछ हो जाता इसकी चिंता कतई नहीं करनी चाहिए। इससे हमारे मनोबल पर असर पड़ता है। गोली तो चलनी ही है...और चलेगी भी...टेकमल जैसे लोग जब निरुत्तर, असहाय और खारिज होने लगते हैं तो प्रतिद्वन्द्वी को मार देना...मिटा देना ही इनके पास एकमात्र उपाय रह जाता है। लेकिन हम उसे ऐसा करने के लिए आजाद नहीं छोड़ देंगे। हम उसी की भाषा में उसे जवाब देंगे। फिलहाल हमें अगले कार्यक्रम पर अपना ध्यान केन्द्रित करना है।'

'क्या है अगला कार्यक्रम ?' अम्मा ने पूछा।

'अभी से ही हमें फुलेरा बाँध की जमीन को तैयार करने में लग जाना होगा। उसे समतल बनाना, उससे रोड़ा-पत्थर और झाड़-काँटे आदि की सफाई करना, उसकी मेड़ डालकर घेराबंदी करना आदि कई काम हैं जिन्हें ट्रैक्टर आने के पहले कर लेना है। भैरव, तुम अपने पिता प्रभुदयाल जी को बोल देना, जरा वे देखभाल कर दें। वे एक पक्के किसान हैं। उनसे यह भी मशविरा करना है कि उस मिट्टी में कौन-सी फसल ज्यादा माकूल रहेगी।'

'ठीक है, मैं उन्हें कल ही बुला लेता हूँ।' भैरव ने कहा।

'नहीं, अभी उनका उस जगह पर जाना ठीक नहीं है।' सल्तनत ने हस्तक्षेप किया।

भैरव ने जरा नाराजगी की भंगिमा बना ली, 'सल्तनत, तुम तो लगता है जैसे किसी प्रेत कुएँ में फँस गयी हो जिससे निकलना ही नहीं चाहती।'

'सल्तनत ठीक कह रही है, भैरव...मेरा ही ध्यान इस तरफ नहीं गया था। उनका अभी वहाँ जाकर कोई काम करवाना वाकई निरापद नहीं है। तुम उन्हें यहाँ बुलाकर ले आना।' तौफीक ने सल्तनत का समर्थन करते हुए कहा।

'मेरी समझ से उस जमीन में मूँगफली और गन्ने की फसल बहुत बढ़िया हो सकेगी। चूँकि ये दोनों ही फसलें बलुआही मिट्टी में खूब अच्छी जमती हैं। उस बाँध में जिनके खेत हैं वे यही दो फसलें उगाते हैं। पइन बनाकर सकरी नदी का पानी अगर वहाँ तक लाया जा सके तब इसमें धान की भी जोरदार खेती हो सकती है। आगे प्रभु दयाल से पूछना ज्यादा फायदेमंद होगा।' अम्मा ने अपनी राय दी।

'कल जब सभी लड़के आयें तो उनसे बात कर लेनी हैं कि इसे कामयाब करने के लिए शुरुआत के कुछ दिन जमकर पसीने बहाने होंगे...वे मानसिक रूप से तैयार होकर परसों से भिड़ जायें। सदस्यों की संख्या 42 है और जमीन का कुल रकबा तकरीबन डेढ़ सौ बीघा होगा...मतलब एक आदमी पर लगभग चार बीघा की मेहनत। ज्यादा नहीं है...शहर में अगर इतना ही क्षेत्रफल में कोई कारखाना खुल जाता तो उससे हजारों आदमी की आजीविका चलने लगती। यहाँ भी हम इसे कारखाने की तरह ही चलायेंगे और साबित करेंगे कि कृषि को भी उद्योग की तरह लाभप्रद और कारगर बनाया जा सकता है।' तौफीक अपनी दूरदर्शिता की नयी-नयी तहें खोलने लगे।

'साबित होगा अंकल, जरूर होगा। लोग खेती से भागकर उद्योग की तरफ जाते हैं। आप उद्योग से निकलकर खेती की तरफ आये हैं। आपका तजुर्बा...इस उम्र में भी आपकी श्रमशीलता और यहाँ के लड़कों की एकजुटता तथा उत्साह...जकीर का आत्मोत्सर्ग और अम्मा की प्रेरणा...सबका योग सफलता ही नहीं किसी बड़ी सफलता का जन्म देगा।' भैरव ने बड़े आह्लादित होकर कहा।

