सल्तनत को सुनो गाँववालो / भाग 4 / जयनन्दन
लिहाजा इस इलाके के माथे पर एक से एक बड़ी सार्वजनिक ट्रेजेडी लदती चली गयी। रेल लाइनें आत्महत्या के वधस्थल में बदल गयीं और स्टेशन उजाड़ बियावान बन गया।
चीनी मिल बंद हो गयी और गन्ने की फसल को इस इलाके से दरबदर कर दिया गया।
स्टेट ट्यूबवेल की साँसें उखाड़ दी गयीं और बिजली की हसीन सच्चाई को बदरंग सपनों में रूपांतरित कर दिया गया।
उपेक्षा और निकम्मेपन की मार से नहर के जिस्म जीर्ण-शीर्ण होते चले गये और वह स्थायी रूप से शिथिल हो गयी।
गाँव में पहले से हिन्दू-मुस्लिम एक साथ रहते आये हैं...अब तो धर्म, वर्ग (अगड़ा-पिछड़ा) ही नहीं, लगता है जाति के आधार पर गाँव बनने लगेंगे...बँटने लगेंगे। देखने में देश एक बार ही बँटा...परन्तु हकीकत यह है कि बँटवारा रोज-रोज हो रहा है।
तो यह पहला साल था जब नहर के पूरी तरह ठप हो जाने का अभिशाप कहर बनकर गाँव पर वरपा हुआ। गन्ने की फसल से होनेवाली नगद आमदनी के थमने का दंश अभी कायम ही था कि धान के मारा ने एक दूसरा सदमा दे डाला। घर की सारी जमापूँजी दम तोड़ते धान के बिरवे के साथ स्वाहा हो गयी। गाँव एवं जवार के जकीरों ने...मतीउरों ने...प्रभुदयालों ने अपने-अपने सिर पीट लिये।
जकीर ने आजिजी से कहा, 'अब मैं भी यहाँ क्या करूँगा, भैरव। धान का कटोरा माना जाने वाला यह क्षेत्र चावल के बिना तरस जायेगा। तुम नौकरी के लिए कहीं जानेवाले थे न...मुझे भी अपने साथ ले चलो।'
'जकीर, तुम एक किसान हो यार और किसान का अर्थ धैर्य और सहनशीलता की प्रतिमूर्ति होना होता है। जिसके लिए हिम्मत हारने का नाम नहीं होती...यह दुनिया को किसान ही सिखाता है। किसी भी तरह बोरिंग करवाकर तुम अपना एक डीजल पंप लगाओ।'
'डीजल पंप! तो क्या यह तय हो गया कि बिजली अब यहाँ कभी नहीं आयेगी? '
'बिजली इस तरह यहाँ रहेगी कि वह आयेगी भी नहीं और जायेगी भी नहीं। खम्भे गड़े रहेंगे और चोरों ने बख्श दिये तो तार भी तने रहेंगे...जैसे रेल लाइनें बिछी हैं। बिजली मनमर्जी कभी आयेगी भी...लेकिन उसी तरह जैसे ट्रेनें आती हैं, जिनके आने का समय कोई जान नहीं पाता, शायद विधाता भी नहीं।'
'भैरव, एक बात कहूँ यार,' जकीर की आँखों में एक अनुराग तिर आया, 'मैं दुख में होता हूँ तो तुम्हारा बोलना मुझे राहत दे जाता है। लगता है जैसे तुम सलाह देने की जगह मंटो का अफसाना पढ़ने लगे हो। दरअसल आशिक हो न...आशिक होकर मुसीबतों से लड़ना ज्यादा आसान होता है न भैरव...! यार, तुम्हें देखकर मुझे भी आशिक हो जाने का मन करता है।'
'जकीर, यह किसने कहा कि तुम आशिक नहीं हो? तुम मेरी दोस्ती के आशिक हो भाई...अपने खेत और उनमें उगनेवाली फसलों के आशिक हो...अपने गाँव और गाँव को चाहनेवाले लोगों के आशिक हो, क्या मैं सच नहीं कह रहा?'
