सल्तनत को सुनो गाँववालो / भाग 3 / जयनन्दन
मिन्नत घर में ही थी, लेकिन घर से पूरी तरह बेखबर। एक पानी से भरी बालटी में अपनी एक पुरानी साड़ी को डुबोकर निचोड़ती थी...आँगन में टँगे तार के टँगने पर पसारती...फिर तुरंत उसे उसी बालटी में डुबोकर निचोड़ती...तार के टँगने पर पसारती....। यह प्रक्रिया वह कई बार दुहरा चुकी थी। बंद कमरे से सल्तनत के रोने-तड़पने की व्याकुल कर देनेवाली आवाज जब उसे सुनी पड़ी तो वह अपनी सनक भरी मसरूफियत छोड़कर दरवाजे की साँकल खोलने के लिए लपक पड़ी। उसे सबसे अधिक चाहनेवाली बेटी मुसीबत में है, शायद इस आभास ने उसे उकसा दिया था। अतीकुर-मुजीबुर ने उसे बीच में ही रोककर बहलाते-बरगलाते हुए दरवाजे के बाहर पहुँचा दिया, जहाँ से एक आदमी उसे मस्जिद की तरफ लेकर चला गया।
सल्तनत-मतीउर एक-दूसरे को बहुत मानते थे। मतीउर के खाने-पीने का पूरा ध्यान सल्तनत ही रखती थी। दिमाग से उसके तनिक सुस्त होने के कारण घर में उसकी होने वाली अवहेलना एवं दुरदुराहट का सल्तनत सदा विरोध करती थी। मतीउर सल्तनत की अपने प्रति इस मृदुलता एवं आत्मीयता को समझ लेता था और अपनी इस बहन के लिए मन में सबसे ज्यादा स्नेहभाव रखता था।
आज वह हल-बैल लेकर सुबह ही सुबह किसी दूर के खेत पर भिड़ा दिया गया था। शफीक जानते थे कि मतीउर अपनी नजर के सामने सल्तनत के साथ कोई भी ज्यादती बर्दाश्त नहीं कर सकता।
सल्तनत की एक और शुभचिंतक थी घर में उसकी बड़ी बहन निकहत। वह बेचारी चुपचाप एक कोने में बैठकर लोर चुआ रही थी।
तौफीक घर से बाहर निकल गये। देखा, दरवाजे के बाहर कई लोग आसपास मँडराते हुए खुसुर-फुसुर कर रहे हैं। ये सभी शायद किसी योजना के तहत तैनात किये हुए मजहब के चरमपंथी थे। तौफीक ने मामले के समीकरण को समझ लिया कि इनके इरादे नेक नहीं हैं।
वे जकीर के घर आ गये। जकीर और भैरव दीवार के इस पार से सारा माजरा सुन और समझ रहे थे। इन्हें इस तरह परेशान और हताश देखकर दोनों ने सहारा दिया।
'अंकल, आप इस तरह अधीर हो जायेंगे तो हमें ताकत कहाँ से मिलेगी...कौन देगा? ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका के नाम पर प्रपंच को आपने देखा है...साम्यवाद फिर भी खत्म नहीं हो गया। सल्तनत को कुछ नहीं होगा...आपने ही तो उसकी मिट्टी को पकाया है, अंकल।' भैरव ने विनय और आदर घोलकर कहा।
'वे लोग अभी और इसी समय इदरीश के साथ उसका जबर्दस्ती निकाह करा देने वाले हैं।'
जकीर ने अपनी मुट्ठियाँ कस लीं, 'तो आप बताइए, हमें क्या करना चाहिए? जाकर सल्तनत को छुड़ा लें? पाँच-दस आदमी तो हम भी जुटा ही सकते हैं।'
'अभी तो कुछ भी जवाबी कार्रवाई करना लाजिमी नहीं है। उनके मंसूबे बिगड़े हुए हैं। मैंने घर के बाहर देखा है...मुसलटोली के सारे चरमपंथी मौजूद थे, जिमें हाफिज करामात भी शामिल था। जाहिर है इनके सामने जाना...मतलब सीधी भिड़ंत और खून खराबा। यह अच्छा नहीं होगा, भैरव। मैं ठीक समझ रहा हूँ न!'
'आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं...सल्तनत से मेरी नजदीकी का मतलब गाँव की फिजा को दूषित करना कतई नहीं है। जबर्दस्ती का निकाह मजहब के इन कठमुल्लों को मंजूर है तो हो जाने दीजिए यह निकाह और उड़ जाने दीजिए मजाक एक उसूल का...एक शरीयत का। ऐसे-ऐसे थोपे हुए सौ निकाहों का भी उस पर कोई असर नहीं होने वाला है।'
दीवार के इस पार हल्ला-गुल्ला काफी बढ़ गया था। जो लोग मोर्चा सँभालने के लिए बाहर खड़े थे, वे अब अंदर चले गये थे। सल्तनत का दहाड़ना-चीखना बदस्तूर जारी था। इस कोलाहल के बीच ही हाफिज के कलमा पढ़ने की आवाजें उभरने लगी थीं। इस तरफ से तीनों ने अपने कान दीवार पर चिपका दिये।
हाफिज पूछ रहा था - 'निकाह कुबूल है?' सल्तनत हर बार कह रही थी - 'नहीं...नहीं...नहीं...।' बावजूद इसके 'मुबारक हो...मुबारक हो' की आवाजें आने लगीं।
तौफीक को लगा कि उसके कान के पर्दे फट जायेंगे। उन्होंने अपने कान बंद कर लिये, 'अब सहा नहीं जाता, जकीर। लगता है जैसे सल्तनत को हमलोगों ने एक दोजखनुमा इम्तहान के लिए अकेले छोड़ दिया है।'
'यह सचमुच ट्रैजेडी है अंकल कि उसे अपने उन सहोदर भाइयों की बर्बरता झेलनी पड़ रही है जिन्हें आपने अपने सारे साधन लगाकर बेहतरीन तालीम और परवरिश दी।'
भैरव के चेहरे पर अवसाद की बहुत गाढ़ी परछाईं उतर आयी। लगता था जैसे वह जार-जार रो पड़ेगा। उसके मन में यह संशय उभरने लगा था कि क्या उसका प्यार भी जुल्मो-सितम की बलिवेदी पर हलाक हो जायेगा?