'तुम्हारी यही अदा मुझे सबसे अच्छी लगती है, भैरव कि तुम गजब के आशावादी और सकारात्मक व्यक्ति हो। नेतृत्व करने वाले कमाँडर को इसी तरह होना चाहिए।' तौफीक ने उसकी पीठ सहलायी।

तौफीक अपना ज्यादा समय या कहा जाये सोने के बाद का पूरा समय अम्मा के घर पर ही व्यतीत करते थे। सारी गतिविधियाँ वहीं से संचालित हो रही थीं। खाना-पीना-नाश्ता-चाय सबकुछ वहीं होता था। सल्तनत, निकहत व मिन्नत ने तो अम्मा के घर को ही पनाहगाह, दरगाह और इबादतगाह मान लिया था। तौफीक सिर्फ सोने के लिए अपना घर आते थे। दो-चार बार तो अम्मा कह भी चुकी थी कि उसका इसी घर में सोना ज्यादा ठीक रहेगा। उसका अकेलापन भी नहीं रहेगा और इस घर में एक मर्द होने का सुरक्षा कवच भी मिल जायेगा। तौफीक को लगा कि यह प्रस्ताव ठीक है। इसी बीच मतीउर का जवाब आ गया कि वह गाँव आ रहा है तो उन्होंने यथास्थिति को बहाल रखा। एक सुबह वे सोये ही थे कि दरवाजे पर दस्तक हुई। टेकमल की आक्रामकता की वजह से अब उन्हें जरा सचेत होकर रहना पड़ रहा था। जाँच-परखकर उन्होंने दरवाजा खोला तो सामने शफीक, उसकी बेगम, अतीकुर और मुजीबुर खड़े थे। तौफीक ने अपने भाई और भौजाई को सलाम कहा। दोनों में किसी ने जवाब नहीं दिया...अतीक-मुजीब भी मुँह घुमाये हुए थे। बिना कुछ बोले वे घर के अंदर चले गये। वे क्या पूर्वाग्रह लेकर किस मंशा से आये हैं, उनके आवभाव ने पूरी तरह स्पष्ट कर दिया। तौफीक समझ गये कि इनसे रिश्ते सामान्य करने की शायद अब कोई भी कोशिश बेकार है। चुपचाप अपने कमरे में जाकर उन्होंने फिर लंबी तान ली।

दिन चढ़े तक वे सोकर उठे तो देखा घर में काफी चहल-पहल मची है। रोजा, नमाज और शरीयत के प्रति निष्ठा बरतने की कायल आसपास की औरतें शफीक बहू से किस्सा-कहानी में मशगूल हो गयी थीं। इदरीश भी उनकी खिदमत में आ जुटा था और दुकान से सौदा-सुलुफ लाने की भाग-दौड़ कर रहा था। करामत, नन्हकू, फुनन मियाँ आदि भी आकर मीटिंग-सीटिंग व काना-फूसी करने लगे थे। रसोई में सालन आदि बनने की खुशबू उठने लगी थी। तौफीक को लग रहा था जैसे घर में वह कोई ऐसा मुसाफिर हो जिससे यहाँ कोई परिचित नहीं। उसे एक विचित्र और खतरनाक मोर्चाबंदी किये जाने की बू आने लगी। वे धीरे से उठे और बिना किसी नित्य क्रिया के कपड़े आदि लेकर अम्मा के घर आ गये। यहाँ जब पूरी कमेंटरी सुनायी तो सब सकते में आ गये। सल्तनत ने अतीक और मुजीब के आने की खबर अपनी अम्मी को दी। सुनकर उसकी आँखें चमक उठीं। उसने पूछा, 'मतीउर कब आयेगा? '

