साथ चलते हुए / अध्याय 9 / जयश्री रॉय

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वह मार्च का एक बेतरह उदास और निर्जन दिन था जब वह पहली बार उनसे मिली थी।

उनके छोटे-से कॉटेज के गेट पर बँधी घंटी की डोर खींचकर न जाने कब तक वह खड़ी रह गई थी। उसके चारों तरफ अनवरत झरते हुए सूखे पत्तों का एकरस मर्र-मर्र आवाज और साँझ को कुतरते हुए हजारों झींगुरों का तेज शोर था। डूबते हुए दिन के म्लान आलोक में उतरती रात का नील तेजी से घुल रहा था। पश्चिम के सुदूर कोने में क्षितिज के पास आकाश का रंग गहरा गेरुआ हो आया था।

दूर बँगले के अंदर कोई कुत्ता लगातार भौंक रहा था। उसकी गूँजती आवाज और साँझ के झुटपुटे में डूबा हुआ वह छोटा कॉटेज बड़ा रहस्यमयी प्रतीत हो रहा था। आसपास के पेड़ों पर अंधकार के छोटे-छोटे गुच्छे यहाँ-वहाँ घोंसला डालने लगे थे। न जाने क्यों प्रतीक्षा के उन निःस्तब्ध क्षणों में वह एक अनचीन्हें अवसाद से घिरने लगी थी।

बहुत देर बाद जब कॉटेज का दरवाजा खुला था, अंदर जलती हुई मोमबत्ती की पीली, मद्धिम रोशनी अनायास सीढ़ियों पर उतर आई थी। उसी रोशनी की पृष्ठभूमि पर वह छाया नजर आई थी, किसी सूखे पत्ते की तरह लरजती हुई! चेन छुड़ाकर भाग छूटने के लिए आमादा विशालकाय कुत्ते को धीरे से दुलारती हुई वह नीचे उतर आई थी - घिसटते पाँवों से चलती हुई - टूटे, पीले पत्तों की बदरंग कालीन में डूबी हुई-सी, अपने पैरों के नीचे कुचलते सूखे पत्तों की चरमराहट से संध्या की अनमन निःस्तब्धता को अनायास भंग करते हुए...

पहली नजर में वह बहुत कम उम्र की लगी थी - दुबली-पतली और अवसन्न। उसे देखकर साँझ के आकाश में निकले किसी निसंग तारे की याद आती थी - उजला, मगर बहुत उदास... लौटते हुए शीत ऋतु के हिमेल संकेतों के बीच पनपकर छाते और दूर-दूर तक गूँजते बदरंग, बदहवास शून्यता के बीचोबीच खोई और भटकी-सी।।

गेट पर आकर भी वह चुपचाप खड़ी रही थी, आँखों में मौन प्रश्न लिए, उसके बोलने की प्रतीक्षा करती हुई-सी। उसे देखकर लगता था, बहुत दिनों से उसे अच्छी नींद नहीं मिली है। तंद्रिल आँखों में नींद और जगार लिए वह साँझ के धुएँ में डूबी अनमन खड़ी कोई परछाईं जैसी दिख रही थी, जैसे सच न हो, भ्रम हो। कुहरे की तरह।

आखिर उसने ही बढ़कर अपना परिचय दिया था। सुनकर बिना कुछ कहे वह उसे कॉटेज के अंदर ड्राइंग रूम से होते हुए अंदर के शयन कक्ष में ले गई थी।

पुराने फर्नीचरों और अन्य सजावट के सामानों के बीच एक व्हील चेयर पर डॉ. सान्याल बैठे थे - किसी पुराने पोट्रेट की तरह - धूसर और गंभीर...! झुरियों से भरे चेहरे और खिचड़ी दाढ़ी के बीच जडी हुई दो भावहीन आँखें और सख्ती से भींचे हुए होंठ! उन्हें देखकर ही न जाने क्यों ऐसा प्रतीत होता था कि वे अपने अंदर ढेर सारे गुस्से और हताशा को दबाए बैठे हैं।

