सल्तनत को सुनो गाँववालो / भाग 5 / जयनन्दन
मिन्नत ने कई दिनों से नहाया नहीं था। वह रोज अपने कपड़े लेकर नहर में बने नहाने के चबूतरे पर जाकर बैठ जाती थी और पानी आने की राह को एकटक ताकती रहती थी। मतीउर ने जाने के दिन उसे कुएँ पर ले जाकर नहला दिया और उसके एक-एक कपड़े की साबुन लगाकर धुलाई कर दी।
मतीउर जाने को हुआ और अपना झोला उठा लिया तो मिन्नत सामने आ गयी, जैसे कह रही हो कि बेटे, मैं पागल नहीं हूँ, सब समझ लेती हूँ कि क्या कुछ हो रहा है...तुम भी जा रहे हो न मुझे छोड़कर?
मतीउर से अम्मा का यह असहाय-मासूम चेहरा देखा न गया और वह जार-जार रो पड़ा। सिसकियों के बीच ही उसने कहा, 'मैं तुम्हें छोड़ नहीं रहा हूँ, अम्मा...देखना, मैं जल्दी ही तुम्हें लेने आऊँगा। तुम्हें छोड़कर मुझे अब तक जीना कहाँ आया, अम्मा। छोटी दी, अम्मा का पूरा खयाल रखना। मैं जा रहा हूँ लेकिन जानता हूँ अम्मा और तुम्हारे बिना मेरा वहाँ मन नहीं लगेगा।'
सल्तनत के आंसू भी हरहरा कर चू पड़े, 'तुम्हारे बिना मैं भी चैन से नहीं रह पाऊँगी, मतीउर। शहर के हरजाई पानी का असर मत चढ़ने देना अपने ऊपर। सुना है वहाँ जाकर लोग सगे को भी बेगाना बना देते हैं। नहर में पानी आयेगा तो मैं तार भेजूँगी, तुम फौरन वापस आ जाना, मेरे भैया। खेत तुम्हारी बाट जोहते रहेंगे।'
सल्तनत मतीउर से यह सुनने के लिए उत्सुक थी कि हाँ दी, नहर में पानी आते ही मैं भागा-भागा आ जाऊँगा, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं कहा।
मतीउर चला गया तो जकीर भी जैसे एकाकी हो गया। खेती में दोनों एक-दूसरे के काफी मददगार थे और लगभग साये की तरह साथ-साथ रहते थे। देखने से यह लगा था कि जकीर का अपना भरोसा भी कहीं से हिल गया है। उसने भी ऐसा मान लिया कि नहर में अब पानी सचमुच कभी नहीं आयेगा।
सल्तनत की अधीरता को देखते हुए भैरव ने समझाया था, 'तुम इस तरह कातर और भावुक बनकर खुद को कमजोर मत होने दो, सल्तनत। जानता हूँ कि मतीउर तुम्हारा नैतिक अवलंब था...लेकिन अब तुमने अपनी दिशा निर्धारित कर ली है। मैं तो हूँ न तुम्हारे साथ...जकीर भी है...तुम्हारी अम्मा भी हैं और अब तो पूरा गाँव एवं जवार है तुम्हारे साथ। एक मतीउर की जगह देखो कितने-कितने मतीउर जुड़ गये हैं हमसे।'
सल्तनत भैरव की छाती से एक अबोध बच्ची की तरह चिपक गयी। भैरव ने उसके कपोलों और बाजुओं को बड़े प्यार से थपकी दी जैसे एक सख्त चट्टान के भीतर बसी तरलता-कोमलता का स्पर्श कर रहा हो।
एक रात सल्तनत ने देखा कि नहर में ढेर सारा पानी आ गया है, जो तटबंधों के बीच मुश्किल से अँट रहा है। किसान खुशी से झूम उठे हैं। झिंगुरों, उल्लुओं, मेढ़कों और स्यारों की मनहूस आवाजों से कराहती रातें बलेशर पासवान के आल्हा और तुमाड़ी गोप के लोरिकाइन गीत से फिर सुंदर-सुहावनी हो गयी है। सुबह ही सुबह अपने बैलों को खिला-पिलाकर किसान हलवाही के लिए निकल पड़े हैं। जकीर और मतीउर के उत्साह का कोई ठिकाना नहीं है। नहर से पईन के जरिये खेतों में पानी हहर-हहर करके प्रवेश कर रहा है। मुसहरी से धनरोपनी और मोरकबरा टोली में बँट-बँटकर औरत-मर्द घर से निकल पड़े हैं। हर्षातिरेक में सल्तनत पुकार उठती है, 'भैरव...भैरव। देखो, रूठा हुआ सावन-भादो अपनी पूरी सज-धज के साथ वापस आ गया है। भैरव...कहाँ हो तुम? तुम्हें दिखाये बिना मुझे चैन नहीं मिल रहा...मतीउर को वापस बुलाओ, हलवाही के लिए अपने खेत बुला रहे हैं उसे।'
