सल्तनत को सुनो गाँववालो / भाग 2 / जयनन्दन
शफीक ने सोचकर देखा कि खयाल तो अच्छा है, लेकिन मन में यह विचार भी आया कि अब खेती-बारी में लस ही क्या रह गया है। जकीर, प्रभुदयाल, चुन्नर, फल्गू, नगीना आदि की उड़ी रंगत को तो वे देख ही रहे थे। चलो, फिर भी आजमाइश करके देखा जाये...बैठे से बेगार भली। सल्तनत पर उन्हें बहुत दुलार आया। यह लड़की सचमुच कितने अलग तरह की है...मन में कोई मलाल या बुरा खयाल नहीं रखती। मशविरा तो ठीक ही दिया है...जो पैदावार आधी बँट जाती है वह पूरी की पूरी घर में आ जायेगी।
बस मतीउर की मदद से उन्होंने खेती शुरू कर दी। जन्नत जहाँ ब्याही गयी थी इदरीश के घर, वहाँ से और जकीर से जोगाड़-पाति मिलने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं आयी। इस तरह साल-डेढ़ साल में खेती में पूरी तरह वे फिट हो गये। काम तो भूत की माफिक मतीउर ही करता था...हलवाही, कुदलवाही, लठवाही, बोझवाही, दौनी-दमाही...लेकिन मजा शफीक को भी आने लगा।
निठल्ला, निष्क्रिय और निकम्मा घोषित मतीउर अब सबसे ज्यादा कमासुत बन गया था। उसके दो भाई अतीकुर, मुजीबुर बी.ए.-एम.ए. करके भी अब तक नौकरी के चक्कर में कभी कलकत्ता, कभी टाटा, कभी दिल्ली आदि के दौरे कर रहे थे।
तौफीक बहुत खुश हुए कि मतीउर और शफीक खेती में लग गये हैं। तौफीक बहुत दुखी भी हुए कि किसानों-मजदूरों में खुशहाली बाँटनेवाली चीनी मिल बंद हो गयी। जकीर तो इस दुख से उबर ही नहीं पा रहा था। केतारी बेच कर हर साल वह चार-पाँच कट्ठा जमीन खरीद लेता था। इसके बिना उसका सारा हिसाब गड़बड़ हो गया था। सल्तनत और भैरव ऐसे किसी भी संक्रमण-काल में उसे संयत करने की भूमिका निभाते थे।
जकीर का घर ही अब इन दोनों के मिलने का पड़ाव था। पढ़ने-पढ़ाने का सिलसिला अब खत्म हो गया था। सल्तनत जब इंटर कर गयी तो शफीक अड़ गये और उसके दोनों भाई अतीकुर तथा मुजीबुर ने भी मना कर दिया, 'बस इतनी पढ़ाई काफी है, अब हद मत पार करो।' तौफीक ने अब अपनी राय थोपना उचित नहीं समझा। उन्होंने यह ताड़ लिया कि दोनों भाई वयस्क और पढ़-लिख कर फैसले करने लायक हो गये हैं...ये नहीं चाहते कि पढ़ाई आगे बढ़ाने के लिए उनकी जवान बहन से किसी बाहरी लड़के की करीबी बनी रहे।
लेकिन तौफीक यह जान गये थे कि इनकी जो करीबी बन गयी है उसे दूरी में बदलना अब आसान नहीं है, खासकर तब जब जकीर जैसा फराखदिल आदमी भैरव का जिगरी दोस्त हो और दोनों के बीच एक सेतु बन गया हो।
जकीर ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था लेकिन भैरव के साथ रहकर उसे यह बोध होता रहता कि वह कम पढ़ा-लिखा भी नहीं है।
भैरव ने उसे समझाया था, 'जकीर, हमें दुखी होने की जगह गन्ने की मिठास का विकल्प ढूँढ़ना है, यार। ऊपरवाला एक दरवाजा बंद करता है तो कई खोल भी देता है।'
जकीर को यह परामर्श अच्छा लगा। उसने कहा, 'भैरो, तुम्हारी यह लत बहुत बुरी है कि तुम अच्छी बात बहुत देर बाद करते हो। जानते हो कि मुझे सोचना नहीं आता...जब सोचता हूँ तो दिमाग की नसें फूलकर बैलून बनने लग जाती हैं। तुम यह मशविरा पहले दे दिये होते तो मैं नाहक परेशान तो न हुआ रहता।'
सल्तनत सुन रही थी इनकी बातें। कुछ खटक रहा था उसे। कहा, 'जकीर भाई, मुझे ताज्जुब होता है कि इस इलाके के भरण-पोषण में सबसे बड़ी भूमिका अदा करनेवाली इस मिल के बंद हो जाने पर भी कहीं से कोई कारगर विरोध नहीं। लोग इतने ठंढे, तटस्थ और सुस्त क्यों हैं?'
'तुम्हारा भैरव इसे बेहतर जानता है, सल्तनत। कई बार इस मुद्दे पर तुम्हारे तौफीक मामू से बातचीत की है इसने।' जकीर ने कहा।
सल्तनत का ध्यान बरबस खिंच गया कि 'तुम्हारा भैरव' पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया गया है। उसने कहा, 'जकीर मियाँ, तो क्या आपने यह मान लिया है कि आपसे ज्यादा और पहले यह भैरव मेरा हो गया है?'
