सविता / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय / पृष्ठ 2

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‘‘अगर जिन्दगी रही तो बड़े दिन की छुट्टियों में मुलाकात होगी।’’ बात का सिलसिला बदलते हुए तारक ने अपनी अंगूठी मेज के एक कोने पर रखकर धीरे से विनीत भाव से सिर झुकाकर कहा- ‘‘मुझे बीस रूपय की जरूरत है...।’’ ‘‘यानी यह अंगूठी गिरवी रख रहे हो।’’ बीच में ही राखाल बोल उठा और अंगूठी उठाकर खिड़की के बाहर फेंकने ही वाला था कि तभी तारक फुर्ती से हाथ थामकर बोला- ‘‘गिरवी क्यों मित्र ! इसको बेचने पर भी क्या कोई दस रूपया दे सकेगा ? जाने से पूर्व यह अपना स्मृति-चिन्ह तुम्हारी अंगुली में पहनाऊंगा।’’ इतना कहकर अंगूठी अंगुली में पहना दी और फिर कहने लगा- ‘‘बस ! अब तुम जा सकते हो। मैंने दस मिनट के लिए कहा था और पन्द्रह मिनट ले लिए...।’’

राखाल के मस्तिष्क में महफिल के चित्रों के स्थान पर अब दूसरे ही विचार अंकित हो चुके थे। दोनों मित्रों की आकृति बड़े शीशे में साफ दिखाई दे रही थी। राखाल अपने मध्यम कद, गौर वर्ण, गोल कपोल और सरल स्वभाव से भला आदमी मालूम पड़ता है और तारक पतला, दुबला, कद लम्बा, श्याम वर्ण आदमी। देखने में बहुत शक्तिशाली है। उसके नेत्रों में एक विशेष प्रकार का आकर्षण है। आदमी विश्वासी है, सुख-दुख दोनों में विचलित न होने की योग्यता अपने में रखता है। उम्र लगभग अट्ठाइस साल की होगी- राखाल से दो-तीन साल कम।

‘‘तुम्हारा जाना गलत है।’’ राखाल ने कड़े स्वर में कहा। ‘‘क्यों ?’’ तारक गम्भीर मुद्रा किए खड़ा था। ‘‘क्यों क्या, हाई स्कूल के दसवें दर्जे को पढ़ाना क्या कोई आसान काम है ? इतनी योग्यता होनी चाहिए कि उन्हें उत्तीर्ण करा सको।

क्या...’’ ‘‘उन लोगों ने योग्यता नहीं, कॉलिज की डिगरियां मांगी थीं। सो मैंने पेश कर दीं और कमेटी ने उसके आधार पर मुझे हेडमास्टरी के पद पर नियुक्त कर दिया। लड़कों को पढ़ाने का उत्तरदायित्व मुझ पर और पास कराने का उन पर रहेगा।’’ ‘‘जी !’’ गम्भीरता से राखाल बोला-‘‘तुम मुझसे बराबर झूठ बोलते रहे कि तुम पढ़ते-लिखते ही नहीं हो ! भला ऐसा तुमने क्यों किया ?’’

तारक ने हंसकर कहा-‘‘यह तो मैं अब भी कहता हूं कि सिर्फ डिगरियां ही तो ले ली हैं। पढ़ाई खत्म करते ही नौकरी की खोज में लग गया। पढ़ने के लिए वक्त ही कहां मिला ? कलकत्ता में आकर तुम्हरी दया से दो वक्त भोजन का सहारा मिल गया। ’’

‘‘तारक ! देखना अगर फिर कभी तुमने...पूरी बात भी खत्म न होने पाई थी कि शीशे में एक तीसरा नारी का प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर हुआ। यह एक अपरिचित स्त्री थी जिसकी आयु यौवन को लांघकर आगे बढ़ चुकी थी, लेकिन यह पहचानना उतना सरल नहीं था जितना कि यह सत्य था। गौर वर्ण, शरीर कुछ दुबला, शरीर पर सुन्दर साड़ी, दो-चार गहने, माथे पर सिन्दूर बिन्दु- नारी और नारी का एक विचित्र आकर्षण उसमें झलकता था। क्षण भर के लिए दोनों मित्र मौन नवागन्तुक के मुख को देखते रहे और फिर अचानक राखाल कुर्सी छोड़कर बोला-

‘‘यह क्या ? मेरी नई मां !’’और महिला के पैरों पर सिर रखकर इस तरह लेट गया मानो कितने ही दिनों का भटका हुआ नमस्कार आज अपनी पूर्ण श्रद्धा को उंड़ेल देना चाहता है। ‘‘बेटा राजू !’’ महिला ने राखाल को ठोड़ी थामकर उठाते हुए कहा और खुद कुर्सी पर बैठ गई। राखाल और उसका मित्र दोनों सामने धरती पर बैठ गए। ‘‘तुरन्त नहीं पहचान सका मां !’’ राखाल ने कहा। ‘‘न पहचानने की तो उम्मीद ही थी बेटा।’’

