सांझ / गुरदयाल सिंह / सुभाष नीरव

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रेल से उतरकर एक औरत असमंजस की स्थिति में इधर-उधर झाँक रही थी। बन्तू टेढ़ा-सा होकर उसकी ओर बढ़ा। नज़र कुछ कमजोर-सी हो जाने के कारण उसे इतनी दूर से आदमी की पहचान नहीं होती थी। क़रीब जाकर गौर से देखा तो उसे लगा कि मानो वह जै कौर ही है।

कौन है ?

मैं जै कौर।

तू यहाँ कैसे ?

जै कौर पल दो पल कुछ झिझकी, फिर धीमी आवाज़ में बोली, शहर से आई थी। बड़ी बहू अस्पताल में दाख़िल है।' और बन्तू का मुँह खुला का खुला रह गया।

सब ख़ैर तो है ?

हाँ, उसके बच्चा होने वाला है।

चल, फिर चलते हैं।

जै कौर को कोई जवाब न सूझा। वह दुविधा में पड़ गई। दिन छिप चला था और गाँव तक पहुँचते-पहुँचते रात की रोटी का समय हो जाता। वाकई, गाड़ी से कोई तीसरा बन्दा नहीं उतरा था। पहले कभी गाड़ी इतनी देर से नहीं पहुँची थी। दिन के उजाले में ही पहुँच जाया करती थी, पर आज इतनी देर से आई थी। एक बार उसके मन में आया कि रात यहीं अपनी भतीजी के घर बिता ले। लेकिन कल फिर उसे दोपहर की गाड़ी से लौटना था। घड़ी भर उसने सोचा और फिर सामने खड़े बन्तू की ओर ध्यान से देखा। बन्तू की आँखों में उसे एक अनोखी चमक दिखाई दी और उसका पूरा व्यवहार ही बड़ा विनम्र-सा प्रतीत हुआ।

अच्छा, चल। जै कौर ने मन कड़ा करके कहा।

जब बन्तू लम्बे-लम्बे डग भरने लगा तो उसके सिर पर रखी सौदे-सुल्फ वाली गठरी डोल गई। उसने दोनों हाथों से उसे सम्भालते हुए यूँ पुचकारा जैसे शैतान बछड़े को टिका रहा हो। इसके बाद वह कुछ बुदबुदाया और फिर स्वयं ही मुस्करा पड़ा।

और सुना जैकुरे... पुलकित स्वर में बन्तू ने राह पकड़ते हुए बात छेड़ी, कबीलदारी तो ठीक ठाक है ? सब किरपा है गुरु की।

शुक्र है, शुक्र है कहकर बन्तू खाँसने लगा। ख़ाँसते-खाँसते ही उसने दाएँ-बाएँ देखा और छिपते हुए सूरज की ढलती जा रही लालिमा को देखकर उसे किसी गुप्त खुशी का अनुभव हुआ। लेकिन बाजरे के लम्बे सिट्टों की कोरों को चमकते देखकर उसने फिर नज़रें झुका लीं।

चारों ओर इतना सन्नाटा था कि रास्ते के दोनों ओर खड़े घने दरख़्तों के पत्तों में छिपी चिड़ियाँ जब उनकी पदचाप सुनकर एक साथ बोलने लगती थीं तो उनके शोर से आसमान फटने को हो जाता। जब चिड़ियाँ चुप हो जातीं तो फिर से वैसा ही सन्नाटा पसर जाता। बन्तू कितनी ही दूर तक यूँ ही अपने पीछे-पीछे आती जै कौर की जूतियों की थाप सुनता रहा। इस आवाज़ में से उसे गुरुद्वारे में बजते 'ढोलकी-छैनों' की ताल की तरह झनकार सुनाई देती थी।

हमें आपस में मिले, हो गए होंगे कई बरस, जै कुरे ?