उसके अभिवादन का उन्होंने अपने सर को हल्का-सा झटका देकर जवाब दिया था। उसकी बातें भी वे बड़ी विरक्ति के साथ सुनते रहे थे। इसी बीच वह लड़की जिसे डॉ. सान्याल ने खुकु कहकर संबोधित किया था, चाय बनाकर ले आई थी। चाय के कप तिपाई पर रखते ही डॉ. सान्याल ने उससे वहाँ से जाने के लिए कहा था। कहते हुए उनका लहजा बहुत शुष्क था। वह चुपचाप वहॉ से चली गई थी।

उसे वहाँ के माहौल में एक अजीब-से तनाव का अहसास हुआ था। डॉ. सान्याल का स्वभाव उसे सहज नहीं लगा था। बातें करते-करते उनकी पत्थर के टुकड़े की तरह सख्त आँखें अचानक जल उठती थीं। ऐसे क्षणों में उनका चेहरा बहुत क्रूर दिखता था। कोने के स्टैंड पर जलती मोमबत्ती की हल्की, बीमार-सी रोशनी में उनका कमर से नीचे का हिस्सा अँधेरे में डूबा हुआ था। उनकी पथरीली आँखें, चाकू के फाल की तरह तीखी हँसी, और अँधेरे-उजाले में डूबा हुआ पूरा शरीर उसे एक न समझ में आनेवाली सनसनाहट की जद में लिए हुए था। उनकी बातें बिद्वतापूर्ण थीं, मगर कहने का ढंग एक तरह से खतरनाक। वे एक-एक शब्द को जैसे चबा-चबाकर उगलते थे। किसी आदमखोर की तरह! उन्हें सुनते हुए तथा बातें करते हुए कई बार उसके पूरे शरीर पर अनायास झुरझुरी फैल गई थी।

वह जब देर शाम गए वहाँ से उठने लगी थी, डॉ।. सान्याल ने अपने विशिष्ट अंदाज में अपनी तरफ से उसे हर तरह से सहायता देने का आश्वासन दिया था। कमरे से निकलकर उसने राहत की साँस ली थी। अंदर उसका दम घुट रहा था। डॉ. सान्याल का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था - कठोर और हिंसक!

उस दिन उनके बँगले की सीढ़ियाँ उतरते हुए उसने देखा था, साल के ऊँचे वृक्षों के पीछे हल्का पीलापन छाया था, शायद चाँद उग रहा था। मार्च की हल्की चलती हवा में जाते हुए मौसम की हल्की खुनक थी। कोहरे की झीनी चादर में चढ़ती रात का फीका अंधकार लिपटा था। पैरों के नीचे ताजे झरे पत्तों की नरम चरमराहट थी जो रात के सन्नाटे में बहुत तीखी होकर सुनाई पड़ रही थी। गेट से निकलने के बाद उसने मुड़कर गेट बंद किया था और तभी वह दिखी थी - रात के अँधेरे में प्रायः अदृश्य-सी। चंपा के एक फूलते हुए पेड़ के नीचे झूले पर बैठी हुई। डालों से छनकर आती हुई हल्की चाँदनी में उसका छोटा-सा माथा और दो कंधे चमक रहे थे। जैसे दो उजले कबूतर अँधेरे में दुबककर बैठे हुए हों।

वह विदा लेते हुए अभी कुछ कहने की सोच ही रही थी कि अंदर से डॉ. सान्याल की गुर्राती हुई आवाज आई थी और वह लगभग दौड़ती हुई उठकर वहाँ से चली गई थी। उसके पीछे दरवाजा एक झटके से बंद हो गया था। दरवाजा बंद होते ही वहाँ भयंकर सन्नाटा छा गया था। फीकी चाँदनी और कुहासे में डूबा वह छोटा-सा कॉटेज अब एकदम भुतैला दिखने लगा था। इस पहाड़ी प्रदेश में मार्च के महीने में भी ठंड महसूस हो रही थी। वहाँ से लौटते हुए न जाने क्यों उसे वह चेहरा याद आता रहा था। उसकी आँखों में मूक यातना और पीड़ा का एक अमूर्त और ठहरा हुआ स्तब्ध संसार था। बहुत स्पष्ट मगर निर्वाक... जैसे कोई चीत्कार अनायास पत्थर में परिवर्तित हो समय के फ्रेम में जम गई हो। उसे प्रतीत हुआ था, उस लड़की ने सदियों से बात नहीं की है। उसके होंठों पर शब्दों का एक बेचैन सैलाब है - किसी भी क्षण टूट पड़ने को तैयार...