'मालूम नहीं भैरव कि मैं तुम्हें, अपनी फसलों को, अपने गाँव को जिस तरह चाहता हूँ, उसे क्या कहते हैं। तुम्हारी तरह बहुत पढ़ा-लिखा नहीं हूँ न...लेकिन इतना कह सकता हूँ कि इन सबके होने से मुझमें कुछ फूल की तरह खिलता रहता है। मैं इस तरह तृप्त हो जाता हूँ जैसे नहर में लबालब पानी देख लिया होऊँ।'
'जकीर भाईजान, मुहब्बत इसी का नाम है। नहर का पानी मुहब्बत का ही तो एक रूप है। मुहब्बत का पहाड़ जब रिसता है तो उससे नदी निकलती है और फिर नदी से नहर।' कहीं से आकर सल्तनत ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी।
'अरे, मेरे और भैरव के बीच तुम कब दाखिल हो गयी। मतलब मेरे यहाँ से खिसकने का सिगनल हो गया।'
'आपलोगों की दोस्ती पहले है...मैंने तो बाद में घुसपैठ की है। आप दोनों की दोस्ती की बुनियाद न होती तो मैं भला आसपास कहाँ टिक पाती? '
'अब इस बात की चिन्ता करो सल्तनत कि हम सबके मुहब्बत का पानी नहर से इसी तरह सूखता चला गया तो इस गाँव में हम कब तक टिक सकेंगे? मतीउर को हम नासमझ मानते हैं न, लेकिन धान के मर जाने पर उसका चेहरा देखो, कितना बुझ गया है।'
'जब से उसने खेती-बाड़ी सँभाली है, वह बहुत समझदार हो गया है, जकीर भाई। पौधों ने, फूलों ने, फलियों ने, बालियों ने, खेतों की आलियों ने उसे काफी अक्ल दे दी है। उसने कई बार मुझसे पूछा है कि छोटी, क्या इस नहर में पानी कभी नहीं आयेगा? यह पूछना मुझे ऐसा आभास देता है जैसे परवरिश चलानेवाले किसी फराखदिल रिश्तेदार के गुजर जाने पर कोई पूछ रहा हो कि क्या वह कभी जिन्दा नहीं होगा? '
आसपास सघन भावुकता का जैसे एक चँदोवा तन गया। जकीर ने चँदोवे तले की आर्द्रता को महसूस किया और कहा, 'सल्तनत, पूँजी तो मेरी सारी खत्म हो गयी है, लेकिन कर्ज लेकर भी हम बोरिंग करवायेंगे और डीजल पंप बिठायेंगे। उस पंप की खासियत यह होगी कि उससे मेरी और मेरी जाति के ही नहीं बल्कि उसकी पहुँच में आनेवाले सारे खेत पटाये जायेंगे।'
भैरव ने इस अभिव्यक्ति पर उसे गर्वोन्नत नेत्रों से निहारा और अपनी दोनों बँहें फैलाकर उसे सीने से भींच लिया। भरे गले से उसने कहा, 'तूने मेरे मुँह की छीन ली, जकीर...अगर ऐसा तुम वाकई कर सके तो यह गाँव के लिए एक आदर्श मिसाल होगी, मेरे दोस्त।'
'भैरव...इस गाँव में जो एक टुच्चापन समा गया है, अगर वह न होता तो हमारे काफी खेत तबाह होने से बच जाते। यह कचोट मेरे सीने में पैबस्त हो गयी है, यार। जब तक कुछ कर न लूँ, कचोट कम नहीं होगी।'
सराहते हुए भैरव ने कहा, 'तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है, जकीर। देखना इसका कोई अच्छा फल मिलेगा तुम्हें। अगली फसल गेहूँ पर ध्यान दो...धान की कसक गेहूँ की अच्छी पैदावार से कम हो सकती है।'
जहाँ उसके सबसे ज्यादा खेत थे, उस जगह पर जकीर ने बोरिंग करवा ली और डीजल पंप बैठा लिया। इसे पूरा करते-करते काफी कर्जा-पैंचा लेना पड़ गया। सींचे गये खेत को कई चास जोतकर मिटटी खूब हलकी और फाहेदार बनाया गया तब गेहूँ के बीज छिड़के गये। धान की फसल को पोषित करने में व्यय होनेवाला धरती का जो उर्वरा-रस संचित रह गया था, गेहूँ के लिए वह वरदान साबित हो गया। पानी की कमी थी नहीं...तीन-चार पटवन अच्छी तरह की गयी। खूब जोरदार फसल हुई। जकीर ने अपने कहे अनुसार हर उस खेत को पानी दिया जो उसकी पहुँच के दायरे में आ सकता था, चाहे वह किसी भी जाति-धर्म का हो। जकीर ने दिखाया था सबको कि उसके पंप से कहीं ज्यादा पानी उसकी आँखों में है, जो अगर बचा रहे तो धान-गेहूँ से कहीं ज्यादा बड़ी, आदमीयत की फसल लहलहा सकती है। आज सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि यह पानी सर्वत्र सूख रहा है।
सब आह्लादित थे कि गेहूँ की यह अभूतपूर्व पैदावार सारी कंगाली दूर कर देगी। लेकिन होनी को शायद यह मंजूर नहीं था। कुछ गेहूँ कटकर खलिहान में आ गये थे और बाकी जोर-शोर से काटे जा रहे थे। फाल्गुन का आखिरी सप्ताह रहा होगा या चैत का पहला...जोरदार आँधी-पानी शुरू हो गया और पाँच-छह दिनों तक लगातार जारी रहा। मानो सावन-भादो का कसर प्रकृति चैत में निकाल रही हो। तैयार गेहूँ के लगभग तीन चौथाई दाने बाली के अंदर ही अँकुरा कर काले पड़ गये।
