सल्तनत को सुनो गाँववालो / भाग 7 / जयनन्दन
तौफीक ने कहा, 'मैं इसी पहलू पर आ रहा था। तुमने ठीक कहा तारानाथ, कृषि करना भी किसी के लिए तभी मुमकिन है जब उसके पास पर्याप्त जमीन और साधन हो। तुम सब जानते हो कि अपने देश की सिर्फ तीस प्रतिशत जमीन ही अब तक कृषि योग्य हो पायी हैं और अब भी चालीस से पचास प्रतिशत परती, बेकार और बंजर पड़ी जमीनें ऐसी हैं जो कृषि योग्य बनायी जा सकती हैं। वर्षा का तकरीबन सत्तर से अस्सी प्रतिशत पानी यों ही बहकर बरबाद हो जाता है। उन्हें अगर संग्रहीत कर पायें तो सिंचाई की समस्या का एक करारा समाधान हो सकता है।'
'आप जो रास्ता बता रहे हैं वो किसी व्यक्तिगत के नहीं सरकार के चाहने से ही तय हो सकता है। यहाँ तो आलम यह है कि जो योजना वर्षों पहले मूर्त होकर जनहित के लिए अनिवार्य और लाभकारी सिद्ध हो चुकी हैं, उन्हें कायम और दुरुस्त रखना मुहाल हो गया है। बनी हुई नहर, गड़े हुए बिजली के खंभे और तने हुए तार, रेल की बिछी पटरियाँ और बने हुए स्टेशन, सड़कें, स्कूल...कुछ भी तो सलामत और व्यवस्थित नहीं रह गया है।' इस बार चन्द्रदेव नामक युवा ने अपनी बात रखी। एम. ए. पास करके वह भी एक लंबे अर्से से नौकरी के लिए अपनी चप्पलें घिस रहा था।
'कुछ भी ठीक नहीं है तभी तो संगठित होकर हमें कार्रवाई करने की जरूरत है। फिलहाल हमें तीन जरूरी कदम उठाने हैं...अगले चुनाव में हमें अपने ऐसे प्रतिनिधि को जिताकर भेजना है जो कम से कम इतना ईमानदार जरूर हो कि जनता की धरोहरों और थातियों को बरबाद और बेकार होने से बचा सके। दूसरा कदम है नहर के अस्तित्व में आने के बाद उपेक्षित और बेमरम्मत होकर बेकाम हो गये अपने गाँव के पुराने जल भंडार, आहरों-पोखरों को फिर से पुनर्जीवित करना जिसमें बरसात का पानी जाकर जमा हो सके। इन्हें काम के लायक बनाना जरूरी है। जल संचित रखने के पुराने तरीकों का आज भी कोई विकल्प नहीं है। तीसरा काम है गाँव के पश्चिम में नदी के किनारे परती और बेकार पड़े एक बहुत बड़े रकबे पर यहाँ के सारे बेरोजगार लड़के, नौकरियों के लिए खाक छानना छोड़कर, मिलकर सहकारी खेती शुरू करें।'
चन्द्रदेव और ताराकांत के जैसे वहाँ लगभग डेढ़ दर्जन लड़के मौजूद थे। तौफीक अपनी बात खत्म कर उम्मीद करने लगे कि कुछ सवाल और कुछ संशय उठाये जायेंगे। जब किसी ने कुछ नहीं कहा तो उन्होंने फिर अपनी बात आगे बढ़ायी, 'तुम सभी जिस तरह चुप हो, यह ठीक नहीं है। तुम्हें भीड़ का अंग नहीं बनना है...तुम्हें किसी का अनुयायी या पिछलग्गू होकर नहीं रहना है, बल्कि हरेक को अगली पंक्ति का ध्वजवाहक प्रतिनिधि बनना है। मेरा काम नेता बनना नहीं बल्कि तुम सबको नेता बनाना है। मैंने जो काम गिनाये...सुनने और कहने में जितना अच्छा है, करने में उतना ही मुश्किल है। बहुत सारे अड़ंगे और जोखिम रास्ते में आयेंगे, जिनका एकमात्र उपचार होगा एकजुटता। एकजुटता और सामूहिक नेतृत्व बहुत जरूरी है, इनके बिना कुछ भी नहीं हो सकता...कुछ भी नहीं। जैसे आज तक नहीं हुआ।'