उस रात सोते हुए भी उसे उसका ख्याल आता रहा था। निपट सन्नाटे और उदासी में घिरा हुआ वह चेहरा उसके मन के किसी अज्ञात कोने में चुपचाप अपना घोंसला डाल चुका था।

बाद में उसने कौशल से उस लड़की के विषय में पूछा था। उसने बताया था, उस लड़की का नाम मानिनी है। मानिनी डॉ. सान्याल की एकमात्र संतान थी। रिटायर होने के बाद यहाँ आकर बसते ही उनकी पत्नी का निधन हो गया था। इसके एक साल बाद किसी हादसे में उनके दोनों पैर बेकार हो गए थे। उसके बाद विगत पाँच सालों से वे इसी तरह व्हील चेयर पर बैठे हुए थे। मानिनी उनकी देखभाल करती थी। ननकू बाहर के काम कर दिया करता था।

उसके बाद वह अक्सर काम के सिलसिले में डॉ सान्याल के कॉटेज पर जाती रही थी। हर बार वह वहाँ उसे दिखती थी - छिपने का प्रयास करती हुई-सी। कभी-कभी उसे लगता था, वह सामने आना तो चाहती है, मगर जबरन किसी अदृश्य शक्ति के द्वारा पीछे खींच ली जाती है। कोई न दिखती हुई जंजीर उसके पाँवों से लिपटी हुई थी जैसे। वह उस मनहूस माहौल में जीने के लिए अभिशप्त प्रतीत होती थी। एक परछाई की तरह निःशब्द इधर-उधर डोलती फिरती थी, निरुद्देश्य... उसके लिए दरवाजा खोलते हुए या चाय लाते हुए वह अधिकतर चुप ही रहती थी

डॉ. सान्याल के घर एक बारह-तेरह साल की आदिवासी लड़की मुल्की तथा यही अधेड आदमी ननकू काम किया करता था।

यह लड़की मुल्की डॉ. सान्याल की बेटी मानिनी के बहुत करीब थी। मानिनी उससे बहुत स्नेह करती थी। उसका गहरा साँवला रंग और वन्य लावन्य से टलमल सुंदर चेहरे में हमेशा एक हँसू-हँसू भाव बना रहता था। वह मानिनी को दीदिया कहकर बुलाती थी। अपने अजीब साज-सज्जा के लिए ही शायद उसने उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। गले में कई लड़ियोंवाली लाल कूचफल की माला पहना करती थी और कसकर बाँधे जूड़े में किसी जंगली मुर्गे या मोर का पंख खोंसे रखती। उसके रग-रग में मानो संगीत बसा हुआ था। आँगन बुहारते हुए या घर के अन्य काम करते हुए वह अधिकतर गुनगुनाया करती थी। मानिनी के निसंग जीवन की शायद वही एकमात्र संगिनी थी।

उससे बिल्कुल विपरीत था ननकू का व्यक्तित्व। जैसा भीषण उसका रूप था, वैसा ही सांघातिक था उसका चरित्र। बात-बात पर दंराती निकाल लेता था। उसकी लाल, घुलघुली मद्दप आँखों की चावनी में अद्भुत हिंस्र भाव थे। सामान्य स्थितियों में भी वह सबको खा जानेवाली दृष्टि से घूरता रहता था। मगर डॉ. सान्याल का वह विशेष अनुगत था। उनके इशारे पर पुसे कुत्ते की तरह उठने-बैठनेवाला। बाद में किसी ने बताया था, डॉ. सान्याल ने ननकू को अफीम खिलाकर अपने वश में कर रखा था।

कौशल ने ही आगे बताया था, कई वर्ष पहले मानिनी का किसी आदिवासी लड़के के साथ प्रेम हो गया था। अरण्य का निर्जन जीवन, न कोई संगी, न साथी, सिर्फ बू्ढ़े बाप की सेवा और घर के काम काज। कब तक उससे यह अकेलेपन का बोझ उठता। उम्र का एक अपना तकाजा होता है...