नींद खुल गयी सल्तनत की और सपने का चटख रंग काफूर हो गया। कुछ भी नहीं बदला था बाहर और त्रासदी अपनी पूरी निर्ममता से कायम थी अपनी जगह।
निकहत जब इदरीश की अनुपस्थिति में लतीफगंज से लौटी थी तो अपने साथ तीन पुड़िया चूहा मारने की दवा खरीद लायी थी। इदरीश खुर्राट था, खूँखार था, गुस्सैल था, वहशी था...दिन-रात में शायद ही कभी सीधे मुँह बात करता था। उसे सताने, तड़पाने, सख्ती वरतने और सितम ढाने में लोमहर्षक मजा मिलता था। निकहत चूहे मारने की दवा रोज गुप्त ठिकाने से निकालती थी और खाने में मिला देना चाहती थी, लेकिन उसकी रूह ने हमेशा उसे रोक दिया। अन्ततः इस नतीजे पर पहुँची वह कि किसी को मार देने की बर्बरता उससे कतई मुमकिन नहीं होगी, चाहे वह उस पर रोज कहर ढानेवाला जल्लाद उसका शौहर ही क्यों न हो।
उसने एक फैसला किया।
जहर के पुड़िए हाथ में लेकर उसने इदरीश को दिखाते हुए कहा, 'देखो, ये तीन पुड़िए जहर हैं जिसे मैंने तुम्हें मारने के लिए खरीदे हैं। लेकिन मेरे दिल ने इसे मंजूर नहीं किया। मैं एक अदना-नाचीज इंसान, कौन होती हूँ किसी को मारने वाली? अब मैंने तय किया है कि इसे खाकर मैं खुद को ही खत्म कर लूँगी। तुम्हारे साथ अब मुझे एक पल नहीं रहना है।'
झपट्टा मारकर इदरीश ने उसके हाथ से पुड़िए छीन लिए, 'कमीनी...बेहया। तू मुझे मारना चाहती थी? और अब खुद मर जाने का ड्रामा कर रही है।'
'किसी जहर के बिना भी मैं खुद को मार सकती हूँ...तुम हरदम घर में बैठे नहीं होते।'
'आखिर तू चाहती क्या है? '
'मैं तुम्हारे साथ जीने से बेहतर मर जाना समझती हूँ।'
'अरी चुड़ैल, मैं छोड़ भी दूँ तो कौन पूछेगा तुझे? अब तुममें रखा ही क्या है? '
'तुम्हारे जैसे पूछनेवाले से अच्छा है कोई पूछनेवाला न हो।'
इदरीश ने फटाफट दस-बीस लात-घूँसे जड़ दिये। निकहत जानती थी कि यह तो होना ही है...अक्सर होता ही रहता था। उसने उसे धिक्कारते हुए कहा, 'यह तुम्हारा आखिरी मारना है...कल तुम मेरी लाश पीटना।'
इदरीश थाना-कचहरी की पेचीदगी में फँसने के डर से तनिक हिल गया। इसे एकबार वह भुगत चुका था। अचानक उसकी विष-खोपड़ी में एक शैतान-युक्ति उभर आयी। हिकारत से मुँह बनाकर कहा उसने, 'ऐसे भी तो मैं तुम्हें पूरी तरह निचोड़ और चूंस ही चुका हूँ... तुममें अब मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं है। ठीक है...मैं तुम्हें आजाद कर देता हूँ...लेकिन एक शर्त है...कोई एक आदमी ढूँढ़कर लाओ जो तुम पर तरस खाकर भी तुम्हारा हाथ थाम सके। चूँकि मैं अगर ऐसे ही भटकने के लिए छोड़ दूँगा तो तुम्हारे भाई और मामू मुझे कसूरवार ठहरायेंगे। मैं उनकी हमदर्दी खोना नहीं चाहता...मुझे अभी उनसे बहुत काम निकालना है।'
'मैं जानती हूँ कि तुम चालाकी से उस आदमी का नाम जानना चाहते हो, लेकिन तुमसे न तो मैं डरती हूँ और ना ही वह आदमी। तुम्हारी बनायी हुई इस बदतर हालत के बावजूद मेरे हाथ थामने के लिए जो शख्स तैयार मेरी राह देख रहा है, उसका नाम कान खोलकर सुन लो...जकीर है...जकीर।'
इदरीश को लगा जैसे उसकी आँखों में मिर्ची झोंक दी गयी और कान में नश्तर चुभो दी गयी। कम्बख्त यह जकीर तो उसका जानी दुश्मन हो गया है। सल्तनत को भी इसी हरामी ने आश्रय दिया तथा भैरव का मन भी शह देकर इसी ने बढ़ाया है। अब तक उसकी किसी भी खुराफात का कोई जवाब नहीं दिया गया, लेकिन अब इसे यों ही बख्श देना वजिब नहीं है। इदरीश का टेढ़ा दिमाग तेजी से उल्टी तरफ चलने लगा।