श्रोताओं में भैरव और सल्तनत भी शामिल थे। भैरव ने कहा, 'बैसाख बीतने वाला है और जल्दी ही बरसात शुरू हो जायेगी। अहरा-पोखरा की बांध को दुरुस्त करने का काम तुरंत शुरू कर देना चाहिए। गाँव के बहुतेरे किसान इस काम में साथ देने के लिए तत्पर हैं। सभी चाहते हैं कि धान की अगली फसल किसी भी तरह मारी न जाये। लगातार मारा झेलते हुए सबकी हालत पतली हो गयी है। कल हम सभी लोग घर-घर जाकर सबको सूचना दे दें...परसों से हमें इस काम में लग जाना है।'
सल्तनत ने कहा, 'हरिजन टोली के लोग भी इस काम में साथ देने के लिए राजी हैं। हालाँकि उन्हें कोई खेत नहीं है...लेकिन हमने समझाया उन्हें कि खेती नहीं होगी...फसल नहीं उपजेगी तो उन्हें जो भी मजदूरी मिलती है, कहाँ मिलेगी? मैं कल उन्हें जाकर खबर दे आऊँगी कि वे कुदाल-गैंता लेकर आहर के पास आ जायें।'
'सल्तनत, वहाँ जो भी हरिजन काम करेंगे, उनके लिए सत्तू का इंतजाम करवा लेना...घर में चना और जौ रखे हुए हैं।' पीछे से जकीर की अम्मा ने कहा।
सल्तनत श्रद्धासिक्त होकर उसे देखने लगी। कहा, 'तुम अन्नपूर्णा हो, अम्मा...जब तक हमारे सरों पर तुम्हारा साया है, कोई भूखा नहीं रहेगा।'
'तुमने ठीक कहा, सल्तनत। सबके लिए खाना तैयार है...आपलोग सभी नीचे चलिए।'
सभी लोग भोजन के लिए नीचे चले गये। भैरव ऊपर ही बैठा रह गया। एक किताब पढ़ते हुए उसमें खो गया। थोड़ी ही देर में सल्तनत आ गयी बुलाने, 'चलो, नीचे सभी लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। किताब बाद में पढ़ लेना।'
'निकहत को मैंने बता दिया था कि मैं घर से खाकर आया हूँ।'
'निकहत ने आज खाने की विशेष तैयारी की है, उसका मन रखने के लिए कुछ तो ले लो। तुम्हारे लिए यहीं ले आती हूँ मैं...। '
भैरव के मना करते-करते भी सल्तनत उसकी कुछ मनपसंद चीजें ले आयीं...सेवई, बजका, पापड़, तिलौरी।
'सल्तनत, कहा मैंने कि खाकर आया हूँ...मन नहीं है खाने का।'
'ठीक है, तो मैं भी नहीं खाती।'
'ओफ्फो...ठीक है बाबा, लाओ।'
दोनों एक ही थाली में साथ-साथ खाने लगे। सल्तनत ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा, 'मुझे तुम कुछ परेशान-से लग रहे हो।'
'सल्तनत, तुम अकेले इधर-उधर जाने में जरा एहतियात बरतो। कल हरिजन टोली जाओगी तो मुझे अपने साथ ले लेना।'
'भैरव, जो भी बात है मुझे साफ-साफ बताओ। परेशान करनेवाले जो मामले हैं उन्हें मुझसे शेयर करो, मुझे चिन्तारहित रखने के लिए अकेले घुटते रहते हो। मैं अब तुरंत हाथ लगते ही मुरझाजाने वाली छुईमुई नहीं हूँ।'
