सुनंदा की डायरी / नक्सलवाद / राजकिशोर
आज एक विचित्र घटना हुई। चाय पीते हुए अखबार देख रही थी। तभी मुंबई से एक दोस्त का फोन आ गया। मैंने तुरत फोन उठाया, पर बात करना कठिन था। क्रॉस कनेक्शन हो गया था - एक युवक और युवती बातचीत कर रहे थे। उनकी बातचीत का विषय दिलचस्प था - नक्सलवाद। बातचीत सुनने के लोभ में मैंने फोन को चालू ही रखा। मेरी आवाज न सुन कर दोस्त ने लाइन काट दी। बाद में उसने फिर कोशिश की होगी, पर मेरा फोन लगा नहीं होगा, क्योंकि उस पर मैंने दो व्यक्तियों की बातचीत सुन रही थी।
उस बातचीत का कुछ हिस्सा यहाँ लिख रही हूँ।
क्या बकती हो ? नक्सलवाद पेशेवर हत्यारे नहीं हैं। हिंसा उनका लक्ष्य नहीं, साधन है।
तुम होश में तो हो ? जब देश में लोकतंत्र है, सभी लोकतांत्रिक रास्ते सुलभ हैं, तो फिर हथियार उठाने की जरूरत क्या है ? क्या वे लोकतंत्र की सीमा में अपना आंदोलन नहीं चला सकते ?
शट अप। देश में इतने लोकतांत्रिक आंदोलन हुए, पर उनका हश्र क्या हुआ ? जेपी जैसे सीधे-सादे आदमी को जेल भेज दिया गया।
तो जेल जाने में हर्ज क्या है ? सभी क्रांतिकारी जेल जाते हैं। भगत सिंह जेल गए थे, गांधी का एक पैर जेल में ही रहता था, कम्युनिस्टों को भी जेल में रखा गया...
श्वेता, गांधी का नाम मत लो। वह पूँजीपतियों का दलाल था। इस देश का जितना नुकसान गांधी ने किया, उतना किसी और ने नहीं किया। उसने एक पूरी पीढ़ी को बरबाद कर दिया। सबको कायर और प्रतिक्रियावादी बना दिया।
लेकिन अजय, तेलंगाना के साम्यवादी विद्रोहियों ने ही क्या कर लिया ? सरकार ने उन्हें थोड़े ही समय में कुचल दिया।
यह तो होना ही था। जो वास्तव में क्रांति चाहते हैं, उन्हें सरकार कुचल देगी। इसीलिए क्रांतिकारियों के लिए संगठित होना और सरकारी हिंसा का मुकाबला करने के लिए हथियारबंद होना बेहद, बेहद जरूरी है। हिंसा के लिए हिंसा में हमारा विश्वास नहीं है। हमारी हिंसा क्रांतिकारी हिंसा है। सरकारी हिंसा के जवाब में जनता की हिंसा। सच तो यह है कि जनता की हिंसा हिंसा नहीं होती। अपने बचाव के लिए की गई कोई भी हिंसा हिंसा नहीं होती।
तो कल नक्सलियों ने पचास पुलिस वालों को जिंदा जला दिया, तो यह जन हिंसा थी ?
जरूर। यह पुलिस टोली नक्सलियों की टोह में निकली थी। बेशक ये सब गरीब सिपाही थे, मगर वे सरकारी एजेंट की भूमिका निभा रहे थे। वे हमारी तरफ नहीं, उनकी तरफ थे। इसीलिए उन्हें यह सजा दी गई। वे नहीं मरते, तो हमें मरना पड़ता। इस तरह की जोखिम हम कैसे ले सकते हैं ?
तो यह युद्ध है। जो हमारे साथ नहीं है, वह दुश्मन के साथ है।
हाँ, यह युद्ध है। तुम्हारे उस हरामजादे गांधी ने ही कहा था - करो या मरो। आज हम उसी रास्ते पर चल रहे हैं - डू ऑर डाइ। खून की आखिरी बूँद तक हम इस शोषक व्यवस्था से लड़ते रहेंगे। इतिहास हमारी तरफ है। अंत में हमारी जीत निश्चित है।
यार, मुझे यह सब ठीक नहीं लग रहा है - खून-खराबा, जान लेना-जान देना... मुझे लगता है कि इस शहादत का कोई मतलब नहीं है। सरकार के पास सेना है। तुम्हारे पास क्या है ?