हाँ ! जै कौर ने जैसे डरी हुई आवाज़ में उत्तर दिया।

छह-सात बरस तो तू शायद अपने छोटे भतीजे के पास राजस्थान में भी रहकर आई है।

हाँ।

जै कौर ने आँखें ऊपर उठाकर बन्तू की ओर देखा तो वह काँप उठी। वह खड़ा होकर पीछे की ओर देख रहा था और जूती के रेते को झाड़ने में लगा था। उसकी आँखें सूरज की ढलती लाली जैसी चमक से दिपदिपा रही थीं। पर, पर उसकी धौली दाढ़ी देखकर जै कौर का मन स्थिर हो गया। अब उसे बन्तू से बिल्कुल भी कोई संकोच या डर नहीं लग रहा था। अब तक मानो उसे बन्तू के इतना बूढ़ा हो जाने का ख़याल ही नहीं आया था। जब बन्तू यूँ ही थोड़ा-सा मुस्कराकर आगे बढ़ा और उनके बीच का फ़ासला एक क़दम ही रह गया तो जै कौर उसके शरीर को ऐड़ी से लेकर सिर तक अच्छी तरह देख सकती थी। बंतू की पिंडलियाँ सूखकर लकड़ी जैसी हो गई थीं। गर्दन पर मांस लटक आया था। पीठ झुक चुकी थी और कन्धों के ऊपर की हड्डियाँ कटड़े के सींग की भाँति ऊपर की ओर उभर आई थीं। उसके कपड़ों में न जाने कितना मैल भरा था।

और, उस समय जै कौर की आँखों के सम्मुख एक और बन्तू आ खड़ा हुआ... इस बन्तू के माथे पर राजाओं जैसा तेज़ था ! लम्बा कद, भरवाँ शरीर, चौड़ी-मज़बूत छाती ओर रसीली आँखें, जिनकी ताब झेली नहीं जाती थी। यही बन्तू जब... उसी समय जै कौर की कँपकँपी छूट गई। वह फिर डरकर बन्तू की ओर देखने लगी। लेकिन दूसरे ही पल उसके चेहरे पर हँसी उभर आई।

तू क्यों इतना कमज़ोर हो गया है ? तरस भरी आवाज़ में मानो हमदर्दी जताते हुए जै कौर ने चुप्पी को तोड़ा, कहीं बीमार-शिमार तो नहीं रहा ?

बन्तू न एक गहरी साँस ली और उत्तर दिया, अब तो जै कुरे... बस, कुछ न पूछ !

कोई नहीं, इतना दिल नहीं हारा करते... जै कौर ने दिलासा दिया, घर घर में यही हाल है। कबीलदारी जो हुई, यह तो जंजाल ठहरा !

जंजाल तो है जै कुरे, पर जमाना इतना बुरा आ गया है कि कोई किसी की बात ही नहीं पूछता। यह मेरी उम्र, भला, अब धक्के खाने की है ?... दस बरस हो गए जब बेटों को जैदात (जायदाद) बांट दी थी, वही आँखें फेर गए। दोनों बहुएँ ऐसी चन्दरी (दुष्ट) आई हैं कि... कहती हैं, बस, बुड्ढ़े की जितनी खाल उतारनी है, उतार लो, यह कौन-सा अब किसी दूसरे काम आएगा। वक्त से रोटी नहीं देतीं, नहाने को पानी नहीं देतीं, कपड़े नहीं धोतीं... अच्छा, फिर किसी से क्या, सभी तरफ यही हाल है। अपनी लिखी भुगतनी है, जै कुरे !

जै कौर को बन्तू एकाएक बच्चा-सा लगने लगा जो मार खाकर शिकायत कर रहा हो।

कोई बात नहीं, इतना उदास नहीं हुआ करते। जै कौर कड़कदार स्वर में बोली, मेरे जैसों की ओर देख जो दर-दर भटकते फिरते हैं। एक तो रब ने सारी उम्र सुनी नहीं, ऊपर से भतीजों के दर पर धक्के खाने पड़े। भाइयों की बात और होती है। मन-आत्मा दुखी है। कहते हैं न — 'नानक दुखिया सब संसार !' किसी पर कोई वश है हमारा ? अपना बोया काटना है। कहते हैं - जेहा बीजे सो लुणे, करमां सन्दड़ा खेत !