'इदरीश को टेकमल ने खुली छूट दे दी है कि वह तुम्हारे और निकहत के साथ कुछ भी सलूक करे, वह उसे संरक्षण देगा। पंचायत का ड्रामा करवाकर उसने नेता व ढोंगी किस्म के मुसलमानों को भी हमारे खिलाफ में खड़ा करवा दिया। अब वे लोग भी इदरीश के समर्थक हो गये। इदरीश अब तुम्हें या निकहत को कहीं भी अकेले देखकर कैसी भी कमीनगी को अंजाम दे सकता है। अगर उसने दबोचकर अपने घर में कैद कर दिया तो उसके चंगुल से छुड़ाना आसान काम नहीं होगा। चूँकि टेकमल के कारण पुलिस-प्रशासन और कौमी-हिमायत आदि सभी मामले में उसकी स्थिति काफी मजबूत हो गयी है।'
सल्तनत ने एक लंबी साँस ली। भय की एक अप्रकट सिहरन दौड़ गयी उसके भीतर, लेकिन वह भैरव को कहीं से भी कमजोर करना नहीं चाहती थी। उसने कहा, 'इदरीश से टक्कर लेने में हम दोनों बहनें सक्षम बन गये हैं, भैरव। वह अगर हमें दबोच भी लेगा तो हम कोई मिश्री की डली नहीं हैं कि वह घोलकर पी लेगा। पहले हम जरा सहमे हुए मुरौव्वत करते रहे, अब हम मुँहतोड़ जवाब देकर उसे छट्ठी का दूध याद दिला देंगे।'
भैरव को अच्छा लगा कि सल्तनत के भीतर प्रेम की सरिता ही नहीं बहती वरन एक दहाड़ती हुई सिंहनी भी निवास करने लगी है। उसने उसके अधरों को चूम लिया।
'इस समय जिस अनुपात में हमारे दोस्त बढ़े हैं उसी अनुपात में लगता है दुश्मन भी खड़े हो रहे हैं। टेकमल को इदरीश के रूप में एक बढ़िया हथियार मिल गया है। पता चला है कि एक मुजरिम के रूप में ढालने के लिए उसने कई तरह की कवायद शुरू कर दी है। एक लड़का रूपेश है, जिसे तुम शायद जानती हो, टेकमल के विश्वासपात्रों की सूची में उसने अपना नाम दर्ज करवा लिया है, लेकिन वह हमारा भी बहुत प्रशंसक है और साथ ही शुभचिंतक भी। वह वहाँ की सारी सूचनाओं से मुझे अवगत कराता है। उसी ने बताया कि इदरीश को टेकमल ने अपने आक्रामक दस्ते में शामिल कर लिया है और उसे बम बाँधने तथा रिवॉल्वर-रायफल से निशाना लगाने की ट्रेनिंग दे रहा है।'
सल्तनत जैसे स्तम्भित हो गयी, भैरव ने उसकी स्थिति ताड़ ली। उसकी हथेली को अपने हाथों में भरकर उसे थपथपाते हुए कहा, 'सल्तनत, घबराने से काम नहीं चलेगा, हमें अब उसी की भाषा में जवाब देने की तैयारी करनी है।'
'उसी की भाषा में तैयारी? मतलब तुम भी गोली और बम-बारूद का रास्ता अख्तियार करोगे? '
'हाँ सल्तनत, करना होगा...दुश्मन अगर हमारी हत्या करने पर आमादा है तो हम उस पर स्नेह बरसाकर उसे नहीं जीत सकते।'
'लेकिन हम जिस लक्ष्य को लेकर चले है उसकी पवित्रता इन खून-खराबों से क्या कलंकित नहीं होगी? '