धनहर फसल की हानि में तो आदमी की करतूत शामिल थी। लेकिन तैयार रबी के समय प्रकृति ने क्रूर तांडव रच दिया और थाली में परोसा हुआ खाना मानो छीन लिया। प्रकृति के आगे चूँकि आदमी असहाय है, इसलिए इसका मलाल जरा जल्दी कम हो जाता है।
असली फसल के इंतजार में किसानों को कुछ कर्जा-पैंचा और बढ़ाना पड़ गया। जकीर के चेहरे की रौनक थोड़ी और कम हो गयी। मतीउर ने इस मर्तबा भी कई बार सल्तनत से पूछा कि 'ये आँधी-तूफान और बारिश कहाँ से और क्यों आते हैं?...और इन्हें आना ही है तो जब इनकी जरूरत होती है तो क्यों नहीं आते? '
सल्तनत ने बस इतना ही कहा, 'तुमने जिस सादगी, सरलता और मासूमियत से मुझसे पूछा है, वैसे ही इस जमीन-आसमान से पूछ लो, मेरे भाई...तुम्हें इसका जवाब वे जरूर दे देंगे।'
सल्तनत छत पर चढ़कर नहर के टूटे-फूटे किनारों और उसके फ़ॉल को देख रही थी जहाँ नीचे कंक्रीट के ढलान बने हुए थे तथा ऊपर इस पार से उस पार जाने के लिए पुल बना हुआ था। जब नहर पानी के वेग से उमड़ती हुई ठीक-ठाक चलती थी तो वह नौ गज का लहंगा पहने हुई और माँग में सिन्दूर भरे हुई एक अहियातन और बाल-बच्चेदार औरत की तरह शोभायमान रहती थी। उस फॉल पर नीचे पच्चीस-तीस हाथ लंबाई तक फर्श को पक्का कर दिया गया था और उस पर नहाने के लिए छोटे-छोटे चबूतरे बना दिये गये थे, जहाँ आसपास के गाँववाले स्त्री-पुरुष-बच्चे बिना किसी भेदभाव के ऐसे आनंदविभोर हो नहाते थे जैसे अपनी माँ की गोद में कूद-फाँदकर पानी से नहीं अमृत से नहा रहे हों। फाइव स्टार क्लब का स्विमिंग पूल भी क्या टिकेगा इसके सामने।
ढलान के ऊपर अथवा किनारे में बैठकर मुसहरी अथवा मुसलटोली के कई लोग कई-कई तरीके अपनाकर मछली मारते रहते थे। इन दिनों पूरा गाँव नहर की मछली से अघाया रहता था। मड़ुआ, मकई और धान आदि से मछलियाँ अदल-बदल हो जाती थीं। अब यह नहर राँड़ और निपूती के रूप में उस नग्न असहाय औरत की तरह लगती है जिसे किसी जालिम हुक्मरान ने बिना अन्न-पानी दिये निचोड़कर लावारिस हाल छोड़ दिया हो।
भैरव अक्सर कहा करता था - इस नहर ने हमारे तन-मन के न जाने कितने मैल बहाये हैं और कितने अन्न एवं दूसरी सौगातें दी हैं।
नहर पर एकटक टिकी सल्तनत की आँखें लगा अब बह उठेंगी। उसे भैरव की तलब होने लगी। पीछे मुड़कर देखा तो निकहत खड़ी है। ताज्जुब से भर उठी, 'निकहत तू? '
'हाँ, मैं अभी-अभी आयी हूँ...देख रही हूँ कि नहर से तुम्हारी बेआवाज गुफ्तगू में कितनी गहरी तल्लीनता है।'
'मु,झे यकीन नहीं हो रहा कि तुम मेरे सामने खड़ी हो। मैं बहुत ख्वाब देखती हूँ इन दिनों निकहत...कहीं तुम भी ख्वाब तो नहीं हो? '
'सल्तनत, तुम जो भी ख्वाब देखती रही हो, वह अक्सर सच होता रहा है।'
'तो तुम सचमुच आ गयी...इदरीश ने तुम्हें आने दे दिया? '
'वह मुआ भला क्यों आने देने लगा। धान के मर जाने और गेहूँ के सड़ जाने से घर की माली हालत लड़खड़ा गयी है...सो वह अतीकुर-मुजीबुर के पास चला गया है...शफीक मामू की तरह किसी नौकरी-चाकरी की तलाश में।'
'मुझे तो एकदम उम्मीद न थी कि तुमसे अब मुलाकात भी हो सकेगी। इतना पास रहती हो लेकिन लगता है कोसों दूर हो गयी हो।'
'मेरा जी भी बहुत मचल रहा था, सल्तनत। खासकर अम्मा को देखने के लिए रोज एक बार लगता था कि सरपट दौड़ पड़ूँ। अतीकुर-मुजीबुर ने एक खत में मुझसे अम्मा की खैरियत पूछी थी...मैं क्या बतलाती? '
'खैरियत पूछी थी? अम्मा की? अतीकुर-मुजीबुर ने? ' अचंभे में पड़कर कहा सल्तनत ने, 'तुम क्या कह रही हो, निकहत? '
'हाँ सल्तनत, हैरत क्यों करती हो...वे बुरे भी हैं तो यह खयाल क्या उन्हें नहीं होगा कि अम्मा ने ही उन्हें जनम दिया है। इतना ही नहीं, कहूँगी तो यकीन नहीं करोगी...कई खतों में तो उन्होंने तुम्हारे बारे में भी पूछा है।'
आँखें भर आयीं सल्तनत की, 'सच, मेरे बारे में भी पूछा है, तुम मुझे बहला तो नहीं रही हो न, निकहत दी? देखो, एक मैं हूँ...कितना कठोर, संगदिल, लापरवाह, खुदगर्ज...मैंने कभी उनके बारे में कोई खोज-खबर नहीं ली। वे लोग कैसे हैं, निकहत?'