सल्तनत रोज छत पर चढ़कर नहर को निहारती और उसके बाजू में बह रही नदी को देखती, जिसका पानी निरर्थक बहे जा रहा था। नहर सूखा का सूखा ही रह गया। धान के खेत परती रह गये। किसानों की आँखों में उतरा हुआ सूनापन और भी दयनीय हो गया।
चिन्ताओं की आँधी से जूझते हुए जकीर ने एक दिन कहा, 'इस मुल्क में सबके लिए सरकार है, लेकिन किसानों का कोई नहीं है। उसे अपने हाल पर जीना-मरना है। अगर यही हाल रहा तो कृषि पर कोई कैसे टिका रह सकता है।'
नहर का जायजा लेने के लिए कोई आकलन समिति नहीं आयी अथवा कोई दूसरी कार्रवाई होने के कहीं आसार दिखाई नहीं पड़े। इसी बीच लोकसभा का चुनाव भी हो गया। अपने जनसंपर्क भाषण में लंबे-चैड़े सब्जबाग दिखाने के मोहिनीमंत्र का सिद्धहस्त खिलाड़ी टेकमल फिर मैदान में था। भैरव और सल्तनत ने अपने सभी साथियों के साथ कई बैठकें कीं, जिनमें बार-बार यह चेतावनी दी गयी कि जातीय आधार पर वोट देने से खुद को बचायें और टेकमल जैसे दोमुँहे एवं निकृष्ट आदमी को इस सीट से बेदखल करें। इसकी हार नहर के पक्ष में एक तरह का जनमत-संग्रह होगा।
लेकिन दुर्भाग्य! नहर जैसा जीवन-मरण वाला मुद्दा भी जातीय मोह के आगे छोटा पड़ गया और टेकमल फिर जीत गया। नहर बने या न बने, इसकी बिना परवाह किये उसकी बड़ी आबादी वाली जाति ने उसे जीताना ज्यादा जरूरी समझा।
जकीर तो ठगा रह ही गया, सल्तनत को भी गहरा आघात पहुँचा। भैरव ने इन्हें सँभालने की कोशिश की, 'इन्हीं ओछी मानसिकताओं ने तो हमारी तरक्की को पीछे की तरफ धकेला है। सभी बीमारी की जड़ हमारी यही क्षुद्रता और संकीर्णता है। हमें इन्हीं से जूझना है। नहर के जीर्णोद्धार में पैसे से अधिक मानसिकता का महत्व है। इसलिए हम पस्त और हतोत्साहित नहीं होंगे और अपना अभियान जारी रखेंगे।'
लगातार दो खरीफ और फिर एक रबी फसल में धोखा खाने के बाद जकीर की आंतरिक हालत बिल्कुल चरमरा गयी। वह एक अच्छा-खासा खाता-पीता मझोला किसान था। उसके घर की कोठियों में कम से कम पचास मन चावल का भंडार हमेशा जरूर रहा करता था। गाँव में अपने करीबी लोगों के घटने-कमने के समय अपनी ओर से इमदाद मुहैया कराने के लिए उसकी मुस्तैदी गौरतलब थी। आज हालत ऐसी हो गयी कि उसे खुद के लिए भी किल्लत के दिन देखने पड़ गये। बोरिंग करवाने और पंप बिठाने के समय उसने जो कर्ज लिया था, वह घटने की जगह बढ़ता ही चला जा रहा था।
उसने काफी सोच-विचार और मनोमंथन करके अच्छी आमदनी देनेवाली फसल उगाने की रूपरेखा बनायी। तय हुआ कि पंप की पहुँचवाले अधिकांश खेतों में प्याज की खेती की जाये। गाँव के ज्यादातर किसान इस निर्णय में शामिल हो गये थे, खासकर वे जिनके पास अपने पंप थे।
प्याज की गाछी पारी गयी और धान की तरह खेतों में कादो बनाकर रोप दी गयी। धान की तरह इसकी जड़ों में लगातार पानी की जरूरत नहीं होती। बस दो-तीन दिनों में इसे पटाते रहना होता है। इसमें दो-तीन बार खाद (सल्फेट या यूरिया) छिड़क दिये जायें तो पौधे जोरदार पुष्ट बन जाते हैं। जकीर ने खाद का छिड़काव तो किया ही, कीड़ों और बीमारियों से बचाव के लिए दवाई भी स्प्रे की। वह इसमें कोई कसर नहीं रहने देना चाहता था। सल्तनत इसकी वापस आ गयी तन्मयता देखकर बहुत खुश थी।