'जीतना हमारा लक्ष्य हो तो साधन की पवित्रता का आकलन दुश्मन के व्यवहार और औजार तय करते हैं। दुश्मन अगर विश्राम शिविर पर रात में हमला करे तो उसे युद्ध नियम का इकतरफा वास्ता देकर बख्शा नहीं जा सकता, बल्कि उसे उसी वक्त उससे ज्यादा प्रहारात्मक जवाब देना होगा। दुश्मन जाहिल और मूढ़ हो तो उसे शास्त्र ज्ञान कराकर नहीं बच सकते, बल्कि उसी की तर्ज पर हमें भी आचरण करने के लिए मजबूर होना होगा। टेकमल को अपनी कुर्सी हिलती नजर आ रही है, तो वह किसी भी तिकड़म से अपनी धाक कायम रखना चाहता है। हम ऐसा नहीं होने देंगे चाहे जान की बाजी क्यों न लगा देनी पड़े।'
'मैं तुम्हारे मुँह से मिसाल के तौर पर भी ऐसे जुमले नहीं सुनना चाहती। मेरी दुनिया का आदि और अंत तुम्हीं से होता है। तुम्हारे बिना मुझे कोई कामयाबी नहीं चाहिए। मैं इंसान हूँ, देवता नहीं...कम से कम इतना खुदगर्ज होना तो मेरा अधिकार है। जरा याद करो, जब मैं अनशन से मूर्च्छित हो रही थी तो किस तरह तुम बिलबिला रहे थे। सच भैरव, तब मुझे बचाने की तुम्हारी सात्त्विक व्यग्रता और व्याकुलता देखकर मौत की ओर बढ़ते जाने का वाकई मुझे भी अफसोस होने लगा था। आखिर मैं भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ। बल्कि तुम तो मर्द हो, शायद मेरे बिना रह भी लो, मैं तुम्हारे बिना कैसे रह सकूँगी? इसलिए जब भी जोखिम उठाने की बात होगी, आगे मैं रहूँगी। मुझे मरने का डर नहीं है, लेकिन तुम्हारे बिना जीने का डर मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ देता है।'
सल्तनत ने अपना सिर भैरव की छाती पर टिका दिया। भैरव ने छलछलाये हृदय से उसे अपने अंक में भर लिया।
'रूह और जिगर से प्यार करनेवालों के लिए देह की बहुत अहमियत नहीं होती, सल्तनत। किसी की ताबीर बाहर न होकर भीतर हो तो वह ज्यादा स्थायी होता है। हममें कोई एक भी रहे तो क्या हुआ रूह में अंकित ताबीर तो रहेगी ही...उस पर किसी दुश्मन का कोई अख्तियार नहीं हो सकता।'
'भैरव, रूहानी एहसास का दर्शन सुनने में कितना ही अच्छा लगे, फिलहाल तो देह हमारे लिए सबसे बड़ा और असरदार सच है। इसके अनुपस्थित होने की हम आशंका ही क्यों करें? तुम मुझे आज भीतर से एकदम हिले हुए दिख रहे हो। इदरीश कुछ नहीं कर सकता। वह एक बहुत डरपोक आदमी है।'
'सल्तनत, मैं हिला हुआ इसलिए नहीं हूँ कि मैं किसी से डर गया हूँ...दरअसल मुझे अपनी उस तैयारी से सामंजस्य बिठाने में दिक्कत हो रही है, जिसके हम अभ्यस्त न रहे, जो हमारे स्वभाव में नहीं रहा।'
'मुझे साफ-साफ बताओ, तुम क्या तैयारी कर रहे हो? '
'रूपेश, तारानाथ, चन्द्रदेव, रामपुकार, धेनुचंद, खेमकरण, सम्पत आदि लड़कों ने बहुत जोर देकर हमें सुझाया और चेताया है कि कुछ अस्ला और औजार से हमें भी लैस होकर रहना चाहिए।'
'तौफीक मामू क्या इससे सहमत हैं? '
'असहमत भी क्यों होंगे, वक्त की नजाकत और जरूरत तो वे देख ही रहे हैं। तुम्हें जानकर ताज्जुब होगा कि इस काम के लिए अम्मा भी राजी है।'
