सल्तनत को सुनो गाँववालो / भाग 6 / जयनन्दन

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सल्तनत ने अपनी मद्धम वाणी में उसे आश्वस्त करते हुए कहा, 'हमें अब यह नहीं देखना कि वे अंधे हैं या बहरे...जब हमने मुहिम चला दी है तो बिना अंजाम पर पहुँचे पीछे नहीं हटेंगे। तुम घबराते क्यों हो...मैं इतना आसानी से मरने वाली नहीं हूँ। मैंने कहा था न कि तुम्हें देखकर तो मैं बिन अन्न-पानी के भी आसानी से जी सकती हूँ।'

भैरव का दिल दहल गया था। वह इसे कैसे मनाये? इसे कुछ हो गया तो वह भी एक जीवित लाश ही बनकर रह जायेगा...फिर तो यह मुहिम ऐसे भी नहीं चलेगी।

मनाने की कोशिश भैरव रोज ही करता रहा। छठे दिन तो मानो उसके सब्र की इन्तहा हो गयी, 'बस करो, सल्तनत। नब्बे करोड़ की आबादी वाले इस मुल्क में तुम कीड़े-मकोड़े की तरह एक मामूली इंसान हो। कोई तुम्हें पूछने, मनाने या गिलास भर जूस लेकर अनशन तोड़वाने नहीं आयेगा। तुम मर जाओगी तो उनकी बला से। मैं नहीं रह पाऊँगा सल्तनत तुम्हारे बिना। मेरी खातिर तुम तोड़ दो अनशन। तुम मेरे साथ सलामत रहोगी तो हम दूसरा उपाय निकाल लेंगे।'

'भैरव...मेरे चाँद...मेरे ख्वाब...मेरे नूर...तुम इतना अधीर क्यों हो रहे हो...मैं तो तुम्हारी जन्म-जन्मांतर की साथी हूँ।' सल्तनत की डूबती सी आवाज बहुत रुक-रुक कर निकल रही थी। उसने अपना हाथ उठाकर भैरव के गालों को छू लेना चाहा, लेकिन समर्थ नहीं हो सकी। भैरव ने खुद ही उसकी दोनों हथेलियाँ अपने गालों से सटा लिये।

'भैरव, मैं इतना ही कह सकती हूँ कि तुम्हारे ये स्पर्श मेरे लिए दुनिया के सबसे बड़े सुख के स्रोत हैं। इस अलौकिक स्पर्श के लिए मैं बार-बार जन्म लेती रहूँगी...लेकिन इसके साथ ही नहर की कीमत पर मैं बार-बार मरना भी चाहती हूँ। मैं अपने इस मन का क्या करूँ, भैरव? '

भैरव अपने लिए बनायी प्रकृति प्रदत इस सबसे बड़ी कृपा को अपलक-अवाक देखता रह गया।

सतवें दिन की सुबह अप्रत्याशित रूप से एक सरकारी जीप आयी जिससे प्रखंड विकास पदाधिकारी, अंचलाधिकारी, प्रखंड के डाक्टर तथा चार सशस्त्र सिपाही उतरे।

डाक्टर ने सल्तनत की नब्ज टटोलकर तथा स्टेथिस्कोप लगाकर जांच की और आपस में मंत्रणा की।

सल्तनत ने कहा, 'अभी मैं पूरी तरह ठीक हूँ...आपलोग चिन्ता न करें, मेरे मरने में अभी काफी देर है।'

अंचलाधिकारी ने कहा, 'डीसी की ओर से नहर के बारे में पूरी रिपोर्ट लिखकर सरकार को भेजी जा चुकी है। कार्रवाई जल्दी ही शुरू होगी...आप उपवास खत्म कर दें।'

भैरव ने सहमत होते हुए कहा, 'सल्तनत, ये लोग कह रहे हैं कि कार्रवाई जल्दी ही शुरू होगी...अनशन तोड़ दिया जाये।'

सल्तनत ने मंद स्वर में कहा, जैसे बहुत दूर से आती हुई आवाज हो, 'सच-सच बतलाना...तुम्हें इनके कहने पर भरोसा है? '

भैरव ने अपनी गर्दन नीचे झुका ली।

सल्तनत ने फिर कहा, 'मैं यह अनशन तभी तोड़ सकती हूँ जब उपायुक्त लिखकर आश्वासन दें कि एक महीने में कार्रवाई पक्के तौर पर शुरू हो जायेगी। मैं जानती हूँ इनका इस तरह गोल-मटोल कहना एक धोखा है।'

बी.डी.ओ. ने अफसरी अंदाज अख्तियार कर लिया, 'जो हमें कहना था हम कह चुके। हम आपलोगों को कल दोपहर तक का समय देते हैं...अगर आपलोगों ने खुद ही समाप्त नहीं कर दिया तो शाम को प्रशासन बल प्रयोग करने के लिए मजबूर हो जायेगा।'

जीप धूल उड़ाती हुई चली गयी।

सल्तनत के होठों पर व्यंग्य की एक अस्फुट-सी मुस्कान तिर आयी। पूछा उसने, 'हुँह...धमकी देकर चले गये न।' उसकी दृढ़ता जैसे और भी पुख्ता हो गयी।

