सुनंदा की डायरी / मानव अधिकार / राजकिशोर

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मानव अधिकारों का मामला मेरी समझ में कभी नहीं आया। एक व्यक्ति के रूप में, दूसरों पर मेरा क्या अधिकार हो सकता है? इसलिए मानव अधिकार के तहत अपने किसी अधिकार की कल्पना मैं नहीं कर पाती। हाँ, मानव कर्तव्यों की बात मेरी समझ में जरूर आती है। जैसे, यह मेरा कर्तव्य है कि मैं किसी के साथ क्रूर व्यवहार न करूँ, किसी का शोषण न करूँ, लेकिन क्या मैं दूसरों से भी इन चीजों की उम्मीद कर सकती हूँ? आखिर यह उनकी समझ का मामला है कि वे मेरे साथ क्या करते हैं। उन्हें किसी खास व्यवहार के लिए मैं बाध्य कैसे कर सकती हूँ?

इसका एक और संदर्भ भी है। जब किसी के साथ कोई अनुबंध होता है, तो उस अनुबंध में दोनों के अधिकार और कर्तव्य परिभाषित कर दिए जाते हैं। जब तक अनुबंध कायम है, तब तक इन अधिकारों और कर्तव्यों का निर्वाह आवश्यक है। नहीं तो समाज नहीं चल सकता। मान लो, मैंने दिल्ली से मुंबई जाने के लिए रेल का टिकट खरीदा, तो यह मेरा अधिकार है और रेलवे का कर्तव्य कि मैं दिल्ली में ट्रेन पकड़ूँ और मुंबई रेल स्टेशन पर उतरूँ। मैं चाहूँ तो अपना दावा छोड़ सकती हूँ और यात्रा नहीं भी कर सकती हूँ या कहीं बीच में ही उतर सकती है। पर रेलवे को यह अधिकार नहीं है कि वह मुझे यात्रा करने से रोके या कहीं बीच में उतार दे। ऐसे मामलों में तो अधिकार की बात मेरी समझ में आती है, पर वृद्धों, विकलांगों या बेरोजगार लोगों को रेल में मुफ्त चलने का क्या कोई अधिकार हो सकता है? रेलवे चाहे तो अपनी ओर से ये सुविधाएँ प्रदान कर सकता है, पर यह करुणावश होगा, न कि उनके किसी अधिकार को मान्यता प्रदान करने के लिए । यह सही है कि प्रत्येक व्यक्ति और व्यवस्था में करुणा होनी चाहिए, पर क्या किसी को इसके लिए बाध्य भी किया जा सकता है? पता नहीं।

जब सुमित से मानव अधिकारों पर बातचीत हुई, तो इस तरह के बहुत-से सवाल मेरे मन में कुलबुला रहे थे। मैंने सुमित से पूछा, यह मानव अधिकार नाम की चिड़िया क्या होती है ?

उसने जवाब दिया, यह मानव समाज के लिए एक नई चिड़िया है। इसीलिए इसके चूँ-चूँ का मतलब कोई ठीक से समझ नहीं पा रहा है। खासकर ऐसे समाजों में, जहाँ अधिकार की भाषा का विकास नहीं हुआ है ।


लेकिन सुमित, यह चिड़िया आई कहाँ से ?

यह चिड़िया हम सभी के भीतर सोई हुई थी। अब जा कर जगी है और उन सभी को परेशान कर रही है जिनके पास किसी किस्म की सत्ता है जिसका वे दुरुपयोग कर रहे हैं ।


लेकिन सत्ता का दुरुपयोग रोकने के बहुत-से तरीके हैं। इसमें मानव अधिकार की बात कहाँ से आती है ?

इसलिए कि जो सत्ता में होते हैं, वे सिर्फ अपने अधिकारों की भाषा समझते हैं। वे जिन पर शासन करते हैं, उनके अधिकारों का सम्मान नहीं करते। उन्हें यथासंभव कुचल कर रखना चाहते हैं, ताकि उनकी अपनी सत्ता में खलल न पड़े। इससे आदमी अपने मानव अधिकारों का उपयोग नहीं कर पाता।


लेकिन सुमित, मानव अधिकारों का दमन तो तानाशाही में ही संभव है। लोकतंत्र में इसके लिए गुंजाइश कहाँ है ?