एकदम खामोश हो गयी सल्तनत... चेहरे का रंग अचानक बदल गया, जैसे किसी सदमाखेज खबर से बावस्ता हो गयी हो। मतलब यह तय हो गया कि कुछ न कुछ अनिष्ट होना है। ये अस्ला और औजार ऐसे हैं कि आमने-सामने दोनों के पास हों तो वे बिना चले नहीं रह सकते...और जब वे चलेंगे तो जाहिर है किसी का खून ही बहायेंगे...किसी की जान ही लेंगे।
सल्तनत की उदासी को भैरव बखूबी समझ सकता था। वह हमेशा इस बात की हिमायत करती थी कि दुनिया जंग से नहीं, मुहब्बत से जीतना ज्यादा आसान है। जिस बदअमनी का उसे खौफ था आखिरकार उसी का हौआ सामने खड़ा हो गया। भैरव उससे तिल भर भी मतभेद नहीं रखता था। परिस्थितियाँ ऐसी न होतीं और सबका दबाव न होता तो वह इस तरह की तैयारी का समर्थन कतई नहीं करता। तौफीक भी खूनी टकराव से उपजे नतीजों के पक्षधर नहीं थे। पक्षधर हुए तो जरूर काफी सोच-विचार किया होगा उन्होंने। अतः यह जरूरी था कि उनके फैसलों और सिफारिशों को सर्वोच्च मान्यता दी जाये। सल्तनत के लिए तौफीक के कुछ तय कर लेने के बाद कुछ भी टिप्पणी करने का कोई हाशिया नहीं रह जाता था। भैरव ने लगे हाथ एक और जानकारी सुपुर्द करने का मन बना लिया। उसने कहा, 'करामत, फजलू और नन्हकू मियाँ आदि ने अतीकुर, मुजीबुर और शफीक मियाँ को गाँव आने के लिए टेलीफोन किया है। उन्होंने पंचायत के फैसले का हवाला देते हुए उन्हें बताया है कि सरेआम जो बेहयाई चल रही है, उस पर लगाम नहीं लगाया गया तो कौम से बाहर करना एक मजबूरी बन जायेगा। चुनांचे एक बार गाँव आकर तुमलोग अपनी बहनों को रास्ते पर लाने का एक आखिरी फर्ज पूरा कर जाओ।'
सल्तनत को बहुत बुरा लगा कि वे यहाँ आकर नाहक अपनी जिद फिर दोहरायेंगे...एक टकराव और तनातनी के माहौल से फिर रूबरू होना होगा। क्या अतीकुर और मुजीबुर अब कुछ बदल नहीं गये होंगे? क्या उन्हें अब तक समझ में नहीं आ गया होगा कि जाति, मजहब और कौम मुसलसल इंसानियत को तकसीम करते हैं? क्या उन्हें इदरीश के मुखौटे के भीतर छिपे भेडिये की जानकारी नहीं हो गयी होगी? क्या गाँव की बदसूरती बदलने की की जा रही उनकी कोशिशों का उन पर कोई असर नहीं पड़ा होगा? अगर वे पूर्व की तरह ही अपनी धारणाओं पर लकीर के फकीर की तरह अड़े होंगे तब तो उनसे काई संवाद और संबंध कायम ही नहीं किया जा सकता। उन्हें उसी रूप में यहाँ महसूस करना एक यातना से ही गुजरने के बराबर होगा। उसने मन को समझाया कि चलो इसी बहाने उन्हें देखने का एक मौका मिल जायेगा।