काफी देर खामोश रहने के बाद तौफीक ने कहा, 'जकीर...भैरव। अब मैं यहाँ और नहीं रुक सकता। आज मैं, अपना एक बहुत बड़ा मुकाम, जिसे लोग घर कहते हैं, छोड़कर जा रहा हूँ। यह घर आज से मेरे लिए पराया हो गया...लेकिन यह गाँव मेरा और भी अपना हो गया। इसलिए कि यहाँ जीवटता की मिसाल सल्तनत है...भैरव है और जकीर है। सल्तनत जब लौटकर आयेगी तो इसके लिए यह घर भी पराया हो चुका होगा...फिर भी वह यहाँ बेघर नहीं होगी...यह इत्मीनान तो मैं कर सकता हूँ न भैरव...जकीर ?'
'बिल्कुल कर सकते हैं, अंकल। मैं पूरी दुनिया से दुश्मनी मोल लेकर भी भैरव और सल्तनत के लिए जो मुमकिन होगा, करूँगा।'
'लेकिन तुम उसे यह घर नहीं दे सकते, जकीर।' अचानक एक आदेशात्मक स्वर ने हस्तक्षेप किया, 'यहाँ वह लड़की कभी नहीं रह सकती जो बिरादरी के माथे पर कलंक हो और एक गैरमजहब के लड़के से इश्क लड़ाये।'
यह जकीर की वालिदा थी जो शायद कहीं से पूरी गुफ्तगू सुन रही थी। तौफीक इस दो टूक बात पर पहले तो चौंके, फिर वे समझ गये कि जकीर की अम्मा की एक सीमा है और दिमाग की तंग धुरी से ज्यादा इधर-उधर होना इस औरत के लिए मुमकिन नहीं है।
जकीर उसे बरजने लगा, 'अम्मा, हमारी बातचीत के बीच में तुम क्यों टपकती हो?'
'तुम्हारी बातचीत का जो मुद्दा है उसके असर से पूरे गाँव को फर्क पड़ने जा रहा है, फिर मैं चुप कैसे रहूँ? तुमलोग अपने ही कौम को नीचा दिखाने की साजिश कर रहे हो। इस मुए तौफीक को तो मैं एक मुद्दत से जानती हूँ...किसी को भड़काने और बिगाड़ने की सिफत का यह एक माहिर खिलाड़ी रहा है। कई बार तो इसने खेतों में काम करनेवाले जन-मजूरों को भी भड़काने का काम किया है।'
'अम्मा, ठीक है...ठीक है, भाषण मत दो। अगर यह घर सिर्फ तुम्हारा है, मेरा नहीं...और यहाँ सिर्फ तुम्हारी मर्जी ही चलेगी तो फिर सल्तनत के लिए मैं एक दूसरा घर भी ढूँढ़ सकता हूँ। अपने दो बेटों के बिना तो तुम रह ही रही हो, लगता है अब इस तीसरे बेटे के साथ भी रहना तुम्हें गवारा नहीं।' जकीर ने जैसे अपने तरकश का ब्रह्मास्त्र चला दिया।
अम्मा ढीली पड़ गयी, 'बस यही एक हथकंडा है न तुम्हारे पास मुझे चुप कराने का...तो ले मैं चुप हो गयी। शर्म नहीं आती...मुझे इस बुढ़ापे में छोड़कर, कहता है चला जायेगा। अरे यह घर अगर मेरा ही है तो और कितना दिन...दो-चार दिन ही न! उसके बाद तो तुम्हीं मालिक हो न इसका?'
अम्मा बड़बड़ाती हुई चली गयी। भैरव ने देखा कि तौफीक के चेहरे पर एक सवाल अब भी बचा है तो उसने अपने बारे में संकल्प को और पुष्ट करते हुए कहा, 'अंकल, आप चिन्ता न करें। सल्तनत और मेरा अगर जीने का लक्ष्य एक ही है तो हमदोनों एक साथ ही रहेंगे, जहाँ भी रहें...अपने घर में या किसी और घर में।'
'देखना भैरव, आखिरी लम्हे तक कोशिश हो कि यह गाँव न छूटने पाये। मैं चाहता हूँ कि यह गाँव मेरा अपना बना रहे...और यह तभी संभव हो सकता है जब इस गाँव में तुम तीनों बने रहो।'
'हो सकता है ये दोनों छोड़कर चले भी जायें,' जकीर ने कहा, 'लेकिन मेरा तो कहीं जाने का सवाल ही नहीं है, अंकल। काश्तकारी अब मेरा पेशा ही नहीं शौक भी है। इस तरह अगर पूरा नहीं तो आपका एक तिहाई गाँव हरदम बचा रहेगा।'
'तुमलोगों से जुड़ाव की ऐसी बातें सुनकर मुझे बेइंतिहा खुशी होती है...मन नहीं करता यहाँ से जाने का, लेकिन जाना पड़ेगा। कामगारों के कई नाजुक और अहम मसले मेरी कारगर पहल के इंतजार कर रहे हैं। वहाँ भी कुछ साथी इतने अजीज हो गये हैं कि उनका मोह छुड़ाये नहीं छूटता। गाँव में जैसे बहुत सारी आफतें हैं, वैसे ही कारखाने के मजदूरों के साथ भी बहुत सारी मुश्किलें हैं। कारखानों का आधुनिकीकरण हो रहा है और धड़ाधड मजदूरों की छँटनी हो रही है...वे सभी मेरी राह देख रहे होंगे। मुझे आज ही निकल जाना होगा। हालाँकि मेरा आधा ध्यान यहाँ बराबर टँगा रहेगा।'
'अंकल, आप जा रहे हैं बिना कुछ बताये कि हमें क्या करना है, कैसे करना है,' जकीर ने टोका, 'मैं इंतजार कर रहा था कि आप कहेंगे जाकर पुलिस को खबर कर दो...चूँकि यह किसी की निजी आजादी को जबरन रौंदने का मसला है। कहीं वहाँ ले जाकर इन जल्लादों ने उसकी हत्या कर दी तो?'