सुनंदा, जहाँ तक सत्ता का सवाल है, उसका चरित्र सभी जगह एक जैसा होती है। तानाशाह सत्ता को हड़प कर उसे अपनी चेरी बनाता है, जब कि लोकतंत्र में यही काम चुनाव के माध्यम से होता है। दोनों में फर्क यही है कि तानाशाह को हटाने के लिए जनता को विद्रोह करना पड़ता है और लोतकंत्र में चार या पाँच साल बाद सत्ताधारी को मतदान के द्वारा हटाने की सुविधा होती है। पर यह सुविधा मात्र काल्पनिक है, वास्तविक नहीं। साँपनाथ को हटाने के लिए नागनाथ को चुनना पड़ता है।


इसमें मानव अधिकारों का सवाल कहाँ से आता है ?

क्यों नहीं आता? सभी देशों में सत्ता के चरित्र का अध्ययन करने के बाद पाया गया कि दुनिया भर में सभी लोगों को कुछ ऐसे अधिकार दिए जाएँ जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य हों। ये अधिकार मानव मात्र के हैं। मानव अधिकारों की धारणा का विकास इसी सोच के तहत हुआ। इसके पीछे विचार यह था कि किसी देश का संविधान या कानून कुछ भी कहता हो, वहाँ के नागरिकों के मानव अधिकारों को न छीना जा सकता है न कम किया जा सकता है। ऐसा करना मानव जीवन की गरिमा को ठेस पहुँचाना है। यह एक तरह से मनुष्य की सार्वभौमिक संप्रभुता की स्वीकृति है। सभी देशों के लोगों के लिए मानव अधिकारों की घोषणा 1948 में हुई थी - संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से।


लेकिन मैंने तो पढ़ा है कि संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यतः संयुक्त राज्य अमेरिका की पहल पर स्थापित किया गया था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका चाहता था कि तीसरा विश्व युद्ध न हो और विश्व भर में एक ऐसी व्यवस्था कायम हो जिसमें तानाशाही के लिए जगह न रहे। दूसरे देश भी इससे सहमत थे, क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका ने सभी को हिला कर रख दिया था। चूँकि यह महायुद्ध हिटलर की तानाशाही का नतीजा था, इसलिए मनुष्य के लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक विश्व संगठन बनाना जरूरी था।

हाँ, मजे की बात यह है कि मानव अधिकारों की घोषणा पर सोवियत संघ ने भी दस्तखत किए थे - वही सोवियत संघ, जिसकी सत्ता स्टालिन के हाथ में थी। स्टालिन के 29 वर्षों के शासन में सोवियत संघ में मानव अधिकारों का जितना हनन किया गया, उसकी कोई और मिसाल नहीं है। अब तुम पूछोगी कि स्टालिन ने मानव अधिकारों के घोषणा पत्र पर दस्तखत क्यों किए ?


हाँ, क्यों किए ?

क्योंकि तानाशाहों का यह सिरमौर दिखाना चाहता था कि वह भी मानव अधिकारों का समर्थक है। सभी सत्ताएँ अपने को लोकतांत्रिक और जन-हितैषी बताती हैं। लेकिन उनका व्यवहार मानव-विरोधी होता है। सोवियत संघ का संविधान बहुत अच्छा था। लेकिन उसी संविधान के तहत स्टालिन अपनी तानाशाही चलाता था। भारत सरकार ने भी तो मानव अधिकारों के चार्टर पर दस्तखत किए हैं, मानव अधिकार आयोग भी गठित किए हैं, पर व्यवहार में वह इन अधिकारों का कितना सम्मान करती है?

मेरी अब तक की समझ तो यही है कि मानव अधिकारों की बात इस युग के सबसे बड़े फ्रॉडों में एक है। जैसे हिन्दू धर्म की यह उद्घोषणा - वसुधैव कुटुंबकम् ।

नहीं, सुनंदा, ऐसी बात नहीं है। मानव अधिकार यूटोपिया जरूर है, यूटोपिया होने भर से कोई चीज फ्रॉड नहीं हो जाती। मानव अधिकार जागती आँखों का सपना है, सिर्फ इसीलिए उसे फ्रॉड करार देना स्वप्न देखने की क्षमता का अपमान करना है। एक जमाने में तो लोकतंत्र भी सपना ही था। पर वह आज हकीकत है। पहले राजा ही न्याय करता था, अब यह काम अदालतें करती हैं। अपराधी की आँखें निकाल लेना, उसे जिंदा गाड़ देना या भूखे शेर के सामने फेंक देना आम बात थी। आज किसी भी ऐसे देश में, जहाँ लोकतंत्र है, इस किस्म की सजा नहीं दी जा सकती।


