साफा / शालिग्राम

Gadya Kosh से
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बराज में कोसी चीखती है। जैसे बन्द पिंजड़े में बाघिन दहाड़ती हो। दूर से सिल्ली की आवाज आती है.... चिऊँ-चिऊँ-चिऊँ-चिऊँ अण्डे और उसके माँस। लोग इसे चाव से खाते हैं। और यह यहाँ के ढाबों में परोसा जाता है।

मनचला शिकारी कन्धे पर बन्दूक थामे नदी किनारे-किनारे बढ़ता चला जाता है।..... भारत-नेपाल सीमा की विसैन्यीकृत भूमि — खुला आकाश, खुली धरती और खुला मन्सूबा। लोग खुलकर यहाँ अपनी स्वतंत्रता महसूस करते हैं — जीव-जड़, चेतन-अचेतन सभी के सभी खुश हैं।

आगे नदी किनारे छारन पर चिड़ियों का झुण्ड है.... तरह-तरह के पंछी जिसमें सिल्ली की अलग कतारें हैं। शिकारी ठमक जाता और जमीन पर पसर निशाना बनाता है। उँगली ट्रिगर दबाती है। धमाके की आवाज से वैष्णवी चौंक पड़ती। उसका दिल जोर से धड़क उठता है। दासिन झट उसे अपने अंग से लगा, पीठ सहलाती हुई कह उठती है, — "मेरी बौरी बिटिया ! हाय हाय री मोरी काँछी ! दिल मजबूत कर बेटा।" उधर शिकारी अपने शिकार पर प्रसन्न हो उठता है।

चिड़ियों का झुंड हहाट भरता आकाश में उड़ जाता है।

भारत-नेपाल सीमा के पास एक बोर्ड लगा है जिस पर दो हाथ मिलाए जा रहे हैं भारत-नेपाल मैत्री। ठीक इसी के बगल कस्टम-एक्साइज की चौकी है। इधर भारत और नेपाल में चार-पाँच गज की दूरी पर देशवाली शराब यानी दुधी के ढाबे हैं — सन्तरा, अनन्नास, महुआ तथा अन्य फलों की बनी दारू।

मीठारानी का ढाबा शुरू में ही है — घर-आँगन की खासियत जैसी। बाहर से किसी को पता नहीं चलता कि यह खाने-पीने का ढाबा है। अन्दर पहुँचने पर इसका रुतबा कुछ और दिखाई देता है। कायदे से रखे सामान — रैक पर सजाई बोतलें, डलिए में अण्डे तथा बोयाम में बन्द चटपटे मसालेदार भुजिया आदि-आदि खाने-पीने की चीजें ।

कोसी कोलनी तथा एन०बी०सी०सी० के थके-हारे लोग शाम में अपनी तबीयत तफरीह करने यहाँ आते हैं। ये देर, कुछ देर इधर-उधर घूमते, नाश्ता-पानी तथा दुधी का एक-आध पेग लेते बीती रात अपने डेरे वापस आते हैं। पहाड़ी इसी ढाबे में टहल-टिकोरा करने वाला चाकर है। किन्तु रात में यह बराज पर नाइटगार्ड की डयूटी निभाता है। एकनिष्ठ टाबर पोल पर जलती उस लाल-बत्ती की तरह जिसके प्रकाश में कोई भी दिगभ्रमित नाविक सैलाबी नदी के बीच अपनी डूबती-उतरती नाव को निर्दिष्ट दिशा की ओर ले जाने में सफल बना रहता है। पहाड़ी भी ऐसे ही अपने काम के प्रति सचेष्ट बना रहता। वह रोज तड़के बराज पर से मीठारानी के घर पहुँच जाता — झट-पट झाडू-बहारू करता, रसोई के बर्तन माँजता, जलावन की लकड़ियाँ चीरता तथा ढाबे के सारे सरंजाम को टंच करता हुआ वह रात के जागरण को पूरा करने के लिए घण्टे, कुछ घण्टे में खर्राटे भरने लगता है। बौरी काँछी को समय ही नहीं मिलता कि वह उससे कुछ बातें करें। शाम होते-होते बराज पर उसकी ड्यूटी बँध जाती है।