हमारे साथ जनता है। सरकार और जनता के बीच लड़ाई होती है, तो जनता ही जीतती है।
लेकिन कल हम-तुम बिछड़ जाएँ तो ? मैं तो नहीं जी सकूँगी।
श्वेता, मैं तुम्हें इतना कमजोर नहीं समझता था। हमारा प्रेम बूर्ज्वा रोमांटिक प्रेम नहीं है। यह क्रांतिकारी प्रेम है। इतिहास के प्रवाह में यह कतई महत्वपूर्ण नहीं है कि दो प्रेमियों का क्या हुआ।
अजय ...
इसके बाद फोन कट गया।
तभी दरवाजे की घंटी बजी। दरवाजा खोला, तो सुमित था। आज वह बहुत अच्छे मूड में लग रहा था। उसने बढ़ कर मुझसे हाथ मिलाया और कुर्सी पर बैठ गया।
मैंने पूछा, क्या मँगाऊँ?
उसने कहा, जो मन हो, मँगा लो। सुबह से ही भूख लगी हुई है। इतनी कि आधे घंटे में कुछ नहीं आया, तो तुम्हें ही खा जाऊँगा।
मैंने इठलाते हुए कहा, बहुत देर कर दी हुजूर आते-आते।
सुमित मुसकराते हुए बोला, यह नहीं पूछोगी कि कच्चा चबा जाऊँगा या भून कर?
मैंने जवाब दिया, मेरे लिए दोनों एक ही बात है। तुम्हें जिसमें स्वाद आता हो, वह बताओ।
सुमित मेरी ओर नजर गड़ाए एकटक देखता रहा। मेरी आँखें भी उसकी ओर से नहीं हटीं।
तब तक बेयरा मेरा नाश्ता ले कर आ गया। प्लेट सुमित की ओर बढ़ा कर मैंने बेयरे को कुछ और चीजें लाने को कहा और कुर्सी खिसका कर सुमित के सामने बैठ गई।
शुरुआत सुमित ने ही की।
यह खबर पढ़ी तुमने - कल नक्सलियों ने पचास पुलिस वालों को जिंदा जला दिया।
हाँ, पढ़ी और उस पर दो प्रेमियों की तकरार भी सुनी।
कैसे, कैसे?
मेरे फोन पर क्रॉस कनेक्शन हो गया था। एक लड़का और एक लड़की इस घटना पर बहस कर रहे थे। लड़का नक्सलवादियों के पक्ष में बोल रहा था और लड़की उसका विरोध कर रही थी।
ओह ! वैसे, नक्सलवादी समूहों में लड़कियाँ भी खूब सक्रिय हैं। ऐसी ही एक लड़की से नागपुर में मेरी मुलाकात हुई थी। वह बहुत शांत स्वभाव की थी, पर उसके विचारों में ठंडी आग थी। उसने बताया कि उसके दो भाइयों को पुलिस उठा कर ले गई थी। तब से उनका कोई अता-पता नहीं है। उसने बड़ी तल्ख आवाज में कहा, देखते हैं, ये कितने लोगों की जान ले सकते हैं। मेरे दो भाई गए। अब उनकी जगह मैं हूँ। मेरे बाद और लोग आएँगे। लड़के आएँगे, लड़कियाँ आएँगी। क्रांति का रास्ता शहादतों से हो कर जाता है।
लेकिन सुमित, यह सब क्या है ? जब भी इस पर सोचती हूँ, मेरा दिमाग जवाब देने लगता है।
मामला कोई इतना पेचीदा नहीं है कि दिमाग जवाब देने लगे। हाँ, अखबार वालों ने कुछ भ्रम जरूर फैला रखे हैं।
जैसे ?
जैसे यह आदिवासियों का संघर्ष है।
क्या कह रहे हो ? क्या यह आदिवासियों का संघर्ष नहीं है ? सभी जगह तो यही कहा जा रहा है।
गलत कहा जा रहा है। आदिवासी नक्सलवादियों की ढाल है। नक्सलवादियों का असली लक्ष्य सत्ता पर कब्जा करना है, आदिवासियों की भलाई करना नहीं।
तो फिर वे आदिवासियों के बीच क्यों काम कर रहे हैं ?