एक लड़का था श्याम। यही, इसी इलाके का। छोटे-मोटे काम के लिए उनके बँगले पर आया करता था। देखने में गहरा साँवला, मगर बहुत आकर्षक था। अच्छी बाँसुरी बजाता था। एक बार उसने मानिनी को जंगली सूअर के आक्रमण से बचाया था। प्यार तो अंधा ही होता है, सो मानिनी को उससे प्यार हो गया। यह सचमुच का प्यार था या उसके अंदर के गहरे अभाव का परिणाम, कहा नहीं जा सकता, मगर सुनने में यही आता है, कि दोनों में बहुत गहरा प्रेम हो गया था।

दोनों चुपके-चुपके मिलते थे, खासकर तब जब ननकू डॉ. सान्याल के काम से कहीं बाहर गया हुआ होता था। मगर यह बात ज्यादा दिन छुप नहीं सकी थी। डॉ. सान्याल को जल्दी ही उनके संबंध के विषय में पता चल गया था। सुनकर उनके माथे पर खून ही सवार हो गया था। मानिनी को उन्होंने घर के अंदर बंद कर दिया था। कहते हैं, उस घटना के बाद से फिर कभी किसी ने उस लड़के को इस इलाके में नहीं देखा। वह एक अनाथ लड़का था। सगा-संबंधी कोई था नहीं पूछताछ करने के लिए। कोई कहता है, वह नेपाल की तराइयों में जाकर छिप गया तो कोई कहता है, डॉ. सान्याल ने रिश्वत खिलाकर पुलिस से उसकी हत्या करवा दी। पैसे के जोर पर यहाँ सब कुछ हो सकता है।

सुनकर उसका मन उदास हो गया था। इस दुनिया में कहीं प्रेम नहीं है तो कहीं प्रेम के लिए जगह नहीं है। सबके मन में किसी न किसी रूप में रहकर भी प्रेम हमेशा विस्थापित ही रह जाता है। न जाने यह सकींर्ण संसार कब इतना बड़ा हो सकेगा कि इसमें प्रेम के लिए भी पर्याप्त जगह बन सकेगी।

इस बीच एक बार फिर वह बीमार पड़ गई थी। लू लगने की वजह से कई दिनों तक बिस्तर से उठा नहीं जा सका था। इस दौरान कौशल ने उसकी काफी देखभाल की थी। बड़े बाजार से एक दिन डॉक्टर को भी बुला लाया था।

थोडे दिनों के बाद जब उसे कुछ राहत महसूस हुई थी, वह शाम को डॉ. सान्याल के कॉटेज में चली गई थी। उसे देखकर मानिनी स्वयं गेट खोलने के लिए चली आई थी। उसका हालचाल पूछते हुए उसने उसका हाथ पकड़ लिया था। उसे मानिनी के अधीर व्यवहार ने आश्चर्य में डाल दिया था। वह काफी संयत स्वभाव की लड़की थी। उसकी प्रतिक्रिया देख उसने भी झेंपकर उसका हाथ छोड़ दिया था।

उस दिन उसने गौर किया था, मानिनी किसी न किसी बहाने उनके कमरे में आती रही थी। डॉ. सान्याल की चुभती हुई निगाहों का उसने विशेष परवाह नहीं की थी। उसे लगा था, एक पंक्षी अपना पिंजरा तोड़कर उड़ जाना चाहती है। डॉ. सान्याल की आँखों में भी उसने एक तरह की चौंक देखी थी। वे उस दिन अतिरिक्त सावधान प्रतीत हुए थे।

जंगलों के अपने अद्भुत अनुभव सुनाते हुए एक दिन डॉ. सान्याल ने अपनी पुरानी बंदूक दिखलाई थी। वह अब भी साफ-सुथरी और चमकदार थी। लगता था, वे उसका काफी ख्याल रखते हैं।

- इससे मैं कई खूँखार जानवरों का शिकार कर चुका हूँ।

कहते हुए न जाने क्यों वे अपनी बेटी की तरफ देखकर कुटिल ढंग से मुस्कराे थे।

- खासकर उन आदमखोरों का जिनके मुँह में इनसानी खून का स्वाद लग चुका था।

- आप शिकार करते थे? कहते हुए उसने उनके व्हील चेयर की ओर अनायास देखा था।

उसका तात्पर्य समझकर वे मुस्कराए थे -

बिल्कुल! मैं हमेशा ऐसा नहीं था। मेरे पैर... एक आदमखोर ने ही चबा डाले थे!