'अब इसमें न मानने की गुंजाइश कहाँ है, सल्तनत। ऐसा मानकर ही मैं इस भैरव नामक आदमी को जितना पसंद करता हूँ उससे ज्यादा नापसंद भी करता हूँ। बहुत बातें यह मुझसे छिपाने लगा है।'
'जकीर मियाँ, यह तो आपकी ज्यादती है। भला प्यार-मुहब्बत की एक-एक बातें आपको बताना क्या लाजिमी होगा? ऐसे भी दो आशिकों में क्या बातें होती हैं यह तो पूरी दुनिया जानती है।'
'सल्तनत, लगता है पूरी दुनिया हमदोनों के रिश्ते को भी जान गयी है। हमारे मिलने की तलब बढ़ गयी है और दूसरी तरफ हमारे दुश्मन भी बढ़ गये हैं। ऐसा न हो कि जकीर के घर में भी हमारे आने-जाने में कोई दुश्वारी पैदा हो जाये।' भैरव ने कहा।
'तुमने ठीक फरमाया, भैरव। एक दुश्वारी तो इसी घर में मेरी अम्मी है। ऐसा लग सकता है कि उनकी आँखें कमजोर हैं और उन्हें साफ दिखाई नहीं पड़ता...लेकिन ऐसी चीजें जो उन्हें नागवार हो साफ दिखाई पड़ जाती हैं। सुनने में भी उन्हें कोई तकलीफ नहीं होती। वे अगर तुम दोनों की नजदीकी को ताड़ गयीं तो उनका ट्रांसमीशन इतना तेज है कि गाँव भर में यह खबर मिर्च-मसाले के साथ फैल जायेगी।'
'इस ममानी को मैं भी जानती हूँ ,जकीर...मेरी अम्मा कितनी बेजा हरकतें करती हैं इनके साथ, लेकिन कभी बुरा नहीं मानती और अक्सर उसे फुसला-बहला कर उसके उधियाये-झखराये केश को संवार देती हैं...उसे नहला-धुलाकर गंदे-फंदे कपड़े भी बदल देती हैं कई बार। तो माँ के साथ जब इतनी मेहरबान हैं तो उसकी बेटी के साथ कठोर कैसे हो सकती हैं?'
'सल्तनत !' जकीर ने जरा गंभीर होते हुए कहा, 'मेरी अम्मी तो क्या, तुम्हारे अपने भाई भी देखना इस मामले में तुम्हारे साथ नहीं होंगे। चूँकि एक तो मुहब्बत और ऊपर से लड़का गैर महजब का और वह भी इस पिछड़े हुए लकीर के फकीर गाँव में। तुम्हारी इसी मुहब्बत के लिए किसी शायर ने कहा है कि इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।'
'जकीर, तुम्हारा साथ रहा तो हम इस आग के दरिया को शबनम के दरिया में बदल डालेंगे।' भैरव ने कहा।
'इस दुनिया में होने की मेरी यह सबसे बड़ी हसरत है भैरव कि तुम दोनों की मुहब्बत को सबसे ऊँचे मुकाम पर देखूँ। मैंने यह महसूस किया है कि एक-दूसरे से प्यार करके तुम दोनों अपने इस गाँव को ज्यादा प्यार करने लगे हो। आज गाँव को बचाने के लिए गाँव को प्यार करनेवालों की बड़ी जरूरत है, दोस्त।'
'जकीर...,' आह्लाद भरे आश्चर्य से भैरव ने पुकारा, 'देखो, हमारे प्यार का तुम पर असर होने लगा...वरना इतने अक्लमंद और दार्शनिक तो तुम कभी न थे।'
'तो जनाब, इसके पहले कि आप लोगों की सोहबत में मैं और बिगड़ जाऊँ, मैं इजाजत चाहता हूँ, जरा गाय-गोरुओं की देखभाल कर आऊँ...सानी-पानी देने का समय हो गया है।'
जकीर चला गया।
'देखो, हमें तन्हाई देने के लिए कैसा बहाना गढ़ लिया।' सल्तनत ने कृत्तज्ञता भरी आँखों से कहा।
'मुझे ऐसा लगता है सल्तनत कि जकीर हमें मिलने की जगह घर में नहीं दिल में दे रहा है। उसके इस दोस्ताने करम के बिना हमारी मुलाकात कतई मुमकिन नहीं है।'
'जकीर सिर्फ इतना ही करम नहीं करता, हमारी खैरियत का पूरा खयाल भी रखता है। बता रहा था कि तुम्हारे घर की हालत बहुत खस्ताहाल है। तुम्हारे बाउजी तुम पर रोज कुढ़ते और बरसते रहते हैं कि पढ़-लिख गया तो कोई नौकरी क्यों नहीं करता। पढ़ाई में इतने जहीन माने जाने वाले को भी क्या नौकरी नहीं मिलती या करना नहीं चाहता। भैरव, कहीं यह सच तो नहीं कि इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया।'