आहर और पोखर की चैड़ी मेड़ को दुरुस्त करने तथा उनकी गहराई को बढ़ाने का काम निर्धारित समय पर शुरू कर दिया गया। खेती से जुड़े और उस पर आश्रित हिन्दू, मुसलमान, हरिजन, सभी वर्ग के लोग श्रमदान के लिए कुदाल, गैंता और खंती लेकर निकल पड़े। इस मुहिम से सिर्फ मुट्ठी भर वे लोग अलग थे जो राजनीति से प्रेरित थे और टेकमल, इदरीश, करामत, फजलू तथा नन्हकू मियाँ से नजदीकी रखते थे। सामूहिकता का ऐसा नजारा शायद इस गाँव में पहले कभी उपस्थित नहीं हुआ था। ये आहर और ये पोखर कल पानी से पता नहीं कितना भरेंगे, मगर आज एक जोश, एक उत्साह और एक ऊर्जा के बहाव से लबालब भर गये थे। लगभग चालीस-पचास दिनों तक चला यह अभियान...इस दौरान सब के सब एकजुट रहे...किसी के माथे पर एक सलवट न आयी...लग रहा था जैसे हरेक का निजी मसला हो...सबमें ज्यादा से ज्यादा योगदान करने का उतावलापन समाया था। मर्दों के साथ कई कामकाजी औरतें भी साथ देने में कोताही नहीं कर रही थीं। तौफीक, प्रभुदयाल, भैरव, तारानाथ, चन्द्रदेव, रामपुकार, धेनुचंद, खेमकरण, सल्तनत, निकहत आदि सभी ने अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार काम ढूँढ़ लिया था। तौफीक एकदम विभोर थे इस शानदार भागीदारी पर। इतने बड़े पैमाने पर लोग सहयोग करेंगे इसकी उम्मीद उन्हें न थी। उन्होंने सौ-सवा सौ लोगों की ही उम्मीद की थी। उनके भीतर कई छटाएँ और बिजलियाँ कौंधने लगीं। ऐसा जनसमर्थन हो तो गाँव का क्या देश का नक्शा रातोंरात बदला जा सकता है। हर नामुमकिन को मुमकिन का जवाब दिया जा सकता है। ऐसे ही जागरण को कहते हैं पाताल से पानी निकाल लाना। तौफीक साफ-साफ देख और महसूस रहे थे इसके पीछे छिपी उस मेहनत और मशक्कत को जिसे भैरव और सल्तनत ने बूँद-बूँद करके एकत्रित किया था। उन्हें अब लग रहा था कि अनशन पर बैठने का प्रत्यक्ष नतीजा भले न निकला लेकिन उसके अप्रत्यक्ष बहुत सारे फायदे हुए। लोगों का विश्वास पक्का हो गया कि वाकई ये लोग पूरे समर्पण और जी-जान से गाँव के लिए कुछ करना चाहते हैं।
आहर और पोखर दोनों की गहराई अब इतनी हो गयी कि आसपास के सारे लावारिस बहते पानी का इनमें आकर जमा होना तय हो गया। उसकी बाँध भी इतनी पुष्ट, चौड़ी और ऊँची हो गयी कि बाढ़ भी आ जाये तो कटाव का डर न रहा। बाँध पर चारों तरफ वृक्षारोपण कर दिया गया। एक साथ हजारों की तादाद में पेड़ लग गये...महुआ, नीम, पीपल, बड़, बेल, जामुन, आम, साल, सागवान, कटहल, गूलर, पाकड़, ताड़, खजूर आदि। एक पंथ दो काज। पर्यावरण का इस तरह भला इस गाँव में पहले कभी नहीं हुआ था।
इस अभूतपूर्व अभियान की चर्चा गाँव-गाँव से होते हुए अगल-बगल के शहरों तक में पहुँच गयी थी। चाय और पान की दुकानों पर तथा टेकरों, बसों और रेलगाड़ियों में यात्रा करते हुए ग्रामीण बातें करते तो उनमें एक प्रमुख विषय की जगह लतीफगंज का यह कायापलट महायज्ञ ने ले लिया।
