क्षेत्रीय सिनेमा / मुक्तक / नैनसुख / सुशोभित

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
क्षेत्रीय सिनेमा
सुशोभित


भारत में वर्ष 1954 से राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार दिए जा रहे हैं। तब से अब तक सर्वश्रेष्ठ फ़ीचर फ़िल्म श्रेणी (स्वर्ण कमल) में 68 फ़िल्मों को पुरस्कृत किया जा चुका है, जिनमें सर्वाधिक 22 बाँग्ला फ़िल्में हैं। 12 मलयालम और 6 मराठी और कन्नड़ फ़िल्में भी हैं। तमिल, तेलुगु, असमिया, गुजराती, यहाँ तक कि संस्कृत और बियरी भाषाओं तक की फ़िल्मों ने भी पुरस्कार जीते हैं ( हममें से अधिकतर को बियरी भाषा के अस्तित्व के बारे में भी जानकारी नहीं होगी। यह कर्नाटक के दक्खन में बोली जाती है। एक बार लोकसभा टीवी पर राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित बियरी फ़िल्म 'ब्यारी' दिखाई गई थी।)

वास्तव में, भारत में क्षेत्रीय सिनेमा की एक समृद्ध समान्तर परम्परा रही है। लेकिन बॉलिवुड- इस एक सर्वग्रासी पद ने जैसे सबको लील लिया है। बॉलिवुड में भी मुख्यधारा और समान्तर का विभाजन है, जबकि विभाजन केवल अच्छे सिनेमा और बुरे सिनेमा का होना चाहिए। बम्बई से बाहर हम कभी जाते भी हैं, तो मद्रासी या तेलुगु पर थम जाते हैं, जिसका कि मुख्यधारा का सिनेमा बम्बइया लटकों-झटकों का ही विस्तार है। इसी विडम्बना को विश्व सिनेमा पर आरोपित करें, तो हम पाएँगे कि हॉलिवुड भी ऐसा ही एक सर्वग्रासी पद है। हमारे लिए विदेशी सिनेमा का पर्याय हॉलिवुड होता है। बम्बई और कैलिफ़ोर्निया- इन दो वेस्ट कोस्ट ने हमारे सिनेमाई लैंडस्केप को आच्छादित कर रखा है, जबकि हमारे राष्ट्रीय पुरस्कारों की ही तरह वेनिस, कान, बर्लिन आदि में होने वाले फ़िल्म समारोहों में अमेरिकी फ़िल्में कम ही पुरस्कृत हो पाती हैं। यूरोप और तीसरी दुनिया के सिनेमा की वहाँ तूती बोलती है।

हमारे यहाँ क्षेत्रीय सिनेमा में एक सत्यजित राय हैं, जिनका नाम सबने सुना है, वह भी उनकी वैश्विक कीर्ति के कारण (विडम्बना कि अकादमी पुरस्कार के कारण। जब सत्यजित को ऑस्कर मिला तो हमारे हुक्मरानों ने भी तुरत-फुरत में उन्हें 'भारत रत्न' क़रार दे दिया। जैसा कि अंग्रेज़ी में कहते हैं- 'फ़ॉलो स्यूट')। राय के अलावा कुछ हद तक मृणाल सेन को हम जानते होंगे। लेकिन बाँग्ला में ही फ़िल्में बनाने वाले ऋत्विक घटक, तपन सिन्हा, बुद्धदेब दासगुप्ता ( इनकी पाँच फ़िल्मों ने सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता है, सत्यजित राय ( 6) के बाद सबसे ज़्यादा), गौतम घोष, ऋतुपर्णो घोष तुलनात्मक रूप से अल्पज्ञात हैं। कन्नड़-न्यूवेव करके कोई चीज़ थी, हममें से बहुतों को मालूम नहीं। 'घटश्राद्ध' और 'चोमना डुडी' जैसी फ़िल्में कन्नड़ में बनाई गई हैं। अकेले गिरीश कासरवल्ली ने ही चार 'स्वर्ण कमल' जीते हैं। गिरीश कर्नाड हैं, ब.व. कारंत हैं, जिन्होंने यक्षगान की रंग-परम्परा को सिनेमा में सजीव किया। मलयालम में अडूर गोपालकृष्णन, जी. अरविंदन हैं। शाजी एन. करुन की मलयाली फ़िल्म 'पीरवी' ने एक समय अन्तरराष्ट्रीय सिनेमा परिदृश्य तक पर हलचल मचाई थी (कान में उसने 'कैमेरा दे ओर' पुरस्कार जीता था, भारत में सर्वश्रेष्ठ फ़ीचर फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार), लेकिन मुख्यधारा के प्रसार-तंत्र ने हम तक मुस्तैदी से उसकी ख़बर कहाँ पहुँचाई?

हाल के सालों में पंजाबी फ़िल्म 'अन्हें घोड़े दा दान' (निर्देशक- गुरविंदर सिंह) और मराठी फ़िल्म 'कोर्ट' (निर्देशक- चैतन्य तम्हाणे) देश-दुनिया में यशस्वी सिद्ध हुई हैं। हमारे यहाँ भावेंद्र नाथ सैकिया और जहानु बरुआ का असमिया सिनेमा है। जी. वी. अय्यर ने संस्कृत में व्यक्ति-वृत्त (बायोपिक) बनाए हैं, लेकिन संस्कृत में बनी कितनी फ़िल्में हमने देखी हैं? जब्बार पटेल का मराठी और अपूर्ब किशोर बीर का ओडिया सिनेमा है। अरिबम श्याम शर्मा का मणिपुरी सिनेमा है। अरुणाचल प्रदेश की शेर्तुप्केन भाषा तक में एक फ़ीचर फ़िल्म बनाई गई है और एन. एफ. डी.सी. द्वारा जारी की गई है ('क्रॉसिंग ब्रिजेस', निर्देशक- सान्गे दोरजी थोंग्दोक)। एक बहुत बड़ा विस्तार है सिनेमा का देश-दुनिया में, बम्बई-मद्रास-अमरीका के दायरों के परे। हम यदि सचमुच सिनेमा से प्यार करते हैं, तो हाशिए के इन कलारूपों का भी सत्वर अनुसंधान करें!