'बाउजी कुढ़ते हैं, यह सच है सल्तनत, लेकिन इश्क ने निकम्मा नहीं किया है। नौकरी कहाँ मिलती है...तुम तो देख ही रही हो...कई इम्तहानों में बैठ चुका हूँ।'
'नौकरी तो तुम्हें शर्तिया मिलेगी, भैरव...नहीं तो हम अंतिम रूप से यह मान लेंगे कि दुनिया में अब मेरिट की कोई जगह नहीं है। चिन्ता यह है कि फिर तुम्हारी मेरिट से इस गाँव-जवार को कुछ नहीं मिलेगा...गाँव से एक और तौफीक का पलायन होगा।'
'जकीर भी यही कहता है, सल्तनत। लेकिन मैं क्या करूँ? हम इतनी कम जमीन-जोत वाले हैं कि खेती पर आश्रित होकर बसर नहीं कर सकते। बाउजी जब तक नहर विभाग में रहे गुजारा हो गया, अब उनकी खीज बढ़ गयी है। मैं नौकरी करूँगा, सल्तनत, लेकिन ऐसी नौकरी जो मुझे गाँव से और तुमसे ज्यादा दूर न करे।'
'भैरव, हमारी मुहब्बत का नाम गाँव है और ये गाँव सिर्फ घरों एवं चलते-फिरते इंसानों से नहीं बनते...बल्कि आशिकों के इश्क से बनते हैं। जकीर ने कहा कि तुम इन दिनों उदास और दुखी रह रहे हो तो मुझे कई रातें अच्छी नींद नहीं आयी। तुम्हें हारना नहीं है, भैरव...हारोगे तो मैं बिखर जाऊँगी।' सल्तनत ने भैरव के सीने पर अपना सिर रख दिया।
भैरव ने उसके बालों में उँगलियाँ फिरायीं और गालों पर प्यार भर थपकी लगायी, फिर दुलारते हुए कहा, 'मुझे उदास नहीं देखना चाहती, मेरी एक-एक खबर रखती हो, लेकिन अपना खयाल भी क्या हुजूर को रहता है? सुना है इन दिनों रोज घर में लड़-झगड़कर रूठ जाती हो और खाना भी नहीं खाती। सेहत गिर गयी है इसका इल्म है तुम्हें?'
'उफ! यह जकीर मियाँ दीवार के इस पार से मेरे पूरे घर की जासूसी कर लेता है। मैं क्या करूँ, भैरव। मुझसे नाजायज जरा-सा भी बर्दाश्त नहीं होता। घर का कोई भी, मामू, ममानी, मेरी बहनें या फिर बच्चे माँ को दुरदुराते या झिड़कते हैं तो मैं बेजब्त हो जाती हूँ। अभी जन्नत की डिलेवरी होनेवाली है...उसकी सेवा-सम्हाल के लिए घर से किसी को जाना है। मामू अड़ गये हैं कि मुझे ही वहाँ जाना होगा। इस मसले पर रोज हुज्जत हो रही है।'
'तो तुम जा रही हो?'
'फिर क्या करूँ? सब मुझे ही भगाना चाहते हैं...लड़ती हूँ न सबसे। मेरे नहीं रहने से सबको चैन मिल जायेगा...मनमानी करेंगे।'
'कब आओगी वापस?'
'कैसे कहूँ, मुझे कुछ मालूम नहीं कि बच्चा कब होगा और हो जाने के बाद मुझे कितने दिनों तक क्या करना होगा?'
'रहा नहीं जायेगा तो मिलने आ जाऊँगा। तुम्हारा बहनोई इदरीश तो मुझे पहचानता ही है...कोई बहाना...।'
'भूल से भी मत आना। बहुत खुर्राट है वह। उसके बर्ताव और सलूक मुझे कभी अच्छे नहीं लगे। जन्नत से भी वह अच्छी तरह पेश नहीं आता। बाँदी समझता है उसे। बात-बात में मारपीट करने लग जाता है। मैं तो बस मजबूरी में जा रही हूँ...नहीं जाऊँगी तो बाद में जन्नत भी कोसेगी और उलाहना देगी।'
'देखना, वहाँ भी झगड़कर उपवास व्रत मत ठान देना।'
'नाजायज देखकर चुप रहना मुझसे मुमकिन भी तो नहीं है।'
ये बातें चल रही थीं तो जैसे इनके बीच अंतरंगता और आत्मीयता की एक सरिता प्रवाहित हो रही थी। ठीक इसी दरमियान जकीर की वालिदा ऊपर के कमरे से सीढ़ियाँ टटोलती हुई उतरकर नीचे आ गयी और पुकारने लगी, 'कौन बातें कर रहा है यहाँ?'
दोनों ने एकदम मौन साध लिया।
'बोलते क्यों नहीं?'
