साथ चलते हुए / अध्याय 8 / जयश्री रॉय
कौशल यहाँ के चप्पे-चप्पे से वाकिफ था और यहाँ के स्थानीय लोग उसका बहुत ही सम्मान करते थे। वह यहाँ की बोली बहुत अच्छी तरह बोल लेता था। उसने गौर किया था, उसके साथ जंगलों में टहलते हुए रास्ते में वह स्थानीय लोगों से उनकी भाषा में रुक-रुककर बतियाता रहता था। एक बार उसने निहायत ही तटस्थ भाव से पूछ भी लिया था - आप इतना क्या बोलते रहते हैं इन लोगों के साथ! सुना है, आप कई-कई दिनों तक जंगलों में भी भटकते रहते हैं, चाँद सिंह कह रहा था...
- भटकता नहीं हूँ, जिंदगी की तलाश में रहता हूँ...
कौशल रहस्यमयी ढंग से मुस्कराया था -
कभी आप को भी ले चलूँगा साथ, स्वयं देख लीजिएगा, कैसे धरती की यह आदिम संतानें सभ्यता और विकास की दोहरी पाट में घुन की तरह पिसती जा रही हैं! एक प्राचीन और प्रांजल जीवन स्रोत के निरंतर मरते चले जाने की एक त्रासद गाथा है ये अपर्णा जी...
कहते हुए कौशल की आवाज में उदासी-सी भर गई थी।
इसके बाद एक दिन वह घने जंगलों में बसे आदिवासियों के गाँव में गई थी। कौशल ही ले गया था। वहाँ उसे एक अलग ही दुनिया का साक्षात्कार मिला था। कपड़ों और मुखौटों की बनावटी दुनिया से दूर धूल, मिट्टी और जज्बातों से बने खांटी-खालिस मनुष्य जो आज भी प्रकृति और जीवन के बीच सामंजस्य बनाए रखने के लिए लड-मर रहे हैं, मगर प्रतिकूल परिस्थियों में भी रोना और गाना नहीं भूले हैं।
पूरे चाँद की उस रात में उसने उनके गोबर लीपे सुंदर आँगन में उनका सामूहिक नृत्य देखा था। बीच में संथाल औरतें उसे भी अपने साथ नृत्य करने के लिए खींच ले गई थी। महुआ, माड़ और कच्ची के नशे में सराबोर स्त्री-पुरुष पंक्तिबद्ध होकर एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले भोर रात तक नाचते रहे थे।
दूसरे दिन सुबह-सुबह पेड़ से उतारी गई ताजी, झागदार ताड़ी पीते हुए कौशल ने अचानक उससे कहा था -
कुछ स्वार्थी लोगों ने इन आदिम मानवों का चाँद, जंगल और आकाश चुरा लिया है अपर्णा। मैं वही इन्हें वापस दिलाना चाहता हूँ!
- इस काम में आप मुझे भी अपने साथ ले लीजिए कौशल...
पास ही खेलती हुई एक साँवली, गोल-मटोल बच्ची को अपनी गोद में समटते हुए उसने भी अनायास ही कह दिया था। उसकी बात सुनकर कौशल ने मुड़कर उसे पहली बार एक अलग ही नजर से देखा था। न जाने क्यों उसे प्रतीत हुआ था कि बंद मुट्ठी-सी उसकी तंग, अँधेरी दुनिया को आज अनायास एक आकाश, उसका असीम विस्तार मिल गया है...
इसके बाद वह भी यदा-कदा कौशल के साथ आदिवासियों की बस्ती में जाकर छोटे-मोटे कामों में उसका हाथ बँटाने लगी थी। कितना कुछ था वहाँ करने के लिए। जीवन की न्यूनतम सुविधाओं का भी वहाँ नितांत अभाव था। उसे देख-देखकर आश्चर्य होता था। कहाँ आ गई थी वह। आजादी के इतने दिनों बाद भी देश के इन पुरातन समाजों में सुख-सुविधा की पहली किरण तक उतर नहीं पाई थी। लोग पशु से भी बदतर जीवन जीने पर बाध्य थे।
तरक्की, आधुनिकता के चमचमाते राजमार्ग से परे जीवन की यह धूल भरी सँकरी पगडडियाँ अभाव, अज्ञानता की अँधेरी दुनिया में जाकर एकदम से विलीन हो जाती हैं। अब तक उसने समाचार पत्रों और टेलीविजन पर एक अलग ही भारत का चेहरा देखा था - चमकता हुआ, उज्जवल भविष्य की ओर मजबूत कदमों से बढ़ता हुआ... कल का सुपर पावर, न्याय और गणतांत्रिक शक्ति का अगुआ राष्ट! सबके लिए एक आदर्श, एक मिसाल... फेस्टीबल, एशियाड, कॉमन वेल्थ गेम, फाईव स्टार होटलों और महँगे मॉल, पिज्जा हट से सजा यह चमकता-दमकता देश... इसके अंदर इतना अँधेरा भी है! इतनी गरीबी, ऐसा अकल्पनीय शोषण और मारात्मक दोहन, हर स्तर पर, हर जगह... परत दर परत घुन लग गया है - बेईमानी, भ्रष्टाचार और चारित्रिक विचलन का...!
एक स्वप्नभंग की स्थिति थी यह उसके लिए। विदेश में इसी स्वदेश की याद को सीने से लगाए जीती रही थी वह - उस जैसे लोग! कहाँ है वह तरक्की, वह खुशहाली जिसके ऐलान और विवरण से समाचार पत्रों के पन्ने रँगे रहते है!
वह देख-सुनकर सन्न रह गई थी। यकायक अपने अब तक के जीवन पर ग्लानि हो आई थी उसे। जिस देश के अधिकतर लोग आज भी दो जून की रोटी के लिए तरसते हैं, भूख और बीमारी से तड़प-तड़पकर दम तोड़ देते हैं, वहाँ किसी भी तरह की ऐयाशी एक अपराध ही नहीं, एक बहुत बड़ा पाप भी है। उसे लगा था, उसे कौशल के जरिए जीवन का एक उद्देश्य मिल गया है, कुछ सार्थक करने का। वर्ना अब क के जीने में जीनेवाली कोई बात नहीं थी।
काजोल के बाद बहुत अकेली हो गई थी वह। अब लगता है, बहुत कुछ है उसके सूने आँचल में समेटने के लिए। इतना कि वह स्वयं गले-गले तक भर जाय। दूसरों के दुख अपने आँचल में सिमटकर सुख बन जाता है... औरों के दुख में रोने का सुख उसने आज तक जाना कहाँ था!
डॉ. सान्याल, जो एक अवकाश प्राप्त प्रोफेसर थे और कई साल पहले आकर यहाँ बस गए थे, गरीब आदिवासियों को मुफ्त में होम्योपैथी की दवाई देते थे। वे पैर से लाचार हो गए थे, अतः कहीं आ-जा नहीं पाते थे। लोग उनके पास आकर दवाई ले जाते थे। वह सुबह के समय जाकर उनकी मदद कर दिया करती थी। वैसे उनकी बेटी मानिनी भी इस काम में उनका हाथ बँटाती थी। डॉ। सान्याल की एक बहुत बड़ी लायब्रेरी भी थी जहाँ दुनिया जहान की किताबों का अच्छा-खासा संग्रह था। उनका भी अपना अलग आकर्षण था उसके लिए।
डॉ. सान्याल के विषय में पहली बार कौशल ने ही उसे बताया था। मगर वह उनसे मिलने उनके बँगले पर अकेली ही गई थी।