क्योंकि उन्होंने हिंसक क्रांति का जो रास्ता चुना है, उसके लिए छिप कर ही लड़ा जा सकता है। इसीलिए कस्बों और शहरों में नक्सलवादी संघर्ष दिखाई नहीं देता। किसान और खेत मजदूर भी कम शोषित नहीं हैं। पर गाँवों में नक्सलवादी सक्रिय नहीं हैं। क्योंकि यहाँ पुलिस उन्हें आसानी से कुचल देगी। जंगल में सुरक्षा है। एक बात और है...
वह क्या ?
आदिवासी भारत के सबसे सताए हुए लोग हैं। जंगल उनके पुश्तैनी घर हैं। इन घरों से उन्हें विस्थापित किया जा रहा है। जो वहाँ रह रहे हैं, वन विभाग के अधिकारी उन पर तरह-तरह के जुल्म ढाते हैं। इसलिए आदिवासियों को भड़का कर उन्हें अपने साथ कर लेना नक्सलवादियों के लिए आसान है।
लेकिन तुम इससे इनकार नहीं कर सकते कि जहाँ-जहाँ नक्सल राज है, सरकारी अधिकारियों का दखल खत्म हो गया है। आदिवासी अपनी जिंदगी जी पा रहे हैं।
यह भी गलत। आदिवासी सरकारी कर्मचारियों से आजाद हो कर नक्सलवादी कार्यकर्ताओं के कब्जे में आ गए हैं। इन इलाकों में वही होता है, जो नक्सवादी चाहते हैं। अफसरों के खिलाफ तो फिर भी थोड़ा-बहुत लड़ा जा सकता था, पर नक्सलवादियों की मर्जी के खिलाफ कोई चूँ तक नहीं कर सकता। जिसने भी असहमति दिखाई, उसे पुलिस का मुखबिर बता कर उसका सिर कलम कर दिया जाता है। इस तरह आदिवासी पूर्णतः विकल्पहीन हो गए हैं : वे सरकार और नक्सलवादी, दोनों के बीच पिस रहे हैं।
तो तुम्हारा कहना यह है कि नक्सलवादी इलाकों में भी लोकतंत्र नहीं है !
लोकतंत्र आएगा कहाँ से। सभी गुप्त कार्रवाइयों में तानाशाही का तत्व होता है। बेशक, स्थानीय स्तर पर जो फैसला होता है, वह जन पंचायत द्वारा पारित करा लिया जाता है, पर पारित वही होता है जो नक्सलवादी नेतृत्व चाहता है। इस तरह, मुझे तो लगता है कि नक्सलवादी आदिवासियों का इस्तेमाल भर कर रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे शहरों में ट्रेड यूनियन नेता अपने फायदे के लिए मजदूरों का शोषण करते हैं। जो मजदूर यूनियन में शामिल हो जाते हैं, उनकी स्वयत्तता समाप्त हो जाती है। वे बँधुवा मजदूर बन जाते हैं।
जो भी हो, मैं मानती हूँ कि इस समय देश भर में एकमात्र नक्सलवादी ही सच्ची राजनीति कर रहे हैं। बाकी सभी नेता और दल लूट, बेईमानी और क्षुद्रता के नाले में सूअर की तरह लोट-पोट रहे हैं। उन्हें न देश से मतलब है न समाज से। उनका एकमात्र लक्ष्य है, दोनों हाथों से लूट-खसोट। इस सड़े-गले माहौल में थोड़े-से नौजवान तो हैं जो व्यवस्था परिवर्तन के लिए जान हथेली पर रख कर चल रहे हैं। जब भी उनके बारे में सोचती हूँ, मेरा सिर श्रद्धा से झुक जाता है। देश भर में अगर कहीं आदर्शवाद है, उसके लिए कुरबानी देने का जज्बा है, तो यहीं है।
इससे कौन इनकार कर सकता है? नक्सलवादियों के जज्बे, त्याग और तपस्या की मैं खुद बहुत तारीफ करता हूँ। उन परिस्थितियों में मुझे काम करना पड़े, तो महीने भर में टें बोल दूँगा। मुझे डर और अफसोस इसका है कि यह सारी शहादत अंततः बेकार जाने वाली है।
कैसे ?