तो आपका कहना यह है कि मानव अधिकार इसलिए जरूरी हैं क्योंकि वे राजसत्ता के दुरुपयोग पर अंकुश लगाते हैं।

बेशक।

तब तो इन्हें हर देश के कानून में शामिल कर देना चाहिए, ताकि राज्य का कोई भी अधिकारी जब किसी के मानव अधिकार का उल्लंघन करे, तो उस पर मुकदमा चलाया जा सके।

क्यों नहीं। लेकिन यही तो पेच है। कोई भी सरकार ऐसा करना नहीं चाहती। दुनिया की लगभग सारी सरकारों ने मानव अधिकारों को मान्यता दे दी है, पर कोई भी सरकार उन्हें अपने कानूनी सिस्टम का अंग बनाना नहीं चहती। इसका नतीजा यह हुआ है कि नागरिक के पास दो तरह के अधिकार हैं। एक, कानूनी अधिकार, जिनका उल्लंघन होने पर वह अदालत में जा सकता है। दूसरा, मानव अधिकार, जिनका उल्लंघन होने पर वह मानवाधिकार आयोग में अपील कर सकता है। किसी भी देश में मानवाधिकार आयोग को पर्याप्त शक्तियाँ नहीं दी गई हैं। इसलिए मानव अधिकारों के उल्लंघन पर सख्त कार्रवाई नहीं हो पाती।

लेकिन सुमित, एक बात मेरी समझ में नहीं आती। किसी भी व्यक्ति को मानव अधिकार मिलते कैसे हैं ? ये अधिकार उन्हें प्रदान कौन करता है ?

मतलब?

मतलब यह कि प्रकृति की ओर से मनुष्य को एक ही अधिकार मिला हुआ है - आत्म-रक्षा का अधिकार। यह अधिकार हर जीव को है। इसके लिए वह चाहे जितने जीवों की हत्या कर सकता है। भोजन के लिए संधर्ष कर सकता है और आवास के लिए भी। आदि समय से ही इस प्रकार के संघर्ष होते आए हैं। पर दूसरे अधिकार कहाँ से आए हैं ? इन्हें किसने मान्यता दी है ?

जिन्हें तुम प्राकृतिक अधिकार कहती हो, वे वास्तव में अधिकार नहीं हैं। वे प्रकृति की शक्ति पूजा के उदाहरण हैं। प्रकृति ने अगर सभी प्राणियों को एक जैसी शक्ति दी होती, तो कोई भी जीव मांसाहारी नहीं होता। सभी को घास-पत्ते-फल-फूल खा कर काम चलाना पड़ता। चूँकि सभी की शारीरिक और मानसिक क्षमताएँ अलग-अलग हैं, इसलिए ताकतवर अपने से कमजोर को खा जाता है। क्या पता, आदिम मनुष्य नरभक्षी रहा हो। बाद में यह चेतना पैदा हुई हो कि आदमी को मार कर खा जाने से बेहतर है उसे गुलाम बना लेना, ताकि उसका ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल किया जा सके। मरे हुए आदमी को सिर्फ खाया जा सकता है, जिंदा आदमी का उसकी पूरी उम्र तक शोषण किया जा सकता है। उसके मर जाने पर उसकी औरत और उनकी संतानों का भी शोषण किया जा सकता है।

हूँ...

बाद में जब राज्य का गठन हुआ, तो वह अपने नागरिकों को एक ही आश्वासन देता था - उसके जीवन की सुरक्षा का। राजा का अघोषित मंतव्य था - तुम अपने सारे अधिकार मुझे दे दो, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। राजशाहियाँ इसीलिए खत्म होने लगीं क्योंकि प्रजा को इस व्यवस्था से असंतोष होने लगा। वह अपने जीवन के सभी पहलुओं को अपने हाथ में लेना चाहती थी। इस प्रक्रिया में राज्य के अधिकार सीमित होते गए और नागरिकों के अधिकार बढ़ते चले गए।

इसका अर्थ यह हुआ कि मानव अधिकारों की उपज अपने जीवन को बेहतर बनाने की सहज मानव इच्छा से हुई।

बेशक।

और, जैसे-जैसे इस इच्छा का दायरा बढ़ता गया, वैसे-वैसे मानव अधिकारों का दायरा भी बढ़ता चला गया।

बेशक।


इसलिए जिस देश में मानव अधिकारों की जितनी ज्यादा कद्र होती है, उसे उतना ही सभ्य मानना चाहिए।

बेशक।


यह क्या बेशक-बेशक लगा रखा है ? कुछ अपनी बात भी तो कहो।

जब तुम मेरी ही बात कह रही हो, तो मुझे मुँह खोलने की जरूरत क्या है?


