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सुशोभित
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फ़िल्में देखने के कितने रास्ते होते हैं? एक, आप सिनेमा हॉल में जाकर देखें। दो, आप टीवी पर देखें। तीन, आप यूट्यूब या किसी स्ट्रीमिंग साइट पर देखें। चार, आप किसी युक्ति से डाउनलोड करके ऑफ़लाइन देखें। और पाँच, आप उनकी डी.वी.डी.-वी.सी.डी. ख़रीदकर देखें।
कुछ साल पहले तक यह अवस्था थी कि अगर आप मुस्तैदी से भारतीय समान्तर सिनेमा देखना चाहें, तो प्रारम्भ के तीन विकल्प तो क़तई मौजूद नहीं होते थे। ये फ़िल्में सिनेमाघरों में नहीं लगती थीं और टीवी पर कोई इन्हें दिखाता नहीं था- जब-तब दूरदर्शन पर चलनेवाली किसी कला-फ़िल्म के सिवा। डाउनलोड के लिए भी ये उपलब्ध नहीं होती थीं। इंटरनेट पर देखने का विकल्प अवश्य था। अब तो अनेक ओ.टी. टी.-मंच हैं और यूट्यूब पर भी उम्दा प्रिंट की फ़िल्में मिलने लगी हैं, साथ ही इंटरनेट-डाटा भी अब पहले सरीखा महंगा नहीं रहा। लेकिन ये सब सुविधाएँ आज से एक दशक पहले मुहैया नहीं थीं। तब एक ही रास्ता बचता कि इन फ़िल्मों की डी.वी.डी. ख़रीदकर उन्हें देखा जाए। निश्चित ही, यह एक महंगा तरीक़ा था।
राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम यानी एन.एफ़.डी.सी. भारत सरकार के सूचना- प्रसारण मंत्रालय का एक उपक्रम है। भारतीय सिनेमा के संरक्षण- संवर्द्धन के लिए वर्ष 1975 में इसकी स्थापना की गई और यह स्वयं 300 से अधिक फ़िल्मों को प्रस्तुत कर चुका है। वर्ष 2013 में एन.एफ़.डी.सी. ने 'सिनेमाज़ ऑफ़ इंडिया' श्रृंखला के तहत समान्तर सिनेमा के डिजिटली रिमास्टर्ड प्रिंट जारी करना शुरू किए। अब तक सौ से अधिक फ़िल्में इस श्रेणी में जारी की जा चुकी हैं। इनमें से
अनेक अब मुबी सरीखे ओ.टी.टी.-मंच पर स्ट्रीम हो रही हैं।
पर मुद्दा यह है कि हमारे यहाँ फ़िल्मों के संरक्षण की कोई संस्कृति नहीं रही है। अच्छी-अच्छी फ़िल्मों के प्रिंट या तो नष्ट हो गए हैं या बदहाल स्थिति में हैं। भारत की पहली टॉकी 'आलमआरा' का ही कोई प्रिंट नहीं मिलता। दिलीप कुमार की पहली फ़िल्म 'ज्वार-भाटा' अब नहीं मिलती। देव आनंद की 'अरमान' अब लॉस्ट-फ़िल्म मान ली गई है। 1977 में आई 'गोधूलि' तक का प्रिंट अब उपलब्ध नहीं। नसीरुद्दीन शाह ख़ुद उसे खोजते फिरते हैं। हाँ, इसका कन्नड़ संस्करण ज़रूर मिलता है। एक समय पवन मलहोत्रा 'सलीम लंगड़े पे मत रो' का प्रिंट खोजते फिरते थे, फिर उसे एन.एफ़.डी.सी. ने सुधारकर जारी किया। ' अल्बर्ट पिंटो' का ही कोई उम्दा प्रिंट अब मिलता नहीं। 'देबशिशु', 'मेसी साहब', '27 डाउन', 'दीक्षा', 'गमन', 'गोदाम', 'एक डॉक्टर की मौत', 'पार्टी' जैसी फ़िल्में अगर एनएफ़डीसी के द्वारा डी.वी.डी. जारी किए जाने से पूर्व आप सलीक़े से देखना चाहते तो ढूंढे नहीं मिलतीं। आप में से किसी ने श्याम बेनेगल की 'सुसमन', 'समर' या 'अन्तर्नाद' की डी.वी.डी. कहीं देखी हो तो बताइएगा। मैं ही मृणाल सेन की 'जेनेसिस' खोजता हूँ, कहीं मिलती नहीं।
हममें से बहुतों ने इनमें से अधिकतर फ़िल्मों को दूरदर्शन पर ( बहुत सम्भवतः, ब्लैक एंड वाइट टीवी पर) देखा था और उनकी धुँधली याद हमारे ज़ेहन में थी। एन.एफ़.डी.सी. ने इनमें से अनेक के श्रेष्ठ प्रिंट जारी कर सिनेप्रेमियों पर बड़ा उपकार किया है। इन्हें देखने पर एकबारगी तो यक़ीन ही नहीं होता कि भारतीय समान्तर सिनेमा के इतने अच्छे प्रिंट्स भी उपलब्ध हो सकते हैं। खिले हुए कलर्स और बढ़िया रिजॉल्यूशन। फिर, तमिल, मलयालम, ओडिया, कोंकणी, मराठी, पंजाबी, बाँग्ला, कन्नड़ आदि भाषाओं की अज्ञातकुलशील क्षेत्रीय फ़िल्में सबटाइटल्स के साथ देखने का अवसर भी हमें और कैसे मिल सकता था? अनेक मित्रों को शिकायत है कि भारत में फ़िल्म-संस्कृति के विकास में एन.एफ.डी.सी. को जितना करना चाहिए था, उतना उसने नहीं किया है, इसके बावजूद इन फ़िल्मों के रीस्टोरेशन और डिजिटली रिमास्टर्ड संस्करण जारी करके सिनेमा के आस्वाद की संस्कृति को उसने जैसा बढ़ावा दिया है, इसके लिए उसे सराहा जाना चाहिए।