भारतीय राज्य इतना शक्तिशाली है कि उसके सामने नक्सलवादी टिक नहीं सकते। सरकार के पास पुलिस है, अर्धसैनिक बल हैं, सेना है और अकूत पैसा है। नक्सलवादी अपनी सीमित शक्ति से इनका मुकाबला कैसे कर सकेंगे?
लेकिन अभी तक तो नक्सलवादी टिके ही हुए हैं !
वह इसलिए कि ये आदिवासी क्षेत्र देश के लिए 'नो मैन्स लैंड' थे। जंगल की लकड़ी के सिवाय और तेंदू पत्तों के अलावा सरकार को उनसे कोई मतलब नहीं था। आदिवासी जिएँ या मरें, मंत्रियों और अफसरों की बला से। इन इलाकों में न सड़कें थीं, न स्कूल थे, न अस्पताल थे, न रोजगार था। यहाँ से न इनकम टैक्स आता था, न सेल्स टैक्स, न एक्साइज। फिर वे सरकार के लिए किस काम के थे? ऊपर से वन अधिकारी और पुलिस वाले इन पर शिकारी कुत्तों की तरह झपट्टा मारते रहे। सरकार सब सुनती-देखती थी, पर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती थी। उसके लिए मानो आदिवासियों का कोई अस्तित्व ही नहीं था। भारतीय समाज ने अपने आपको इनसे काट कर रखा था। जब आदिवासी रोजगार के लिए शहर आते थे, तो उनका शोषण ही होता था। खासकर लड़कियों और औरतों का। आदिवासियों का असंतोष बढ़ता ही जा रहा था। उन्हें न्याय दिलाने के लिए नक्सलवादी ही आगे आए। फिर ये क्षेत्र धीरे-धीरे नक्सलवादियों के अभयारण्य बन गए।
लेकिन पश्चिम बंगाल में तो एक जमाने में नक्सलवादियों की जम कर हत्या हुई !
तुम्हारी याददाश्त तो बहुत अच्छी है।
अजी कहाँ ! वह तो मेरी मम्मी-दादी का जमाना था। पिछले साल पापा के एक कॉमरेड दोस्त हमारे घर आए थे। वे ही बता रहे थे। अपने कुछ नक्सलवादी परिचितों की वजह से उन्हें तीन साल तक जेल खटनी पड़ी थी।
उनकी बात एकदम सच है, यद्यपि मैंने भी किताबों में ही पढ़ा है। नक्सलवादियों को मिटाना जरूरी था, क्योंकि उनके रहते कांग्रेस और सीपीएम चैन के साथ हुकूमत नहीं कर सकती थीं। दरअसल, नक्सलवादी सीपीएम से ही निकले थे। वे सीपीएम से निराश हो चुके थे। उन्हें लगता था कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने संसदीय राजनीति को पूरी तरह अपना लिया है और क्रांति के रास्ते को छोड़ दिया है। इस तरह यह सीपीएम का अंदरूनी द्वंद्व था। इस द्वंद्व में कांग्रेस सरकार की सहायता से सीपीएम जीती और पश्चिम बंगाल से नक्सलवादियों का सफाया हो गया।
लेकिन अब तो दिल्ली की सरकार नक्सलवादियों का सफाया करना चाहती है।
जरूर चाहती है, पर यह उसके लिए विचारधारा का संघर्ष नहीं है, न ही आदिवासी क्षेत्रों में लोकतंत्र स्थापित करने की आकांक्षा। मामला यह है कि आदिवासी क्षेत्रों में खनिज पदार्थों की बहुतायत है। कुछ देशी-विदेशी कंपनियाँ इनके दोहन के लिए वहाँ अपने कारखाने लगाना चाहती हैं। इसलिए सरकार आदिवासियों के पीछे पड़ गई है। उधर, नक्सलवादियों के नेतृत्व में आदिवासी जवाबी लड़ाई लड़ रहे हैं। वे सत्ता और पूँजी के सामने झुकने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि यह उनके लिए जिंदगी और मौत का सवाल है। अपनी जमीन से विस्थापित हो कर वे जाएँगे कहाँ ? लेकिन आदिवासियों का विस्थापन रोकना नक्सलवादियों का अंतिम लक्ष्य थोड़े ही है। इस संघर्ष के माध्यम से वे सिर्फ अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करना चाहते हैं।
तो उनका अंतिम लक्ष्य क्या है ?