सरदार नाहरसिंह भी इसी ढाबे का स्थाई ग्राहक है। और नेपाली उससे भी ज़्यादा यहाँ का स्थाई व्यक्ति, दिनभर ढाबे का काम करने वाला, बौरी काँछी का आदमी। किन्तु एकाएक बराज पर हुई दुर्घटना ने उसे अन्दर से हिला दिया। वह इस खबर को सुनते ही सन्न रह गई कि पहाड़ी टाबर पर से फिसल कर नीचे नदी में गिर पड़ा और कोसी की अथाह पानी में उसकी लाश का अता-पता तक न चला।

बौरी काँछी के आगे तभी से आकाश की शून्यता बनी हुई है — केवल अन्धकार में टिमटिमाती रोशनी जो उसके घायल अन्तस्थल को छूती यादों का एक संकेत बनाए रखती है। ठीक ऐसे ही मीठारानी के अलगनी पर टंगा सरदार का यह साफ़ा, जो उसके कलेजे में टीस पैदा करता रहता है — कृष्णा ! कृष्णा ! हरे कृष्णा ! दासिन पूजा के वक्त एक निगाह साफ़े पर फेंकती हुई राधा-कृष्ण की युगल मूर्ति के सामने धूप, चन्दन, अगरबत्ती, फूल एवं अक्षत का नैवैद्य दे ध्यानस्त हो जाती है।

जब से सरदार गया है, तब से मीठारानी में भारी परिवर्तन आ गया है — न वह ढाबा है, न चखना, न दुधी का पेग और न अन्दर में गूँजती खिलखिलाहट ही। उसका ढाबा ’ठाकुर बाड़ी’ में बदल गया और मीठारानी उसमें दासिन तथा बौरी काँठी वैष्णवी बन गई है। एन०बी०सी०सी० का काम चल रहा है। तटबन्ध पर ट्रक से पत्थर गिराए जा रहे हैं। चहल-पहल, दौड़-धूप, मोटर एवं मशीनों की आवाज.... धूल-धुक्कड़ तथा हंगामों से भरी जिंदगी। बालुकामयी इस धरती पर तम्बुओं का नगर बस गया है, जिसमें इंजीनियर से लेकर ट्रक के ड्राइवर तक रहते हैं। और कर्मचारीगण। ट्रक ड्राइवर नाहरसिंह अपने खेमे में कम ही रहता है। उसका अधिक समय ट्रक पर या मीठारानी के घर बीतता है।

आज उसने कई खेप पत्थर ढोए हैं। मन सुस्त लग रहा है। पीने की इच्छा कर रही है। नाहरसिंह ट्रक से उतरते ही सीधे मीठारानी के ढाबे में घुस जाता है और तुरन्त दुधी तथा आमलेट की फ़रमाइश कर बैठता है। मीठारानी उसके चेहरे के रंग को देखती हुई इस आकस्मिक फ़रमाइश का कारण पूछ बैठती है, — "अभी कोई वक्त है पीने-खाने का, सरदार !"

नाहरसिंह बनावटी हँसी-सा मुँह बनाते हुए कह उठता है, — "वक्त-बेवक्त क्या पूछती हो, मीठारानी! इच्छा हुई तो वक्त हुआ और इच्छा नहीं तो वक्त नहीं।"

"अच्छा, तो सरदार ! चखना में अभी सिल्ली अण्डे का आमलेट होगा।" — मीठारानी यह कहती हुई अण्डे फोड़ने लगती है।

नाहरसिंह इस बात पर ठहाका मारता हुआ हँस पड़ता है,..... आ-हा-हा-हा-हा — "यह भी क्या जगह है — सिल्ली का अण्डा, पनकिरी का अण्डा ! यह सिल्ली और पनकिरी क्या होता है, मीठारानी?"

"अरे सरदार! सिल्ली और पनकिरी एक ही पक्षी के दो नाम हैं। सीमा के पार नेपाल में सिल्ली और इधर पनकिरी कहते हैं। नेपाली सिल्ली बड़ी अच्छी होती है, सरदार ! जैसे उसके अण्डे वैसे ही माँस.... दाँत पर कड़े लगते हैं, लेकिन स्वाद में बिल्कुल पनहाँस !"

नाहरसिंह अपने साफे के नीचे खल्वाट सिर को नोचता हुआ मीठारानी की पीठ पर हल्की मुक्की मार बोल उठता है,— "और तू नेपाली पट्ठा ! क्यों न रहेगी, अच्छी मीठारानी !? सिल्ली, पनकिरी, पनहाँस जो भी कह लो, मीठारानी ! सब तुम्हारे पानी पर तैरती हुई सतरंगी साँझ है साँझ.....आ-हा-हा-हा-हा !"