प्याज-खेत की मेड़ों पर जकीर और भैरव के साथ वह भी चक्कर लगाने चली जाती। प्याज के पौधे दमदार होते जा रहे थे और उसके नीच पोट भी खूब बढ़िया आकार ले रहा था। बेहतरीन परिणाम की चमक जकीर की आँखों में सहज ही देखी जा सकती थी। सल्तनत और भैरव ने इस चमक से एक अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव किया। एक किसान को अपनी मिट्टी से जुड़े रहने के लिए ऐसी चमक का बना रहना बहुत आवश्यक है।
सल्तनत ने कहा था, 'आज मतीउर होता तो प्याज की इतनी जबर्दस्त पैदावार देखकर गदगद हो जाता। मेरे खयाल में पहले किसी ने नहीं सोचा था कि यहाँ की मिट्टी प्याज के लिए इतना मुफीद है।'
उम्मीद पर प्याज पूरा खरा उतरा। किसी भी गोटा प्याज का वजन सौ-डेढ़ सौ ग्राम से कम नहीं था। एक कट्ठे में सात से आठ मन का हिसाब लगाया गया। जकीर तो मानो धन्य-धन्य हो गया। उसने चार बीघा प्याज रोपा था, जिससे लगभग साढ़े पाँच सौ मन प्याज की उपज प्राप्त हुई।
उपज के समय हमेशा वस्तुओें के दाम गिर जाते हैं। खासकर ऐसी वस्तुओं के दाम तो और भी गिर जाते हैं जो सड़-गलकर खराब होने वाली हो। ऐसी चीजों के दाम तब और-और गिर जाते हैं जब उसकी पैदावार हर जगह उम्मीद से ज्यादा हो जाती हो। इस साल प्याज का यही हाल हो गया। पता चला कि पूरे देश में इसकी जबर्दस्त खेती हुई है। तो क्या यह आम की तरह की फसल है जो एक साल छोड़कर अगले साल खूब होती है?
जकीर के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ता की गहन स्थिति पैदा हो गयी। महज बीस-पच्चीस रुपये मन वह प्याज बेचे भी तो कैसे और अगर न बेचे तो उसे रखे भी कहाँ?
उसने अपने घर की कई कोठरियों में जमीन से ऊपर बाँस की फराटी से तीन स्तरीय मचान बनायी और प्याज को उस पर बिछा दिया। भैरव, सल्तनत, जकीर की अम्मा आदि उसकी देखभाल में लग गये। हर दो-तीन दिन में उसकी उलट-पलट की जाती और सड़ने की गिरफ्त में आने वाले को बाहर निकाल दिया जाता।
यह क्रम इसी तरह चल रहा था कि एक-डेढ़ महीने बाद ही उसके सड़ने की गति अचानक तेज हो गयी। बाजार-भाव अब भी वैसा ही था। कोई आढ़तिया प्याज को पूछ नहीं रहा था। जरूरतमंद बनकर जो बेच रहे थे उन्हें गरजू समझकर माटी का मोल दिया जा रहा था। यह एक अजीब विडम्बना है कि जब पैदावार किसानों के हाथ में होती है तो उसका दाम औना-पौना होता है और जब हाथ से निकल जाती है तो दाम आसमान छूने लगता है। जकीर ने देखा कि इस तरह बेचने की बनिस्बत गोबर-गनौरा की तरह बतौर खाद खेतों में डाल देना बेहतर है। अन्ततः हुआ भी यही...लगभग पूरा प्याज सड़ गया और जिस खेत से वे उपजाये गये थे उन्हीं में उन्हें फेंक दिया गया...'माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूँधे मोय' की तर्ज पर।
यह एक और मोर्चा था जहाँ किसान अर्थात जकीर पराजित हो गया। कभी पानी के बिना खेत परती रह जाते हैं...कभी जवान फसलें सूख जाती हैं...कभी खलिहान में लाये अनाज सड़ जाते हैं...कभी घर में आयी उपज बरबाद हो जाती है...इसके अलावा भी न जाने किन-किन मोर्चों पर कितने-कितने दुश्मन हैं किसानों के...कीड़े, चूहे, चोर, जानवर, पक्षी, तूफान, पाला, लू और अब यह सरकार भी जो उचित भंडारण तक की व्यवस्था उपलब्ध नहीं करवा सकती। कोल्ड स्टोरेज के बिना या फिर कोल्ड स्टोरेज में बिजली के बिना पूरे देश में हजारों-लाखों टन प्याज की तरह के कच्चे उत्पाद हर साल सड़ जाते हैं।