‘‘मैं सोच ही रहा था कि वैसे ही आपका लम्बा केशजाल दिखलाई पड़ गया। रंगीन आंचल में से झलकते हुए केश आपके पैरों की एड़ियों को चूम रहे हैं। उन दिनों की याद कितनी स्पष्ट है कि जब वे लोग कहा करते थे- इन बालों में से थोड़े बाल लेकर देवी की मूर्ति को सजाना चाहिए। आप भूली न होंगी मां वह बात।’’ मां हसने लगी और बात बदलकर बोलीं-‘‘यही तुम्हारे मित्र हैं न राजू ? क्या नाम है इनका ?’’ ‘‘तारक भट्टाचार्य।’’ राखाल बोला-‘‘लेकिन आप कैसे जान गईं कि यह मेरे मित्र हैं ?’’ उन्होंने इस प्रश्न को भी दबा रखा, कहा- ‘‘सुनती हूं, तुम लोगों में खूब प्रेम है।’’

‘‘हां !’’ राखाल ने कहा- ‘‘लेकिन यह आज भर का ही मेहमान है। बर्दवान जिले के किसी गांव में हेडमास्टर बनकर जा रहा है। मैं इसे समझाता हूं कि एम. ए. पास करके मास्टरी की क्या फिक्र करते हो, लेकिन इसे विश्वास नहीं हो रहा कि इतने बड़े कलकत्ता शहर में इसे कोई काम मिल जाएगा। कितनी खराब बात है मां ?’’ नई मां ने मुसकराकर कहा- ‘‘तुम्हारी बात पर विश्वास न करना कोई बुरी बात नहीं, क्या तारक बाबू आप सचमुच चले ही जाएंगे ?’’

‘‘लेकिन बात तो बुरी कुछ और ही हुई मां ! राखालराज का इतना लम्बा नाम तो आपने छोटे से राजू में बदल दिया और मेरे नाम के पहिले बाबू का पुछल्ला लगा दिया। मेरा नाम भी आपको छोटा करना होगा मां !’’ तारक ने विनीत भाव से कहा।

‘‘ऐसा ही होगा तारक।’’ नई मां ने मुसकराते हुए कहा। तारक खुश होकर कुछ कहना ही चाहता था कि उसकी वाणी मौन हो गई। उसी वक्त नई मां बोलीं- ‘‘कभी उस मकान की तरफ भी जाना होता है राजू ?’’ ‘‘चला तो जाता हूं मां लेकिन दुनियाभर के झंझट चैन नहीं लेने देते। पन्द्रह-बीस दिन में कभी...’’ ‘‘कुछ खबर है, रेणुका की शादी हो रही है।’’ ‘‘किसने कहा आपसे ? मुझे तो कुछ भी खबर नहीं है।’’ ‘हां, निश्चय ही हो रही है। सवेरे दस बजे उसके शरीर पर तेल और उबटन मला जा चुका, लेकिन तुम्हें शादी रोकनी होगी।’’ ‘‘किसलिए मां ?’’

क्योंकि यह हो नहीं सकती, इसलिए की उसकी ससुराल में पागलपन का रोग है। बाबा, बुआ दोनों पागल हैं। पिताजी अभी-अभी अच्छे हुए हैं लेकिन कुछ पहले उन्हें भी-जंजीर में बांधकर रखा जा चुका है।’’ ‘‘कैसी आफत है जी, क्या इन बातों पर गौर नहीं किया गया ?’’ राखाल बोला। लड़का सुन्दर और धनी है और अभी पढ़ रहा है और तुम जानते हो रेणुका के पिता को, सभी की बातों में आ जाते है, विश्वास कर बैठते हैं यदि यह रहस्य जान भी जाते तो क्या होता ? सब कुछ समझ-बूझ कर भी वह इसमें डर नहीं मानते।’’ ‘‘बात तो यही है।’’ राखाल ने कष्टपूर्ण स्वर में कहा।

चुपचाप बैठे तारक के मन में राखाल के इस ‘बात तो यही है।’ निरूत्साही स्वर ने विचलन पैदा कर दी। राखाल को वह बिना फटकारे न रह सका कि आखिर किस प्रकार वह उस विवाह का होना सहन कर सकेगा। ‘‘परन्तु, भाई, क्या मेरे कहने मात्र से विवाह रुक सकेगा। तुम ऐसा समझते हो !’’ राखाल ने कहा ‘‘फिर अकेले रेणुका के पिता की ही बात नहीं है घर में दूसरे लोग भी तो हैं।’’ ‘‘रूकेगा क्यों नहीं ? क्या लड़की के घर वाले भी लड़के के घर वालों की तरह पागल हैं ? क्या लड़की को आग में झोंकना है ?’’ परन्तु हल्दी तो चढ़ चुकी। ’’