सल्तनत बोलने ही जा रही थी कि वह फिर शुरू हो गयी, 'कौन हो तुम दोनों, अब जान गयी हूँ मैं। पिछली कई बार से मैं कोशिश कर रही थी। बुढ़ापे ने मुझे इतनी अंधी और बहरी नहीं बना दिया है? इतना बता देती हूँ कि तुम लोग जो कर रहे हो, वह अच्छा नहीं है। जकीर तुम्हें शह दे रहा है न, मैं उसकी भी खबर लेती हूँ...अब तुम दोनों होशियार हो जाओ।'
दोनों चुपचाप निकल गये। अब तक शाम का झुटपुटा नीचे उतर आया था।
सल्तनत जन्नत की ससुराल मंजौर चली गयी तो आठ दिनों में ही वापस हो गयी...परन्तु इस छोटी-सी अवधि में काफी कुछ घटित हो गया।
जन्नत कई दिनों से बिस्तर पकड़कर कराह रही थी। सल्तनत ने ताड़ लिया कि हालत कुछ ज्यादा ही खराब है। उसने इदरीश से कहा, 'शहर ले जाकर किसी नर्सिंग होम में भर्ती कराइए...आपा बहुत तकलीफ में है।'
इदरीश ने उसकी बातों का मजाक बनाते हुए कहा, 'कभी माँ तो बनी नहीं हो, तुम्हें क्या मालूम कि इसमें कितनी तकलीफ होती है? गाँव के बच्चे नर्सिंग होम में पैदा नहीं होते। बुधनी चमाइन ही सबसे बड़ी नर्स हैं हमारे लिए।'
'जमाना अब बदल गया...।'
'कोई जमाना नहीं बदला है...बच्चा जनने का काम आज भी औरत ही कर रही है और तरीका वही है जो पहले हुआ करता था।'
सल्तनत अब कह भी क्या सकती थी?
बुधनी चमाइन सुबह-शाम आकर पेट ससार जाती और अपना देहाती नुस्खा बता जाती।
सल्तनत को यहाँ आकर जरा-सा भी अच्छा नहीं लग रहा था। एक तो पूरे घर में अकेले, ऊपर से इदरीश के सलूकात में कोई तमीज नहीं। उसके चंट बोलचाल और रवैये देखकर पड़ोस से भी कोई झाँकने नहीं आता था। उसके तीन भाई और अम्मा-अब्बा थे जो अलग होकर उससे कोई ताल्लुक नहीं रखते थे। सल्तनत भाँप रही थी कि इदरीश उसे ललचायी निगाहों से देखता है और उसके आवभाव में एक शरारत और मक्कारी समायी हुई है। एक आसन्न अनिष्ट से वह मन ही मन डरी हुई थी।
पाँचवाँ या छठा दिन था कि सचमुच ही उसने अपना असली चेहरा दिखा दिया। अकेले कमरे में उसके हाथ पकड़ लिये। वासना के एक लिजलिजे कीड़े की मानिंद शक्ल बनाकर वह एक पतित फरियाद करने लगा, 'सल्तनत, बहुत दिनों से मन मारकर रहना पड़ रहा है...जरूरत तो तुम्हें भी महसूस होती ही होगी। जीजा-साली में तो जरा चलता ही है, क्यों नहीं हम भी इस मौके का फायदा उठा लें?'
सल्तनत उसे बेपनाह नफरत से निहारती हुई मानो आग की एक लपट बन गयी, 'मुझे जरा भी छुआ तो चीखकर पूरे मोहल्ले को जमा कर दूँगी। तुम अच्छे आदमी नहीं हो, यह तो तुम्हारे चेहरे से मुझे पहले ही मालूम पड़ रहा था, लेकिन तुम बहुत बड़े चटोरे, टुच्चे और नीच इंसान हो, आज यह साबित हो गया।'
'सुनो बदमिजाज लड़की, तुम क्या हो यह मुझे भी पता है। भैरो से तुमने पढ़ने के बहाने कौन-कौन-से कुकर्म और व्यभिचार किये हैं, मुझसे छिपा नहीं है। तो उस गैरजाति और गैरमजहब के एक चवन्नी लौंडे के साथ मौज उड़ाना तुम्हें अच्छा लगता है और तुम्हारा बहनोई होकर जरा-सा लुत्फ मैं भी उठा लेना चाहता हूँ तो बुरा आदमी हो गया मैं?'