'तुम्हें अगर लगता है कि पुलिस इस मामले में हस्तक्षेप करके समाधान कर सकती है तो बेशक आजमा लो। लेकिन मैं जानता हूँ कि पुलिस झाँकने भी नहीं आयेगी इस मामले में...चूँकि उन्हें इसमें धर्म, परिवार और समाज की भावनाएँ और प्रथा शामिल दिखाई दे देंगी। ऐसे भी अतीकुर-मुजीबुर पहले ही उन्हें सेट कर चुके होंगे।'
'ठीक है...फिर भी हम एक कोशिश करके देखना चाहेंगे।'
तौफीक चले गये। भैरव की आँखें नम हो गयीं। जकीर ने उसकी पीठ थपथपायी, जिसका अर्थ था कि तुम अकेले नहीं हो दोस्त, मैं तुम्हारे साथ हूँ। हमें हिम्मत नहीं हारना है।
सल्तनत को जबर्दस्ती इदरीश के घर पहुंचाकर वहाँ की चारदीवारी में सीमित कर दिया गया। वह शेरनी थी, उसे अकेले काबू में रखना इदरीश के वश में नहीं था। अतः अपने सहयोग के लिए उसे चार आदमी तैनात करने पड़े। वह जानता था कि उसे बहला-फुसला कर राजी करने की कोई भी कोशिश बेमानी ही होगी। तय किया उसने कि इसका खूब शारीरिक दोहन करके इसे पस्त और ध्वस्त कर देना है।
आठ दिनों तक वह रोज उसके हाथ-पैर बाँधकर उससे बलात्कार करता रहा। वह गरियाती-धिक्कारती तो लात-घूँसे और डंडे से अंधाधुंध प्रहार करने लगता। सल्तनत को लगा कि इस ज्यादती का इस प्रकार तो कोई अंत नहीं होगा। एक युक्ति उसके दिमाग में आकार लेने लगी कि अब उसे खाविंद मान लेने का ढोंग रचकर इसे विश्वास दिलाया जाये और एक दिन चकमा देकर निकल भागे।
बस उसने अपने तेवर में नरमी लाने का स्वाँग रचना शुरू कर दिया। अगले ही दिन रस्सियों की जकड़न हटा दी गयी और इसके दो-तीन दिन बाद ही उसे लगा कि उस पर किसी प्रकार की पहरेदारी भी नहीं रही। फिर तुरंत ही एक शाम के धुँधलके में दबे पाँव वह घर से निकल गयी। कुछ ही दूर गयी होगी कि पेड़ों के झुरमुट से निकलकर दो आकृतियाँ उसके समक्ष खड़ी हो गयीं, इनमें एक जालिम इदरीश था।
'आओ, हरजाई-छिनाल औरत, आओ,' इदरीश ने मुँह चिढ़ाते हुए विजयी भाव से कहा, 'तुम्हारा इस्तकबाल करने के लिए कब से हमलोग खड़े-खड़े राह देख रहे हैं। बहुत होशियार बन रही थी न! हम समझ गये थे और तुम्हारी रजामंदी का राज जानने को बेताब थे। चलो जी, इस साली धोखेबाज की दोनों टाँगें तोड़ दो ताकि चलने के लायक ही न रह जाये।'
इदरीश और उसका भाड़े का आदमी उसकी टाँगों पर डंडे बरसाने लगे। सल्तनत तड़फड़ाकर जमीन पर लोट गयी, फिर उसे याद नहीं कि कब कसाइयों ने उसे घसीटकर फिर उसी दोजख में लाकर पटक दिया। उसे लगने लगा कि इन हैवानों ने उसे खत्म कर देने की योजना पक्की कर ली है। बावजूद इसके उसके भीतर कहीं न कहीं यह भरोसा भी कायम था कि तौफीक, जकीर और भैरव मिलकर कोई न कोई उपाय जरूर निकाल रहे होंगे।
...और सचमुच देर से ही सही लेकिन उपाय निकालने में वे सफल हो गये। तेरहवाँ दिन था जब कुछ पुलिसवाले आये और उसकी हालत देखकर तथा उसके बयान सुनकर एक दर्ज करायी गयी एफआईआर को सही पाया। पुलिस ने सल्तनत को उसकी कैद से मुक्त करा दिया और इदरीश को हवालात में बंद कर दिया।
जब सल्तनत लतीफगंज में वापस आयी तो उसके दो उच्च शिक्षा प्राप्त कमाऊ-कर्णधार भाई अतीकुर-मुजीबुर ने उसके लिए घर के दरवाजे बंद कर दिये। महजब के तमाम झंडावरदारों में एक गुस्सा पैबस्त हो गया कि एक काफिर आशिक के लिए थाना-पुलिस करके इस शैतान-सिरफिरी लड़की ने सबकी नाक कटवा दी है। इनकी चलती तो सल्तनत को गाँव में भी रहने नहीं देते। लेकिन गाँव में तो क्या अपने घर में रखने के लिए जकीर ने सल्तनत के पुनर्वास की सारी व्यवस्था कर रखी थी। बस एक दीवार का ही फर्क होना था। सल्तनत को रखने के लिए जकीर ने अपनी अम्मा को मना लिया। उसका खेतिहर भाई मतीउर और उसकी पागल समझी जानेवाली उसकी माँ भी अब अपने आप इस पार ही आ गयी।
ये सभी सल्तनत की खैर-खुशी चाहनेवाले लोग उसकी दुर्गति देखकर सिहर-से गये थे। इन तेरह दिनों में ही वह जैसे तेरह भीषण नर्क भोगकर आयी थी। उसकी गोरी-मुलायम त्वचा पर डंडे के निशान किसी मरे हुए काले साँप की तरह उग आये थे। उसके काले लंबे बाल नोच-चोंथकर ओझरायी हुई रस्सी के पुलिंदे की तरह बना दिये गये थे। उसके अंग-अंग पर एक थकान, एक मूर्च्छा, एक चीत्कार ठहरकर रह गयी थी...उसके रग-रग से फूटनेवाले तेज और चुस्ती पर जैसे कोई काली-डरावनी स्याही पुत गयी हो। वह चल नहीं पा रही थी। उसकी एक टाँग की ठेहुने की हड्डी बुरी तरह उचट गयी थी। उसके चेहरे पर आड़ी-तिरछी खरोचें इस तरह उभर आयी थीं जैसे कोई पत्थर खाया काँच हो। इतना होने के उपरांत भी अपने परिजनों को देखकर सल्तनत के पपड़ियाये होंठ मुस्करा रहे थे...उस हजार चोटें खाये लहूलुहान घायल योद्धा की तरह जो युद्धभूमि से विजयी होकर लौट आता है।