भैरव हो लगा कि यह एक नुस्खा हो सकता है उसे डिगाने का, 'धमकी नहीं, सल्तनत। ठीक ही कहा उन्होंने। कार्रवाई वे जरूर करेंगे, तुम अब मान जाओ। इनके आने से हमारी इज्जत भी बच गयी। कोई यह तो नहीं कहेगा कि सरकार ने हमारी नोटिस तक नहीं ली।'

'भैरव, मैं जानती हूँ कि मुझे बचाने के लिए इन झूट्ठों, फरेबियों और धोखेबाजों का तुम समर्थन कर रहे हो। मैं जानती हूँ कि महज खानापूरी करने आये थे ये लोग। मैंने अनशन ढोंग या दिखावा करने के लिए या किसी लोभ-लालच में नहीं किया है कि इज्जत बचाने के नाम पर किसी के मुँह छूने भर से पिंड छुड़ाकर राहत की साँस ले लूँ। मेरे अनशन तोड़ देने से इतने दिनों तक किये गये संघर्ष का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। फिर तो अनशन का न शुरू होना ही अच्छा था।'

सल्तनत ने बहुत ठहर-ठहरकर अपनी बातें कही थीं, जिससे लगता था कि बोलने की एक-एक बूँद ऊर्जा उसे अपने निस्पंद पड़ रहे जिस्म से निचोड़नी पड़ रही है। भैरव सहमत था कि उसकी कही सारी बातें ठीक हैं लेकिन इस समय वह चाहता था कि किसी भी तरह सल्तनत को आत्मघाती जुनून से उबार लिया जाये। तौफीक को फोन पर उसने सब कुछ बता दिया था और कह दिया था कि वे जल्दी से जल्दी चले आयें। वह मन ही मन कामना करने लगा कि उनके आने तक सल्तनत को कुछ न हो। वे अगर आ गये तो निश्चय ही सल्तनत को राजी करके अनशन खत्म करवा देंगे।

तौफीक एक मजदूर प्रतिनिधि मंडल के साथ किसी सम्मेलन में भाग लेने काठमांडू चले गये थे। उन्होंने बगल के शहर के एक दोस्त को फोन करके खबर की थी कि वे सम्मेलन खत्म होते ही नेपाल से सीधे गाँव ही पहुँचेंगे।

सुबह-शाम दूर-दूर से जाति-संप्रदाय से ऊपर उठकर बड़ी संख्या में लोग आ रहे थे और अपना समर्थन जता रहे थे। सिर्फ एक जाति थी टेकमल की जिसके लोग इक्के-दुक्के ही आ रहे थे। पता नहीं कौन क्या कहकर उन्हें बरगलाये जा रहा था। शायद टेकमल और उसके लोग समझते थे कि जिसमें टेकमल का प्रतिनिधित्व न हो वह आंदोलन नाजायज है और साथ ही उनके खिलाफ भी।

अनशन की सातवीं रात ठीक-ठाक गुजर जाये, भैरव मन ही मन इसकी प्रार्थना करता रहा। निकहत सारी रात जागकर सल्तनत के सिर सहलाती रही और सिर पर पानी थापती रही। सल्तनत ने उससे अर्द्धचेतावस्था में बड़बड़ाते हुए कहा था, 'निकहत! नहर में पानी आ जाये तो मतीउर को जरूर खबर कर देना...खेतों का आदमी है वह...वहाँ कुली-कबाड़ी का काम कर रहा होगा...जरूर मन नहीं लग रहा होगा उसका...इंतजार होगा उसे हमारे खत का।'

सल्तनत ने थोड़ी देर बाद भैरव को पुकारा, 'भैरव, देखो, नहर के लिए कितने लोग बेचैन हैं। तुम्हारा प्यार अगर इतने बड़े मकसद के लिए बलि चढ़ जाये तो यह कोई बड़ी कीमत नहीं है।'

'नहीं सल्तनत, नहीं,' भैरव की करुण व्यग्रता तीब्र हो गयी थी, 'यह मेरे साथ सरासर नाइंसाफी होगी। तुम मेरी जिंदगी हो...मेरी दुनिया हो। तुम नहीं रहोगी तो मेरी दुनिया ही खत्म हो जायेगी।'

सल्तनत भीतर से पूरी तरह जैसे तरल हो गयी, 'मेरे दोस्त...मेरे सनम...मेरे हमदम...मेरे महबूब।' क्षीण सी हँसी हँसते हुए सल्तनत जैसे किसी शांत-स्निग्ध जलधारा की तरह बहने लगी, 'एक बहादुर आदमी बड़ी से बड़ी चीज के खो जाने पर भी पस्त नहीं होता। इस आंदोलन को रुकना नहीं चाहिए। नहर में पानी आ जाये तो उस पानी से मुझे जलांजलि देना, मेरी आत्मा तृप्त हो जायेगी।'

अपने फेफड़े में कुछ साँसें सँजोकर उसने निकहत को पुकारा, 'मेरी बहन...एक जिम्मेवारी सौंप रही हूँ। तुम भैरव को सँभालना...इसकी आग बूझने न पाये...इसे सुलगाकर रखना।'

