सुनंदा की डायरी / समाज / राजकिशोर
आज सुबह ही मेरी नींद खुल गई। कल-परसों की बातें मेरे दिमाग में गूँज रही थीं। सुमित ने नैतिकता का वह रूप मुझे दिखा दिया था जैसा कुरुक्षेत्र के मैदान में कृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट रूप दिखलाया था। मुझे कपड़े पहन कर सोने की आदत नहीं है। नींद की खुमारी टूटने के बाद मैंने कुरसी पर रखा गाउन पहनने के लिए हाथ में लिया, तो अचानक उसकी कीमत की ओर मेरा ध्यान गया। पिछले साल जब मैं गोवा गई थी, तो वहाँ इसे दो हजार रुपए में खरीदा था। बहुत ही सुंदर था यह। दुकान पर इसे देखते ही पहली नजर में मैं इस पर फिदा हो गई थी। गुलाबी बेस पर छोटे-छोटे पीले फूल चमक रहे थे। आज भी वह उतना ही खूबसूरत लगा। पर उसके साथ एक कीड़ा चिपक गया था।
तीन-चार दिन पहले की बात है। सुमित होटल के एक बेयरे से बातचीत कर रहा था। उसका नाम था, उम्मेद सिंह। मालूम हुआ कि वह ऊपर पहाड़ों से आया था। वहाँ उसके माता-पिता, पत्नी और दो बच्चे रहते थे। बड़ा बेटा स्कूल जाता था, छोटा अभी गोद में था। थोड़ी-बहुत खेती थी। पर उससे इतनी भी कमाई नहीं होती थी कि साल भर के राशन का ही इंतजाम हो सके। बड़ा भाई भाग कर मुंबई चला गया था। तभी से उसका कुछ अता-पता नहीं था। उड़ती खबर यह थी कि वह अच्छा कमाता-खाता है। पर वहाँ से एक पैसा भी नहीं भेजता था। इस तरह घर उम्मेद सिंह की कमाई से ही चलता था। सुमित ने पूछा - आपको यहाँ तनख्वाह कितनी मिलती है? उम्मेद सिंह ने बिना किसी संकोच के बताया - दो हजार। कोई-कोई साहब अच्छी टिप दे देते हैं। इससे महीने में हजार-बारह सौ एक्स्ट्रा हो जाता है। जब आउट-सीजन में गेस्ट कम आते हैं, तब सूखी तनख्वाह से काम चलाना पड़ता है।
उस समय उम्मेद सिंह के बारे में मिली जानकारियों का मुझ पर कुछ खास असर नहीं हुआ था। मुझे अंदाजा था कि इस वर्ग के कर्मचारियों को ज्यादा तनख्वाह नहीं मिलती। अभी अपने गाउन की कीमत के बारे में सोच कर याद आया कि उम्मेद सिंह को महीने भर दिन-रात काम करने के बाद दो हजार मिलते हैं और मैंने अपने एक गाउन पर दो हजार खर्च कर दिए थे। कितनी गहरी खाई है हम दोनों की आर्थिक स्थिति में। मुझे अपने ऊपर ग्लानि हो आई। गाउन पहनने का मन नहीं हुआ। कपड़ों की आलमारी में एक और गाउन था। इससे कम कीमत का। थोड़ा पुराना भी था। उसे ही निकाल कर पहन लिया। ग्लानि तो कम नहीं हुई, उसका उबाल बैठ गया।
चाय पीने के बाद अखबार पढ़ा। फिर नहाया-धोया और नाश्ते के लिए तैयार हो गई। मन हुआ कि सुमित के साथ ही नाश्ता करूँ। घड़ी देखी, तो अभी आठ ही बजे थे। सुमित इस समय सो रहा होगा। उसे रात को देर तक जगने और सुबह देर तक सोने की आदत है। मैंने एक-दो बार कोशिश की कि हम साथ-साथ सुबह की सैर किया करें। मेरे बहुत कहने पर एक दिन वह होटल से निकल तो पड़ा, पर रास्ते भर उनींदा बना रहा। उसने अपनी ओर से कोई बातचीत नहीं की। मैंने कुछ कहा, तो वह हाँ, ना करता रहा। होटल लौट कर मेरे साथ चाय पी, मुझसे हाथ मिला कर विदा ली और सीधे अपने कमरे में जा कर सो गया। तब से मैं उसे सुबह नहीं जगाती। हर आदमी को अपनी मर्जी से सोने और जगने का अधिकार है।