'दोनों खूब मजे में हैं। दोनों ही बढ़िया नौकरी कर रहे हैं। शफीक मामू एक कलाली में मैनेजर हो गये हैं, उनकी भी अच्छी गुजर-बसर चल रही है।'
'निकहत, तुम तो बराबर लिखती हो न उन्हें। लिख देना कि मैं ठीक हूँ...अम्मा भी ठीक है और मतीउर भी। कहना - हमें उनसे कोई गिला नहीं है...वे जहाँ भी रहें, खुश रहें, हम यही दुआ करते हैं।'
'मैं उन्हें बराबर क्यों लिखने लगी, सल्तनत...कौन-सी खुशी है मेरे पास लिखने के लिए? तुम खुद ही उन्हें क्यों नहीं लिखती? '
'मैं लिखूँ? क्या मैं लिख सकती हूँ? वे बुरा नहीं मानेंगे? कहीं उन्हें अच्छा न लगा मेरा लिखना तो? नहीं...नहीं, तुम्हीं लिख देना, निकहत।'
'ठीक है, देखूँगी मैं। तुम सचमुच अच्छी हो न, सल्तनत? '
'हाँ निकहत, हाँ, मैं अच्छी हूँ लेकिन गाँव के कई मसले ऐसे हैं जो मुझे बेचैन किये रहते हैं। खैर, इन्हें छोड़...तू अपनी बता, कैसी हो? इदरीश कुछ नरम हुआ है या उसी तरह सूखा काठ है? औरत को पीटकर हवस पूरी करने की दरिंदगी अब तो नहीं करता है वह? निकहत, मेरा कहा बुरा लगे तो माफ कर देना...आखिर वह तुम्हारा शौहर है...मुझे उसके लिए ऐसी जबान...। '
'वह शोहदा मेरा कोई नहीं है, सल्तनत...वह मेरा कोई नहीं है। मैं इसे कैसे भूल सकती हूँ कि उसने मेरी दो-दो बहनों को बरबाद किया है...जिल्लत दी है।' गला भर आया निकहत का।
आँखें फाड़कर देखने लगी सल्तनत जैसे उसके इरादे की आहट लग गयी हो उसे, 'निकहत, कहीं तुमने कोई खतरनाक मंसूबा तो नहीं बना लिया है? '
निकहत ने कुछ नहीं कहा...सिर्फ उसके जबड़े कस गये और चेहरे पर एक सख्ती उभर आयी। सल्तनत ने इसे अच्छी तरह भाँप लिया।
'नहीं निकहत, नहीं। मेरी बहन, तुम ऐसा कुछ मत करना जो खौफनाक हो...जुर्म हो...गलत हो। जो हो गया उसे भूल जाओ। अपनी जिंदगी खामखा दाँव पर मत लगाओ...तुमने उसे शौहर के रूप में कुबूल किया है।'
'सल्तनत, तुम्हारे जैसा बड़ा दिल नहीं है मेरा। तुम उसे बचाना चाहती हो जिसने तुम पर एक से एक सितम और जुल्म ढाये हैं...जिसने हमारी बड़ी दीदी को जबर्दस्ती मौत के दोजख में ढकेल दिया? '
'ये कीड़े-मकोड़े जैसे बदनसीब लोग हैं, निकहत। इन्हें फना करने में हमें अपनी ऊर्जा बरबाद नहीं कर देना है। ताकत लगाने के लिए इनसे कई बड़ी-बड़ी मुसीबतें हैं हमारे पास।'
बहुत गर्व से देखा निकहत ने सल्तनत को, 'मान गयी मैं तुम्हें छोटी...बार-बार तुम साबित कर देती हो कि तुम छोटी नहीं, हम सबसे बड़ी हो। चलो ठीक है...तू अगर चाहती है कि जन्नत आपा की तरह मैं भी खामोशी से हलाक हो जाऊँ तो लो मैं उस शैतान को बख्श देती हूँ। ऊपर से मैं ठीक लग रही हूँ न देखने में लेकिन मेरी रूह जख्मों और नासूरों का एक अजायबघर बन गयी है, सल्तनत। मेरे ढके हुए बदन को उघारकर अगर मेरी रूह में उतर सकती हो तो लो हाजिर है।'
निकहत ने अपनी पीठ, छाती और जाँघ से कपड़े हटा दिये। इन्हें देखकर सल्तनत के रोयें सिहर गये। डंडे से आड़े-तिरछे काले-काले दाग इस तरह उगे थे जैसे गोदना गोद दिये गये हों।
उसने निकहत के हाथों को अपनी अँजुरी में भर लिया, 'नहीं बहन, नहीं। जैसे भी बचा सकती हो तुम अपने को, बचाओ। इस शातिर हैवान से तुम टक्कर ले सकती हो तो जरूर लो। जो अन्याय को पचा लेता है उसके जीने और मरने में कोई फर्क नहीं होता।'
दोनों बहनें गले लगकर फफक पड़ीं और हिचकियाँ ले-लेकर देर तक रोती रहीं। आसपास जकीर, उसकी अम्मा, मिन्नत और मतीउर भी आकर खड़े हो गये थे।
जकीर की अम्मा के बोल अनायास फूट पड़े, 'निकहत, तुम्हारे आँसू की कचोट ने मुझे यकीन दिला दिया है कि इदरीश सचमुच बहुत जालिम आदमी है। अगर तुम उस दोजख से निकल सको तो इस घर में तुम्हारे लिए एक खास जगह महफूज है...मैं ठीक कह रही हूँ न, जकीर? '
जकीर अपनी माँ का निहितार्थ समझकर ठगा-सा रह गया। सल्तनत और निकहत भी सुखद आश्चर्य से उनका मुँह देखने लगी। इसे तो सबने लक्ष्य किया था कि जब से सल्तनत इस घर में आकर रहने लगी, जकीर की माँ का दुराग्रह तेजी से बदलने लगा और उनकी छोटी-छोटी बीमारियाँ भी काफूर होती गयीं...वह प्रफुल्लित रहने लगी...लेकिन यह अनुमान किसी को नहीं था कि निकहत के लिए भी वह अपने घर में जगह बनाने लगी है। पता नहीं क्यों जकीर को भी यह खयाल बुरा नहीं लगा।
निकहत ने स्वीकार भरी मुद्रा में जकीर की तरफ देखा...जैसे पूछ रही हो कि क्या सचमुच इस घर में और तुम्हारे दिल में मुझे जगह मिल सकती है? क्या इस आश्वासन पर मैं अपने अभिशाप से मुक्त होने के लिए जोखिम उठा लूं? जकीर की आँखें यों चमकीं जैसे उसने हामी भर दी हो। सल्तनत इन दो जोड़ी आँखों की भाषा पढ़कर विभोर हो गयी।
मिन्नत अपनी सबसे सुशील और शालीन बेटी निकहत को टटोल-टटोल कर लाड़ करने लगी जैसे जानना चाह रही हो कि उसकी काँच की बनी लाड़ली बेटी कहीं से दरक तो नहीं गयी।
गेहूँ के पानी खाये सड़े बोझों को किसानों ने खोल-खोलकर खलिहान में सुखाना शुरू कर दिया था कि शायद कुछ अपने खाने लायक या जानवरों के खाने लायक अन्न निकल आये। पैदावार संतोषजनक हो तो खलिहान से उत्साह और हर्ष का एक नाद छलकता रहता है...अन्यथा एक गमी या अफसोस की चुप्पी भायँ-भायँ करने लगती है।
पहले सभी गाँववालों के खलिहान एक साथ ही हुआ करते थे। अब यादव, कोइरी, मुसलमान और अगड़ों (भूमिहार एवं ब्राह्मण) के खलिहान अलग-अलग चार ठिकानों पर दिखाई पड़ने लगे थे।
सल्तनत इन खलिहानों में रोज घूमने लगी...सबसे बात करने लगी...एक आगे बढ़े हुए गाँव को और भी आगे बढ़ने की जगह पिछड़ते चले जाने के मुद्दे पर उनकी राय लेने लगी, अपनी राय देने लगी। नहर सबकी रोजी-रोटी का मूल आधार है, फिर भी इसके दम तोड़ देने पर कोई विलाप नहीं...कोई गुस्सा नहीं...कोई हलचल नहीं। सब चुप ही रह जायेंगे तो इनकी परवाह क्या दूसरे जिले या दूसरे सूबे के लोग आकर करेंगे?