सल्तनत के निस्तेज और धीमा होकर बोलने के अंदाज से साफ लग रहा था कि अब उसके टिके रहने की उम्मीद तेजी से धुँधली पड़ने लगी है। भैरव खुद को रोक न सका और उसकी आँखें जार-जार बहने लगीं। बहुत सारे कार्यकर्ता भी टेंट में मौजूद थे...सबके रोयें एक आसन्न अनिष्ट को देखकर सिहर गये।

भैरव के लिए रात बहुत भारी होकर गुजरी। एक-एक पल पहाड़ जैसा साबित हो रहा था। सल्तनत की बिगड़ती हालत और धीरे-धीरे मौत के मुँह में सरकते जाने की खबर जंगल में आग की तरह पूरे इलाके में फैल गयी। सुबह प्रभुदयाल, मिन्नत, जकीर की अम्मा सहित हजारों कार्यकर्ता और शुभचिंतक उमड़ आये। सबकी एक ही ख्वाहिश थी...तौफीक जल्दी से जल्दी आ जायें और सल्तनत को समझा लें...सल्तनत अनशन तोड़ दे...इस तरह बेमौत मरने से कोई फायदा नहीं।

शुक्र है कि सबकी दुआ काम आ गयी। तौफीक आ गये और बगल के शहर से अपने साथ एक डाक्टर भी लेते आये। आते ही उन्होंने सल्तनत के सामने अपना इरादा दृढ़ता और बेबाकी से रख दिया, 'एक गूँगी, बहरी और नाकारा व्यवस्था के समक्ष इस तरह मरना कोई मूल्य नहीं है, सल्तनत...यह सरासर एक पागलपन है। तुम्हारे इस तरह फना हो जाने से कुछ भी हासिल नहीं होनेवाला है...बल्कि कुछ हासिल करने के लिए तुम्हारा जीना ज्यादा जरूरी है।'

सल्तनत ने आँखें खोलीं...तौफीक को देखा और फिर स्वतः ही उसकी आँखें बंद हो गयीं। जैसे उसने अपने मामू को तसलीम किया और फिर से अपने इरादे पर डट गयी।

तौफीक ने उसकी मंशा ताड़ते हुए कहा, 'सल्तनत...अगर तुम मेरा कहा नहीं मानोगी तो देखो तुम्हारे पहले मैं और यह भैरव मौत को गले लगा लेंगे। तुम्हें मरते हुए हम देखें, इसके पहले तुम्हें देखना होगा हमें मरते हुए...।'

सल्तनत ने फिर आँखें खोलीं और बहुत मोह से निहारा अपने अजीज मामू को...भैरव को...अम्मी को...प्रभुदयाल को...जकीर की अम्मा को। सबके चेहरे पर एक ही आरजू थी...एक ही ख्वाहिश थी...एक ही ललक थी कि तौफीक का कहा वह मान ले। उसने हलका-सा मुस्कराते हुए अपनी आँखों में कृतज्ञता का भाव भर लिया कि उसे इतने-इतने लोग चाहनेवाले हैं। गर्दन हिलाकर सबकी भावनाओं के अनुकूल अपनी रजामंदी जाहिर कर दी।

'डाक्टर, आप ग्लूकोज चढ़ाइए...।' तनिक मुदित होते हुए कहा तौफीक ने।

चिंतातुर भैरव के सामने जैसे बिछा हुआ एक अंतहीन अँधेरा एकबारगी छँट गया। सबके चेहरे के मातमी रंग काफूर होने लगे। सभी चाहते थे सल्तनत को बचाना...सल्तनत बच गयी।

टेकमल को एक करारा झटका लगा। वह मन बनाये बैठा था कि रास्ते का एक बड़ा रोड़ा अपने-आप ही टल जायेगा। उसने तौफीक के नाम कई गालियाँ बड़बड़ा दीं...यह दुष्ट लगता है फिर धीरे-धीरे यहाँ अपना पाँव जमाने में रुचि लेने लगा है। यह न आता तो वह जिद्दी और जाहिल लड़की मौत को अपने गले लगा चुकी होती और जन-कल्याण का सारा बुखार उतर चुका होता। टेकमल ने तो लगभग अपनी सारी चालें चल दी थीं। सभी संबंधित नौकरशाहों को समझा दिया था कि उसे बचाने के प्रति चिंतित होने की जगह ऐसी परिस्थिति बना दी जाये कि उसके मरने का इरादा और दृढ़ हो जाये। उसका मरना उसकी और प्रशासन दोनों की सेहत के लिए फायदेमंद है। कुछ भी आक्षेप आयेगा तो अपने रुतबे का इस्तेमाल करके वह सबका बचाव करेगा। टेकमल का दुर्भाग्य कि उसकी मुराद पूरी नहीं हुई। लेकिन वह कहाँ बाज आनेवाला था अपनी जाति दिखाने से। उसने इदरीश को अपने घर बुलावाया। इदरीश समझ गया कि शायद वक्त आ गया है कि बिछी हुई बिसात पर एक मोहरे की तरह वह खुद का इस्तेमाल कर ले। क्या पता उसकी खस्ताहाल माली हालत को कुछ राहत मिल जाये। टेकमल जैसे कद्दावर नेता द्वारा उसका बुलाया जाना उसके लिए एक बड़ी घटना थी।