सल्तनत प्रसन्न होकर उसका मुँह देखने लगी। कौन कहता है कि उसकी अम्मी पागल है। इसे पूरा होश-हवाश है और सब कुछ याद है। सल्तनत ने उसे गले से लगा लिया, 'अम्मी, आज तूने साबित कर दिया कि तू बिलकुल ठीक हो गयी है। तुम्हें भली-चंगी देखने के लिए मैं बहुत-बहुत तरसती रही हूँ, अम्मी। निकहत,' उसने हुलसते हुए निकहत को आवाज लगायी, 'देखो, निकहत, अम्मी एकदम ठीक हो गयी है। मतीउर को याद कर रही है, उसके बारे में पूछ रही है।'

पास आकर निकहत ने अम्मी की आँखों में झाँका, उनमें ढेर सारी ममता थी...ढेर सारी समझदारी थी और ढेर सारी जिजीविषा थी। निकहत की आँखें भर आयीं। उसने कहा, 'अगर तुम सचमुच ठीक हो गयी हो अम्मी तो अब भी हम दो बची बहनों की बलैया उतार दो। किसी की नजर लग गयी तुम्हारी बेटियों को। एक पागल बना दी गयी माँ के बच्चों का कुछ भी ठीक नहीं होता। तुम्हारी ममता और लालन-पालन की छतरी के बिना हमारी जिंदगी देखो अम्मी कैसे तितर-बितर हो गयी। तुम्हारी सभी बेटियों को तुम्हारा अभिशाप झेलना पड़ा। जवान हो रही बेटियों को माँ की निगहबानी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है...सच अम्मी, तुम्हारे बिना हमें ठीक से जवान होना भी नहीं आया।'

निकहत जैसे एक आर्तनाद कर रही थी जो सीधे मिन्नत के सीने में उतरती चली गयी। निकहत को वह देखने लगी और जार-जार रोने लगी। अचानक उसके कंठ से स्वर फूट गया, 'मुझे माफ कर देना, बेटी। कब और कैसे मेरा दिमाग गैरहाजिर हो गया, मुझे कुछ पता नहीं। मैं काफी अर्से से समझने लगी हूँ कि मेरे बिना तुमलोगों ने बहुत दुख झेले हैं।'

तीनों माँ-बेटियों ने एक-दूसरे के गले लगकर खूब आँसू बहाये। दूर से खड़े तौफीक और अम्मा इन्हें देख रही थीं। उन्हें लग रहा था जैसे बेटियों से बिछड़ी माँ आज एक मुद्दत बाद वापस मिली है। दोनों ही यह सोच रहे थे कि मिन्नत अगर ठीक होती तो सचमुच इनके साथ जो ज्यादतियाँ हुईं, वे कतई नहीं होतीं।

सल्तनत ने अपनी माँ को बताया, 'तुम्हारा मतीउर यानी हम सबका मतीउर जल्दी ही आनेवाला है। वह शायद तुम्हें छोड़कर अब कहीं नहीं जायेगा। जाने भी मत देना उसे...तुम्हारे प्यार-दुलार के बिना उस लड़के का भी बहुत कुछ खो गया है। न उसे बचपन मिला, न उसे तालीम मिली, न उसे अच्छा भविष्य मिला।'

'मेरा अतीक-मुजीब कैसा है? वह गाँव आया है...मुझसे मिलने नहीं आयेगा? '

'हाँ, अम्मी...तुम्हारा अतीक-मुजीब गाँव आया है लेकिन वह तुमसे मिलने आयेगा या नहीं यह मैं नहीं जानती। वे कैसे हैं...हम कैसे हैं, यह जानने और बताने का अधिकार ही उसने हमसे छीन लिया। इसलिए उनके बारे में कुछ नहीं मालूम।' सल्तनत की आवाज एक आंतरिक पीड़ा से सनी थी।

'वे कहाँ हैं? मैं मिल आऊँ उनसे?' उतावलेपन से पूछा मिन्नत ने।

'वे बगल वाले अपने घर में ही हैं। तुम जरूर जाओ, अम्मी...तुम उनकी माँ हो...तुम हमारे बीच पुल की तरह बनी रहती तो शायद हम एक अच्छे भाई-बहन के तौर पर रिश्तों में हमेशा गुँथे होते। मैं तो अब भी उन्हें बहुत मिस करती हूँ, अम्मी...तुम्हारे हवाले से वे अगर हमें वापस मिल जायें तो यह हमारी एक बड़ी खुशकिस्मती होगी।'