कुछ लोग सल्तनत को संजीदगी से सुनते और अपनी सहमति व्यक्त करते। कुछ लोग ताज्जुब करते कि ऐसे अहम सार्वजनिक मुद्दे को अपनी निजी चिन्ता बना लेने का ऐसा उपक्रम पहले कभी नहीं देखा गया। कुछ लोग उसका मजाक उड़ा देते कि चूल्हा-चौका करनेवाली यह लड़की चली है बड़ी-बड़ी बातें करने। कुछ लोग तो उसके प्रेम-प्रकरण को छेड़कर लुत्फ लेने लगते।
'सुना है, प्रभुदयाल के बेटे भैरव से तुमने ब्याह कर लिया है? '
सल्तनत इन प्रश्नों पर कोई खीज प्रदर्शित नहीं करती। बड़े संयम से जवाब देती हुई कहती, 'किया नहीं है अब तक लेकिन कर लूँगी।'
'गाँव के मुसलमान कहते हैं कि इससे उनकी नाक कट जायेगी। तुम्हें इसकी जरा भी परवाह नहीं है? वे तुमसे बहुत नाराज हैं...तुम्हारे रवैये से खीजकर तुम्हारे भाई तक तुम्हें छोड़कर चले गये।'
'प्यार का मतलब सबको जल्दी समझ में नहीं आता है, मामू। जिसे समझ में आ जाता है उनकी इज्जत आफजाई हो जाती है। नाक उनकी कटती है जो मतलब नहीं जानते और लकीर के फकीर हैं...दकियानूस हैं।'
सल्तनत के निस्संकोच और निर्भीक संभाषण से कई ऐसे लोग मिले जो उसके प्रशंसक हो गये। बलात निकाह की खिलाफत और अपने प्रेम का खुलकर इजहार करने की उसकी दिलेरी से लोग पहले ही अवगत थे और उसकी चर्चा पूरे इलाके में थी।
गाँव में कुछ ऐसे लोग और कॉलेज में पढ़नेवाले कुछ ऐसे लड़के निकल आये जो सल्तनत की बेचैनी में पूरी तरह शरीक हो गये। उन्होंने महसूस किया कि जाति और मजहब के दायरे को तोड़कर जब तक संगठित प्रयास नहीं किये जायेंगे, सार्वजनिक कल्याण से जुड़े वे साधन सुरक्षित नहीं रखे जा सकेंगे, जिन पर सबकी खुशहाली और आजीविका टिकी है।
भैरव ने भी आसपास के गाँवों के अपने कॉलेज जमाने के युवा साथियों से संपर्क कायम किया और उन्हें नहर के लिए चलायी जाने वाली प्रस्तावित मुहिम में साथ देने की अपील की।
भैरव और सल्तनत नहर तट के गाँव-गाँव में अब इकट्ठे दर्जनों कार्यकर्ताओं के साथ घूम-घूम कर जन-जागरण चलाने लगे...बैठकें होने लगीं...सभाएँ होने लगीं...रैली और जुलूस निकाले जाने लगे। आम जनता हसरत और कौतूहल से देखती कि बुर्के की सरहद को तोड़ देनेवली यही वह बहादुर मुसलमान लड़की है जिसने एक थोपे हुए शौहर को लाख जुल्म-ज्यादियों के बाद भी शिकस्त दे दी और अपनी मुहब्बत का इकरार करने में कोई झेंप नहीं दिखायी...अब एक ऐसे मिशन के लिए भाषण कर-करके सबकी सुसुप्त चेतना जगाने निकल पड़ी है, जिसे बचाने के लिए इस इलाके को बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने की कीमत भी कम ही मानी जायेगी।
सल्तनत और भैरव ने एक साथ महसूस किया कि उनका प्यार एक सार्थक परिप्रेक्ष्य में नया आयाम ग्रहण करने लगा है। उन्हें यह भी लगा कि खलिहानों के बीच की दूरी कुछ-कुछ कम हो गयी है।
एक दिन प्रभुदयाल आ गये सल्तनत के पास। उसे गौर से निहारा और कहने लगे, 'सल्तनत, दुनिया कह रही है कि तुम मेरी बहू हो, अगर यह सच है तो मैं तुम्हें लेने आया हूँ, बेटी।'
बहुत भावुक हो गयी सल्तनत और विस्फारित तथा अविश्वसनीय नेत्रों से अपलक देखती रह गयी प्रभुदयाल को। उसने तो सोच रखा था कि भैरव के घर तक का सफर काफी मुश्किलों, मुसीबतों और टकराहटों से भरा होगा। लोग दहाड़ेंगे...उसकी औकात बतायेंगे...उसे धिक्कारेंगे...उसे निर्लज्ज, बेहया और नीच साबित करेंगे। अब तो एक पैर से लँगड़ी हो गयी है, इसके लिए भी उसे कोसा जायेगा और उसे अपाहिज-नाकाबिल बताया जायेगा। उसे बासी और रौंदी हुई एक बेअस्मत लड़की बताया जायेगा। लेकिन यह सब कुछ नहीं हो रहा। देहात का एक मामूली किसान अपनी रूढ़ियों और आग्रहों से क्या इस तरह अचानक मुक्त होकर उदात्त हो सकता है?