एन०बी०सी०सी० में रहकर नाहरसिंह ने ऐसी-ऐसी बहुत सारी जगहें देखी हैं। सारा हिन्दुस्तान घूमा है..... सारी जगहों का पानी पीया है; पर ऐसा पानी ! सहरसा-पूर्णिया का पानी....रात में रखिए और सुबह होते-होते इस पर छाली जम जाती है, — "चाट लो चाट लो, यह मोरंगिया मलाई और पुरूबिया पनछाली, मीठारानी !" नाहरसिंह अपने पेण्ट के बटन को कसता हुआ बोल उठता है, — "क्या, मीठारानी ! यह पानी है कि दूध?"

मीठारानी ब्लाउज के आस्तीन को नीचे खींचते हुई कह उठती है, — "दूध ही समझो, दूध, सरदार ! पीओ और पट्ट्ठा बन जाओ.... बस - बस, पहाड़ी जैसा पट्ट्ठा !"

पहाड़ी अपनी आँखें मलता हुआ, दुलक कर आगे बढ़ जाता है। बौरी काँछी के चेहरे पर हँसी दौड़ आती है। नाहरसिंह को इसकी जरा भी परवाह नहीं कि यहाँ के पानी पर छाली जमती है — पानी से खाँसी और जुकाम होते हैं.... बस, पानी ही पानी ! बौरी काँठी के चेहरे पर पानी है — उसका चौड़ा ललाट और धनुषाकार भौहें अथाह झेलम-सतलुज से भी बढ़कर कोसी की उपत्यका जैसी.... यहाँ की बोली की लोच और सुबह-सुबह मीठी अँगड़ाई में उगता हुआ सूरज सरदार के दिल पर छाया रहता है। आमलेट का स्वाद उसके अन्दर ठण्डा स्वाद उठाता है और दुधी का पेग अलमस्त खुमारी. ..आ-हा-हा-हा-हा सबकुछ हीरा, नहीं तो कीड़ा। और पहाड़ी तो सचमुच बौरी काँछी के पानी में भींगने लगता है — उसकी आँखों का सफेद पानी !.... वह बरसाती मेढ़क की तरह उसके आगे अपनी दोनों पलकें खोल देता है — कुछ कहने को... मगर चुप, उसकी जीभ ऐंठ जाती है और दुबककर वह पिण्ड बन जाता है — माटी का पहरूआ ! बिलकुल निश्चेष्ट, केवल चुपके-चुपके कभी-कभार वह अँगोछे से अपनी आँखें पोछ लिया करता है। शायद आँखों में दर्द है। नाहरसिंह आमलेट खाता है।

मीठारानी अपने गाल के नीचे पान का बीड़ा दबाती हुई बोल उठती है, — "अरे पहाड़ी ! देखो तो जरा, सरदार पगला गया है क्या? आमलेट पर आमलेट चट किए जा रहा है और गुनगुना कर गाता है, ’नेपाली ई-ई-ई-रे-ए-ए-ए-ए नेपाली-ई-ई-ई-ई...’ मोरंगिया गीत ! हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा — तो क्यों नहीं बन जाता है, हम लोगों का मीत, क्यों बहादुर ? अब तो उसे नेपाली बनकर अपने सिर का साफ़ा उतारना पड़ेगा और पहनना होगा नेपाली टोपी !"

इतने में पहाड़ी कूल्हा मटकाते हुए हामी भर देता है, — "हाँ - हाँ, कमर में खुखरी बाँधे तब न।"

बौरी काँछी पहाड़ी के इस हाजिर जवाब पर खिलखिला उठती है और सरदार जैसे अपनी हार पर बौना बन जाता है। मीठारानी पेट के नीचे कमर के घेरे से एक काला पट्टा लपेटे आमलेट बनाती है और बौरी काँछी मटके से मग में दुधी गिराती है...।

"आधा पाव, पाव भर, आधा सेर?"