तौफीक और अम्मा का ध्यान इन पर लगातार टिका था। सल्तनत की उदात्तता और बड़प्पन एक बार फिर उन्हें अभिभूत कर गया था। वे आज तक इस लड़की का थाह न ले सके कि इसके जिगर में प्रेम और करुणा की कितनी विशाल सरिता प्रवाहित है। जुल्म सहने की दशा में पत्थर की तरह वज्र हो जाती है और जब भावुक होती है तो किसी झरने की तरह बहने लगती है।

मिन्नत उठकर बेटे से मिलने चल पड़ी। मन में कोई आन-गुमान नहीं लाया कि वे खुद क्यों नहीं आये...यह क्यों जाये? माँ इसी बिन्दु पर माँ हो जाती है...कैसी भी हों उसकी औलाद...कैसा भी वे व्यवहार करें...माँ उनके साथ उदार रहेगी, स्नेहिल रहेगी, दयामयी रहेगी। अपने बच्चों के हर सितम का जवाब वह अपनी ममता से ही देगी। वह तेजी से घर की चैखट पार कर गयी। वे पता नहीं अपनी माँ के प्रति अपनी उपेक्षा के लिए कितना शर्मिंदा होंगे लेकिन एक माँ आज फिर सिद्ध करेगी कि उसका मातृत्व अजेय है।

धीरे-धीरे चलती हुई मिन्नत अपने पुराने आंगन में दाखिल हुई। शफीक बहू ने उसे सबसे पहले देखा तो बस देखती रह गयी। साफ-सुथरा, अच्छा-भला हुलिया और सीधी-सधी चाल। उसने आवाज लगायी, 'अतीक-मुजीब, देखो तुम्हारी अम्मी आयी है।'

दोनों निकलकर बाहर आये और पहले तो हैरत से देखते रहे फिर अस्लावलैकुम कहा।

'जीते रहो,' मिन्नत ने जवाब दिया। वे दोनों जैसे निहाल हो गये। बचपन से ही उन्हें याद नहीं कि अम्मा ने इस तरह बोलकर आशीर्वाद दिया हो।

'अम्मी, तू ठीक हो गयी? ' अतीक ने पूछा।

'क्यों, तुम्हें यकीन नहीं आ रहा।'

'खुदा का लाख-लाख शुक्र अम्मी...हम तो नाउम्मीद हो गये थे कि तुम्हारी दुआओं की नियामत अब हमें इस जनम में कभी नहीं मिलेगी।' मुजीब ने कहा

'बस अम्मी, तुम हमारे साथ चले चलना। बहुत तकलीफ झेल ली तुमने...अब वहाँ चैन व आराम की जिंदगी बसर करना।' अतीक ने पूरा सम्मान और अधिकार जताते हुए कहा।

मिन्नत ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। बात बदलते हुए पूछा, 'शादी कर ली तुम दोनों ने? '

'हाँ, कर ली...हमारे दो-दो बच्चे भी हैं।'

इसी तरह वे काफी देर तक कमरे में बैठकर बातें करते रहे। शफीक माँ-बेटों के इस लगे दरबार को दूर से ही देख रहा था, मगर अपनी बहन से सामना करने की उसे हिम्मत नहीं हो रही थी। उसे अपनी सारी दुष्टताएँ और ज्यादतियाँ याद आ गयी थीं ।

अंत में अतीक ने गाँव आने के अपने मकसद का हवाला देते हुए कहा, 'तुम अब ठीक हो गयी हो अम्मी तो सल्तनत और निकहत को ठीक रास्ते पर लाओ। बहुत जगहँसाई हो रही है इनके चलते। अगर ये नहीं मानेगी तो अंजुमन कमिटी ने इन्हें बिरादरी और कौम से निकाल देने का मन बना लिया है। सोचो, तब हमारी क्या इज्जत रह जायेगी...हम कहीं के नहीं रह जायेंगे...न घर के न घाट के। तौफीक मामू भी सनक गये हैं और तरक्कीपसंद बनने के जोम में दोनों बहनों को झाँसी की रानी बनाने पर तुल गये हैं। तुम समझाओ कि वे इदरीश के साथ रहें...इदरीश बहुत अच्छा शख्स है। हम जब से आये हैं हमारी तीमारदारी में लगा है। वह उनका अच्छी तरह खयाल रखेगा और परवरिश करेगा। उसे कुछ मदद चाहिए होगी तो हम देंगे।'