जै कौर बोलती गई और बन्तू के मन को ढाढ़स मिलता रहा। जैसे एक दुखी को देखकर दूसरे दुखी के मन को तसल्ली होती है, वैसी ही तसल्ली उसे हो रही थी। एक तरह से उससे भी अधिक क्योंकि जै कौर से उसकी गहरी आत्मीयता थी।

बन्तू ने बायीं ओर देखा। सूरज की लाली बिल्कुल ढल चुकी थी और निखरे आकाश में कई छोटे-छोटे तारे चमकने लगे थे। हवा बन्द होने के कारण उमस बढ़ गई थी और 'चरी-ग्वार' के पत्तों की खड़खड़ाहट भी सुनाई नहीं देती थी। रास्ता आगे जाकर और तंग हो गया था। जै कौर बेझिझक उसके पीछे-पीछे चली आ रही थी। उसकी भारी आवाज़, अभी तक अनढला शरीर, चौड़ा माथा, गोरा रंग और ढलते नैन-नक़्श (जिनमें अभी भी औरत वाला खिंचाव था) उसे बहुत अच्छे लग रहे थे और उसका मन एक बार खड़े होकर उसे देखने को कर रहा था।

जै कुरे, यह अपना खेत है। पैर मलते हुए जूती में से रेत झाड़ता हुआ बन्तू एकाएक खड़ा हो गया था और दाईंओर के घने नरमे की ओर हाथ करके उसे बता रहा था, इसबार पाँच-साढ़े पाँच घुमाव बोया है। वो...सामने शीशम के पेड़ तक।

जै कौर एकदम रुक गई। उसकी साँसें तेज़ हो उठीं और दिल ज़ोरों से धड़कने लग पड़ा। जिस शीशम के पेड़ की ओर बन्तू ने इशारा किया था, यह...यह वही शीशम था, जिसके पास आज से तीस-पैंतीस बरस पहले एक बार बन्तू ने उसे घेर लिया था और उसने बेझिझक उसकी बाँह पकड़ ली थी। उस समय जै कौर एकबारगी तो डर ही गई थी लेकिन फिर उसका मन किया था कि बन्तू यूँ ही उसकी बाँह पकड़े रहे। जै कौर को सचमुच कँपकँपी छूट गई। बन्तू जूती में से रेत झाड़ने के बहाने कितनी ही देर तक आगे नहीं बढ़ा था और आँखें फाड़कर जै कौर की ओर देखे जा रहा था। जै कौर ने एक-दो बार उसकी ओर देखा और नज़रें झुका लीं। उसे बन्तू से सच में डर लगने लगा और उसे उसका झुर्रियों भरा चेहरा बड़ा घिनौना-सा लगा।

उस शीशम के साथ ही बाजरा लगा है। बन्तू ने मानो शरारत में कहा हो, मैंने तो कहा था, वहाँ भी नरमा बो देते हैं, पर तू तो समझदार है, बूढ़ों की कहाँ सुनी जाती है। सब अपनी अपनी मरजी करते हैं।

ठीक है, ठीक है।

वो शीशम, जै कुरे मेरे विवाह के वक्त बापू बेचने चला था, पर मैंने कहा - चाहे ज़मीन गिरवी धर दे, लेकिन मैं यह शीशम नहीं बेचने दूँगा।

जै कौर के पूरे बदन में एक बार फिर सनसनाहट फैल गई। बंतू फिर से शीशम की बात छेड़े जा रहा था। अब जब वे फिर से रास्ते पर चलने लगे तो जै कौर आहिस्ता-आहिस्ता पीछे रह गई और उनके बीच का फ़ासला पाँच-छह क़दमों का हो गया। अब बन्तू को जै कौर की पदचाप सुनाई नहीं दे रही थी। वह बोलते-बोलते फिर रुका और पीछे मुड़कर देखने लग पड़ा।

आ जा, आ जा, बस, अब तो आ ही गए, हौसला देते हुए बन्तू ने कहा, वो सामने गाँव खड़ा है, अब कहाँ दूर है ! जै कौर ने निगाह ऊपर उठाकर देखा, गाँव आधे कोस की दूरी पर था। वह जल्दी जल्दी दो-तीन कदम बढ़ाकर फिर से बन्तू के साथ आ मिली।