'भैरव से मेरे रिश्ते को तुम्हारे जैसा घटिया आदमी नहीं समझ सकता, इदरीश मियाँ। अब आगे मैं तुमसे कोई बकवास सुनना नहीं चाहती। कमरे से निकल जाओ...नहीं तो इसी वक्त मैं तुम्हारे इस दोजख से निकल जाऊँगी।'
बला टल तो गयी उस वक्त, लेकिन इस घर से निजात पाने के लिए वह बेचैन हो गयी। बदकिस्मती से अगले दिन जन्नत की तबीयत ज्यादा बिगड़ गयी और बिगड़ती ही चली गयी। कम्बख्त इदरीश ने इसकी कोई परवाह नहीं की। आठवाँ दिन बच्चा निछड़ भी नहीं पाया, शायद पहले ही पेट में मर चुका था कि जन्नत मौत को प्यारी हो गयी।
जब सल्तनत लतीफगंज लौटी तो बहन की मौत के सदमे से उसका चेहरा उतरा हुआ था। वह इदरीश को इस मौत का जिम्मेदार ठहराकर उसे सबकी नजरों में जलील करना चाहती थी कि उसने देखा यहाँ का माहौल उलटे उसे ही नजरों से गिराने के लिए आतुर है। घर और गाँव के सभी लोगों को खबर हो गयी थी कि सल्तनत और भैरव एक-दूसरे से लगे-फँसे हुए हैं। जगह-जगह पर लोग इस तरह इसकी कानाफूसी कर रहे थे जैसे प्यार नहीं कोई दंगा हो गया हो। ऊपर से इदरीश ने आग में घी डालने की तरह घर में सबको बरगला दिया कि भैरो मेरे घर सल्तनत से रोज मिलने आ जाया करता था...इसे लेकर उस लफंगे से मुझे बहुत झगड़े-तकरार करने पड़े।
स्यापा और गम करने की जगह सबका ध्यान सल्तनत पर ही केन्द्रित हो गया। शफीक ने अपनी त्यौरी चढ़ाकर उससे साफ-साफ पूछ लिया, 'सल्तनत, क्या यह सच है कि तुमने हमारी आबरू को उस नामुराद भैरव के पास नीलाम कर दिया है जो एक तो हमारे मजहब का नहीं है, दूसरे हिन्दू में भी एक छोटी जाति का है और तीसरे छोटी में भी एक भूखे-नंगे परिवार का है।'
सल्तनत ने अपने चेहरे को निर्भीक और सख्त बना लिया, 'तो आप सभी एक साथ सुन लें...आओ सब घर के लोगो...ममानी, आपा, बच्चे...चाहती तो हूँ कि मैं मस्जिद के गुंबज पर खड़े होकर अजान वाले माइक से पूरे गाँव को इकट्ठे इत्तिला कर दूँ कि हाँ...हाँ...हाँ मैं भैरव से प्यार करती हूँ और करती रहूँगी...उस भैरव से जो हिन्दू है...शूद्र है और गरीब है...लेकिन मेरी चाहत की रियासत का सबसे बड़ा शहजादा है। ऐसा करके मैंने कोई गुनाह नहीं किया है...कोई यह न समझे कि इसके लिए मैं शर्मिंदा हूँगी और किसी के भी जुल्म-ज्यादती या अत्याचार सहने के लिए हाजिर रहूँगी। मैं गुजरे जमाने के उन शरीफों और बेचारों में नहीं हूँ जो मुहब्बत करने की कीमत कोड़े और पत्थर खाकर चुकाते थे। मैं अपने ऊपर उठती किसी भी उँगली से सीधी टक्कर लूँगी...इसे सब याद रखें।'
सल्तनत के इस चट्टानी इरादे से सभी लोग हैरान रह गये।
शफीक ने तौफीक और सल्तनत के दोनों भाइयों अतीकुर एवं मुजीबुर को फौरन आने के लिए टेलीफोन कर दिया। मकसद के इजहार में जन्नत के गुजर जाने पर जोर कम था और सल्तनत ने एक विधर्मी से संबंध जोड़ने की नाकाबिले-माफ खता की है, इस पर ज्यादा था।
आ गये अतीकुर, मुजीबुर और तौफीक।
दोनों भाई साधारणतः किन्हीं अच्छी नौकरियों में लग गये थे और घर में भी माहवार एक अच्छी रकम भेजने लगे थे, जिसके चलते उनका प्रभाव जरा बढ़ गया था और पारिवारिक मामले में इनकी राय महत्वपूर्ण हो गयी थी। इनसे मदद मिलने और खेती शुरू हो जाने से शफीक की तौफीक पर निर्भरता थोड़ी कम हो गयी थी और वे कुछ बदले-बदले आक्रामक मूड में आ गये थे।
सबके सामने सल्तनत के गुस्ताख और अक्खड़ रवैये की तफसील से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, 'इस लड़की का मन इतना बढ़ गया है कि यह किसी की परवाह नहीं करती। ताल ठोंककर कहती है कि हाँ, मैं भैरव से मुहब्बत करती हूँ और करती रहूँगी...मेरा कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। हमलोग तो इस गाँव में अब मुँह दिखाने लायक भी नहीं रह गये।'
अतीकुर और मुजीबुर ने खा जाने वाली नजरों से घूरा सल्तनत को जैसे अपनी बड़ी बहन की जगह किसी आफत की पुड़िया को देख रहे हों।