बाअदब सलाम करते हुए उसने अपना परिचय दिया, 'हुजूर, मुझ खाकसार को इदरीश कहते हैं, आपने तलब किया मैं हाजिर हूँ।'

टेकमल अपने कुछ दरबारियों और बैठकवाजों के बीच घिरा था। इदरीश को उसने यों देखा जैसे उसका कद नाप रहा हो और वजन तौल रहा हो, 'तो तुम हो मियाँ इदरीश! यार, देखने में तो तुम वाकई काम के आदमी लगते हो।'

'आप हुक्म तो करके देखिए...काम मिलता नहीं इसलिए करूँ क्या? '

'मियाँ, पहले तो तुम अपना घर ठीक करो। सुना तीसरी बार तुम्हारा घर उजड़ गया और तुम हाथ पर हाथ धरे बैठे रह गये! '

'क्या करता जनाब, एक जकीर था जिसे मेरी बददुआ ने तो मिटा दिया, दूसरा भैरव है, तीसरा तौफीक मियाँ है और चौथी जकीर की अम्मा है जो मेरी खुशियों के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। जकीर का घर पनाहगाह है मुझसे खार खानेवालों और मुझे मिटानेवालों का।'

'सुनो, तुम्हारे जो दुश्मन हैं, वे ही अब मेरे भी दुश्मन हैं। तुम अपने हक की लड़ाई लड़ो, जो मदद चाहिए मैं दूँगा। हाफिज करामत को मैंने समझा दिया है, तुम उनसे मिलो...अपने कौम की पंचायत लगाओ। पंचायत तुम्हें इंसाफ देगी। तुम्हारी दो-दो बीवियाँ तुम्हें छोड़कर अपनी मरजी से आवारागर्दी कर रही हैं । पंचायत उन पर दबाव डालेगी...सख्ती बरतेगी कि सल्तनत और निकहत तुम्हारे घर जाकर रहें और ऐसा करने के लिए वे तैयार नहीं हुए तो उन्हें शरण देनेवाले तौफीक और जकीर की अम्मा को कड़ी कार्रवाई से होकर गुजरना होगा। बिरादरी से दरबदर होने की सजा झेलनी होगी। अगर इससे भी उन पर कोई असर नहीं हुआ तो कुछ और भी संगीन शामतें उन्हें झेलनी पड़ेंगी। इसलिए तुम खुद को अब कमजोर और अकेला मत समझो...डटकर और तनकर खड़े होने का मन बनाओ...। '

अपनी तरफदारी में इतने बड़े आदमी को बोलते देख इदरीश का चेहरा श्रद्धासिक्त हो उठा। उसने स्वर में चापलूसी भरते हुए कहा, 'हुजूर, मुझे यकीन नहीं हो रहा कि आप जैसी बड़ी सियासी शख्सियत मुझ नाचीज को अपनी शागिर्दी बख्श रहा है। मैं तो इस रहमोकरम से पामाल हो जाऊँगा, हुजूर।'

'देखो इदरीश, तुम्हारा जो हाल है उसमें कुछ बचा नहीं है...लगभग ज्यादातर खत्म हो चुका है। इसलिए तुम्हें आरपार की कार्रवाई को अंजाम देने के लिए तैयार होना होगा। पत्ता फिट बैठ गया तो तुम्हारा घर फिर से आबाद हो जायेगा, नहीं तो बरबाद तो हो ही गये और क्या होगे। जो जितना बड़ा जोखिम उठाता है उसका हासिल भी उतना ही बड़ा होता है और नुकसान भी उतना ही बड़ा।'

'हुजूर, मैं समझा नहीं। पहेलियों की भाषा में नहीं, साफ-साफ बताइए। मुझे करना क्या होगा।'

'करने को तो तुम्हें हत्या भी करनी पड़ सकती है...बोलो, क्या कर सकोगे ? '

'हत्या करना मेरे लिए कोई जज्बात और उसूल का मामला नहीं है। आप अगर मेरे गुजरे कल पर एक नजर डालें तो पायेंगे कि बेरहमी का पहाड़ा पढ़ने में मैंने कोई कोताही नहीं की। तीनों बहनों के बस प्राण ही नहीं निकाल पाये वरना हत्या करने से कहीं ज्यादा सितम ढाये हैं उन पर। हत्या से बस इसीलिए मैं बचता रहा, चूँकि जेलखाना से मुझे बहुत डर लगता है।'

'डरने की कोई बात नहीं है, इदरीश...सबकी जेल एक समान जेल नहीं होती। रुतबे और हैसियत के अनुसार एक ही जेल अलग-अलग आदमी के लिए अलग-अलग जेल होती है। कितने ऐसे लोग हैं जिनके लिए जेल बाहर से भी निरापद और आरामदेह स्थल है। तुम्हें अब चिंता नहीं करनी है, अगर जेल जाना भी पड़ जाये तो तुम घाटे में नहीं रहोगे...बाहर से कहीं बेहतर ठाटबाट और परवरिश वहाँ तुम्हें मुहैया करा दी जायेगी।'