जकीर डॉक्टर को बुलाने चला गया। मतीउर और मिन्नत उसकी सुश्रुषा में भिड़ गये। भैरव की आँखें इस दुर्दशा पर निर्झर की तरह रिस पड़ीं।
सल्तनत ने उसे अपने पास खींचते हुए कहा, 'भैरव, तुम्हें यकीन नहीं हो रहा न...मुझे छूकर देखो, मैं जीवित हूँ। सब कुछ सह लिया मैंने। पहली बार मुझे मालूम हुआ कि तुम्हारे प्यार ने मुझमें सहने की अपार ताकत भर दी है।'
'सल्तनत! प्यार को तो तुमने आज खुदा बना दिया है। तुम जुल्म सहकर जीत गयी हो लेकिन मैं इतना हारा हुआ महसूस कर रहा हूँ कि लगता ही नहीं कि मैं जीवित हूँ। काश, तुम्हें इस दशा में देखने से पहले मैं सचमुच मर गया होता।'
'ऐसा नहीं कहते, भैरव। तुम्हारा जीना ही तो मेरा जीना है...नहीं तो मैं अकेली जीकर भी कहाँ जी पाऊँगी।' सल्तनत ने अपनी माँ और भाई की ओर खुद को मुखातिब कर लिया, 'अम्मा...मतीउर, यों तो तुमलोग भी जानते ही हो लेकिन आज मैं खुद से भी यह बताना चाहती हूँ कि यह भैरव मेरे सीने की धड़कन है...अगर यह न हुआ तो मैं महज एक लाश के बराबर हो जाऊँगी। मेरे और भी करीब आओ भैरव।'
भैरव उसे अपनी बाँहों में भींच लिया और फफक कर रो पड़ा, जैसे सल्तनत के जख्मों की पीड़ा उसके जिगर में उतर आयी हो, 'तुमने इतनी यातना सही सल्तनत और मैं कुछ नहीं कर सका। तम्हें मुसीबतों के शिकंजे में घिरते हुए एक मूक तमाशायी की तरह मैं देखता रह गया...मैं इसका अपराधी हूँ, सल्तनत।'
'भैरव, तुम कर भी क्या सकते थे जब तौफीक मामू तक असहाय हो गये? तुमने खुद को बचाकर दरअसल मुझे ही तो बचाया है। सबूत सामने है कि चोट मैंने खायी है और आँसू तुम्हारे बह रहे हैं।' सल्तनत ने उसके आँसुओं को अपने मैले-कुचैले और तार-तार हो गये दुपट्टे में भर लिया। भैरव उसकी कलाइयों पर पड़ी ऐंठन और मरोड़ को छू-छूकर देखने लगा।
'इन्हें मत देखो, भैरव। मेरी देह अब पाक-पवित्र नहीं रह गयी है। कसाई इदरीश ने मेरी हुरमत को बहुत गंदी जिल्लत दी है...बहुत लूटा-खसोटा है।'
'तुम इसका मलाल मत करो, सल्तनत। हमारे प्यार में देह तो एक माध्यम है। बेअख्तियार होकर किसी चीज को खो देना अपराध नहीं होता। तुम्हारी देह उस अग्निपुंज की तरह है जिससे कोई चाहे तो अँधेरे में रोशनी कर ले या कोई अपने-आपको जलाकर भस्म कर ले। अग्नि का इसमें कोई कसूर नहीं होता कि कोई इससे बरबाद होता है या आबाद। वह तो हर हाल में अग्नि ही रहती है। इदरीश ने तुम्हारी लौ को तबाह करने के चक्कर में खुद को ही राख बनाया है। तुममें तो अग्निधर्म पहले की ही तरह कायम है, सल्तनत।'
'भैरव! तुम्हें देखती हूँ और सुनती हूँ तो अपने नसीब पर इतरा जाने को जी चाहता है। एक आशिक के लिए महबूब से बड़ा कुछ भी नहीं होता न! मैं जानती थी कि सल्तनत का एक जर्रा भी बचा रहता तो तुम उसे अपने दिल में ही बिठाकर रखते। अब मैं ऐसा महसूस कर रही हूँ कि मेरा आधा इलाज तुम्हें देखते ही पूरा हो गया।'
जकीर आ गया डाक्टर लेकर। इलाज शुरू हो गया उसका। पैर में प्लास्टर चढ़ाना पड़ा। कई हफ्ते उसे बिस्तर पर गुजारने पड़े।
जकीर के प्रति श्रद्धा से भर उठी सल्तनत। यह आदमी न होता तो आज वह गाँव में और कहाँ टिकती? पुलिस भिजवाने में सबसे बड़ा रोल इसी ने निभाया है। उसने खुद ही बताया, 'रोज कोतवाली जा-जाकर हमने अपनी चप्पलें घिस दीं। कभी दरोगा, कभी डीएसपी, कभी एसपी से इस मामले में जल्दी से जल्दी कुछ करने की फरियाद करते रहे, लेकिन ये लोग तो कोई कार्रवाई करना ही नहीं चाहते थे। इन्हें डर था कि इससे कोई अपने रीति-रिवाज में दखल न मान ले और उसके जज्बात को ठेस न पहुँच जाये। चूँकि अप्रत्यक्षतः ऐसी परिस्थिति में हस्तक्षेप का अर्थ एक कौम द्वारा दूसरे कौम का समर्थन मान लिये जाने का खतरा हो जाता है। हमारी बार-बार की आरजू-मिन्नत के बाद उन्होंने कहा कि लड़की के परिवार में से कोई अगर पुलिस-सहायता की अर्ज करे तो हम इस बारे में सोच सकते हैं।'
जकीर ने जरा विराम लिया तो सल्तनत की उत्सुकता बढ़ गयी कि परिवार का वह कौन सदस्य है, जिसने ऐसा करने की जोखिम उठायी?