अचल-स्थिर सल्तनत ने उनकी आँखों में बसे इस खोटेपन को धिक्कारते हुए कहा, 'इस तरह गुस्से से मुँह बनाकर क्या देखते हो मुझे? बड़े-बड़े कालेजों से बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ ली हैं तुमलोगों ने, फिर भी तुम्हारे दिमाग की सरहद इतनी तंग क्यों है? अतीकुर और मुजीबुर! तुम पैसे कमाते हो और मर्द हो तो मुझ पर हुक्म चलाने का अख्तियार तुम्हें हासिल नहीं हो गया। तुमलोग सुनना चाहते हो न तो सुनो कि हाँ, हम एक-दूसरे से मुहब्बत करते हैं...और तुम्हें जानना चाहिए कि मुहब्बत से बड़ी नेमत, बड़ी दौलत और बड़ी इबादत कुछ नहीं होती दुनिया में। मैं अपनी हासिल मुहब्बत पर फख्र करती हूँ और ऐसा करते हुए मुझे किसी से कोई डर नहीं है।'
'सल्तनत! तुम्हारी यह बेअदब कारिस्तानी और बदतमीज चोंचबाजी तुम्हारी जिंदगी के लिए बहुत महँगी साबित होगी। तुम क्या समझती हो कि इस तरह ढीठ और जाहिल सलूक करके बहुत बड़ी तरक्कीपसंद होने का दर्जा अख्तियार कर लोगी? ऐसी चाल-चलन घर में रहनेवाली खानदानी बहू-बेटियों की नहीं होती।' अतीकुर ने हिकारत से देखते हुए फटकार लगायी।
मुजीबुर ने भी लगे हाथ दबोच लेना चाहा, 'सल्तनत! तुम मेरी बहन हो...मेरे घर की इज्जत हो...तुम्हारा दिमाग बहक गया है तो हम तुम्हें यों ही बहकने नहीं दे सकते। तुम काबू में नहीं आओगी तो हमें सख्ती बरतनी होगी। भैरो जैसे ऐरे-गैरे पर तुम्हारा इस तरह लट्टू होना हमारी तौहीन तो है ही, तुम्हारी कुढ़मगजी भी है।'
सल्तनत के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आयी, 'भैरव तुमलोगों की निगाह में चाहे जो दर्जा रखता हो, मेरे लिए वह दुनिया का सबसे कद्दावर और बेहतरीन आदमी है। किसी को इस पर एतराज है तो यह उसकी मुसीबत है। मैं अपने बारे में फैसला करने के लिए आजाद हूँ...मेरी उम्र अट्ठारह से कई वर्ष इस पार है।'
तौफीक संत भाव से चुपचाप सुन रहे थे और एक शॉक आब्जर्वर की तरह सारे झटके जज्ब करते जा रहे थे। शफीक इस चुप्पी को मन ही मन टटोल रहे थे और कुढ़ रहे थे। बहुत देर तक यह चुप्पी उनसे झेली नहीं गयी, 'तौफीक मियाँ, आखिर आप भी कुछ बोलेंगे या यह लड़की एक बिगड़ैल घोड़े की तरह सबके मुँह पर सरपट दुलत्ती झाड़ती रहेगी?'
तौफीक ने फिर भी कुछ नहीं कहा, सिर्फ झाँक लिया सल्तनत की पारदर्शी आँखों में जहाँ मुहब्बत के बेखौफ परचम शान से लहरा रहे थे। उन्होंने उसके दोनों भाइयों, शफीक और एक किनारे में भोलेपन का चोंगा ओढ़कर बैठे इदरीश का बारी-बारी से एक जायजा लिया। डंक मारने के लिए मानो सभी फन काढ़े तैयार बैठे थे...इन सबकी मर्दानगी को एक नाचीज लड़की ने मानो चुनौती देकर आहत कर दिया था।
अतीकुर ने तौफीक को फिर कुरेदने की कोशिश की, 'मामू, मेहरबानी करके आप बोलिए...हमारी आजिजी अब बेकाबू हो रही है।'
तौफीक ने एक लंबी साँस ली, 'मैं देख रहा हूँ तुम सभी अपने-अपने खाँचे में समाये जरा-सा भी बदलना नहीं चाहते, जबकि सल्तनत अपने खाँचे से निकलकर पूरी तरह बदल जाना चाहती है। मेरी बात तुमलोगों को पसंद नहीं आयेगी, इसीलिए मैं चुपचाप हूँ।'
'कहीं आप सल्तनत की तरफदारी करके उसका हौसलाआफजाई तो नहीं करना चाह रहे?' मुजीबुर ने अपना रुख तनिक वक्र करते हुए कहा। तौफीक ने इसे ताड़ लिया।
'देखो मुजीबुर, प्यार के मामले में हमेशा यह होता रहा है है कि इजलास पहले लग जाता है...सजा पहले मुकर्रर हो जाती है और गुनाह बाद में तय होते हैं और ज्यादातर तो गुनाह तय होते भी नहीं। सल्तनत ने मुहब्बत की है...मुहब्बत एक जज्बात और जिगर का मामला है। कोई किसी फूल से, किसी रंग से, किसी दरख्त से, किसी मौसम से, किसी खुशबू से, किसी वादी से, किसी पहाड़ से, किसी शहर से, किसी वतन से, धन-दौलत और गहने-जेवरात से प्यार करता है। सल्तनत ने भी किया है एक लड़के से। इत्तफाक से उस लड़के की एक खास जाति, मजहब और हैसियत है। सल्तनत चाहती तो इस जज्बे को दिल में भी छुपाकर रख सकती थी...लेकिन उसने इसका खुलकर इजहार कर दिया...यह अगर खता है तो दुनिया के ज्यादातर लोग खतावार हैं।'