होटल से बाहर आ कर मैं बाजार की ओर निकल गई। दुकानें प्राय: सभी बंद थीं। कुछ युवक जॉगिंग कर रहे थे और अधेड़ टहल रहे थे। सूरज अभी ठीक से निकला नहीं था। धुंध थी। थोड़ा आगे बढ़ी, तो देखा, सड़क के किनारे एक युवती ठंड से सिकुड़ी हुई सोई हुई है। कालिख-पुता शरीर और मैले-कुचैले कपड़े। उसके एक स्तन का कुछ हिस्सा बाहर निकल आया था। बगल में उसका साल भर का बच्चा, जो माँ से पहले जग गया था, लेटा था। शायद वह भूखा था और दूध पीने के लिए माँ की छातियों की ओर बढ़ आता था, पर माँ की नींद पूरी नहीं हुई थी, सो वह बार-बार बच्चे को झटक देती थी। आते-जाते लोग उस पर एक नजर डालते और आगे बढ़ जाते। कोई-कोई कुछ देर तक ठिठक भी जाता।
यह दृश्य मेरे लिए नया नहीं था। लेकिन कुछ दुख ऐसे होते हैं जो हर बार नया दंश ले कर आते हैं। यह दृश्य भी ऐसा ही था। सुमित के साथ ने मेरी संवेदना को जगा दिया था। मैं सोचने लगी कि इस बदहाल युवती के लिए क्या किया जा सकता है। जब कुछ भी समझ में नहीं आया, तो मैं माँ के पास गई, उसे जगाया और उसकी मुट्टी में दस-दस के पाँच नोट रख दिए। उस समय मेरे पास इतने ही पैसे थे। होटल की ओर लौटते हुए बहुत विषाद हो रहा था कि इससे अधिक कुछ करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ।
सुमित के कमरे की घंटी बजाई तो उसने तपाक से दरवाजा खोल दिया। जैसे वह मेरा इंतजार ही कर रहा हो। मेज पर एक तश्तरी में कुछ कटे हुए फल रखे हुए थे। तश्तरी मेरी ओर बढ़ाते हुए उसने कहा, 'लो, खाओ, तुम्हारा आज का दिन सफल हो।'
मैंने तश्तरी उसके हाथ से ले कर वापस मेज पर रख दिया। कुछ भी खाने का मन नहीं कर रहा था। फिस सुमित को सुबह का सारा किस्सा सुनाया। वह हँसने लगा। मैं चकित हो कर उसकी ओर देखने लगी।
सुमित ने कहा, 'शायद तुम्हें गहरा शॉक लगा है। '
मैंने स्वीकार किया।
लगता है, तुम भी इस अफवाह की शिकार हो कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है।
तुम... आप क्या कह रहे है ? यह तो बहुत बुनियादी बात है। इससे कौन इनकार कर सकता है?
एक तो मैं ही हूँ। दरअसल, हम सभी को तरह-तरह के भ्रमों में जीने की आदत पड़ी हुई है। इन्हीं में एक भ्रम यह है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। मुझे कहना होगा, तो मैं कहूँगा कि मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है। वह सत्ता पसंद करता है। सत्ता के लिए पचास तरह के प्रपंच करता है। आधुनिक राज्य - चाहे लोकतांत्रिक हो या अलोकतांत्रिक - इसी प्रपंचवाद का विकसित रूप है।
लेकिन राजनीति तो समाज में ही संभव है। जहाँ समाज ही नहीं है, वहाँ राजनीति कैसे हो सकती है ?