बात के अंत में आते-आते बंदूक पर उनकी हड़ियल अंगुलियों की पकड़ सख्त हो गई थी।

मानिनी जो उस समय लैंप का काँच साफ कर रही थी, अचानक उठकर कमरे से बाहर चली गई थी। डॉ. सान्याल के होंठों पर मुस्कराहट और भी गहरी हो गई थी। उसे हमेशा की तरह उन दोनों का व्यवहार अजीब लगा था। बाप-बेटी का संबंध सामान्य नहीं था। उसे अक्सर लगता था, यहाँ कहीं कुछ गलत है। शायद लोग जो बातें करते हैं, उनमें वास्तव मे कोई सच्चाई हो।

डॉ. सान्याल उससे तो बहुत गर्मजोशी से मिलते थे, मगर अपनी बेटी की उपस्थिति में उनका व्यवहार एकदम बदल जाता था। वे बेहद शुष्क और कठोर हो उठते थे।

मगर एक दिन थोड़ा दुर्बल भी पड़ गए थे, सिगार पीते हुए उन्होंने भावुक स्वर मे कहा था - मानिनी के सिवा मेरा और कोई नहीं है अपर्णा देवी। उसके बिना एकदम लाचार और विवश हो जाता हूँ। इस अरण्य में अपनी बेटी के बिना एक दिन भी शायद जीवित न रह पाऊँ...

उनकी बातें सुनते हुए उसने बरामदे में खड़ी मानिनी की तरफ देखा था। उसे उसकी आँखें जलती हुई-सी प्रतीत हुई थीं, जैसे मानसून की भीगी रातों में जंगल में टिमकती हुई असंख्य जुगनुओं की सुनहरी पाँत। उसके उदास चेहरे पर वे आँखें किसी और की लगी थीं। वह एक बार फिर असमंजस में पड़ गई थी। क्या है जो वह समझ नहीं पा रही!

उस दिन कॉटेज से निकलकर बाहर का गेट बंद करते हुए खिड़की के घिसे हुए काँच में से उसे दो आँखें दिखी थीं - बुझे हुए दीये की तरह - निष्प्नभ और धुआँई हुई-सी... वह कुछ क्षणों के लिए ठिठकी रह गई थी। वे आँखें भी वही ठहरी रह गई थीं। उसे लगा था, कहीं कोई शीशा चटका है, कुछ अनकहे शब्द हवा के परों पर तैरते हुए आए थे और उसमे अनाम गंध की तरह उतर गए थे। एक संक्षिप्त-से क्षण में उसे महसूस हुआ था, उसके अंदर की वर्षों से ऊसर पड़ी जमीन पर कोई फूल खिल गया है।

एक हाथ आत्मीयता की ऊष्मा से सराबोर उसकी तरफ बढ़ना चाह रहा है। न जाने उसे उससे कैसी उम्मीद हो गई है... उस दिन वह एक गहरे सम्मोहन और अनचीन्ही मनःस्थिति के साथ अपने कमरे में लौटी थी - शायद सारी रात करवट दर करवट जागने के लिए, एक स्वप्न ने उसे पलकभर सोने नहीं दिया था। किसी का यकीन इनसान को भला बना देता है। कोई पूजे तो पत्थर को भी भगवान बन जाना पड़ता है... दो काली, डागर आँखों की विश्वास भरी चावनी ने उसे किनारे-किनारे तक पूर दिया था, वर्ना आशुतोष के अविश्वास और तापसी के विश्वासघात ने उसे इन बीते दिनों में अंदर से कितना बौना कर दिया था...