इदरीश की नसों में जैसे कोई ऊर्जा प्रवाहिनी ड्रग इंजेक्ट कर दिया गया, 'मैं समझ गया, मेरे आका...अब आपको कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है, आप देखिएगा, काम पूरा कर लेने के मामले में मैं जिन्न को भी पीछे छोड़ दूँगा।'

एक लम्पट और नाकारा टाइप आदमी का रातोंरात बाजार भाव इस तरह चढ़ सकता है, उसकी बिरादरी में किसी ने नहीं सोचा था। टेकमल की सिफारिश और हिदायत सुनकर हाफिज करामत ठगा रह गया। टेकमल अर्से से चुनाव जीतता आ रहा था और यहाँ का एक नामवर हस्ती के तौर पर जाना जाता था। करामत को याद नहीं पड़ता कि चुनाव के वक्त वोट माँगने के दरमियान हुए चंद आमना-सामना के अलावा उससे कभी कोई गुफ्तगू हुई हो। टेकमल ने हमेशा अपने को इस तरह बनाकर रखा कि आसानी से वह हर किसी के लिए उपलब्ध न हो। करामत को समझते देर न लगी कि इदरीश जैसे नामाकूल और नामुराद लफाड़ी के लिए नेता क्यों इतना खैरख्वाह बन गया है। लेकिन उसे क्या...सल्तनत के बिंदासपन से वे एक अर्से से जले-भुने तो थे ही...आज मजबूत खूँटे का सहारा मिल गया है तो उसकी आड़ में कसर निकाल ही लिया जाये।

करामत ने बिरादरी के मातवर किस्म के जरा कट्टर, लकीर के फकीर और मजहबपरस्त लोगों की एक पंचायत बुलायी और सिखा-पढ़ाकर इदरीश से फरियाद और इंसाफ की गुहार लगवायी। इदरीश ने कहा, 'आप सभी लोग गाँव के खैरख्वाह और मानिंद हजरात हैं। मेरे साथ लंबे समय से एक सोची-समझी साजिश के तहत ज्यादती की जा रही है, इसकी वजह से मेरी जिंदगी बरबाद होने वाली है। अपनी ही बिरादरी के कुछ लोग हैं जो मुझे मिटा देने पर आमादा हैं। मेरी पहली बीवी का जब इंतकाल हो गया तो उसकी बहन मेरी दूसरी बीवी बनायी गयी। आप जानते हैं कि उसे खामखा मेरे गले मढ़ा गया। एक गैरमजहब लड़के के साथ उसकी आशनाई थी, जिसके बारे में आज पूरा इलाका जानता है। उसने मेरे मुँह पर कालिख पोतकर मेरा घर छोड़ दिया और जकीर के घर को पनाहगाह बना लिया। जकीर तो अब नहीं है लेकिन उसकी वालिदा अब उसका पैगम्बर बन गयी है। भैरव के लिए वह घर खुल्लमखुल्ला ऐय्याशगाह है। तौफीक मियाँ उसके बहुत बड़े दानिशमंद हैं। मुझे चुप रखने के लिए उसकी तीसरी बहन से मेरी निकाह करवाकर मुझे फिर फँसा दिया गया। इस तीसरी का मरहूम जकीर से नैनमटक्का था, चुनांचे वह भी मेरी मिट्टी पलीद कर मेरे घर को ठोकर मार गयी और अपने महफूज अड्डे पर आ गयी। आप सबों से मेरी दरख्वास्त यह है कि इस गाँव में कोई कायदा-कानून और अनुशासन है तो मुझे इंसाफ दिलायें। आपलोग इस गाँव के और अपने समाज की नुमाइंदगी करनेवाले मोहतरम शख्सियत हैं। मेरा घर दो-दो बीवी के रहते बीरान और उजाड़ है।'

हाफिज करामत उसकी ताईद करते हुए सबको भड़काने के अंदाज में कहने लगा, 'अगर कोई सख्त कार्रवाई नहीं की गयी तो गाँव की फिजा में एक गलत संदेश जायेगा और इस तरह की बेहया और ढीठ कारगुजारी करने में किसी को कोई डर महसूस नहीं होगा।'

पंचायत में यह पूछने वाला कोई नहीं था कि सिक्के में दूसरा पहलू भी होता है और उस पहलू की भी शिनाख्त होनी चाहिए। चूँकि इस पंचायत को करंट कहीं और से मिल रहा था और उसका स्विच भी वहीं से आपरेट हो रहा था, इसलिए फैसला भी पहले से ही तय था। पंचायत में सल्तनत, निकहत, जकीर की अम्मा और तौफीक मियाँ बुलाये गये। करामत ने इदरीश के पक्ष को निर्दोष ठहराते हुए एकतरफा आरोप तय कर दिया और इंसाफ का दम भरते हुए हिदायत दे दी, 'इदरीश के साथ जो कुछ हुआ वह शर्मनाक है। अपने कौम के लिए यह एक कलंक है। सल्तनत और निकहत को जो लोग भी तरजीह देकर भड़काने का काम कर रहे हैं, वे अपनी हरकत से बाज आयें। सल्तनत और निकहत को पंचायत एक और मौका देना चाहती है। ये दोनों बिना किसी हील-हुज्जत के इदरीश के पास जाकर रहें। यह सरासर एक संगीन जुर्म है कि शौहर के रहते किसी और शख्स से इश्क लड़ाया जाये...और वह भी किसी गैर मजहब के आदमी के साथ।'