उनका अंतिम लक्ष्य है सत्ता पर कब्जा करना।
इसमें हर्ज क्या है ? राजनीति कोई पूजा-पाठ या कीर्तन तो है नहीं। जो भी राजनीति करता है, वह सत्ता में आना चाहता है। फिर नक्सलवादी तो क्रांति की तैयारी कर रहे हैं। क्रांति सफल हुई, तो सत्ता उन्हीं के हाथ में जाएगी। इस पर किसी को एतराज क्यों होना चाहिए ?
सवाल एतराज का नहीं है। मैं तो किसी भी क्रांतिकारी सत्ता का स्वागत करूँगा। इसके लिए मैं लाख-दो लाख लोगों का खून भी बरदाश्त कर सकता हूँ। मेरे लिए विचारणीय बात यह है कि क्रांति के बाद नक्सलवादी किस तरह की सत्ता स्थापित करना चाहते हैं? उनका कोई घोषणापत्र नहीं है, उनकी कोई कार्य सूची नहीं है। अगर उनकी व्यवस्था वैसी ही हुई जैसी क्रांति के बाद रूस या चीन में स्थापित हुई, तो उससे अल्ला बचाए। मैं एक कुएँ से निकल कर दूसरे कुएँ में नहीं गिरना चाहता।
यह बात तो है।
कम्युनिस्ट रूस में लोकतंत्र नहीं था। कानून का शासन नहीं था। अदालतें स्वतंत्र नहीं थीं। मानव अधिकारों का सम्मान नहीं था। सारी सत्ता कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ में केंद्रित थी। चीन में आज भी यही स्थिति है। नक्सलवादियों ने अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि उनकी सत्ता साम्यवादी रूस और चीन से कैसे अलग होगी। यह जाने बिना मैं उनका समर्थन किस आधार पर कर सकता हूँ?
तुम नक्सलवादी या माओवादी शासन में किन चीजों की उम्मीद करते हो ?
बहुत ज्यादा नहीं। पर इतना जरूर जो किसी भी सभ्य समाज की न्यूनतम पहचान है।
मसलन ?
मसलन अभिव्यक्ति की आजादी, प्रतिवाद करने की स्वतंत्रता, हर किसी को चुनाव लड़ने की छूट, मानव अधिकारों का सम्मान, कानून का राज, न्यायपालिका की स्वायत्तता और सूचना का अधिकार।
और माओवादी कहें कि ये सब पूँजीवादी ढकोसले हैं, तब ?
तब मैं यह कहूँगा कि दोस्त, तुम्हारा माओवाद भी ढकोसला है।
सुमित की प्रतिभा से एक बार फिर मैं चमत्कृत थी। हर विषय पर वह कितना साफ सोचता है। मन हुआ, झुक कर उसकी चरण धूलि ले लूँ।
दोपहर हो चली थी। हम दोनों को ही भूख लग रही थी। मैंने सुमित का हाथ थामा और कहा, चलो, खाना खा आएँ।
उसने बड़े प्यार से कहा, चलो। तुम्हें जितना खा सकता था, खा चुका।
मुझे यह कहने की इच्छा हुई, नहीं, खा तो मैं तुम्हें रही थी। और, यह ऐसी चीज है जिसे जितना खाओ, वह उतनी ही बढ़ती जाती है।
कैंटीन लगभग भरी हुई थी। एक कोने में विदेशी जोड़ा एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले खाना खा रहा था।
क्या हम ऐसा नहीं कर सकते, मैंने अपने आपसे पूछा। पता नहीं कैसे, यह प्रश्न सुमित तक पहुँच गया। उसने मुसकराते हुए कहा, हम भारतीय भी प्रेम करते हैं, पर हमें प्रेम का इजहार करना नहीं आता।