टेकमल ने अपने लिए इसे एक चेतावनी के तौर पर लिया। उसने भी कार्यक्रम की इतनी बड़ी सफलता की कतई उम्मीद नहीं की थी। बहुत हलके रूप में लेते हुए उसे लगा था कि चंद सिरफिरों का अपरिपक्व सोडावाटर उफान है, जो एक ही झटके में शांत पड़ जायेगा और फ्लॉप हो जायेगा। जनता सामूहिकता में कुछ करने के लिए भला अब कहाँ संगठित हो पाती है। सबके अपने-अपने पचड़े, दुख, शिकायतें और झंझट हैं जो उन्हें खंडित और विभाजित रखते हैं। टेकमल के लग्गू-भग्गू पहले तो इस कार्यक्रम की खिल्ली उड़ाते रहे और उसे समझाते रहे कि सारा कुछ थोथा बकवास है, इसका कोई परिणाम नहीं निकलना है, चिन्ता करने की कोई बात नहीं है। मगर लोगों की संलिप्तता ज्यों-ज्यों सघन होती गयी और एक आंदोलन की शक्ल लेता हुआ काम ठोस रूप में परिवर्तित होने लगा, उनका मुँह छोटा होता गया...आवाज मद्धम पड़ने लगी और चेहरे का रंग फीका होता गया।
टेकमल ने अपने सारे दरबारियों और चिलमचियों को जबर्दस्त झाड़ पिलायी, 'तुमलोग इसी तरह लफ्फाजी करते रहोगे और हाथ के तोते उड़ते चले जायेंगे। यह खुद ही फ्लॉप हो जायेगा, मानकर खेल बिगाड़ने की कोई कोशिश नहीं की गयी। जबकि आराम से कुछ लोगों को, खासकर जो मेरी जाति के लोग थे, भड़काया और तोड़ा जा सकता था...रंग में भंग डालने के दूसरे उपाय किये जा सकते थे। अब जब इतना बड़ा धक्का लग गया और सारा श्रेय कमबख्त तौफीक, भैरव और बदजात सल्तनत के हिस्से चला गया, कितना मुश्किल होगा एक ही डंडी के दूसरे पलड़े पर उनके मुकाबले तुलकर खुद को वजनदार बनाना? राजनीति में विरोधियों का कद बड़ा हो जाये तो फिर अपनी हैसियत बरकरार रखना लोहे के चने चबाने के बराबर है। आइंदा जरा खयाल रहे कि इनका ऐसा कोई आयोजन सफल न हो।'
सबने पालतू कुत्तों की तरह एक साथ दुम हिलायी और यह संकल्प दोहराया कि आगे उनके किसी भी रास्ते को निष्कंटक नहीं रहने देना है। टेकमल ने स्क्वायड में नये-नये शामिल रंगरूट इदरीश को जरा धमकाते हुए पूछा, 'क्यों इदरीश मियाँ, बाजा लेकर वजनदार बन गये हो और बजाने की कला भी सीख ली है तो कोई राग बजाकर दिखाओगे कि शागिर्दी के नाम पर थू-थू करवाओगे? '
'अब आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा, जनाब। मैं वो सारा राग बजाकर दिखाऊँगा जो दुनिया बदलनेवाले सामाजिक संतों के लिए दुनिया से मुक्ति का मार्ग खोल देगा। इसके लिए राग तांडव हो या राग भैरव...सब बजाऊँगा मैं। बस इस बार के लिए बख्श दीजिए।' उसने अपने जबड़े को रगड़कर अपने नृशंस इरादे का बोध कराया।
टेकमल ने इस जवाब पर अपनी संतुष्टि जतायी।
उम्मीद अब अंकुराने लगी थी कि इस बार खरीफ की फसल मारी नहीं जायेगी। सारे किसान आहर और पोखर के शानदार कायाकल्प पर आह्लादित थे। उन्हें इस बात का अफसोस हो रहा था कि यह काम सबने मिलकर और पहले क्यों नहीं कर लिया? कर लिया होता तो आज जिस जर्जर हालत को भोग रहे हैं, यह नौबत तो न आती। किसी ने कहा था काश, सल्तनत और भैरव का बालिगपन तीन-चार साल और पहले शुरू हो गया होता। तौफीक ने बधाई देने वाले लड़कों एवं किसानों को कहा था, 'यह तो बस एक कामचलाऊ उपाय है...मिशन तो तब पूरा होगा जब नहर का जीर्णोद्धार हो जायेगा और शत प्रतिशत क्षमता के साथ गाँव और जवार के खेतों को सिंचित करने का हौसला जाग्रत हो जायेगा।'