लगा जैसे कि सल्तनत की आँख में अंगारे समा गये और त्योरी में हजार कांटे उग आये, 'यों तो मैं आपके ऐसे किसी अनाप-शनाप इल्जाम का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं हूँ, लेकिन आप जानते हैं कि चुप रह जाना भी मेरी फितरत नहीं है और वह भी आपलोग जैसे अक्ल के दुश्मनों के सामने। आप भाड़े के टट्टू बनकर जिस भेड़िए की वकालत में आज निर्लज्ज होने पर तुले हैं उसकी शराफत और दरियादिली पर आपको इतना ही एतबार है तो अपनी किसी बेटी से निकाह करवा दीजिए, फिर असली किस्सा आपको मालूम होगा। आपको हक किसने दिया कि आप इंसाफ की कुर्सी पर......। '

'रुको सल्तनत, आज इन्हें जवाब मुझे देने दो।' अपने इरादे को चट्टानी बनाकर जकीर की अम्मा ने हस्तक्षेप किया, 'मेरी आँखों पर भी पहले धुँधला चश्मा चढ़ा था और सल्तनत मुझे गुनहगार लगती थी लेकिन जब इसके जिस्म पर जुल्मोसितम की वहशी परतें बिछी देखीं और फिर यही हाल निकहत के साथ पेश होते पाया और फिर जब जन्नत के खौफनाक अफसाने से रूबरू हुई तो इस मुए इदरीश को जल्लाद मान लेने में मुझे जरा-सा भी शुब्हा न रह गया। सल्तनत का एक पाँव इसकी दरिंदगी की भेंट चढ़ गया है और आपलोग चले हैं इसे बेकसूर फरिश्ता साबित करने? इतना बेरहम तो कसाई भी नहीं होता। इस तरह की निहायत जालिम बकवास करते हुए आपलोगों को शर्म आनी चाहिए...हममजहब और हमबिरादर होकर इदरीश ने इन तीनों बहनों के साथ जो शातिराना सलूक किया, उससे लाख गुना बेहतर है वह भैरव जिसके दिलो-जां का पैमाना हमदर्दी और मुहब्बत से हमेशा छलका-छलका दिखाई पड़ता है। आपलोग कान खोलकर सुन लीजिए...इन्हें कोई अलग नहीं कर सकता और इनका आशियाना बेशक मेरा घर बना रहेगा। मैं किसी से नहीं डरती। मेरे मरहूम बेटे जकीर की जो ख्वाहिश थी, वह अब मेरी ख्वाहिश है। उसके जो ख्वाब थे वे मुझे भैरव, सल्तनत और निकहत की आँखों में दिखते हैं। गाँव के दुख और तंगहाली के लिए अपनी जान देनेवाला इनके सिवा कौन है इस खुदगर्ज माहौल में। आपलोग इस गाँव के कोई अन्नदाता नहीं है कि आप फरमान जारी करें और कोई उसे तवज्जह दे।'

'भूलो मत कि इस नाफरमानी और बदगुमानी पर तुमलोगों को बिरादरी और कौम से दरबदर किया जा सकता है।'

'बिरादरी और कौम तुम्हारी जागीर नहीं है, करामत। मस्जिद के मुलाजिम होकर तुम कोई खुदा नहीं हो गये हो। चुपचाप आयतों और कलमों तक ही अपने को महदूद रखो तो इज्जत बची रहेगी। सल्तनत, निकहत और चाची जान, चलिए यहाँ से। इनके साथ माथा खराब करना समय की बर्बादी है।' तौफीक ने धारदार कटार की तरह पलट वार करते हुए कहा और फिर वे चारों घृणा और हिकारत से इन्हें घूरते हुए चले गये। पंचायत वाले सभी हक्के-बक्के रह गये। इन्होंने ऐसे करारे और मुँहतोड़ जवाब की उम्मीद नहीं की थी...शायद सोचा था कि फरमान जारी होते ही वे बिलबिलाने और घिघियाने लगेंगे। इदरीश के तो होंठ में जैसे कील ठुँक गयी थी।

टेकमल पुराना खिलाड़ी था और जूते खा-खाकर भी हँसते रहने और अपनी आदत न छोड़ने के काइयेंपन का एक खतरनाक नमूना था। उसने सबको बहुत घिनौनी झाड़ पिलायी कि मुट्ठी भर सिरफिरे लोग उन्हें दुत्कार, फटकार व ललकार कर चले गये और इतनी बड़ी संख्या में होकर भी टुकुर-टुकुर मुँह ताकते रह गये। यह नहीं कि सब मिलकर उनकी बाँह मरोड़ें और जमीन पर पटक दें।