जकीर ने आगे बताया, 'दरोगा को मैंने अपने घर बुलाया। उसके सामने निकहत ने निर्भीक होकर तफसील से पूरी सच्चाई रख दी। हामी भरने में मतीउर भी उसके साथ रहा।'
ताज्जुब से मुँह खुला रह गया सल्तनत का। चुप-चुप कोने में दुबकी रहनेवाली और कितनी भी डाँट-फटकार हो, उफ तक नहीं करनेवाली गमख्वार निकहत ने दारोगा के सामने उसके पक्ष में बयान देने की दिलेरी दिखा दी...सल्तनत का हृदय प्यार से लबालब भर आया। सोचा उसने कि रोज-रोज मुझसे हार जानेवाली निकहत...आज तूने मुझे जीत लिया, मेरी बहन।
उसने विनय भाव से कहा, 'जकीर भाई, आप सबने मिलकर मुझे बचाया...मैं तो कर्जदार हो गयी हूँ।'
'यह तो हमारा फर्ज था। दरअसल हमने तुम्हें नहीं बल्कि जेहाद की उस ताकत को बचाया है जो तुम्हारे भीतर भरी हुई है। तौफीक अंकल ने कहा है कि सल्तनत को ऐसी छोटी-छोटी मुसीबतें शिकस्त नहीं दे सकतीं। उसे तो कई बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़नी हैं जो उसका इंतजार कर रही है।'
तीन दिन बाद हवालात से इदरीश को छुड़ा लिया गया। अतीकुर-मुजीबुर और शफीक ने अफसोस और शर्मिंदगी जतायी कि सल्तनत जैसी बदजात और बदमिजाज लड़की के कारण उसे काफी बेइज्जती और फजीहत झेलनी पड़ी। इसके प्रायश्चित के लिए उन्होंने तय किया कि इसका एक और निकाह निकहत जैसी सीधी-सादी और निहायत शरीफ लड़की से कर दिया जाये ताकि इसे चैन और इत्मीनान मिल सके। उन्होंने यह भी तय कर लिया कि निकाह के बाद वे सभी गाँव छोड़ देंगे। सल्तनत यहाँ पता नहीं क्या-क्या ऊटपटाँग या ऊलजलूल करके नया-नया गुल खिलाती रहेगी, उन्हें नीचा दिखाती रहेगी और उनकी बची-खुची इज्जत को मिट्टी में मिलाती रहेगी। यह सब रोज-रोज बर्दाश्त करना बहुत ही घुटनदायक होगा। शफीक के लिए खेती का आकर्षण भी खत्म हो गया था, चूँकि इसे अंजाम देनेवाला मतीउर अब सल्तनत के साथ दीवार के उस पर चला गया था।
यह सब जानकर सल्तनत को बहुत धक्का लगा। निकहत के निकाह की खबर से तो वह एकदम स्तब्ध रह गयी। इस कसाई से जिब्ह करवाने के लिए अब इनलोगों ने भोली-भाली निकहत को चुन लिया। क्या हम सभी बहनों के लिए इतनी बड़ी दुनिया में एक यही मर्द पैदा हुआ है? आखिर क्यों इदरीश जैसा भेड़िया-जालिम और काइयाँ-कमीना आदमी इन्हें नेक मालूम पड़ रहा है? क्या हो गया इनकी जाँचने-परखने वाली नजर को?
सल्तनत ने किसी तरह निकहत को अपने पास बुलाया।
'निकहत, सुना है इदरीश तुम्हें भी हलाल करने जा रहा है और तुम चुपचाप हो?'
'तो क्या करूँ मैं? कहते हैं तुम्हारे कारण यह घर बदनाम हो गया है, इसलिए कोई दूसरा परिवार हमसे रिश्ता जोड़ने के लिए कतई तैयार नहीं होगा।' निकहत ने कहा तो लगा उसके चेहरे से एक निरीहता चू पड़ी।
'उन्होंने कहा और तुमने मान लिया? दुनिया भर में अगर सचमुच एक भी मर्द तुमसे निकाह करने के लिए तैयार न हो तब भी इस जल्लाद इदरीश को शौहर बनाने से बेहतर है कुँवारी रह जाना। निकहत, तू मेरा कहा मान...अपनी अजगरी चुप्पी तोड़ और बगावत कर...नहीं तो बेमतलब मारी जायेगी। बड़ी आपा जन्नत और मेरी हालत देखकर कुछ तो सबक ले।'
निकहत ने एक लंबी साँस ली और उसे बहुत प्यार से देखा, 'मैं तुम्हारी तरह मजबूत और पढ़ी-लिखी नहीं हूँ, सल्तनत...ना ही मुझमें तुम्हारी तरह लड़ने का माद्दा है। मुझे तो कभी किसी से आँख मिलाकर बोलने आया ही नहीं।'
चिढ़ गयी सल्तनत, 'तो जा मर...सलीब टँगा है, लटक जा उस पर।'
निकहत के चेहरे पर कोई विकार नहीं आया। बिना जवाब दिये वह चुपचाप चली गयी।
दोबारा निकहत तब आयी जब निकाह हो गया और वह रुखसत होनेवाली थी। उसे शादी के जोड़े में देख सल्तनत खुश होने की जगह मायूस हो गयी। कहा, 'मुझसे मिलने की क्या जरूरत है जब मेरी बात का तुम पर कोई असर नहीं होता। उम्र से भी मैं बड़ी नहीं हूँ कि मुझे सलाम करना जरूरी था।'
सल्तनत को निकहत ने अपनी बाँहों में भर लिया, 'नाराज क्यों होती है, छोटी। एक राज की बात बताने आयी हूँ। तुम्हारी तरह शेरनी बनकर तो हालात से मैं सामना कर सकती नहीं थी, लेकिन बहन तो तुम्हारी ही हूँ न। जो काम तुम और जन्नत न कर सकी, उसे मैं करके दिखाऊँगी...देखना तुम। चलती हूँ, बहन...खुदा हाफिज। अपना खयाल रखना।'