जै कुरे... जब से तेरी भरजाई मरी है, लगता है जैसे यूँ ही साँसों को बिलो रहे हैं।

'तेरी भरजाई' शब्द जब बन्तू ने कुछ दबाकर कहे तो जै कौर के होंठों पर हँसी फैल गई।

जै कुरे ! बन्तू फिर बोला, उम्र उम्र की बातें हैं। जब जवान होते थे, कभी रब को याद नहीं किया था, पर अब लगता है, यूँ ही बेकार में दिन काटे जा रहे हैं। अगर मर जाएँ तो अच्छा ! पर माँगने से मौत भी कहाँ मिलती है।

रे, अभी किसलिए दुआएँ मांँगता है मरने की ? जै कौर बोली, अपने पोतों के विवाह देखकर जाना। पड़पोतों को खिलाकर जाना। और फिर, अरथी को पड़पोतों का हाथ लगे बिना तो गति भी नहीं होती।

बन्तू का मन जै कौर की बात से किसी अजब रौ में बह चला। उसका जैसे एक ही वक्त में मरने को भी मन करता था और जीने को भी।

बात तो तेरी ठीक है, पर क्या लेना अब घुटने घिसटकर। गति अपने आप होती रहेगी। यह कोई जून है ? सुबह होते ही कुत्ते की तरह पूरे टब्बर से 'दुर-दुर' करवाते फिरो। हँसकर कोई रोटी का टुकड़ा भी तो नहीं पकड़ाता।

जै कौर को बन्तू की बात सच लगी। उसके मन में तीस-पैंतीस बरस पहले बन्तू के साथ बिताई वह गहरी सांझ जीवन्त हो उठी, जब वे दोनों कुआँरे थे। अभी भी दोनों एक जैसे थे — दूसरे के हाथों की ओर देखने को विवश। वह स्वयं बीस बरस बाल-बच्चे के लिए तरसती रही थी, पर किसी पीर-फकीर ने, किसी देवी-देवता ने उसकी झोली नहीं भरी थी। और आख़िर में उसके पति की अचानक हुई मौत ने सारी उम्मीद ही ख़त्म कर दी थी। और अब सात बरस हो गए, वह कभी चार दिन ससुराल में काट आती थी, और कभी मायके में। कभी भतीजियों के द्वारे आ बैठती थी। रोटी के लिए उसे किस-किस की गुलामी नहीं करनी पड़ी थी।

इन बेटों-पोतों की गुलामी करके ही रोटी खानी पड़ती है, जै कुरे ! नहीं तो सात सौ गालियाँ देकर घर के बाहर वाले छप्पर के नीचे चारपाई डाल देते हैं - कुत्ते भगाने के लिए !

बन्तू अभी अपनी ही राम कहानी सुनाए चला जा रहा था और धीरे-धीरे वह फिर से पहले वाली रौ में आता जा रहा था। जै कुरे, यह कोई जून है ? जब मरने के बाद कोई याद करने वाला ही न हो तो वह मौत भी कैसी ! अकेले आदमी की तो मौत भी धिक्कार है।

बन्तू बोलता जा रहा था, पर जै कौर का ध्यान अब उसकी बातों की ओर नहीं था। वह सामने गाँव के दीयों की ओर देख रही थी जो उसे किसी चिता की लपटों की रोशनी की भाँति दिख रहे थे।

मुड़कर उसने बन्तू की ओर देखा। सूखे बाँस-सी उसकी टाँगें अँधेरे में गुम हो गई थीं। उसका दुर्बल शरीर हिल रहा था। जै कौर को उस पर तरस आया।

अच्छा, मैं बाहर वाली सड़क पर चलती हूँ। उसने बन्तू से कहा, ज्यादा उदास न हुआ कर। जो चार दिन और काटने हैं, हँसकर काटें, रीं-रीं करने पर कोई हमें पलंग पर बिठाने वाला नहीं है।

सच बात है, सच बात है, कहता हुआ बन्तू अपने रास्ते की ओर मुड़ गया।

मूल पंजाबी भाषा से अनुवाद : सुभाष नीरव