"बस - बस, यही बहुत। तुम तो मुझे मटके में ही डाल दोगी, काँछी !" — नाहरसिंह यह कहते हुए बौरी काँछी को घूर कर देखता हैं। मीठारानी प्लेट में आमलेट गिराती है। नाहरसिंह गिलास को होंठों से सटा मीठारानी का हाथ पकड़ते हुए कह उठता है, — "आज तू भी बैठकर एक पेग लगा न मेरे साथ।"

"धत्त, जा-जा सड़क पर — जरा होश में आ, पीने का शऊर रखो, सरदार!"

मीठारानी बौरी-काँछी के हाथ से मग लेकर नीचे गिरा देती है। नाहरसिंह झट कुर्सी पर से उठ खड़ा हो बौरी काँछी की बाँह पकड़ते हुए बड़बड़ा उठता है, — "दुधी का मटका मेरे सिर पर उड़ेल दो ना, जी-ई-ई-ई.....बौरी-ई-ई-ई-ई !"

मीठारानी बौरी को अपने पाँज में खींचती हुई नाहरसिंह को डाँटने लगती है। और नाहरसिंह लड़खड़ाते हुए किसी नरभक्षी की तरह अपनी आँखों की पलकें खड़ी किए बौरी काँछी को देखता रह जाता है। पहाड़ी इसे देख सन्न रह जाता है — काटो तो खून नहीं...जैसे उसके पाँव कजली पर से फिसल गए हों — दुधी से भरा मटका हाथ से नीचे लुढ़क गया हो.... कसैली गन्ध, ज़ोर की बदबू फैल जाती है अन्दर। पहाड़ी का माथा चकराने लगता है — बदन की नसें ऊपर उठ जाती हैं...सिर पर खून ! लेकिन दूसरे ही क्षण वह दम तोड़ते चूहे की तरह स्थिर पड़ जाता है.... बनकुट्टा पहाड़ पर की छोकरी, स्साली बित्ते भर की काँछी ! उसे वह दिन याद आने लगता है, जबकि उसने बौरी को इस ढाबे में लाकर एक अनजान पहुँच का किनारा दिया था।

बनकुट्ट्टा पहाड़ से चलते-चलते उसे घरान पहुँचने में पूरे चार दिन लग गए थे — पाँव-पैदल रास्ता.... जंगल से जंगल, पहाड़ से पहाड़ तक का कठिन उतार-चढ़ाव... सखुआ, शीशम, सागवान, सेंवल तथा पाइन के लम्बे-लम्बे वृक्षों के बीच की पगडण्डी। कहीं नदी तो कहीं झील जैसा पानी का फैलाव-आगे-आगे पहाड़ी और पीछे से बौरी.... अपना देश, अपना घर छोड़कर वह दूसरे देश, दूसरे घर जा रहा है... दक्षिण तराई पार हिन्दुस्तान !

बौरी काँछी की आँखों के सामने एक खुले आकाश का खुला क्षितिज नज़र आने लगता है। लेकिन जब दोनों वृक्षों की छाँह में थक-थका कर बैठ, दिशा तथा रास्ते का भूगोल ढूँढ़ने लगते, तब पहाड़ी उस सूनेपन की निस्तब्धता में उससे उस सेठ के बारे में पूछ बैठा, जिसके हाथ उसके बाप ने उसे बेच डाला था और जहाँ पहाड़ी भी उसका नौकर था। जवाब में बौरी काँछी की आँखों से केवल आँसू निकल आए थे, जिसमें पहाड़ी भी डूबने-उतराने लगा था।

धरान पहुँचते-पहुँचते दोनों थककर पस्त हो गए थे। बौरी काँछी बिल्कुल लूआ-पूआ आगे बढ़ने से लाचार। तभी नाहरसिंह पहाड़ से नीचे कोसी के चौमुखी संगम पर दो मानव आकृतियों को देख, अपने ट्रक को ऊपर छोड़, रामभक्त हनुमान की तरह नीचे उतर आया था। दोनों के बीच कुछ बातें हुईं।

"किधर को जाएगा, पहाड़ी?"

"ओ ओ, बेहार चट्टी पर, सरदारजी !"