झटके से निकल गयी निकहत। सल्तनत के भीतर उत्सुकता के कई स्नायु एक साथ जाग्रत हो गए। वह हैरान रह गयी...मुँह में जबान न रखनेवाली निकहत आज क्या-क्या पहेलियाँ बुझाकर चली गयी।
निकहत के विदा हो जाने के दो दिन बाद अतीकुर, मुजीबुर और अपने पूरे परिवार सहित शफीक घर में ताला लगाकर चल पड़े। शफीक अकेले खेती करने की सामर्थ्य तो रखते थे नहीं...आरामपसंद रहे सब दिन, लिहाजा किसी नौकरी पेशा में लगना उन्होंने ज्यादा मुनासिब समझ लिया। इसका भरोसा उन्हें अतीकुर-मुजीबुर की ओर से मिल गया तो वे झट तैयार हो गये। गाँव के हममजहब और करीबी लोग बहुत तरस भरी निगाहों से उन्हें जाते हुए से ज्यादा, मानो उजड़ते हुए देख रहे थे। हाफिज करामात ने कहा, 'जाओ, शफीक मियाँ, खुदा तुम्हें खैरियत बख्शे। जो रवैया चल रहा है इस गाँव में...क्या पता हमें भी एक दिन जाना पड़ जाये।'
सल्तनत खिड़की की फाँक से उन्हें जाते हुए देख रही थी। उसकी आँखें डबडबा गयीं...लगा कि वह अपनी एक टाँग से दौड़ लगाकर उनके पैरों से लिपट जाये और कहे, 'मत जाओ मामू इस गाँव को छोड़कर...यह तुम्हारी जन्मभूमि है...पुरखों का ठीहा है। तुमलोगों के लिए मेरे मन में जो गाँठें पड़ी हैं, उन्हें मैं हटा देती हूँ। मैं अब ऐसा कुछ भी नहीं करूँगी जिससे तुम सबको बुरा लगे। मेरा मकसद...मेरा मिशन गाँव को बुलंदी के साथ बसाना है...उजाड़ना नहीं।'
सल्तनत चल नहीं सकती थी...उसके पैरों में प्लास्टर था। उसकी कातर दृष्टि बहुत दूर तक उनकी पीठ पर चिपकी रही। उसे यह उम्मीद थी कि शायद अतीकुर-मुजीबुर अम्मा से मिलने आयेंगे, लेकिन उन्होंने इसकी कोई जरूरत नहीं समझी। मिन्नत ने छत से उन्हें इकट्ठे जाते हुए देखा तो जोर-जोर से हँसने लगी और उनके ऊपर कटोरे से पानी उलीचने लगी। जकीर ने उसे समझाया, 'ऐसा मत करो, बुआ...ये लोग गाँव छोड़कर जा रहे हैं। पता नहीं इन्हें तुम दोबारा देख भी पाओगी या नहीं।'
मिन्नत को एकाएक जैसे साँप सूँघ गया। वह एकदम खामोश हो गयी। रात में उसने खाना नहीं खाया। सल्तनत भी भूखी ही सो गयी। उसने सोचा - आदमी कितना भी लड़-झगड़ ले, फिर भी खून के रिश्तों के बीच एक अदृश्य तार जुड़ा होता ही है, जिसमें लगातार सगेपन का एक करंट प्रवाहित होता रहता है। मतीउर ने बताया, 'कल जब मैं डोमनावाले खेत में धान रोपवा रहा था तो शफीक मामू आ गये और कहा - मतीउर, अपने सभी खेतों को जैसे तुम आबाद कर रहे थे, वैसे ही करते रहना। जो भी अन्न उगाओगे, उसमें हमें कुछ नहीं चाहिए...चूँकि हमें अब यहाँ रहना ही नहीं है। बैल खरीदने के पैसे तौफीक ने दिये थे, सो ये भी अब तुम्हारे हुए।'
जिंदगी भर खलनायकों जैसे व्यवहार करने वाले शफीक को याद करके मतीउर भी उदास हो गया। अभी तक सल्तनत उनके थोपे हुए अभिशाप को प्लास्टर के रूप में झेल रही थी, फिर भी उनका जाना इन्हें अखर गया था।
सल्तनत के पैरों के जब प्लास्टर खुले तो अपेक्षा के अनुरूप दोनों पाँव ठीक नहीं हो पाये। बायाँ पैर तो कामचलाऊ सीधा हो गया लेकिन दाहिना टेढ़ा ही रह गया। डॉक्टर ने कहा कि अब इसे ठीक होने की गुंजाइश बहुत कम है। कसरत वगैरह करते रहने से शायद कुछ सुधार हो जाये। मतलब सल्तनत स्थायी रूप से अब एक टाँग से लँगड़ी बन गयी।
भैरव और जकीर अफसोस जताने के लिए ढाँढ़स के शब्द ढूँढ़ ही रहे थे कि सल्तनत ने मौका छीन लिया, 'जो कहना चाहते हो, तुम्हारे चेहरे से पढ़ लिया है मैंने। मुझे तसल्ली है कि एक पैर से लँगड़ाकर भी मैं चल सकती हूँ। चलने की आजादी हो तो दुनिया देखने के लिए एक पैर भी कम नहीं होता...इसलिए मैं निराश नहीं हूँ। अब तो शफीक मामू और दोनों भाइयों के यहाँ से चले जाने पर उनसे भी मेरा कोई गिला न रहा। जानते हो जाते-जाते वे क्या मेहरबानी कर गये हैं? '
जकीर ने चौंककर पूछा, 'शफीक मियाँ जैसा खड़ूस आदमी और मेहरबानी...क्या कह रही हो सल्तनत? जाते समय तो उन्होंने नजर उठाकर भी नहीं देखा इस तरफ।'
'वे सारे खेत और हल-बैल मतीउर को सुपुर्द कर गये हैं, जकीर।'