‘‘तो क्या हुआ, लड़की के साथ अन्याय नहीं किया जा सकता।’’ महिला तारक की ओर बड़ी गम्भीरता से देख रही थी। ‘‘मैं एक अपरिचित व्यक्ति हूं। मुझे उस घर वालों की ऐसी कटु आलोचना करने का अधिकार भी नहीं था। परन्तु राखाल मेरा मन कहता है तुम्हें अपनी सम्पूर्ण शक्ति यह विवाह रोकने में लगा देनी चाहिए। मैं कहता हूं, उसे मत होने दो मित्र !’’ महिला ने कहा- ‘‘राजू ! और कौन है वहां ? केवल लड़की की सौतेली मां है, सो उसे इस मामले में बोलने का कोई अधिकार नहीं है।’’

राखाल चुप था। महिला ने फिर कहा- ‘‘अच्छा राजू, अब मुझे बाग बाजार जाना होगा। वहां जाकर लड़की के मामा को जो कि उधर के कर्ता-धर्ता हैं, उन्हें लड़की की मां की कहानी सुना देना होगा। हो सकता है कि काम पूरा हो जाए, परन्तु अगर न हुआ तो मुझे कुछ और प्रयत्न करना पड़ेगा। मैं रात में ग्यारह बजे के बाद आऊंगी, इस समय जाती हूं।’’ इतना कहकर वह जाने लगीं।

राखाल व्याकुल था, वह कहने लगा- ‘‘परन्तु इसके पश्चात् रेणुका का विवाह नहीं हो सकेगा मां। भेद खुल जाने पर ...’’ ‘‘न सही बेटा !’’ दृढ़ होकर मां ने कहा। अधिक बात बढ़ाना राखाल ने उचित न समझा। चरण छूकर पूर्ववत् प्रणाम किया। तारक ने भी उसका अनुसरण किया। दरवाजे तक जाकर मां फिर अचानक घूम पड़ीं और तारक को सम्बोधित करके बोलीं- तारक ! अधिकार तो नहीं किन्तु राखाल के मित्र होने के नाते मैं अनुरोध करती हूं कि तुम अभी दो दिन यहीं और ठहरो।’’ तारक ने बड़े विस्मय के साथ यह शब्द सुने। अचानक कोई उत्तर न बन पड़ा और वह बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए ही बाहर चली गई। खिड़की से राखाल ने देखा वह पैदल ही जा रही थीं। गली के अन्त पर एक दरबान उनकी प्रतीक्षा में खड़ा था, वह उनके पीछे-पीछे चल दिया। दो राखाल ने कपड़े उतार दिए। तारक ने पूछा- ‘‘ क्या घूमने जाने का विचार है ?’’ ‘‘और तुम ! क्या बर्दवान जरूर जाना है आज ही ?’’ राखाल पूछ बैठा। ‘‘नही मैं देखना चाहता हूं कि उस विषय में तुम क्या करने का विचार कर रहे हो ? यदि तुम अपने मन से कुछ न करोगे तो मुझे तुम्हारे साथ जबरदस्ती करनी पड़ेगी।’’ तारक ने उत्तर दिया। ‘‘चाय का बर्तन फिर अंगीठी पर चढ़ा देता हूं।’’ ‘‘चढ़ा दो।’’ खाने के लिए कुछ मोल ले आऊं ?’’ ‘‘ले आओ। तारक बोला।

‘‘तुम बर्तन आग पर रखो, मैं अभी दुकान से होकर आया।’’ आधी धोती ओढ़े पैरों में चप्पल डाले वह दुकान की ओर चल दिया। गली के नुक्कड़ पर हलवाई की दुकान है, उधार खाते में मिल जाता है, नगद नहीं देना पड़ता। मेज पर चाय लेकर दोनों मित्र बैठ गए। सूर्य अस्त हो चुका था, इसलिए बिजली का बटन दबा दिया। घरेलू बातें चल पड़ीं। राखाल अतीत की स्मृतियां सुनने लगा- अपनी शैशवावस्था के दिनों की। तारक चुपचाप उन्हें सुनता गया। कभी-कभी बीच में बहस भी छिड़ जाती ! ‘‘फिर उसके बाद ?’’ तारक ने कहा।

‘‘उस समय मैं लगभग ग्यारह या बारह वर्ष का था। बाबूजी चार-पांच दिन पूर्व हैजे के शिकार हुए होंगे। मैं निराश्रय था। सब ने मुझे जमींदार की मझली बेटी सविता के पास जाने की अनुमति दी जो कि दुर्गा-पूजा देखने के लिए पिता के घर आई हुई थीं। जमींदार का बूढ़ा कारिंदा मुझे उनके पास ले गया। वह सूप में रखकर तिल चुन रही थीं। कारिन्दा ने कहा- ‘‘मझली बिटिया ! यह एक दीन ब्राह्मण है। इसके मां-बाप दोनों स्वर्गवासी हो चुके हैं। तुम्हारा नाम सुनकर भिक्षा के लिए आया है। तीनों लोक में इसका कोई आधार नहीं है। कौन इसको भार, मुक्त करे।

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