सल्तनत ने अभिभूत होकर बड़े आदर से कहा, 'इतनी आसानी से आप मुझे स्वीकार कर लेंगे...मुझे लग रहा है जैसे एक सपना देख रही हूँ। यह तो ऐसा करिश्मा हो गया जैसे हमारी नहर में ढेर सारा पानी आ गया हो। मुझे यकीन नहीं हो रहा कि आप सचमुच मेरे सामने खड़े हैं और मुझे लेने आये हैं।'
प्रभुदयाल का भोलापन और भी गाढ़ा हो गया, 'यकीन तो खुद मुझे भी नहीं हो रहा कि मैं लेने आ गया हूँ तुम्हें बिना बारात और फेरे के। लेकिन मैं जानता हूँ कि जैसे जाति और धर्म तुमलोगों के लिए कुछ नहीं है, वैसे ही बारात और फेरे भी तुमलोगों के लिए कोई मानी नहीं रखते।'
सल्तनत की विह्वलता पानी की तरह पसीज गयी, 'जी तो चाहता है बाउजी कि इसी वक्त मैं आपके साथ घर चल चलूँ जो सही मायने में मेरा अपना घर होनेवाला है। लेकिन आप जानते हैं कि हमने अपने गले में एक जेहाद और जुनून बाँध लिया है, जिसके सामने अपनी निजी चिन्ता जरा पीछे छोड़नी पड़ रही है।'
'यह जानने के बाद ही तो मैं समझ सका कि तुम क्या हो। मुझे लगा कि तुमसे अच्छी बहू तो सचमुच कोई दूसरी हो ही नहीं सकती। नहर से मेरा रिश्ता औरों की बनिस्बत कुछ ज्यादा ही घनिष्ठ रहा है। नहर ने मुझे नौकरी भी दी थी और अब मैं देख रहा हूँ कि नहर के नहीं रहने से जो बेचैनी मेरे भीतर घुट रही थी वह तुम्हारी मार्फत अब जगजाहिर होने लगी है। मुझे बहुत अच्छा लगा, सल्तनत...आज तक किसी ने भी तो इसके उद्धार के लिए ऐसी आवाज बुलंद नहीं की। अपने को एक से एक धाकड़ और रसूखदार कहनेवाले लोग है यहाँ। सभी तमाशबीन बने हुए थे जैसे किसी दैवी शक्ति की बाट जोह रहे हों या फिर सोच रहे हों कि हम क्यों जहमत उठायें...कोई दूसरा क्यों नहीं। तुमने लड़की होकर भी यह बीड़ा उठा लिया है...भैरव से मेरी यह गिला खत्म हो गयी कि वह नौकरी क्यों नहीं करता। यह नहर सलामत हो तो हजारों-हजार नौकरी और भरण-पोषण का इंतजाम समाया है इसमें। हम भूखे रहकर भी भैरव को इस काम में भिड़ा देखकर संतोष कर सकते हैं।'
सल्तनत अपादमस्तक श्रद्धासिक्त हो गयी, 'बाउजी, मुझे आज समझ में आ गया कि भैरव...भैरव क्यों है? इसलिए कि वह आपका बेटा है। तौफीक मामू ने आपके बारे में एक बार कहा था कि मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ। जो चीज उसे समझ में आ जाये उसके लिए वह हर चलन और रिवाज तोड़ सकता है...आज मैंने इसे सच पाया।'
'तो तुम आओगी न! '
'आपकी इजाजत का तोहफा मिल गया, अब ना का सवाल ही कहाँ है? '
'तो इसे मैं तुम्हारी मर्जी पर छोड़ता हूँ...जब तुम ठीक समझो, आ जाना। मेरा घर तुम्हारे स्वागत के लिए हमेशा तैयार मिलेगा। चलता हूँ।'
सल्तनत को लगा कि प्रभुदयाल के रूप में सारी दुनिया का प्रोत्साहन उसके साथ हो गया है। उसके भीतर एक नया जोश छलछला उठा।
भैरव और सल्तनत विभिन्न गाँवों के कुछ अग्रणी प्रतिनिधियों के साथ सांसद टेकमल से मिलने चले गये।
'मेरा नाम सल्तनत है।'
'मैं भैरव हूँ।'
एक अकड़ में बैठा हुआ घूरकर देखा टेकमल ने, 'अच्छा...अच्छा। सल्तनत और भैरव। लैला-मजनूँ की तरह प्रेमियों की एक और जोड़ी। नाम सुना है भाई तुमदोनों का। तुम्हारे प्यार के काफी चर्चे हैं इस इलाके में। बहुत खूब...प्यार होना चाहिए...तुमदोनों की मिसाल इस जनपद में प्रेम करनेवालों को एक नयी प्रेरणा देगी। यह भी सुना है कि तुमलोग नहर को दुरुस्त करने के लिए एक तेज अभियान चला रहे हो। इसी सिलसिले में आये हो न मेरे पास? '
'जी हाँ, हम इसी सिलसिले में आपके पास आये हैं। इस जिले के लिए नहर खुशहाली और आजीविका का एक स्रोत है।'