तुम्हारी बात ? मैं तो सबकी बात कह रही हूँ।

जो अच्छी बात है, वह सबकी बात है। जो बुरी बात है, वही अपनी बात है।


बेशक।


यह तो मेरी नकल हुई।

अच्छे की नकल को अच्छा ही मानना चाहिए। जैसे बुरे की नकल बुरा है।

तो सुनो। लोकतंत्र वास्तव में मानव अधिकारों का ही दूसरा नाम है। टॉमस पेन नाम के लेखक ने कहा है कि राज्य के कोई अधिकार नहीं होते - उसके सिर्फ कर्तव्य होते हैं।


क्या कहते हो ? राज्य के पास अधिकार नहीं होंगे, तो वह अपना कर्तव्य कैसे निभाएगा ?

इससे कौन असहमत हो सकता है? लेकिन राज्य के पास बस उतने ही अधिकार होने चाहिए जितने उसके द्वारा अपने कर्तव्य निभाने के लिए आवश्यक हैं। दूसरे, इन अधिकारों का इस्तेमाल किसी और इरादे के लिए होता है, तो यह जनता के साथ दगाबाजी है। राज्य का एकमात्र प्रयोजन मानव अधिकारों की रक्षा है।

लेकिन मानव अधिकारों का दायरा इतना व्यापक कर दिया गया है कि राज्य उनका सम्मान करने में असमर्थ भी हो सकता है।

जैसे?

जैसे, भूख से न मरने का अधिकार, अच्छा रोजगार पाने का अधिकार, इस तरह के अन्य अनेक अधिकार...

अगर राज्य तत्काल इन अधिकारों का सम्मान करने में असमर्थ है, तो उसे युद्ध स्तर पर ऐसी कोशिश करनी चाहिए जिससे वह जल्द से जल्द इन अधिकारों को लागू कर सके।


और उसके पास इतने साधन न हों, तब ?

तब उसे अमीरों से पैसा छीन कर गरीबों की सेवा करनी चाहिए। यह नहीं हो सकता कि एक आदमी के पास अपनी हर इच्छा को पूरा करने का साधन हो और दूसरा दरिद्रता का जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हो। लोकतंत्र में यह नहीं चल सकता।


लेकिन सर, तब तो समाजवाद आ जाएगा।

आ जाए तो बुरा क्या है? जहाँ समाज हैं, वहाँ समाजवाद का होना स्वाभाविक बात है। हम इस पर पहले भी चर्चा कर चुके हैं कि समाजवाद के बिना लोकतंत्र निस्सार है। आज का निष्कर्ष यह है कि मानव अधिकारों के बिना लोकतंत्र और समाजवाद, दोनों निस्सार हैं।


तो फिर हमारे यहाँ मानव अधिकार की चेतना इतनी कमजोर क्यों है ?

क्योंकि हमारे यहाँ अधिकार की भाषा एक नई बात है। हम अभी तक कर्तव्य की भाषा ही जानते थे - पुत्र के प्रति पिता के कर्तव्य, पति के प्रति पत्नी के कर्तव्य, समाज के प्रति व्यक्ति के कर्तव्य, प्रजा के प्रति राजा के कर्तव्य, मातृऋण, पितृऋण, गुरुऋण, देवऋण आदि-आदि। अधिकार थे भी, तो पुत्र पर पिता का अधिकार, पत्नी पर पति का अधिकार, प्रजा पर राजा का अधिकार। जो अधिकृत है, उसके अपने भी कुछ अधिकार हो सकते हैं, यह सोचने वाले कम थे।

शायद इसीलिए बाल गंगाधर तिलक की यह घोषणा अब भी कितनी प्यारी लगती है कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

लेकिन राजनैतिक स्वतंत्रता पाने के बाद हम भूल गए कि स्वतंत्रता की और भी किस्में हो सकती हैं, जैसे आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक स्वतंत्रता, नागरिक स्वतंत्रता, स्त्रियों की स्वतंत्रता, दलितों की स्वतंत्रता ...