और उसने दोनों को अपने ट्रक में बैठा, सीधे भीमनगर, मीठारानी के ढाबे में पहुँचा दिया था। आपस में दोनों ने देर तक अपनी भाषा में बातें की थी। काँछी की बात सुनकर मीठारानी उदास हो गई थी। उसने अपना जी काटा था — चेहरे पर एक मायूसी। पहाड़ी तो मूक बना ही था। और बौरी काँछी ने फफकते हुए अपना चेहरा मीठारानी की गोद में छिपा लिया था। मीठारानी उसकी पीठ पर अपना हाथ फेरती रही, जैसे कोई गाय अपनी बछिया को पेट से सटा लेती है।

जब काँछी ने अपनी आँखें खोलीं, तब उसकी नजर सामने घर में टंगी राधा-कृष्ण की तस्वीर पर पड़ी — मुरली मनोहर, श्याम सुन्दर। मीठारानी बौरी काँटी को अपनी बिटिया की तरह हृदय से लगा हर्षित हो उठी और बौरी काँठी भी अपनी अम्मा ’यशुमति मैया’ की गरदन में बाहें डाल मगन हो उठी। पहाड़ी का कन्धा जैसे किसी अनजान भार से हल्का हो गया हो — चट्टान से चट्टान...... जंगल से जंगल और फिर नीचे समतल पर विश्राम।

नाहरसिंह आज भी कल की तरह बहुत थका हुआ है। दिन भर स्टेअरिंग पर हाथ रखे-रखे उसकी बाहें चढ़ गई हैं। वह सीधे मीठारानी के ढाबे में घुस घाँव-से कुर्सी पर बैठता हुआ बोल उठता है, — "सिल्ली का आमलेट, डबल करो, मीठारानी !"

इस बात पर मीठारानी थोड़ी झेंपती हुई, फिर अण्डे फोड़ने लगती है। बौरी काँछी मटके से मग में दुधी गिराती है। आज पता नहीं क्यों पहाड़ी दुकान पर न आकर बराज पर ही रह गया। बौरी काँछी के चेहरे पर उदासी छा जाती है। मीठारानी इसे भाँप लेती है।

बाहर टिपिर-टिपिर वर्षा हो रही है। बौरी काँछी पानी में भींगती हुई फूल तोड़ने लगती है। राधा कृष्ण की तस्वीर पर चढ़ाने के लिए फूल चाहिए। पहाड़ी की अनुपस्थिति आज और अभी उसके अन्दर रिक्तता पैदा कर रही है। सामने बराज के टावर पर जलती हुई लाल बत्ती.... एक पहुँच। वह उसे गमगीन तथा विस्मृत आँखों से निहारती है।

अन्दर ढाबे में लोग पेग पर पेग चढ़ा रहे हैं। मीठारानी कमर खुजलाती हुई, ग्राहकों को परोस रही है। फूस के आगे वाले घर में लालटेन जलती है, जहाँ ढाबा चल रहा है। पीछे वाले में कुप्पी का इजोत है। दोनों घर आपस में मिले हुए हैं। बीच में एक परदा टँगा है। छोटा घर भी बड़ा ही है; पर इसमें सब ग्राहक नहीं आते। केवल मीठारानी के खास आदमी आते है। नाहर सिंह उसके खास में खास है।

बौरी काँछी के कपड़े वर्षा में पूरी तरह भीग जाते हैं। वह फिर बरामदे पर चढ़ कुछ सोचने लगती है..... मीठारानी, उसकी रानी माँ अकेले ढाबा चला रही है — टेबुल पर चखना पहुँचाने से लेकर गिलास में दुधी गिराने तक.... अभी उसकी मदद करनेवाला कोई नहीं है। वह अन्दर छोटे कमरे में घुस अपने भीगे कपड़े बदलने लगती है। मीठारानी उससे पूछ बैठती है, — "बरसात में बाहर कहाँ गई थी, बौरी?"

"कहीं तो नहीं, रानी माँ, देखो न ये फूल ! और सामने लाल बत्ती !"

मीठारानी और नाहरसिंह दोनों बौरी की बात पर जोर से ठहाका लगा उठते हैं, — "आँखों में पानी है, पानी.... सफेद पानी ! दूधी की सफेदी....आ-हा-हा-हा-हा-हा... पीऊँ, इसे खूब पीऊँ बौरी ! काँछी, माइ डार्लिंग।"

मीठारानी यह देखकर बौरी को अपनी ओर खींचती हुई नाहर सिंह को गालियाँ देने लगती है, — "धत, सरदार ! छोड़ दे इसे।"

नाहरसिंह जानवर की हँसी हँसता हुआ बौरी को अपने आगोश में भर लेता है।

मीठारानी फिर उसे खींचती हुई चिल्ला उठती है, — "मरदुआ ! तुझे कोढ़ फूटेगा. ...तू आग को छूता है, जल मरेगा....पिल्लू पड़ेंगे तेरी देह में — जरा, अपने सिर के बाल तो देख ! छिः छिः बाप की यह करतूत !"