टेकमल ने भैरव के पिता प्रभुदयाल को बुलाया और उसे बैठाने के भी शिष्टाचार को नजरअंदाज कर यों कहने लगा जैसे वह खुद दूध का धुला एक सर्वाधिकारप्राप्त हुक्मरान हो। कहा, 'प्रभुदयाल, तुम्हारा बेटा जो कुछ कर रहा है उससे तुम अच्छी तरह वाकिफ हो। यह आवारागर्दी का इंतहा है कि एक गैर जाति और मजहब की लड़की के साथ उसके घर जाकर ऐय्याशी की जाये और उसे अपने मर्द तक को छोड़ देने के लिए बहका दिया जाये। गाँव के सभी मुसलमान इस शोहदेपन को अपनी इज्जत-हुरमत के साथ एक गलीज खिलवाड़ मानकर अंदर ही अंदर सुलग रहे हैं। अगर इसे रोका नहीं गया तो गाँव के अमन-चैन में कभी भी भयंकर आग लग सकती है जिससे जलकर वर्षों की साझी संस्कृति राख बन सकती है। किसी एक शख्स के कारण इतनी बड़ी तबाही हो, यह हमारे लिए कतई नागवार है। तुम उसे रोकते हो या हम कोई उपाय करें?' उसके लहजे में पर्याप्त ऐंठन और बदतमीजी घुली थी।

प्रभुदयाल ने उसे एक नादान और सिरफिरा समझने की प्रतीति कराने वाली तिरछी मुस्कान मारी और उसकी बुद्धि पर तरस खाते हुए से कहा, 'इस कहावत को पहले मैं सच नहीं मानता था कि तुम्हारे जैसे लोग साठ वर्ष तक नावालिग रहते हैं, आज तुम्हें देखकर मुझे लगा कि साठ की सीमा को सत्तर कर देना चाहिए। वाकई टेकमल भारत का ही लोकतंत्र है कि तुम्हारे जैसा नाकारा और घटिया आदमी विधायक, सांसद और मंत्री बन जाता है। जाति के नाम पर भेड़ियाधँसान जयजयकार का इससे गंदा उदाहरण और क्या होगा? तुम मेरे बेटे....। '

प्रभुदयाल निर्भीकतापूर्वक अपनी बात कह ही रहे थे कि टेकमल के दो खूँखार आदमियों ने दाँत पीसते हुए उनकी बाँहें पकड़ लीं और लगा कि उन्हें उठाकर वे जमीन पर पटक देंगे। प्रभुदयाल ने जरा भी धैर्य नहीं खोया और व्यंग्य से धिक्कारते हुए कहा, 'अपने अड्डे पर बुलाकर एक बूढ़े और अकेले आदमी पर दिखा लो जितनी वीरता दिखानी है। इस हरकत से सच्चाई बदल नहीं जायेगी, बल्कि मैं जो कह रहा था उसकी पुष्टि ही होगी।'

टेकमल ने इशारा किया तो उचक्कों ने उनकी बाँहें छोड़ दीं। उसने धमकाते हुए कहा, 'फिर क्या सोच रहे हो प्रभुदयाल, अपने बेटे को बरजोगे या गाँव में दंगा करवाओगे? '

'मेरे बेटे ने प्यार किया है...और उतना ही प्यार मेरे बेटे से वह लड़की सल्तनत भी करती है। यह सभी लोग जानते हैं, उसके परिवार वाले भी। अगर इसे लेकर मारकाट मचनी होती तो अब तक यह गाँव तबाह हो चुका होता। टेकमल, ऐसे प्यार से दंगा नहीं होता, रिश्तेदारी और रवादारी बढ़ती है। जाति और मजहब के दायरे उनके लिए होते हैं जो प्यार का अर्थ नहीं जानते। मैं भी नहीं जानता था और मुझे भी यह एक गलत काम लगता था लेकिन जब भैरव को मैंने देखा और उसे महसूस किया तो समझ में आया कि प्यार से आदमी छोटा नहीं बड़ा बनता है, टुच्चा नहीं ऊँचा बनता है, उसमें खुदगर्जी नहीं, परमार्थ विकसित होता है। दंगा तो नफरत करने से फैलता है।'

'ठीक है, तुम जा सकते हो...दंगा हुआ या फिर शान्ति भंग हुई तो यह तुम्हारी जिम्मेदारी होगी और तुम बख्शे नहीं जाओगे।'

