भवनी भवाई / मुक्तक / नैनसुख / सुशोभित

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भवनी भवाई
सुशोभित


केतन मेहता अपनी फ़िल्मों में एक समान्तर-ग्रामर के साथ एलीगरी और अल्यूज़ंस का यथापूर्वक निर्वाह करते रहे हैं। 'होली', 'मिर्च मसाला', 'माया मेमसाब' उनके खाते में दर्ज हैं। लेकिन उनकी सबसे चर्चित और लोकप्रिय फ़िल्म अगर कोई है, तो वह यह है- एक गुजराती और उनकी पहली फ़िल्म फ़ीचर- 'भवनी भवाई।' यह इन मायनों में दिलचस्प है कि इसमें अनेक सर्वथा विपरीत शैलियों का सम्मिश्रण आपको मिलेगा।

यह सिनेमा-कृति है, लेकिन रंगमंचीय गुणों से परिपूर्ण है और अन्य चाक्षुष युक्तियों का भी इसमें समावेश है। फ़ोकलोर में डार्क ह्यूमर की एक निरंतर अन्तर्धारा। एक तरफ़ गुजराती के भवाई लोकनाट्य (इसे 'वेशा' या 'स्वांग' भी कहते हैं) के मूलभूत तत्त्व यथा अतिनाटकीयता, गीत-संगीत, दंतकथाएँ, सूत्रधार-विदूषक वग़ैरह। दूसरी तरफ़ ब्रेख्तियन थियटर के डिटैचमेंट का अनुशीलन, जिसमें अभिनेता सहसा सीधे दर्शकों को सम्बोधित करते हुए संवाद कहने लगते हैं, उन्हें सचेत करते हुए कि वे अपना प्रेक्षकीय-विवेक सजग रखें, फ़िल्म में पूरी तरह रम न जाएँ। तीसरी तरफ़, फ्रांसीसी कॉमिक सीरिज एस्ट्रिक्स से भी यह प्रेरित, क्योंकि इसमें अभिनेताओं से कहा गया था कि वे एस्ट्रिक्स के पात्रों की तरह कॉमिक अभिनय करें।

फ़िल्म में दो क्लाइमैक्स हैं और अन्त में वृत्तचित्र शैली में न्यूज़रील फुटेज को भी इसमें शामिल किया गया है। यानी यह पर्याप्त प्रयोगधर्मी है। फ़िल्म में नसीर, स्मिता, ओम पुरी, बेंजामिन गिलानी हैं- समान्तर सिनेमा का कम्प्लीट-पैकेज! 'भुवन शोम' वाली सुहासिनी मुळे भी हैं। लेकिन सबसे ज़्यादा लुभाते हैं मोहन गोखले। यानी हमारे अपने 'मिस्टर योगी।' अस्सी के दशक में कई समान्तर फ़िल्मों ('स्पर्श', 'मिर्च मसाला', 'मोहन जोशी हाज़िर हो) में नज़र आने वाला यह सुदर्शन-संवेदनशील नौजवान, अफ़सोस कि अल्पायु में ही चल बसा ( किंचित, रवि बासवानी की तरह), लेकिन इस फ़िल्म में उन्हें देखना सुखद लगता है।

आश्चर्य कि इस 'एनसेम्बल-कास्ट' ने फ़िल्म के लिए न केवल निःशुल्क काम किया था, उलटे गाँठ से पैसा लगाकर परिवहन का ख़र्च भी वहन किया था। फ़िल्म जमा साढ़े तीन लाख के बजट पर बनाई गई थी। फ़िल्म का चर्चित दोहरा क्लाइमैक्स पाटण की विश्व धरोहर ‘रानी की वाव' पर फ़िल्माया गया है। फ़िल्म में रंगों, लैंडस्केप और दृश्य-सज्जा का कुशल बर्ताव है। काश एन.एफ.डी.सी. ने इसे एक रिस्टोर्ड डी.वी.डी. पर जारी किया होता, क्योंकि इसमें रंगों के रचाव का बड़ा महत्त्व है। फिर यह एन.एफ.डी.सी. का ही तो प्रोडक्शन था।

अन्त में नोट करें कि फ़िल्म में स्मिता पाटिल का एक और स्नान-दृश्य है- 'मंथन' और 'चक्र' की तरह। यानी स्मिता की अदम्य ऐंद्रिकता को भुनाने का कोई मौक़ा तब के कला फ़िल्म-निर्देशक भी नहीं चूकते थे!