जकीर के लिए यह एक और बड़ा आघात था। अब तो जैसे बर्दाश्त की इंतहा हो गयी थी। उसके चेहरे की रंगत निस्तेज हो गयी। सँभलने की इस बड़ी कोशिश के नाकामयाब होने के बाद शायद उसका धैर्य अब निचुड़ गया था। वह एकदम गुमसुम हो गया...बोलना, बतियाना, हँसना, खिलखिलाना...सब कुछ जैसे प्याज की सड़ाँध से संक्रमित हो गया। जिसने कभी कोई कमी और किल्लत नहीं देखी हो उसे अगर देखना पड़ जाये तो यह उनके लिए हिमालय की चढ़ाई हो जाती है, जिसमें सभी कामयाब नहीं होते।
भैरव को इसकी हालत देखकर स्मरण हो आया कि काफी पहले जब सब कुछ ठीक-ठाक था, इसी जकीर ने उसे हुलसित होते हुए कहा था, 'देखना भैरव, मैं एक मिसाल कायम करूँगा कि मुझे देखकर लोग मानेंगे...खेती करना और किसान होना भी एक इज्जतदार काम है। मैं एक ट्रैक्टर खरीदूँगा...फिर मेरे पास कार भी होगी। आखिर पंजाब और हरियाणा भी इसी देश में हैं, जहाँ किसान कार पर बैठकर अपने फार्म हाउस जाते हैं और शहरी सुख-भोग के सारे साधन घर में रखते हैं।'
आज उसी जकीर की यह नियति हो गयी कि कृषि नाम से ही जैसे मोहभंग हो गया। भैरव से यह सब देखा नहीं जा रहा था।
सल्तनत ने समझाने की बहुत चेष्टा की, 'जकीर भाई, आपका दर्जा तो एक मजबूत खम्भे की तरह रहा है, जिसके सहारे हम सभी टिके हैं। आप इस तरह हिल जायेंगे तो सब कुछ धराशायी हो जायेगा...हमारी गुजर-बसर...हमारा प्यार...हमारी लड़ाई। मतीउर चला गया...अब आप भी उम्मीद छोड़ देंगे तो हमारा मनोबल किसके भरोसे कायम रहेगा।'
जकीर की भंगिमा में कोई बदलाव नहीं आया, जैसे उसने कुछ सुना ही न हो।
उसकी अम्मा एक दिन हाफिज जी के पास चली गयी। घिघियाते हुए कहा, 'जरा मेरे बेटे की झाड़-फूँक कर दीजिए हाफिज जी। पता नहीं उसे क्या हो गया...किसकी नजर लग गयी...हर वक्त गुमसुम और फिक्रजदा रहने लगा है।'
हाफिज को जैसा तमाचा मारने का मौका मिल गया। कहा उसने, 'नजर तो उसे लगनी ही थी, मोहतरमा। मोमिनों की जज्बात को बहुत ठेस पहुँचायी है उसने। एक काफिर लड़के से बिरादरी की एक लड़की के लगाने-फँसाने में मददगार रहा है वह। मुझसे उसकी झाड़-फूँक नहीं होगी।'
अम्मा ने उसे बेपनाह नफरत से घूरते हुए एक करारा जवाब पकड़ा दिया, 'तो जा, तेरा भला भी नहीं होगा हाफिज। तू क्या समझता है कि झाड़-फूँक करता है तो तू खुदा हो गया? मैं बददुआ देती हूँ कि तेरे हाथ से झाड़-फूँक की तासीर आज से खत्म हो जाये...और सुन लो, सल्तनत और भैरव की मुहब्बत का मैं भी खैरख्वाह हूँ...यह मुहब्बत हमेशा आबाद रहेगी।'
हाफिज अम्मा का मुँह देखता रह गया।
जकीर की तरह गाँव के अन्य किसानों की हालत भी प्रायः जर्जर ही थी। एक बेबसी और बेचैनी उनके चेहरे पर भी दर्ज थी। लेकिन जकीर ने चूँकि खेती को एक चुनौती की तरह लेकर बड़े-बड़े सपने पाल रखे थे, इसलिए उसकी हताशा अपेक्षाकृत ज्यादा थी। भैरव ने उसके बढ़ते मानसिक असंतुलन को देखकर बार-बार समझाने की कोशिश की।
'जकीर, किसान का अर्थ ही होता है अपार धैर्य और जीवटता झेलने वाला। तुम इस तरह बेहाल रहोगे तो हमारी मुहिम आगे कैसे बढ़ेगी, यार? '
जकीर में कोई सुधार नहीं आया। वह अकेले में कभी नदी की तरफ, कभी नहर की तरफ, कभी बाँध की तरफ, कभी रेलवे लाइन की तरफ निकल जाता और घंटों वापस नहीं आता। जानवरों की तरफ तो उसने देखना भी बंद कर दिया था।
एक दिन सुबह किसी गोरखिये ने आकर बताया कि जकीर रेल-लाइन पर ट्रेन से कटकर मर गया। पूरा गाँव सन्न रह गया। सल्तनत और भैरव फूट-फूट कर रो पड़े।