यही तो मैं कहना चाहता हूँ ... जहाँ राजनीति होती है, वहाँ समाज हो ही नहीं सकता। राजनीति का संबंध राज्य से है और राज्य का होना समाज का न होना है।
पितृसत्ता के बारे में आप क्या कहेंगे ?
वह राजनीति है - परिवार के भीतर की राजनीति। परिवारों में हावी पितृसत्ताओं से मिल कर ही पितृसत्तात्मक समाज बनता है। ऐसा समाज एक खंडित समाज है। ऐसे समाज में कोई भी व्यक्ति सुखी नहीं रह सकता। सुखी होने के लिए स्वतंत्र होना जरूरी है। पितृसत्ता सबसे बुनियादी सत्ता है। इसी से बाकी अन्य सत्ताएँ निकलती हैं - सामंत की सत्ता, सेना की सत्ता, समाज की सत्ता, पूँजी की सत्ता, राज्य की सत्ता, आदि-आदि। ये सारी सत्ताएँ मनुष्य की स्वतंत्रता को खंडित करती हैं, उसे कमजोर बनाती हैं। ऐसे व्यक्तियों से बना हुआ समाज भी मजबूत नहीं हो सकता। वह अपने ही सदस्यों को खाने लगता है।
लेकिन समाज तो सभ्यता का सहज विकास है। इससे कैसे बचा जा सकता है ?
माफ करना, यह समाज सभ्यता का सहज विकास नहीं, कृत्रिम विकास है। जैसे-जैसे समाज का आकार बढ़ता गया, मनुष्य के लिए सामाजिक प्राणी बने रहना कठिन होता गया। दूसरी ओर, जैसे-जैसे संसाधनों की छीना-झपटी बढ़ने लगी, मनुष्य राजनीतिक प्राणी बनता गया। इस तरह, सामाजिक प्राणी वह रह नहीं सका और राजनीतिक प्राणी बनने के सिवाय उसके पास कोई विकल्प नहीं छोड़ा गया।
तो क्या आपकी नजर में, मनुष्य निहायत स्वार्थी प्राणी है ?
ऐसा तो नहीं कहा मैंने। मेरा खयाल है कि मनुष्य असल में तो सामुदायिक प्राणी है। वह लाखों वर्षों तक समुदाय में ही रहता रहा। तब उसके जीवन में बहुत सारी कठिनाइयाँ थी। उसके पास घर नहीं था। वह खेती करना नहीं जानता था। फल-फूल और पशु ही उसका आहार थे। वह एक जगह से दूसरी जगह घूमता रहता था। किसी के पास निजी संपत्ति नहीं थी। जो भी संपत्ति थी, वह सामुदायिक संपत्ति थी। तब मनुष्य सचमुच इतने बंधनों में नहीं था। भौतिक रूप से वह प्रकृति का गुलाम था, पर सांस्कृतिक रूप से वह पूरी तरह आजाद था। तब वह सचमुच एक-दूसरे के काम आता होगा, क्योंकि उसका अस्तित्व सामूहिक था। मार्क्स ने इसे आदिम साम्यवाद कहा है। समुदाय में हर स्तर पर समानता थी। यह समानता तब टूटने लगी, जब हर समुदाय में कोई सरदार होने लगा। वह अपने बाहुबल से पूरे समुदाय को अपनी इच्छा से चलाने लगा। उसी समय से शासक और शासित का विभाजन शुरू हुआ। यह विभाजन आज तक चला आ रहा है।
अर्थात जिसे हम सामाजिक चेतना कहते हैं, वह इतिहास का सबसे बड़ा झूठ है ?