'भाई, अब मुझे तुमलोग नहर का महात्म्य तो न समझाओ। मैं भी यहीं का रहनेवाला हूँ। हमारे खेतों को भी इसी नहर से संजीवनी मिलती रही है। मैं प्रतिनिधि हूँ इस क्षेत्र का...इसलिए ऐसा नहीं है कि नहर की दुर्दशा से अपरिचित हूँ। मुझे अच्छा लगा कि तुम सबने यहाँ के लोगों की लापरवही को झकझोरने का काम किया है। इन्हें जरा समझ में तो आये कि नहर जैसे बड़े-बड़े विकास-स्रोतों को कायम रखने में क्या कुछ करना होता है? आज तक किसी दूसरी जाति ने मुझे वोट नहीं दिया। मैं सिर्फ अपनी जाति के वोट से विजयी होता रहा हूँ। अब आज नहर अवरुद्ध हो गयी है तो क्या सिर्फ मेरी जाति के लोग ही भुगत रहे हैं? अगर नहर फिर से चालू हो जाती है तो क्या सिर्फ मेरी ही जाति के लोग उससे फायदा उठायेंगे? क्या लोगों को इतनी सी बात समझ में नहीं आनी चाहिए? '
सभी सुनने वाले ठगे रह गये जैसे एक सांसद ने नहीं, किसी अधकचरे फुटपाथी आदमी ने अपनी बात रखी हो।
भैरव ने जरा रुक्ष होकर कहा, 'टेकमल जी, जनता वोट दे या न दे...विकास कार्य को आगे बढ़ाना या उसे बहाल रखना सरकार का फर्ज होता है। आप प्रतिनिधि सिर्फ अपने जातीय वोटरों के ही नहीं है, बल्कि उनके भी हैं जिन्होंने आपको वोट..। '
टेकमल फनफना गये, 'भैरव और सल्तनत! मैं जानता हूँ कि तुमलोग किसके इशारे पर और किस मकसद से नहर को मुद्दा बनाकर खुद को चर्चा में लाना चाह रहे हो? तौफीक मियाँ ने तुमलोगों को राजनीति में उतारने का बढ़िया तरीका निकाला है। अच्छा है, हिन्दू और मुसलमान, दोनों के वोटरों को तुमलोग अपनी तरफ मोड़ सकते हो। लेकिन सुन लो, जीतूँगा यहाँ से मैं ही। नहर पर तुम्हारी राजनीति आगे नहीं बढ़ सकती।'
'टेकमल जी, वोट के अलावा भी दुनिया में बहुत कुछ होता है। मैं जानती हूँ आप बहुत पुराने मँजे हुए नेता हैं और बहुत मामूली चीजों को भी बहुत फैलाकर देखने की कला है आपके पास। लेकिन आप यकीन मानिए, फिलहाल हमारी मुराद सिर्फ नहर से है। मेहरबानी करके आप हमें यह बताने की जहमत करें कि एमपी कोटे का एक करोड़ रुपया सुना है अब तक रखा है, क्या उसे नहर की मरम्मत में लगाना उचित नहीं होगा? इतनी रकम से पूरा नहीं तो आधा-अधूरा कुछ काम तो हो ही जायेगा।'
'नहीं, यह संभव नहीं है। इस पैसे से हम अपने क्षेत्र के प्रत्येक गाँव में चरवाहों के लिए एक-एक विद्यालय भवन बनवाने जा रहे हैं। तुमलोग कुछ ज्यादा ही जल्दी में हो। यह काम इस तरह फटाफट नहीं हो सकता। मुख्यमंत्री से मेरी बातचीत हो चुकी है। कृषि मंत्रालय ने इसे अपनी कार्य योजना में शामिल कर लिया है। अभियंताओं का एक आकलन दल जल्दी ही मौके का दौरा करने वाला है।'
'टेकमल जी, अगर जल्दी कुछ नहीं किया गया तो धान की अगली फसल भी खाली चली जायेगी...फिर तो यहाँ के किसान पूरी तरह तबाह हो जायेंगे।'
'देखो भाई, अभी तुमलोग एकदम बच्चे हो...कुछ मालूम नहीं है तुम्हें कि दुनियादारी क्या चीज होती है। सरकारी काम को अंजाम देने का एक ढंग होता है...एक रफ्तार होती है। कोई आग बुझाने का काम तो है नहीं कि दमकल लगाकर फटाफट बुझा दिया। मुझे खुद इसकी चिन्ता है...अगले साल चुनाव होनेवाला है। आपलोगों को इतना आश्वासन दे सकता हूँ कि इस विषय पर कार्रवाई शुरू हो गयी है...आगे आपलोगों की मर्जी। चाहें तो मुख्यमंत्री से मिल लें...प्रधानमंत्री से मिल लें...जनतंत्र है, आप कहीं भी जा सकते हैं।'
जिस तरह की बातें हुईं, किसी को भी इस टेकमल पर कोई भरोसा नहीं हुआ। सबने तय किया कि मुख्यमंत्री से मिलकर ही वस्तुस्थिति की सही जानकारी ली जाये। भैरव कुछ लड़कों के साथ राजधानी जाकर यह काम भी कर आया। मुख्यमंत्री का वही स्टीरियोटाइप घिसा-पिटा जवाब...हम छानबीन करेंगे...प्रगति का जायजा लेंगे...जल्दी करने का निर्देश जारी करेंगे।