'यह क्या कर दिया तूने, जकीर? तुम्हीं हमें लड़ने और संघर्ष करने को उकसाते थे और तुम्हीं हारकर मैदान छोड़ गये? यह तो सरासर नाइंसाफी है, मेरे दोस्त। सल्तनत तो लँगड़ी हो ही गयी थी और अब तो मानो मैं भी अंधा हो गया। तुम्हीं तो थे मेरी आँखें। तुम्हारा अपनापन और घनिष्ठता ही तो मेरी शक्ति थी। हाय जकीर, उस हत्यारिन रेल लाइन से, जहाँ तुम कट मरे, अपने कई गाँववालों को मैंने बचाया है...लेकिन लानत है मुझ पर कि तुम्हें ही नहीं बचा सका।'
जकीर की अम्मा की तो जैसे दुनिया ही बरबाद हो गयी। उसका सबसे प्यारा और दुलारा बेटा नहीं रहा। कई दिनों तक वह रो-रोकर बेहोश होती रही। कलकत्ता से उसके दोनों बेटे आ गये। हाफिज और कुछ अन्य लोग इन दोनों को लगा-बुझाकर चढ़ाने-बहकाने की जुगत में लग गये कि भैरव और बदचलन सल्तनत के चलते ही सारा कुछ हुआ है...इन्हें अब घर में रहने देना ठीक नहीं है। बेहतर होगा कि वह अपनी अम्मा को अपने साथ ही लेता जाये।
अम्मा शोक में थी फिर भी पूरे होश में थी। वह अब तक घर में सल्तनत, मिन्नत और भैरव के होने का अर्थ समझ चुकी थी। इनके जरिये मिलने वाले सेवा-सम्मान उसके जीने के अनिवार्य पहलू बन गये थे। उसने गाँव छोड़ने से इनकार करते हुए कहा कि जब तक ये लोग हैं, हम यहाँ अकेले नहीं हैं। जकीर को जिन परिस्थितियों ने मारा है, उनके खिलाफ चलनेवाली मुहिम की मै चश्मदीद गवाह रहना चाहती हूँ।'
जकीर की खुदकुशी से तौफीक मियाँ को यों लगा जैसे उन्हें आसमान की ऊंचाई से उठाकर किसी ने नीचे पटक दिया हो। वे भागे-भागे गाँव पहुँचे । शहर जाने के बाद गाँव में जकीर ही था जिससे उनकी गहरी छनती थी और वे उसे बहुत प्यार करते थे। उनमें वैचारिक समानता थी और वे गाँव में उसे अपना प्रतिबिम्ब मानते थे। जकीर की अम्मा, सल्तनत और भैरव की अधीरता को उन्होंने ढाँढ़स दिया। कहा कि नहर के लिए आंदोलन को तेज करना अब जरूरी है। रणनीति क्या होनी चाहिए, इस बारे में उन्होंने विस्तार से चर्चा की। इस दिशा में अब तक जो कुछ किया गया था उसकी समीक्षा करते हुए उन्होंने उनकी सराहना की। आश्वासन दिया कि वे भी जल्दी ही इससे पूरी तरह जुड़ने की मोहलत निकालने जा रहे हैं।
जकीर के मरने से इदरीश को मानो मुँहमाँगी मुराद मिल गयी। बहुत खुश हुआ वह। निकहत के सामने ठहाका लगाते हुए उसने मुँह चिढ़ाया, 'तुम्हारा हाथ थामनेवाला इकलौता आशिक मर गया निकहत। अच्छा हुआ वह खुद ही मर गया...नहीं तो उसे मैं मार देता। अब तुम क्या करोगी, बदजात औरत? '
निकहत पहले ही एकदम पस्त थी। उसके अंदर पैदा हुआ अनिश्चय का भूचाल अब तक थमा न था। वह छुप-छुप कर कई किश्तों में रो चुकी थी। इदरीश उसके कटे पर नमक डाल रहा था। उसने बिफरते हुए कहा, 'जकीर के बाद अब मैं खुद भी मर जाऊँगी। बर्छी की तरह चलनेवाली तुम्हारी जुबान एक तिल मुझे गवारा नहीं है। मैंने फिर से दो पुड़िये चूहे मारने की दवा खरीद ली है। इस बार किसी भी सूरत में यह दवा बेकार नहीं जायेगी। इससे या तो तुम मरोगे या मैं मरूँगी।'
इदरीश ठगा रह गया। हमेशा मुँह सिलकर दुबकी-सहमी रहनेवाली इस औरत की यह मजाल और ऐसा सख्त तेवर। उसे यकीन हो चला कि जरूर अब यह कुछ कर गुजरेगी।
इदरीश ने जरा नरम पड़कर गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए कहा, 'तू आखिर चाहती क्या है?'