शायद इसलिए कि भारत की जनता में स्वतंत्रता की चेतना देर से पैदा हुई है।

दरअसल, हमारे यहाँ अन्याय और शोषण के पता नहीं कितने स्तर काम करते रहते हैं। यह भी एक तथ्य है कि जो अपने लिए स्वतंत्रता चाहते हैं, वे दूसरों की स्वतंत्रता को दबाए रखना भी चाहते हैं।


अच्छा, इस पर तुम्हारा विचार क्या है कि आतंकवादियों के भी मानव अधिकार होते हैं। लोग कहते हैं, उन्हें देखते ही गोली मार देनी चाहिए।

क्यों नहीं, क्यों नहीं। आतंकवादियों के सींग-पूँछ होती हैं न ! उनकी पहचान करना कितना आसान है। जहाँ भी देखो, गोली मार दो।


मजाक मत करो, सुमित। जो दूसरों की जान लेते हैं, वे जिंदा रहने का अपना अधिकार खो देते हैं। नहीं ?

नहीं, बिलकुल नहीं। आतंकवादी वहशी होते हैं, पर सरकार क्यों वहशी हो? आतंकवादी किसी नियम-कानून, किसी मर्यादा से बँधा नहीं होता। पर सरकार तो अराजक नहीं हो सकती।

यानी ?

यानी यह कि आतंकवादियों को जान से मारना नहीं चाहिए, उन्हें जिंदा पकड़ कर उन पर मुकदमा चलाना चाहिए।


और मुकदमा चलाने के तुरंत बाद उन्हें फाँसी पर चढ़ा देना चाहिए।


कभी नहीं। मैं मृत्युदंड का विरोधी हूँ। फाँसी पर किसी को नहीं चढ़ाया जाना चाहिए - चाहे वह खूनी हो, बलात्कारी हो या आतंकवादी हो। ये लोग मानव जीवन का सम्मान नहीं करते। राज्य भी मानव जीवन का सम्मान नहीं करेगा, तो मानवता कहाँ शरण लेगी? अपराधी कुछ भी कर सकते हैं, पर कानून के रखवालों को तो कानून के दायरे में ही काम करना चाहिए। 'आँख के बदले आँख' तो वहशी लोगों का कायदा है।


आप ठीक कह रहे हैं। मैंने पढ़ा है कि युद्धबंदियों के भी अधिकार होते हैं, कैदियों के भी और अपराधियों के भी। होने भी चाहिए। आप किसी के साथ भी क्रूर और बर्बर व्यवहार नहीं कर सकते।

सुनंदा, मामला इससे भी आगे जाता है। पशु-पक्षी मनुष्य नहीं हैं, पर उनके अधिकारों को भी मान्यता मिल रही है। यहाँ तक कि जिन जानवरों को मार कर हम अपना पेट भरते हैं, उनके भी कुछ अधिकार हैं। जैसे उनकी हत्या इस तरह की जानी चाहिए जिससे उन्हें ज्यादा तकलीफ न हो, मारने से पहले उन्हें भूखा-प्यासा न रखा जाए, अगर उनमें से कोई बीमार पड़ गया हो तो उसका इलाज करना चाहिए, मुर्गों, बकरों, भेड़ों को इस तरह न ले जाया जाए जिससे उनकी साँस घुटती हो...

बहुत अच्छे। यह इसीलिए संभव हुआ है क्योंकि मनुष्य ने अपनी यातना को समझा है तो वह अपने आसपास के जीवों की यातना भी समझने लगा है। मनुष्य अपने को धरती का सबसे बुद्धिमान प्राणी मानता है, तो धरती के अन्य बाशिंदों के सुख-दुख का खयाल रखना उसकी जिम्मेदारी हो जाती है।

बिलकुल। अब मेरा मानव अधिकार यह कहता है कि मुझे इस बहस से छुटकारा मिलना चाहिए, ताकि मैं बाहर जा कर खुली हवा में साँस ले सकूँ और थोड़ा टहल सकूँ।

जरूर जाओ। यह मेरा मानव कर्तव्य है कि मैं तुम्हें बाँध कर न रखूँ, हालाँकि मेरा मन कह रहा है कि मैं भी तुम्हारे साथ घूम आऊँ।

नो वे। प्रेम में नजदीकी और दूरी, दोनों का महत्व है।


सुमित के जाने के बाद मैं बहुत देर तक सोचती रही ... प्रेम में नजदीकी और दूरी, दोनों का महत्व है। यह पहली बार था जब हमारे अपने संदर्भ में सुमित के मुँह से प्रेम शब्द निकला था। क्या वह... ? क्या वह …?


बहुत दिनों के बाद जीवन सार्थक लग रहा था। मैं अपने कमरे में पहुँच कर सीधे बिस्तर पर जा गिरी और सपने देखने लगी। वे सपने जो रोज-रोज नहीं देखे जाते।