बिना जवाब दिये मिन्नत चलने के लिए खड़ी हो गयी।

मुजीब ने पूछा, 'तुमने कुछ कहा नहीं, अम्मी ?'

'तुम सभी बड़े हो गये हो...मेरे कुछ कहने का वक्त निकल गया है। अपने बारे में तुमलोग खुद फैसले लेने लायक हो गये हो। मेरी मुराद बस इतनी है कि किसी के साथ नाइंसाफी न हो।'

'अम्मी, एक मिनट रुकना।' अतीक ने कहा तो मुजीब ने एक थैला लाकर मिन्नत के हाथों में थमा दिया।

'इसे लेते जाना, अम्मी...तुम्हारे लिये कुछ कपड़े हैं और कुछ खाने का सामान।' मुजीब ने कहा।

थैला लेकर मिन्नत चल पड़ी। अतीक ने याद दिलाते हुए कहा, 'आते रहना, अम्मी...अभी हम कुछ दिन रहेंगे यहाँ।'

बिना कुछ बोले मिन्नत चल पड़ी।

मिन्नत ने टुकड़े-टुकड़े करके वहाँ का वाकिया यहाँ सुना दिया। उनके बर्ताव से इन्हें खुशी हुई। सल्तनत ने तो ऐसा सोचा ही नहीं था। सच ही कहा है कि दिल से पुकारो तो अपना खून उफन पड़ता है। अपनी माँ के लिए उनके मन में अभी भी जगह बची हुई थी, इसीलिए उसे ध्यान में रखकर कपड़ा, बिस्कुट, खजूर, चनाचूर आदि सौगात लेते आये। यह अच्छा संकेत था पुल के पूरी तरह ध्वस्त न होने का। सल्तनत के भीतर फिर उनके लिए लगाव अँखुवाने लगा। उसका जी भी उन्हें देखने के लिए मचल उठा लेकिन बीच की दरार इतनी चैड़ी थी कि उसे हठात पाट लेना उसके लिए आसान नहीं था। चुनांचे वह छत पर चढ़कर आँगन में या फिर बाहर के रास्ते पर ध्यान टिकाये रखने लगी। कहीं तो दिख ही जायेंगे इन नामुरादों के जलवे। ममानी का मगज देखो, यह नहीं हुआ कि जरा झाँक लें इस तरफ। तौफीक मामू ने देखा कि वे बुरी तरह उनसे मुँह फुलाये हुए हैं तो उन्होंने तय कर लिया कि उनके रहने तक वहाँ न जायें तो ज्यादा बेहतर होगा। नाहक उन्हें भी खलल पड़ती होगी और माहौल देखकर उनका भी जी खराब होता है। अपना कामचलाऊ बोरिया-बिस्तर लेकर वह इस पार ही चले आये।