'तुमने हम तीन बहनों पर जुल्म ढाये हैं...मैं तुमसे नफरत करती हूँ और तुम्हारी शक्ल भी नहीं देखना चाहती। तुमसे निजात पाने के लिए मैं या तो मौत चाहती हूँ या तुम्हारी नजरों से दूर होना चाहती हूँ।'
'ठीक है...मैं भी ऊब गया हूँ तुमसे। अब तुममें रखा ही क्या है कि मैं तुम्हें रोककर रखूँ। जा, आज से मैं तुम्हें आजाद करता हूँ। जकीर तो अब है नहीं, मुझे चिढ़ उसी से थी। देखता हूँ कि तुम्हें अब कौन मरदूद पनाह देता है...जा, निकल जा मेरे घर से।'
निकहत ने एक पल की देर नहीं की और घर से सरपट निकल गयी। गाँव की गलियों में लोग उसे आजाद जाते हुए घूर-घूर कर एक अनहोनी की तरह देखते रहे और अर्थ टटोलते रहे।
निकहत जब लतीफगंज में घर पहुँची तो जकीर की अम्मा के गले लगकर बिलख-बिलख कर रो पड़ी। जकीर से उसका अब तक कोई रिश्ता नहीं बना था, फिर भी यों लग रहा था कि आज वह सचमुच की बेवा हो गयी।
अपने आँसुओं पर काबू करते हुए अम्मा ने कहा, 'तूने आने में बहुत देर कर दी, निकहत। जकीर कहता तो नहीं था लेकिन जब पगडंडी पर दूर तक उसकी आँखें बिछ जाती थीं तो हम समझ जाते थे कि वह जरूर तुम्हारे ही आने का इंतजार कर रहा है।'
'मेरा तो करम ही फूटा है, ममानी। खुदा ने मेरी तकदीर ही नहीं बनायी कि किसी का सच्चा प्यार मुझे हासिल हो। काश, मैं एक दिन के लिए भी उसकी हो जाती। यह मलाल मुझे जिंदगी भर सालता रहेगा।'
'खैर बेटी...जकीर तो नहीं है...लेकिन तुम्हारे लिए इस घर में उसकी बनायी जगह अब भी महफूज है।'
'मैं इस घर को छोड़कर अब कहीं नहीं जाऊँगी, ममानी।'
सल्तनत को बहुत दिलासा हुआ कि दोजख से निकलकर निकहत वापस आ गयी।
भैरव और सल्तनत ने निष्कर्ष निकाला था कि जकीर की मौत सिर्फ किसी के दोस्त या बेटे या भाई की मौत नहीं है, बल्कि यह धरती के सच्चे बेटे उस किसान की मौत की सूचना है जो पूरी आबादी के लिए राशन उगाता है और पूरी दुनिया की भूख को करारा जवाब देता है। युगों से सहनशीलता की प्रतिमूर्ति माना जाने वाला यह किसान जब असह्य होकर आत्महत्या करने लगे तो निश्चित तौर पर यह हुकूमत के बद से बदतर होने की इंतहा है।
दोनों ने मिलकर तय किया कि अब हमें उस अगले चरण की कार्रवाई करनी होगी जिसे शांतिपूर्ण संघर्ष का अमोघ अस्त्र माना जाता है।
सल्तनत ने कहा, 'आमरण अनशन पर मैं बैठूँगी...बाकी सारा काम तुम सँभालेगे...सबसे संपर्क साधना, लोगों को एकजुट रखना, बयान देना, अफसरों-नेताओं से बात करना।'
'नहीं सल्तनत, यह सारा काम कुछ साथियों की मदद लेकर तुम करोगी...आमरण अनशन पर मैं बैठूँगा।'
दोनों में इस बात को लेकर देर तक हुज्जत होती रही। दोनों ही एक-दूसरे को भूखे-बेहाल देखने की कल्पना नहीं कर पा रहे थे।
'तुम्हें भूखा-प्यासा रहना पड़ेगा...लाचार, कमजोर, अस्वस्थ, कृशकाय और बदरंग हो जाओगी...मुझसे देखा नहीं जायेगा तुम्हारी यह हालत।'
'तुम क्या समझते हो तुम्हारी ऐसी हालत मुझसे देखी जायेगी? कभी नहीं। अनशन पर मैं ही बैठूँगी...यह मेरी जिद है। तुम अपनी सल्तनत को औरत जानकर बहुत कोमल, मासूम और मुरझा जाने वाली छुईमुई समझ रहे हो न...तो मैं तुम्हें दिखा दूँगी कि मुझमें भी बर्दाश्त करने की ताकत है।'
'इदरीश की ज्यादती सहते हुए मैं तुम्हें देख चुका हूँ चन्द्रमुखी कि मेरी सल्तनत जहाँ जीवटता और तरलता की निर्झरणी है वहीं उसमें चट्टान जैसी सख्ती, जुझारूपन और जीवटता भी है। इसीलिए तो चाहता हूँ कि तुम पूरी मुहिम की बागडोर सँभालो और अनशन पर मुझे बैठने दो।'