नाहरसिंह को जैसे बिजली मार जाती है, जैसे-हाथ को लकवा मार गया हो। और वह अपने ट्रक सहित पहाड़ी ढलान पर से सैकड़ों फीट नीचे लुढ़क जाता है...... सिर के बाल ! मीठारानी ने उसे गालियाँ दी हैं।

ठीक ठीक, सच कहती है, उसे कोढ़ फूटेगा। लाहौर शहर से भागे-मारे सरदार नाहरसिंह के सामने धू-धू आग जलने लगती है, जिसमें उसकी बेटी गुलवत्ती जल रही है — सारा पंजाब जल रहा है। कोई किसी को बचाने वाला नहीं। लाहौर की भूमि वीरान हो गई। उसका घर लुट गया। परिवार जल गया। बेटी खो गई और वह शरणार्थी बन गया ।.....

सन् सैंतालिस की आज़ादी और देश का बँटवारा। लोग बेघर हो गए थे। किन्तु वह ! नाहरसिंह अभी ज़िन्दा है?..... नाहरसिंह और उसका साफ़ा !.....उसका धरम लुट रहा है। इज़्ज़त टके सेर बिक रही है। आख़िर उसने यह क्या किया?.... और उसने बौरी काँछी को एक झटके में छोड़ दिया, जैसे किसी आग को छूआ हो...... जल जाएगा — नेपाली सिल्ली !

"नो नो, मीठारानी ! मैंने तुझे धोखा दिया है, तो लो यह साफा !" (नाहरसिंह अपने सिर से साफा उतारता है।)

और उसी शाम, वह ढाबे से निकल भाग गया — बरसात में कहीं चला गया.... अपने कैम्प में नहीं, कहीं दूर। जैसे एक बार फिर उसने अपना घर छोड़ा हो, लाहौर को, अपने बाल-बच्चों को.... सदा-सदा के लिए। वह नहीं लौटा।

मीठारानी ने कैम्प तथा कालोनी में जा-जाकर उसे बहुत खोजा। इम्बैकमेण्ट के ऊपर से जाते एन०बी०सी०सी० के ट्रक को उसने रोका और पूछा, — "सरदार है? सरदार नाहरसिंह !"

"नहीं, नाहरसिंह चला गया।"

"तो नाहरसिंह लौटकर नहीं आएगा ?"

नाहरसिंह ! नाहरसिंह !! वह कई दिनों तक कैम्प में घूम-घूमकर सभी से पूछती रही.... पगली की तरह हाथ में साफ़ा लिये खोजती रही — शायद नाहरसिंह कहीं मिल जाए। लेकिन वह नहीं मिला।

ठाकुर-बाड़ी में जूही, चम्पा, चमेली, बेला और गुलाब के पौधे लहलहाते हैं — तरह-तरह की खुशबू.... फूलों की सुगन्ध। लोग प्रसाद लेने बाहर खड़े हैं। आज कृष्णाष्टमी की रात है। दासिन खड़ाऊँ पर खुदुर-खुटुर करती इधर से उधर आती - जाती है। वैष्णवी कृष्ण की मूर्ति के आगे आसन लगाए बैठी है। बगल के झरोखे से उसकी नज़र तिरछी होती हुई बाहर जाती है — टावर पर लालबत्ती !. ....रात ढल रही है। बिजली चमकती है। मध्य रात में भगवान का जन्म होगा और एक छोटा-सा शिशु बालकृष्ण ! ....तू मेरी यशुमति मैया है रानीमाँ ! वैष्णवी काँप जाती है। बिजली की चमक के साथ-साथ उसे क्या-क्या याद आ रहा है?

......दुधी की गन्ध ! नहीं - नहीं, अगरबत्ती जल रही है.... फूलों की गन्ध।

कृष्ण की तस्वीर पर एक छाँह नाचती है। शायद कोई मीरा बनकर उसमें समा रही है। बौरी काँछी का रूप परिवर्तन हो रहा है।