'अच्छा तो इसे तुम मेहरबानी समझ रही हो। बहुत भोली हो सल्तनत, अरे यह उनकी चालाकी है... चूँकि लावारिस रह जानेवाली जमीन किस तरह सिकुड़ती चली जाती है, यह अंजाम उन्हें मालूम था। जरा वे अपने घर की चाबी दे जाते तब मैं समझता कि बड़े रहमदिल हैं।'
'सिर्फ हिफाजत के लिए ही देना था तो वे अपने खेत किसी दूसरे को भी सुपुर्द कर सकते थे।'
'दूसरे को सुपुर्द करने के लिए उनके अपने हिस्से के खेत हैं ही कितने? तीन और भाई भी तो हैं उनके। तौफीक अंकल से उन्हें डर भी तो रहा होगा कि दूसरे को देना वे कतई गवारा नहीं करेंगे।' बोलते-बोलते जकीर का ध्यान अचानक दूसरी तरफ मुड़ गया और चेहरे का भाव बदल गया। कुछ देर सोचने के बाद उसने फिर कहना शुरू किया, 'ऐेसे भी सल्तनत, यहाँ खेती में अब ज्यादा कुछ रखा भी नहीं है। वह पुराने बुरे हाल में फिर वापस जा रही है। पिछले साल तक नहर में थोड़ा-थोड़ा पानी आ रहा था...इस साल तो एक बूँद के भी आने की गुंजाइश नहीं है। नदी पर लगे हुए शटर पूरी तरह छिन्न-भिन्न होकर बह गये हैं और तटबंध भी टूट-फूटकर ध्वस्त हो गये हैं। घर की पूँजी लगाकर बारिश के पानी से धान रोप तो दिया है हमलोगों ने लेकिन बारिश पर निर्भर होकर धान की उपज यहाँ आज तक नहीं हुई। देखते हैं इस साल क्या होता है? '
भैरव के जिगर में भी यह दर्द टीस गया, 'इस साल भी कोई चमत्कार नहीं होने जा रहा है, जकीर। हमारे गाँव का विकास रिवाइंड हो रहा है एंटी-क्लॉकवाइज घूमकर। हम फिर से जंगल युग की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन इसमें जंगल नहीं होगा। ईख की तरह धान की फसल के भी इस गाँव से लुप्त होने का एक और आघात हमें लगने वाला है...इसे सहने की ताकत जमा करने का उपक्रम अभी से शुरू हो जाना चाहिए।'
एक चिन्तातुर खामोशी बिछ गयी ईद-गिर्द...जैसे अभी-अभी एक शोक प्रस्ताव पढ़ा गया हो।
काफी देर गश-खायी स्थिति में रहने के बाद जकीर ने जैसे कराहते हुए पूछा, 'भैरव, गन्ने की मार तो हम इसलिए सह गये यार कि हमारी रीढ़ धान की मुख्य फसल बची हुई थी। अब हम इस रीढ़ के टूटने से खड़े नहीं रह सकते। क्या ट्यूबवेल बिठाकर हम धान के कुछ खेत बचा सकते हैं? '
'ट्यूबवेल भी अब पहले की तरह सहज और किफायत नहीं रहा, दोस्त। ध्यान दिया है तुमने कि इस गाँव में बिजली कब से नहीं है?'
'एक महीना तो हो ही गया होगा...इस बीच आयी भी तो लगा कि सिर्फ आँख मारने आयी है।'
'और अब स्थायी तौर पर गायब होनेवाली है। चीनी मिल मालिक के प्रयास से खास तौर पर गन्ने उपजाने के लिए स्टेट ट्यूबवेल बिठाये गये थे और इसके लिए बिजली लायी गयी थी। गन्ने की पैदावार खत्म हो गयी तो देख ही रहे होगे कि स्टेट ट्यूबवेल भी अक्सर बंद रहने लगा...बिजली भी ज्यादातर गायब रहने लगी। तुम अगर ट्यूबवेल लगाना चाहते हो तो तुम्हें जेनरेटर भी लेना होगा, चूँकि बिजली के दिन अब यहाँ से लद जानेवाले हैं।'
जकीर जैसे फिर मूर्च्छित हो गया। सल्तनत उसके चेहरे पर उभरे एक-एक मनोभावों को पढ़ रही थी। अपनी वाणी में स्नेह घोलकर कहा उसने, 'जकीर भाईजान, मायूस होने से कोई फायदा नहीं। जेदाद छेड़े बिना यहाँ कुछ नहीं होनेवाला है। हम जिस सूबे में रहते हैं वहाँ विकास के अरबों रुपये हजम कर लिये जाते हैं और हजम कर जानेवाले बड़े-बड़े घोटालेबाज फिर भी चुनाव जीत जाते हैं...चूँकि यहाँ वोट का आधार काम या कर्मठता नहीं बल्कि जाति होती है। ऐसे में यह सब तो होना ही है। जिस क्षेत्र को अच्छा नेतृत्व नहीं मिला उसकी आजादी के पचास साल आगे बढ़ने में नहीं पीछे होने में खर्च हो गये।'
जकीर के चेहरे का अवसाद बढ़ गया। भैरव की आँखों में भी एक सन्नाटा उतर आया, 'मैंने पहले सोचा था कि तौफीक अंकल की तरह गाँव नहीं छोड़ूँगा। यहीं रहकर खेती-बाड़ी करूँगा और गाँव की मूलभूत सुविधाओं को मुकम्मल करने में अपनी पूरी उम्र लगा दूँगा। हम यह साबित करने के लिए एक जज्बे से भरे थे कि कृषि-कार्य दूसरे किसी धंधे से कहीं ज्यादा सम्मानजनक, राष्ट्रहितकारी और अनिवार्य कर्तव्य है।'