'नहीं...नहीं...मुहिम तो तुम्हें ही सँभालनी है। तुमने ही मुझे सब कुछ सिखाया है और अब भी तुम्हारी अक्ल के भरोसे ही चलती हूँ। मुझमें तो बस इतनी ही सिफत है कि तुम्हें देखकर मैं महीनों बिन खाये-पिये रह सकती हूँ।'
'तुम्हें देखकर क्या मैं नहीं रह सकता? '
'नहीं, बिल्कुल नहीं। मैं देख रही हूँ कि जकीर भाई के इंतकाल के बाद पहले ही तुम बहुत परेशान हो। कितने दुबले हो गये हो...पता भी है तुम्हें? हरदम कुछ न कुछ सोचते रहते हो।'
'तुम्हें तो यों ही लगता है कि मैं दुबला हो गया हूँ। इसीलिए पता नहीं क्या-क्या खाने के लिए मुझे देती रहती हो, लेकिन खुद का खयाल कभी नहीं रखती। दुबली तो तुम स्वयं ही हो गयी हो। मैं क्या यह नहीं जानता कि जकीर की याद तुम्हें भी जार-जार रुला देती है। कई बार मैंने देखा है कि तुम अकेले बैठे रो रही हो।'
'तुम भी तो रोते हो...यह क्या मुझे मालूम नहीं है? कल बाउजी आये थे। उन्होंने मुझसे कहा कि भैरव को समझाओ बेटी...जकीर तो कम्बख्त बेवफाई करके चला गया...अब उसके लिए और कितने आँसू बहाये जायेंगे? '
आँखें भर आयीं भैरव की, 'मैं क्या करूँ, सल्तनत...उसके बिना लगता है मैं भी आधा मर गया हूँ।'
'मुझे भी यह नहीं भूलता कि हमारी मुहब्बत की बेल का वह एक मजबूत सहारा था। हमारे लिए क्या नहीं किया उसने...कौन-सी जोखिम नहीं उठायी।' कहते-कहते सल्तनत भी सुबकने लगी।
भैरव सल्तनत की आँखें पोंछने लगा और सल्तनत भैरव की।
तय हुआ कि सल्तनत ही अनशन पर बैठेगी।
समान विचारधारा के साथियों, कार्यकर्ताओं और किसानों की एक सभा करके इस निर्णय के पक्ष में यथासंभव एक राय बनायी गयी। सभी प्रशासनिक महकमों और सरकारी मशीनरियों को सूचित करने के लिए एक प्रपत्र तैयार किया गया जिस पर ज्यादा से ज्यादा हस्ताक्षर एकत्रित किये गये।
भैरव ने तौफीक मियाँ को इसकी इत्तिला कर दी।
नहर का मुख्यालय, जहाँ उसका संचालन कार्यालय और मुख्य संयंत्र अवस्थित था, के पास एक छोटा शामियाना लगाया गया और उसमें नहर के जीर्णोद्धार से संबंधित माँगों के अनेक पोस्टर और बैनर टाँके गये। नीचे एक दरी बिछायी गयी जिस पर बैठकर सल्तनत ने आमरण अनशन शुरू कर दिया।
एक दिन...दो दिन...तीन दिन...चार दिन...पाँच दिन...। सल्तनत बिना अन्न-पानी के बैठी रही। लोग आ-आ कर नारेबाजी कर जाते...लेकिन आवाज कारगर नहीं हो रही थी। जिन कानों तक इन्हें पहुँचनी थी वे जंग खाये किसी पुराने कपाट की तरह बंद थे। कहीं से कोई इसकी परवाह करने वाला नहीं था। सल्तनत की हालत बिगड़ती जा रही थी। निकहत और भैरव उसकी देखभाल करने के नाम पर बस टुकुर-टुकुर ताकते रहते थे और उसकी नाड़ियों को टटोल-टटोल कर थाहते रहते थे।
यह लगभग स्पष्ट हो गया था कि सल्तनत मरे या जिये, कोई यहाँ घास डालने वाला नहीं है। लग रहा था कि पुलिस, प्रशासन और सरकार है ही नहीं इस देश में...और अगर यह सब है भी तो शायद इस क्षेत्र के लोग नागरिक ही नहीं हैं इस देश के।
भैरव को तीन-चार दिनों के बाद ही आभास हो गया था कि यह अमोघ अस्त्र हर आदमी के लिए एक-सा प्रभावकारी नहीं है। उसने कहा, 'सल्तनत, तोड़ दो यह अनशन...तुम्हारी सुधि लेनेवाला कोई नहीं है। एक अंधी-बहरी दीवार से अपना सिर टकराकर मरने से कोई फायदा नहीं। मिलिटेंसी और टेरर की भाषा जिसके पास न हो, उसका कोई सुनने वाला नहीं है। न तुम गांधी हो और न यह सरकार अंग्रेजों की है, इसलिए ऐसे सत्याग्रह निरर्थक हैं। चलो, घर चलें और आज ही से लग जायें एक नये इंतजाम में।'