झूठ और सच का निपटारा इतने सपाट ढंग से नहीं किया जा सकता। जैसे भी बना हो, जब समाज बन ही गया है, तो कुछ न कुछ सामाजिक चेतना पैदा हो ही जाएगी। लेकिन चूँकि समाज एक कृत्रिम सत्ता है, इसलिए सामाजिक चेतना भी कृत्रिम और खंडित होगी। असल में, मनुष्य बड़े-बड़े समाजों के लिए बना ही नहीं है। जैसे उसके शरीर की सीमा है, वैसे ही उसकी चेतना की भी सीमा है। मनुष्य की संवेदना एक खास सीमा से परे नहीं जा सकती। वे महापुरुष होते हैं जो व्यापक समाज के बारे में सोचते हैं। उनकी संवेदना का दायरा बहुत विस्तृत होता है। लेकिन साधारण मनुष्य के लिए यह संभव नहीं है। उसकी दुनिया छोटी होती है। ज्यादातर, वह अपने बारे में, अपने परिवार के बारे में, अपनी मित्र मंडली के बारे में सोचता है। अपने शहर तक के बारे में तो वह सोच पाता नहीं और उससे उम्मीद की जाती है कि वह देश और दुनिया के बारे में सोचेगा। यह एक बेहूदा माँग है। इसलिए आज तक यह माँग कभी पूरी नहीं हुई और न भविष्य में कभी पूरी होगी।
तो सुमित जी, जिसे विश्व गाँव कहते हैं, वह एक धोखा है ? भूमंडलीकरण एक मजाक है ?
सुनंदा, इन दोनों सवालों का मेरा जवाब हाँ में है। किसी के लिए अपना गाँव तो विश्व हो सकता है - बल्कि अधिकांश लोगों के लिए है भी। यह तथाकथित विश्व गाँव उनके लिए हैं जिन्हें अपना देश पर्याप्त नहीं लगता - वे दुनिया भर को चरना चाहते हैं। यह विश्व गाँव बड़े उद्योगपतियों, बड़े व्यापारियों, बड़े अफसरों, बड़े विद्वानों और बड़े एनजियों के लिए नहीं है। इसमें छोटे की समाई नहीं है।
लेकिन मजदूर भी तो विदेश जाते रहते हैं। भारत के कर्मचारी दुनिया के लगभग हर देश में मिल जाएँगे।
जैसे उद्योगपतियों का कोई देश नहीं होता, वैसे ही मजदूरों का भी कोई देश नहीं होता। लेकिन मजदूरों के लिए कोई विश्व गाँव नहीं बन पाया है। पूँजीपति एक से अधिक देशों में पैसा लगा सकता है, अपना माल बेच सकता है, पर बेचारा मजदूर तो रोजगार की तलाश में जिस देश में जाता है, वहीं का हो कर रह जाता है। हाँ, एक अर्थ में पूरे विश्व को अपनी जमींदारी में बदलने की कोशिश बहुत पहले से होती रही है।
मतलब ?
संस्कृत में कहा गया है, वीर भोग्या वसुंधरा।। ग्रीस का सिकंदर सारी दुनिया को फतह करने निकला था। भारत के चक्रवर्ती सम्राट पूरी पृथ्वी पर शासन करना चाहते थे। यह और बात है कि उनके लिए विश्व का मतलब था एशिया का एक छोटा-सा हिस्सा। ग्रेट ब्रिटेन की आकांक्षा थी कि बाकी सभी देश उसके उपनिवेश बन जाएँ। साम्यवादी सत्ताएँ भी यही चाहती थीं। लेकिन किसी के लिए भी यह संभव साबित नहीं हुआ। दरअसल, यह किसी के लिए संभव है भी नहीं। आज अमेरिका वही लक्ष्य दूसरे तरीकों से हासिल करना चाहता है। वह सारी दुनिया को अपने बस में करना चाहता है। पर उसकी यह आकांक्षा पूरी नहीं हो रही है। उसे जगह-जगह कुंठित होना पड़ रहा है।