आगे पता चला कि दोनों भाई रोजा-नमाज के खूब पाबंद हो गये हैं और मस्जिद जाकर पाँचों वक्त की नमाज अदा करते हैं। सल्तनत की नजर फिर तो उन पर बार-बार पड़ने लगी...घर से मस्जिद और मस्जिद से घर जाते हुए। उसे अजीब-सी वितृष्णा हुई। इतनी ऊँची तालीम एमए, पीएचडी करके आदमी क्या ऐसा बन जाता है...एकमुखी, दकियानूस, फिरकापरस्त, कट्टर ? कैसा हुलिया बना लिया है दोनों ने...लंबी दाढ़ी, सिर पर छोटे-छोटे बाल, चूड़ीदार पाजामा और लंबी शेरवानी...पूरी तरह टिपिकल मौलवी-मुल्ला और पीर-फकीर वाला वेश। इस उम्र में तो इन्हें पतलून-शर्ट और क्लीन शेव में दूर से ही स्मार्ट दिखना चाहिए था। इतनी अच्छी शक्ल-सूरत है...दप-दप गोरा, भरा-पुरा, काया छह फुट की। सल्तनत को ताज्जुब हुआ कि जिस तौफीक मामू की देखरेख में इन्होंने दुनियादारी का पहाड़ा पढ़ना शुरू किया, उन्होंने तो कभी रोजा-नमाज नहीं किया...मजहब के चश्मे लगाकर इंसान को खानों में बाँटने का काम नहीं किया, फिर भी वे इंसानियत के सबसे बड़े प्रचारक रहे... ढोंग और पाखंड के कटु आलोचक रहे। इन्हें देखते हुए भी ये लड़के पता नहीं कैसे उलटी दिशा की तरफ बढ़ते चले गये? खबर आने लगी कि कभी मस्जिद में, कभी मदरसे में, कभी घर में दाढ़ीछाप लोगों के साथ इनकी खूब बैठकें हो रही हैं। इनके सामने जो एकसूत्री कार्यक्रम था वह किसी से छिपा नहीं रह गया था।

बताया जा रहा था कि करामत और नन्हकू के कहे अनुसार वे उनके फैसले को लागू करवाने के लिए कई स्तरों पर प्रयास कर रहे हैं। टेकमल से भी इनकी नजदीकी करवा दी गयी थी और अब उसके पास इनका आना-जाना जारी हो गया था। कुछ लोगों के लिए यह बड़ा थ्रिलिंग होता है कि कोई भी सूत्र तलाश कर किसी नामी-गिरामी आदमी के आसपास मँडराते रहें...उनके खाँसने-छींकने की अदा की दाद देते हुए बलि-बलि जायें। अतीक-मुजीब इसी मनोवृति के शिकार थे। टेकमल से जान-पहचान बढ़ जाने से उन्हें लगा जैसे उनकी हैसियत जरा तगड़ी हो गयी।

एक दिन कोई लड़का जकीर की अम्मा को बुलाने आ गया कि शफीक बुला रहे हैं। अम्मा को गुस्सा तो बहुत आया कि बड़े नवाब के नाती हो गये हैं कि बुला रहे हैं। खुद यहाँ आकर मिलने में क्या उसे शर्म आ रही थी कि पाँव में बेड़ी पड़ी थी। मन तो इनकार कर देने का था कि जाओ मैं नहीं जाती। लेकिन वह चली गयी कि कंबख्त को इतनी भी तमीज नहीं है तो जायें जहन्नुम में...हमारा क्या बिगड़ेगा। अम्मा वहाँ चली गयी। शफीक और ममानी ने बड़े अदब से उन्हें बैठाया और हाल-समाचार पूछा। फिर अपने मतलब पर आ गये, 'अम्मा, तुम्हीं एक हो जिसके चाहने से सब कुछ ठीक हो सकता है।'

'मैं समझी नहीं, शफीक...क्या गड़बड़ है जिसे तुम ठीक करना चाहते हो? अब तक तो जो भी गड़बड़ियाँ हुई है, उसके किरदार तुम्हीं रहे हो। आज जब तुम नहीं हो तो कहाँ और कैसे गड़बड़ हो गयी? '

'अम्मा, मेरी मुराद सल्तनत और निकहत से है। उन्हें आपने अपने घर में पनाह दे रखा है...जहाँ भैरव कमीने के आने-जाने पर कोई रोक-टोक नहीं है। लिहाजा ये लड़कियाँ बदमिजाज और ढीठ होती चली गयीं। इदरीश हमलोगों का लिहाज करके अब तक चुपचाप है। पंचायत में उसका जाना लाजिमी था। अब हमलोगों का यह फर्ज है कि पंचायत की ताकीद को अमल में लायें। आप मदद कीजिए हमें।'