'तौफीक मियाँ, बहुत हो गया।' शफीक पिन-पिना उठे एकाएक, 'अब तुम्हारा फलसफा और कम्युनिस्टगीरी इस घर पर लादी नहीं जा सकती। सल्तनत का दिमाग जो आज सातवें आसमान पर चढ़ा है, यह तुम्हारी ही करतूत है, वरना मजाल नहीं कि इस शरीर लड़की के गले से एक लफ्ज तक बाहर आने देता।'
तौफीक मियाँ का मुँह अचरज से खुला रह गया। जिंदगी भर उसके मशविरे और फैसले पर निर्भर रहनेवाले उसके इस दब्बू भाई का आज यह तेवर। उन्होंने कहा, 'भाई साहब, मेरा कहा मानिए, न मानिए, आपकी जो मर्जी हो कीजिए। मैंने आप पर कभी अपनी मर्जी नहीं थोपी। सल्तनत पर आप भी अपनी मर्जी नहीं लाद सकते। मानने न मानने के लिए वह भी आजाद है।'
'मझले मामू! माफ कीजिए, सल्तनत को आपने जिस रास्ते पर ला दिया है, उससे मैं भी इत्तफाक नहीं रखता। आज वह एक कटी पतंग की तरह आवारा उड़ने के लिए बेताब है और नीचे खड़ा पूरा जमाना तमाशायी बनकर तालियाँ बजाने के लिए आतुर है, और आप हैं कि उसे शह दिये जा रहे हैं। मैं इसकी खिलाफत करता हूँ। उसे एक मजबूत डोर से बाँधकर रखना हमारा फर्ज है।' बोलते हुए अतीकुर के गोरे-चिट्टे चेहरे पर ढेर सारी लाल नसें झाँकने लगीं।
तौफीक के चेहरे पर हैरानी के भाव गहरे होते जा रहे थे। जिसका उन्होंने कभी खाँसना भी नहीं सुना, उसका वे दहाड़ना सुन रहे थे।
मुजीबुर की आँखों में भी ढेर सारा गुस्सा तैर रहा था। वह भी चुप क्यों रहता, 'आपने सल्तनत को अपनी अधूरी हसरतें पूरी करने वाला वारिस बना दिया। उसकी बागी और नामाकुल हरकतों को आपने हमेशा हौसला आफजाई किया...जैसे सारा कुछ एक सोची-समझी चाल हो। आखिर क्या जरूरत थी उसे इंटर तक पढ़ाने की और वह भी एक काफिर लड़के के जरिये से? हम उम्र से छोटे थे और मोहताज भी, इसलिए आपको कुछ कह न सके। आज पूरी बिरादरी उसके नाम पर थू-थू कर रही है, फिर भी आप उसे खतावार नहीं मानते। आखिर उसे और किस अंधी गली में ले जाना चाहते हैं आप?'
तौफीक की हैरानी बढ़ती जा रही थी। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि जवाबतलब करने वाले इन दो बदजुबान लौंडों को पाल-पोस कर और लिखा-पढ़ाकर उन्होंने ही इस काबिल बनाया है। बहरहाल वे उस मिट्टी के बने नहीं थे कि अपने किये हुए एहसान की याद दिलाकर उसे चुप कराते। उन्होंने बेहतर समझा कि वे खुद ही चुप रहें।
'खैर, आपने जो भी सोचा हो, उसकी मियाद पूरी हो गयी है। सल्तनत को अब आपके मुताबिक हम चलने नहीं दे सकते। उसकी जिस तरह बदनामी हुई है, अब कोई उससे निकाह करने को तैयार नहीं होगा।' मुजीबुर ने कहा।
'जन्नत के इंतकाल के बाद इदरीश को फिर से अपना घर बसाना है। हमने इसे कह-सुनकर किसी तरह मनाया है कि हमारी इज्जत बचा ले और सल्तनत से निकाह कर ले।'
'हरगिज नहीं,' भीतर से चीख उठी सल्तनत, 'इस जलील, नीच और मक्कार आदमी से मैं अपनी मौत का सौदा कभी नहीं कर सकती। मेरे निकाह की फिक्र कोई न करे। अगर मैं किसी के सिर पर बोझ हूँ और किसी को घमंड है कि वह मेरी परवरिश करता है इसलिए मैं उसके हुक्म का गुलाम हूँ तो यह उसकी गलतफहमी है...मैं आज ही घर से निकल जाती हूँ।'
'तुम अब कहीं नहीं निकलोगी, सल्तनत। तुमने अपनी मर्जी से बहुत कुछ कर लिया। अब हम जो चाहेंगे वही होगा। तुम्हें इदरीश से निकाह करना होगा।' दाँत पीसकर मुजीबुर ने कहा तो लगा जैसे कि आज वह कोई बकरा जिब्ह कर रहा है।
सल्तनत ने अपने जवाब को और भी करारा एवं आक्रामक बना लिया, 'इस शैतान भेड़िए ने तुम सबको खूब पट्टी पढ़ायी है। एक सप्ताह पहले अपने जिस गंदे इरादे में यह कामयाब नहीं हुआ था, उसका बदला लेने के लिए इसने पूरी साजिश रच ली है। लेकिन सुन लो कलमुँहे इदरीश, तुम्हारे नापाक इरादे कभी पूरे नहीं होंगे। मैं कोई जानवर नहीं हूँ कि हमारे ये भाई और मामू कहे जाने वाले सिरफिरे लोग मुझे ले जाकर तुम्हारे दोगाह के खूँटे में बाँध देंगे।'