राजनीतिक स्तर पर न सही, आर्थिक स्तर पर तो दुनिया एक हो ही चुकी है।
न हुई है, न होगी। जिसे विद्वान लोग विश्व का आर्थिक एकीकरण बता रहे हैं, वह असल में आर्थिक दृष्टि से सफल लोगों की एकता है। कंपनियाँ बहुराष्ट्रीय हो गई हैं। इसका एक ही मतलब है कि पूँजी को विश्व स्तर पर खेलने की छूट मिल गई है। पहले ऐसा नहीं था। हर देश विदेशी पूँजी पर नियंत्रण रखता था। एक जमाने में ब्रिटेन ने संसद में कानून पास कर भारत से आनेवाली कई चीजों के आयात पर अंकुश लगा दिया था। इसे एक तरह का आर्थिक राष्ट्रवाद कहा जा सकता है। इसका नेतृत्व एलिट वर्ग करता था। अब इस एलिट वर्ग में राष्ट्रीयता की भावना समाप्त हो चुकी है, क्योंकि उसे विश्व भर में अपनी उन्नति के अवसर दिखाई पड़ रहे हैं। लेकिन किसी भी देश की बहुसंख्यक जनता तो अभी भी राष्ट्रीय चौहद्दियों के भीतर सीमित है। मेरा अनुमान है, भारत में आधे से ज्यादा लोग ऐसे होंगे जिन्होंने अपने जिले के बाहर की दुनिया देखी ही नहीं है।
मुझे ही लीजिए, अभी तक मैं भारत से बाहर नहीं जा पाई हूँ।
तुम भी एलिट वर्ग की सदस्य हो। आज नहीं तो कल भारत के बाहर चली ही जाओगी। पर बस कहीं भी नहीं पाओगी। किसी पराए देश में जिंदगी बिताना आसान नहीं है। मजेदार तो बिलकुल नहीं है। यह वही कर सकते हैं जिन्हें पैसे की असीमित भूख है।
लेकिन देश के भीतर तो लोग एक स्थान से निकल कर दूसरे स्थानों पर बस ही रहे हैं। देख नहीं रहे हैं, हमारे शहर कितने विशाल होते जा रहे हैं। मुझे दसेक साल पहले की दिल्ली याद है। तब वहाँ भीड़-भाड़ बिलकुल नहीं थी। आज दिल्ली में साँस लेना भी दूभर हो गया है। इतने लोग, इतने मकान, इतनी गाड़ियाँ, इतना प्रदूषण। इसी तरह मुंबई, कलकत्ता, बेंगलोर, हैदराबाद ...
सुनंदा, इस समय भारत में दो तरह की आबादियों का स्थानांतरण हो रहा है। एक, जिन्हें बड़ी सफलताएँ चाहिए। दूसरे, जिन्हें मामूली सफलताएँ चाहिए। पहले वर्ग के लोग ज्यादातर अन्य छोटे या बड़े शहरों या कस्बों से आते हैं। दूसरे वे जो गाँवों से विस्थापित हो कर शहर आ रहे हैं। दोनों को बेहतर जीवन चाहिए। एक अपनी डिग्री और कार्य कुशलता ले कर शहर आता है, दूसरा अपनी गरीबी ले कर। इसलिए शहरों में तो समाज होता ही नहीं है। न शहरी लोगों में सामाजिकता होती है। शहरीकरण सामाजिकता का सबसे बड़ा दुश्मन है।
यानी सामाजिकता नाम की चीज संभव ही नहीं है -- किसी भी स्तर पर, किसी भी पैमाने पर। शायद आप यही कहना चाहते हैं।
मुझे गलत समझने की कोशिश मत करो। मैंने कहा न, जब समाज बन ही जाता है, तब थोड़ी-सी सामाजिकता आ ही जाती है। पर इस थोड़ेसेपन से काम नहीं चलता। आज सुबह तुमने जिस युवती को फटेहाल और उपेक्षित स्थिति में देखा, वह बड़े समाज में ही संभव है, छोटे समुदाय में नहीं। किसी भी समुदाय में ऐसी स्थितियाँ पैदा होना बिलकुल असंभव है। कोई न कोई उसकी मदद करने आ ही जाएगा। तुमने प्रेमचंद की कहानी 'कफन' पढ़ी होगी। घीसू-माधव कोई काम नहीं करते, पर बुधिया की लाश के लिए कफन का इंतजाम हो ही जाता है। क्योंकि गाँव एक समुदाय है। पर आज का गाँव सच्चा समुदाय नहीं है - जाति और वर्ग के आधार पर बँटा हुआ समुदाय है। इसलिए उसकी अपनी समस्याएँ भी हैं।