'शफीक, पंचायत तो पहले इस बात पर लगनी चाहिए कि तुमने एक अंधे और बहरे की तरह इन दोनों बहनों को एक ऐसे अंधे कुएँ में ढकेल दिया जिसमें एक दरिंदे का निवास था। पंचायत तो इस बात पर होनी चाहिए कि तुमने अपनी बहन मिन्नत को अत्याचार की चक्की में पीसकर उसे और भी पागल बना दिया। तुम किसी खुशफहमी में मत रहना, तुम्हारे दिन अब लद गये हैं। पनाह उन्हें अपने घर में मैंने नहीं दिया, बल्कि उन्होंने नया जीवन देकर मुझे दिया है इस दुनिया में, वरना जकीर के गुजर जाने के बाद मैं भी जिन्दा कहाँ रह गयी थी।'

'ठीक है, मुझे जो कहना था कह दिया, अब आगे जो होगा उसे सँभाल लेना। अब यह तय हो गया है कि यहाँ के मुसलमान इस भैरव को अपनी आबरू से लगातार खिलवाड़ करते हुए बर्दाश्त नहीं करेंगे।'

'हाँ शफीक, यहाँ के मुसलमान यह बर्दाश्त करेंगे कि उनकी लड़कियों को उन्हीं का एक आदमी कसाई की तरह रोज जिबह करे। यहाँ के मुसलमान यह बर्दाश्त करेंगे कि उनकी खेती-बाड़ी सब चैपट हो जाये और वे बरबाद हो जायें। यहाँ के मुसलमान यह बर्दाश्त करेंगे कि कोई आदमी उन्हें अपने फायदे के लिए भड़काये और वे भड़क जायें। अब भी होश में आओ शफीक, यह भैरव तुम्हारे भले आदमी इदरीश से एक लाख गुना अच्छा है। अब ये बच्चे न हिन्दू हैं, न मुसलमान हैं...इनका कौम अब सिर्फ मुहब्बत है। चलती हूँ...रात में ढंढे दिल से सोचना और अक्ल आ जाये तो आवाज लगा देना, तुमने जो भी गुनाह किये हैं, मैं उनकी माफी दिलवा दूँगी।'

'तुम उनसे माफी दिलवाओगी या उनके किये की सजा भोगोगी, यह तुम्हें जल्दी ही मालूम पड़ जायेगा। तुम जा सकती हो अब।'

'ठीक है, तुम्हारी इस गीदड़भभकी को अपने साथ लेकर जा रही हूँ। तुम्हारे जो तेवर हैं, ऊपरवाला ही तुम्हें बचा सकता है।'

अम्मा चल पड़ी वहाँ से। शफीक और उसकी बेगम हैरान रह गये...इस बुढ़िया के मिजाज की ऐसी ज्यामिति हो सकती है, उसने इसकी कल्पना तक नहीं की थी।

सल्तनत सोच रही थी कि कितना अच्छा हो कि अतीक-मुजीब के रहते मतीउर भी आ जाये। मतीउर उसका सबसे निकटतम नैतिक अवलंब था। जो काम भैरव, तौफीक मामू, अम्मी और अम्मा नहीं कर सकती थीं, वह मतीउर कर सकता था। वह रोज एकबार मतीउर को अपने ध्यान में लाती। जो खिचड़ी पक रही थी मतीउर अकेले उसका स्वाद बेजायका कर सकता था।

सल्तनत का सोचना सच हो गया। मतीउर आ गया गाँव। पूरा घर खुशियों से जैसे नहा उठा...सभी लोग खिलखिला उठे। मिन्नत में तो जैसे एक नयी स्फूर्ति आ गयी। उसका सबसे छोटा बेटा...सबसे पसंदीदा और दुलारा बेटा...उसका सबसे ज्यादा खयाल रखनेवाला बेटा अब उसकी आँखों के सामने था। शहर में रहकर मतीउर का चेहरा जरा खिल गया था और उसकी समझदारी में भी धार आ गयी थी। अपनी अम्मी को स्वस्थ और नीरोग देखकर उसके हर्ष का ठिकाना नहीं था। सल्तनत ने बताया,'जब से अम्मी ठीक हुई, तुम्हें रोज याद करती थी।' मतीउर ने उसके हाथों को अपने कपोलों से सटा लिया।