शफीक का गुस्सा कपार पर चढ़ गया, 'अतीकुर...मुजीबुर! इस बदमिजाज लड़की का जब मुँह खुलता है तो उससे मानो एक बदबूदार नाली बहने लगती है। इसे अब यहाँ बीमारी फैलाने के लिए होने की कोई जरूरत नहीं है...इसे ले जाकर बंद कर दो किसी कोठरी में।'
सुनते ही अतीकुर-मुजीबुर झपट पड़े सल्तनत पर और घसीटते हुए ले जाकर एक कोठरी में बंद कर दिया। वह क्रोधित शेरनी की तरह दहाड़ती हुई सबको धिक्कारने और दुत्कारने लगी।
तौफीक का संयम अब जवाब दे गया, 'ये क्या हो रहा है...क्या कर रहे हो तुमलोग? इस तरह जल्लादों की तरह पेश आना क्या शोभा देता है? यह लड़की तुम्हारी बहन है...बेटी है...कोई मुजरिम नहीं है कि जबर्दस्ती बंद कर रहे हो उसे कमरे में...शर्म आनी चाहिए ऐसी हरकत पर। इस इदरीश से तुमलोगों ने पूछा एक बार भी कि जन्नत क्यों मर गयी? सल्तनत के साथ इसने क्या बदसलूकी की थी अपने घर...पूछा एक बार भी। जन्नत की अकाल मौत पर हमारे लिए यह मातम मनाने की घड़ी थी और तुमलोग इसे नजरअंदाज कर मुहब्बत का मातम मनाने लगे...जैसे किसी के मरने से ज्यादा अफसोसनाक है किसी का किसी से मुहब्बत करना।'
'मामू, हम सब कुछ पूछ चुके हैं...जान चुके हैं। सल्तनत ने जो कुछ आपको बताया है, वह मनगढ़ंत है, बेबुनियाद है।' अतीकुर ने यकीन दिलाने वाली सफाई पेश की।
'सल्तनत की जिस बेहयाई को आप बार-बार मुहब्बत का नाम दे रहे हैं वह सचमुच हमारे लिए मौत से भी ज्यादा सदमाखेज है। मेहरबानी करके आप चुप रहिए...इस मामले में हम किसी का कोई दखल बर्दाश्त नहीं कर सकते।' मुजीबुर जरा तैश में आ गया।
'हद से ज्यादा मत बढ़ो, मुजीबुर। मैं इस घर में क्या कोई बाहरी आदमी हो गया? सल्तनत क्या सिर्फ तुम्हारी बहन है...मेरी कुछ नहीं लगती? तुम क्या समझते हो कि यह मेरी कोई दुश्मन है कि बदला लेने के लिए मैंने इसे गलत रास्ते पर डालकर गुमराह कर दिया? मत भूलो कि तुम दोनों भी मेरे ही साये में बड़े हुए हो...और अभी इतने भी बड़े नहीं हो गये कि मुझे सही-गलत की तमीज तुमसे सीखनी पड़े। सल्तनत के साथ इस घर में कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं होगी। खबरदार जो किसी ने उसके साथ मुजरिम की तरह पेश आने की सूबेदारी दिखायी। मैं आ रहा हूँ सल्तनत...मैं अभी तुम्हें कमरे से बाहर निकालकर आजाद करता हूँ।'
तौफीक उठकर खड़े हो गये और कमरे की तरफ बढ़ चले। इसी बीच अतीकुर और मुजीबुर उनके रास्ते में आ गये। अतीकुर की मुद्रा तन गयी, 'मामू, आज हम किसी भी सूरत में आपकी एक न चलने देंगे। हमने जो ठान लिया है करके रहेंगे। सल्तनत के मामले में आपने जो मनमानी की उसके अंजाम पर बिरादरी में हरेक को एतराज है। इसलिए आप आज मन मारकर किनारे हो जाइए। अगर आप हमें रोकने की कोशिश करेंगे तो आज हम आपके साथ भी मुरौवत और लिहाज नहीं बरत सकेंगे। हम सल्तनत के भाई हैं...इतना भरोसा तो आपको हमलोगों पर करना ही चाहिए कि हम जो करेंगे उसके भले के लिए करेंगे।'
कथनी में नरमी और करनी में सख्ती। इनके खतरनाक इरादे को देखकर बुत की तरह खड़े रह गये तौफीक। इदरीश भी अब तक कोने से उठकर किसी गलत मंसूबे से उन्हें घूरने लगा था। शफीक की नजरों में भी एक शातिर भाव उतरा हुआ था। उन्हें लगा कि वे आगे बढ़ेंगे तो ये सभी मिलकर उन्हें दबोच लेंगे और पहुँच से दूर हटा देंगे।
अपने इस घर में उनकी ऐसी दयनीय अवस्था भी हो सकती है...उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी। सल्तनत की रोती-बिलखती आवाज उनके कानों में एक मर्मभेदी विलाप की तरह प्रवेश कर रही थी। उनका हृदय चीत्कार कर उठा और उनकी आँखें भर आयीं। मन ही मन उन्होंने कहा, 'मुझे माफ कर देना, सल्तनत...मुझे माफ कर देना। इन्होंने अपने कठघरे में मुझे भी घेरकर मुजरिम साबित करने की साजिश रच ली है।'
जो दृश्य उपस्थित हो गया था उसे देख घर के अन्य लोग किसी अनिष्ट की आशंका से सहम और सिहर गये थे।