अम्मा बहुत खुश थी। उसे इस बात का मलाल था कि यह दिन देखने के लिए खेती का दीवाना उसका बेटा जकीर जीवित नहीं है। भैरव ने कहा था, 'जकीर हमारे साथ है, अम्मा...वह हमें भरे हुए आहर-पोखर तथा लहलहाती फसलों के रूप में दिखेगा। उसकी शहादत ने हमारे भीतर सोयी हुई इच्छा-शक्ति को झाकझोर देने का काम किया है।'
सल्तनत ने कहा, 'हमें अभी से खरीफ फसल बोने की तैयारी में लग जाना होगा। घर में ऐसा कोई नहीं है जो पूरा काम सँभाल सके। जितने खेत हैं, सबको आबाद करने के लिए एक तगड़े और अनुभवी किसान का होना जरूरी है। 'अम्मा ने जरा चहकते हुए कहा, 'सल्तनत, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम चिट्ठी लिखकर मतीउर को बुला लें? खेती उसके मिजाज और खून में बसा है, यही एक काम है जिसमें उसकी जी भर तबीयत रमती है। यहाँ की बिगड़ती हालत से निराश और आजिज होकर चला गया था वह। अब जब आकर देखेगा कि अनिश्चितता का मंजर खत्म हो गया है तो उसे बेहद खुशी होगी।'
सल्तनत और तौफीक के चेहरे पर जैसे एक कौंध उभर आयी। सल्तनत ने प्रशंसा के भाव से उसे देखते हुए कहा, 'अम्मा, एकदम सही फरमाया आपने। हम नाहक चिंतित हुए जा रहे थे। हैरत है कि हमारे दिमाग में मतीउर का नाम आ क्यों नहीं रहा था? '
'उसके लिए भी अच्छा होगा...बेकार में वहाँ कुली-कबाड़ी का काम कर रहा है। यहाँ अपने मन का मालिक बनकर अपना काम करेगा। अतीकुर और मुजीबुर से उसकी पटरी भी नहीं बैठती है...सुना है वह कोई अलग डेरा लेकर रहता है।' तौफीक ने अपना समर्थन जताया।
'उसके गाँव छोड़ते वक्त मैंने कहा था मामू कि नहर में पानी आयेगा तो मैं तुम्हें खबर करूँगी, तुम वापस आ जाना। खेती तुम्हारा पेशा ही नहीं जमीर का एक हिस्सा है, मतीउर। तुम कुली-कबाड़ी होने के लिए नहीं एक गैरतमंद किसान होने के लिए पैदा हुए हो। उसने जवाब में कुछ कहा तो नहीं था लेकिन मेरे जज्बात को अपने जिगर में उतार जरूर लिया था। वह इतना टूटकर गया था कि उसे उम्मीद ही नहीं थी कि यहाँ दोबारा खेती के अनुकूल स्थिति कायम होगी।'
'तो तुम आज ही उसे चिट्ठी लिख दो और फोन भी कर दो सल्तनत कि जितना जल्दी हो सके, वह चला आये। हम सभी लोग उसका इंतजार कर रहे हैं और सबसे ज्यादा उसके वे परिचित खेत इंतजार कर रहे हैं जो अब लहलहाने की तैयारी में हैं...और वे आहर-पोखर उसकी राह देख रहे हैं जो अब बदले रूप में सबको खुशहाली बांटने के लिए तत्पर हैं।'
तौफीक ने गर्व से निहारते हुए कहा, 'अम्मा, तुम तो नज्म पढ़ने लग गयी...देखो हालात आदमी को कितना प्रभावित कर देते हैं।'