'तो क्या तुमने अपना यह फैसला अब बदल लिया है, भैरव?' विस्मय से जकीर ने पूछा। सल्तनत की आँखों में भी हैरानी के भाव थे।
'मैं क्या करूँ, जकीर। मेरे प्रति बाउजी की नाराजगी रोज-रोज बढ़ती जा रही है। उनका मानना है कि पढ़-लिखकर गाँव में पड़ा रहना सरासर मूर्खता है। खेती की जो हालत हो गयी है, अब तो मुझे भी यही लगने लगा है। नौकरी अगर नहीं करूँगा तो घर की फटेहाली भुखमरी में बदल जायेगी।'
जकीर के भीतर एक जलती हुई लौ मानो मद्धम पड़ गयी। वह वहाँ से चला गया। सल्तनत ने भैरव को आसक्त भाव से निहारा और उसे अपने बहुत पास बिठाकर उसकी हथेलियों को अपने हाथों में भर लिया।
'क्या हो गया है तुम्हें?' जैसे किसी तानपूरे से निकली हो यह ध्वनि, 'हम सबके हौसले को पुख्ता करते रहनेवाला ठोस आदमी आज खुद इतना लड़खड़ा क्यों रहा है? बात-बात में अधीर और कातर हो जानेवाले जकीर को तुम्हीं बल देते रहे हो...आज तुम खुद ही दुर्बल बन रहे हो। मेरे अच्छे भैरव...तुम हो तो मेरी खुशी है...हिम्मत है...भीतर तमाम हसरतें और तमन्नाएँ हैं। तौफीक मामू ने कहा है कि तुममें एक कौंध है जो गाँव के अँधेरे के लिए बड़े काम की चीज साबित हो सकती है। तुम जहाँ भी रहो, उस कौंध को मेरे साथ रहने दो। इस गाँव में ज्यादातर लोग फटेहाल हैं और यह फटेहाली बढ़ती जा रही है, क्यों? जबकि यहाँ की माटी का कोई कसूर नहीं...यह तो सोना है, सोना। मैं एक औरत हूँ, भैरव...लेकिन तुम्हारी कौंध मेरे साथ होगी तो मैं मर्द से भी बड़ा मर्द बन सकती हूँ...मैं लड़ूँगी इस गाँव के लिए।'
भैरव जैसे प्रेमासिक्त मेह की फुहार से भीगकर निहाल हो गया, 'सल्तनत, मुझे माफ कर दो...कभी-कभी तकलीफें मेरी परीक्षा लेकर मुझे फेल कर देना चाहती है...लेकिन वे जानती नहीं कि उन्हें क्षणभर में बहा देनेवाली एक वेगवती सरिता का नाम है सल्तनत, जिससे मैं प्यार करता हूँ।'
सल्तनत ने भैरव को चूम लिया...फिर भैरव ने सल्तनत को भी। भैरव ने कहा, 'गाँव में चर्चा है कि मैं मुसलमान बन गया हूँ और तुमसे शादी कर ली है।'
सल्तनत ने कहा, 'मैंने तो सुना है कि तुमसे शादी करने के लिए मैं हिन्दू बन गयी हूँ।'
दोनों एक साथ हँस पड़े।
नहर में इस साल सचमुच पानी नहीं आया। मामूली वर्षा और एक आहर के भरोसे धान की फसल एकाध माह तो किसी तरह बचाकर रखी गयी लेकिन आगे किसान एकदम असहाय हो गये। जकीर, मतीउर और प्रभुदयाल जैसे लोगों के लिए यह बहुत बड़े सदमे का सबब हो गया। गाँव में तीन सबसे बड़े जोतदार थे - चुन्नर यादव, फल्गू महतो और नगीना सिंह। इनलोगों ने बोरिंग करवाकर अपना-अपना डीजल-पंप लगवा रखा था। यथासंभव बोरिंग की जद में पड़नेवाले इनके खेत और इनके सजातीय किसानों के खेत बचा लिये गये। गैर जाति के खेत पंप के अगल-बगल में होकर भी सूखे रह गये। पिछले कुछ सालों से गाँव में जातीय भेदभव का जोरदार उभर हो आया था। यह इस हद तक बढ़ गया था कि यादव के पंप से कोइरी के खेत को अथवा कोइरी के पंप से यादव के खेत को पैसे देने पर भी पानी नहीं मिलता था। पहले यह भेदभाव वोट की राजनीति की वजह से बैंकवार्ड-फारवार्ड के बीच शुरू हुआ था...बाद में यह बढ़ते-बढ़ते जातिगत स्तर पर आ गया। कारण बैकवार्ड या फारवार्ड में अगर एक ही सीट के लिए कई उम्मीदवार खड़े हो गये तो पहली पसंद अपनी जाति हो गयी। ऐसी जातिगत किलेबंदी वैमनस्य का आधार बनती चली गयी। उम्मीदवार भ्रष्ट, नीच, दुराचारी, आततायी है या अनपढ़, निष्क्रिय, निकम्मा, यह मुद्दा ही नहीं रह गया।
बताया था कभी तौफीक ने कि इस क्षेत्र में पहले-सी हासिल सुविधाओं के घटने और लुप्त होने के पीछे यही दुर्भाग्य रहा कि सबसे बड़ी संख्यावाली एक ही जाति के उम्मीदवार लगातार विधायक और सांसद बनते रहे और वे अपनी-अपनी जीत के प्रति इतने आश्वस्त रहे कि अगले चुनाव के लिए कुछ काम करके दिखाना है, इसकी कतई परवाह नहीं की। दो-तीन जातियाँ मिलकर अगर साझा उम्मीदवार देने की रणनीति अपनातीं तो उन्हें हराया जा सकता था...लेकिन दुर्भाग्य से ऐसी पहल किसी की ओर से नहीं हुई...अर्थात किसी ने एक-दूसरे को भरोसे के काबिल नहीं समझा।