तो आपका कहना यह है कि हमें आदिम साम्यवाद की ओर लौट जाना चाहिए
मैं मूर्ख हो सकता हूँ, पर इतना बड़ा मूर्ख नहीं जितना तुम्हारी इस बात से प्रगट होता है। मार्क्स ने भी आदिम साम्यवाद की ओर लौटने की वकालत नहीं की थी। वे एक आधुनिक साम्यवाद को मानव जाति के भविष्य के रूप में देखते थे। जब राज्यविहीन समाज होगा, तो वह छोटे-छोटे समुदायों में बँटा समाज ही हो सकता है। नहीं तो अराजकता फैल जाएगी। इन समुदायों में अभाव नहीं होगा, तो समृद्धि भी नहीं होगी। मनुष्य की सारी जरूरतें पूरी होंगी, पर कोई लालची नहीं होगा। असल में, जरूरत का अर्थशास्त्र आते ही लालच का अर्थशास्त्र खुद-ब-खुद खत्म हो जाता है।
तो चलिए न, कहीं चल कर ऐसा कोई समुदाय बसाया जाए। मुझे तो बहुत मजा आएगा।
सॉरी, वेरी सॉरी। मैं इस परियोजना के लिए उपलब्ध नहीं हूँ। मेरी समझ से, वर्तमान स्थिति में यह एक असंभव असंभावना है। कुछ लोगों ने यह कोशिश की है। उन्होंने अपने छोटे-छोटे समुदाय बनाए हैं, जिन्हें कम्यून कहा जाता है। वे एक के बाद एक बने और नष्ट हो गए। कुछ अभी भी चल रहे हैं। उनका भी कोई भविष्य दिखाई नहीं देता।
इसका कारण क्या है ?
कारण यह है कि कोई भी समुदाय तभी टिकाऊ हो सकता है, जब उसका अपना मुकम्मिल अर्थशास्त्र हो। उसे बाहर से कम से कम चीजें लेनी पड़े। आधुनिक जगत में इस तरह का कम्यून बनाना हँसी-खेल नहीं है। इसीलिए ये कम्यून चल नहीं पाए। दरअसल, जब तक मानवता का एक बड़ा हिस्सा इस प्रणाली को नहीं अपनाता, तब तक छोटे पैमाने पर यह प्रयोग नहीं किया जा सकता। भारत ऐसा कर सकता था। महात्मा गांधी यही चाहते थे। पर उनकी सुनी नहीं गई। लेकिन दुनिया का कोई भविष्य है, तो रिहायश की छोटी-छोटी इकाइयों में ही है। राक्षस के आकार की व्यवस्थाएँ बहुत दिनों तक नहीं चल सकतीं। वे अपने ही बोझ से चरमरा जाएँगी।
तो ऐसा कब होगा ?
कहना तो यही चाहता हूं कि चंद रोज और मेरी जान, फकत चंद ही रोज, पर हिम्मत नहीं होती। ऐसा कहने की हिम्मत शायद अगली पीढ़ी में साहस आए।
दोपहर हो आई थी। मुझे लगा, अब उठना चाहिए। हमने अभी तक खाना भी नहीं खाया था। मैं जानती थी, खाना खाने के लिए तैयार होने में सुमित को कुछ समय लगेगा। मुझे भी पहले अपने कमरे में जाना था।
जब मैं चलने के लिए उठी, तो अचानक क्या हुआ कि मैं सुमित के पास गई और उसका ललाट चूम लिया। सुमित ने जवाब में चुंबनों की बरसात कर दी। फिर हम दोनों कब एक साथ उठे, कब एक-दूसरे से हाथ मिलाया और कब एक-दूसरे से जुदा हुए, इसका मुझे होश नहीं है।