सावन फिर आ गया। धान की गाछी पारकर किसान रोपा करने के लिए तैयार थे, मगर नहर की दुर्दशा में कोई फर्क नहीं...पानी एकदम नदारद...वर्षा में भी कोई खास दम नहीं...कभी चार बूँद, कभी आठ बूँद, कभी सिर्फ गर्जन-तर्जन। देखने से लगता था कि नहर शर-शैया पर किसी कंकाल की तरह चित लेटा पड़ा है। उसके बगल में निचली सतह पर बहनेवाली सकरी नदी पानी से भरी हुई उफनती-लहराती बहे जा रही थी। यह कैसी विडम्बना थी कि गाँव की करवट में पानी का अविरल प्रवाह जारी था फिर भी खेत प्यासे थे। कैसी हरजाई है यह नदी कि आँचल में दूध रखकर भी अपने बच्चों को तड़पा रही है। सल्तनत कभी छत पर खड़े होकर देखती थी...कभी नदी के तट पर जाकर उसे निहारती थी। एक मर्तबा भैरव ने उसे समझाया था, 'नदी का इसमें कोई कसूर नहीं है, सल्तनत। गुनहगार हम स्वयं और हमारी बनायी व्यवस्था है। आज से सैंतालीस साल पहले जबकि देश विकास का ककहरा शुरू कर रहा था तो एक मुख्यमंत्री ने साहस किया और इतनी बड़ी नहर खुदवा दी। आज हमारे पास हर तरह के संसाधन हैं...राजकोष में पैसे की कमी नहीं है, फिर भी उस खुदी हुई नहर का रख-रखाव तक करना मुहाल हो गया। इसका सबसे ज्यादा जिम्मेदार हम जनता हैं कि टेकमल जैसों को अपना भाग्यविधाता बना देते हैं।'
सल्तनत देख रही थी कि जकीर का चेहरा उतरता जा रहा था। पंप की पहुँच वाले खेत में उसने रोपा कर दिया था, लेकिन इतना से साल भर तो क्या तीन महीने भी लगातार चूल्हा नहीं जलनेवाला था। गन्ने के बाद धान पर ही गृहस्थी का सारा दारोमदार टिक गया था। अब जकीर के पास भी कोई काम नहीं बचा था। गाँव के सभी लोग हताश-उदास इधर-उधर यों ही डोल रहे थे जबकि इस मौसम में किसी को छींकने-खाँसने तक की फुर्सत नहीं हुआ करती थी। पूरा धनहर बाँध हलवाही की एक आह्लादित ध्वनि से गुंजरित रहा करता था, जिसमें बैलों के ललकारने-पुचकारने तथा पानी के छपर-छपर की मनोहारी आवाजें शामिल रहती थीं। गृहिणियाँ कलेवा बनाने और ले जाने में मशगूल हो जाया करती थीं। इस बार किसी के पास कोई काम नहीं था। बिना किसी प्राकृतिक आपदा के गाँव की ऐसी फटीचरी हालत पहले कभी देखी नहीं गयी थी।
उबासी और बोरियत से लदी इन्हीं परिस्थितियों में एक दिन मतीउर ने बहुत सकुचाते हुए कहा। यह कहने के लिए वह कई दिनों से मन बना रहा था, 'छोटी दी, अब इस गाँव में मेरे करने के लिए कुछ नहीं रह गया है, लगता है जैस खाली वक्त मुझे काटने दौड़ रहा हो। बुरा न मानना दी...मैं अब यहाँ से जा रहा हूँ।'
सल्तनत की देह का जैसे सारा खून जम गया। हकलाते हुए पूछा उसने, 'जा रहे हो, लेकिन कहाँ? '
'हाफिज जी के पास अतीकुर की चिट्ठी आयी है। उसने लिखा है कि अगर मैं जाना चाहूँ तो उसके पास जा सकता हूँ...वह मुझे वहाँ कोई काम दिला देगा।'
'हाफिज जी ने क्या तुम्हें खुद बताया? '
'हाँ।'
'अतीकुर ने क्या और भी किसी के बारे में कुछ लिखा है? '
'अम्मा के बारे में लिखा है कि वह भी अगर जाना चाहे तो मैं उसे अपने साथ लेता आऊँ।'
सल्तनत की आँखें डबडबा गयीं और गला रुँध गया।
'तुम घबराओ नहीं दी, मैं अम्मा को नहीं ले जा रहा...वह तुम्हारे पास ही रहेगी।'
'मुझे और इस गाँव को छोड़कर तुम भी मत जाओ, मतीउर। तुम्हारे बिना मेरा बहुत कुछ सूना हो जायेगा। तुम्हारे और अम्मा की शह-हिमायत और निगरानी ने ही तो मुझे जिंदा रखा है।'
'मैं तुम्हारे और अम्मा के लिए वहाँ से पैसे भेजूँगा दी।'
'मुझे पैसे नहीं, मतीउर...गाँव में तुम्हारा साथ चाहिए। फितरत से तुम एक सच्चे किसान हो...तुम्हारे जैसे लोग यहाँ नहीं रहेंगे तो हमारे जेहाद करने का मतलब ही क्या रह जायेगा? '
'मुझे इस तरह की बातें समझ में नहीं आती दी।'
'मतीउर, मैं कहना चाहती हूँ कि नहर में पानी आयेगा, तुम विश्वास करो। हम यह लड़ाई बहुत दूर तक लड़ेंगे। खेती तुम्हारी तबीयत, कूबत और फितरत का काम है। इसके सिवा दूसरा कोई भी काम तुम्हारे दर्जे को बहुत छोटा कर देगा।'
'हाफिज जी का बेटा और दूसरे कई लोग जा रहे हैं, दी। मैंने इनके साथ जाना तय कर लिया है।'
'मतलब काफी लोग गाँव से उखड़ रहे हैं।' सल्तनत की मायूसी में एक वेदना समा गयी।