प्रभुदयाल वहाँ से चल पड़ा लेकिन लगा कि उसके पाँव में कोई भारी पत्थर बँध गया है। उसे चलने में आसानी नहीं हो रही थी। एक अनिष्ट और भय से पैर मन-मन भर के लग रहे थे। तौफीक ने अब गाँव में अपनी धुनी रमा दी। जकीर का घर अब सामाजिक परिवर्तन के लिए विचार-विमर्श एवं कार्य-संचालन जैसी गतिविधियों का केन्द्र बन गया। दोमंजिले मकान के लंबे-चैड़े क्षेत्रफल का खूब उपयोग होने लगा। उसकी माँ का ऐसा दयामयी और वात्सल्य रूप दिखाई पड़ने लगा कि सभी लोग उसे अम्मा का संबोधन देने लगे। अम्मा ने पूरी आजादी दे दी। वह अब मानने लगी थी कि किसी घर की इससे बड़ी सार्थकता और कुछ नहीं हो सकती। उसका मन लोगों की आमद-रफ्त के कारण हमेशा बनी रहनेवाली चहल-पहल में खूब लग रहा था। पहले वे ज्यादातर अकेले निष्प्रयोजन यों ही लेटी, बैठी, ऊबती और झींकती रहती...समय काटे नहीं कटता। कभी-कभार बस जकीर से दो-चार मिनट बोल-बतिया लिया। अब तो घर का कोना-कोना गुलजार रहने लगा। निकहत उसके एक-एक दुख-सुख का खयाल रखने लगी। उसकी एक-एक सुश्रूषा का मानो वह प्रभारी बन गयी। घर में सब कुछ व्यवस्थित और दुरुस्त हो गया। खाना तैयार होने से लेकर खाने और घर के एक-एक काम के संपन्न होने में एक लुत्फ समा गया। मिन्नत अब काफी सामान्य दिखने लगी। गृहस्थी के कई कामों में वह हाथ बँटाने लगी। अनाज-पानी की कोई किल्लत नहीं थी। तौफीक और जकीर के खेत की बँटाई से काम चलने भर उपार्जन हो जा रहा था। पानी का बढ़िया साधन रहता तो इतनी जमीन से लाखों का अन्न उगाया जा सकता था।

तौफीक मन ही मन आश्वस्त थे कि कुछ न कुछ जरूर सकारात्मक कर गुजरना है। अब गाँव में रहने को वे ज्यादा जरूरी मानने लगे। वे इसे शिद्दत से महसूस करने लगे कि भैरव और सल्तनत ने पूरे इलाके में जो माहौल सृजित किया है, उसे किसी ठोस परिणाम में रूपांतरित करने का इससे अच्छा वक्त नहीं आ सकता। आसपास के पच्चीसों-तीस गाँव के पढ़े-लिखे बेराजगार लड़के उनसे वैचारिक सहमति रखने लगे और किसी भी कार्रवाई में साथ देने के लिए समर्थन जताने लगे। ये लड़के अक्सर यहाँ आने लगे और पढ़ाई से लेकर विभिन्न रिक्तियों, उनके आवेदनों और तैयारियों पर परस्पर जानकारियों और सूचनाओं का आदान-प्रदान होने लगा। वे कुछ करना चाहते थे...कुछ बनना चाहते थे। तौफीक उन्हें रास्ता सुझाने लगे...उन्हें यथासाध्य मदद करने लगे। एक दिन उन्होंने उन लड़कों को संबोधित किया जो एक अर्से से आवेदन पर आवेदन, इम्तहान पर इम्तहान और साक्षात्कार पर साक्षात्कार दिये जा रहे थे...मगर उनका कहीं कुछ नहीं हो रहा था।

'जितनी नौकरियाँ हैं इस देश में उनसे बेरोजगारी दूर नहीं हो सकती। बेरोजगारी सिर्फ और सिर्फ कृषि-कार्य से ही दूर हो सकती है। कृषि ही एकमात्र वह क्षेत्र है जिसमें देश के सारे बेरोजगारों को काम देने की संभावना निहित है। कृषि आज तक अनपढ़ों, जाहिलों और हर जगह से ठुकरा दिये गये वंचितों के लिए हारे का हरिनाम पेशा बनती रही। ऐसा नहीं हुआ कि सचेत चयन के आधार पर कृषि को कोई अपने कैरियर का क्षेत्र बनाये। लेकिन अब वक्त आ गया है कि जिस तरह कृषि के लिए आधुनिक यंत्र और साधन विकसित हुए हैं, इसे सफेद कॉलर जॉब के रूप में अपनाया जाये और समाज एवं तंत्र इसे कार्यालय में बैठकर कुर्सी तोड़नेवालों से कहीं ज्यादा सम्मान की नजर से देखे। किसान धोती और लँगोटी में नहीं फुलपैंट और टाई में ट्रैक्टर चलाकर हल जोते और दौनी करे। वह पर्याप्त शिक्षित और होनहार व्यक्ति हो जो दिमाग लगाकर वैज्ञानिक ढंग से अपना काम करे। उसे उपज का दाम इतना मिलना चाहिए कि वह भी कार में चले और उसके घर में सारे आधुनिक साधन उपलब्ध हों। चूँकि अन्न और फसल से ज्यादा जरूरी कुछ भी नहीं है जीने के लिए।'

'सवाल है तौफीक अंकल कि हमारे पास कृषि करने लायक खेत और साधन भी तो हों।' बी.एससी. पास एक लड़का तारानाथ ने पूछा था। वह पड़ोस के एक गाँव भलुआही का था और भैरव व सल्तनत के विचारों से पूरी सहमति रखता था तथा उसके हर कदम पर साथ था।