सुनंदा की डायरी / परिवार / राजकिशोर
'सुमित, आप अपने परिवार के बारे में नहीं बताएँगे?' अपने को बहुत रोकते-रोकते उस दिन शाम को मैंने पूछ ही लिया।
सुमित ने बहुत ही सरसरी ढंग से कहा, 'मेरा कोई परिवार नहीं है। उस अर्थ में, जिस अर्थ में तुम जानना चाहती हो।'
'फिर भी माता-पिता... भाई-बहन...?'
सुमित के चेहरे पर मुसकराहट आ गई, 'बेशक मैं आसमान से नहीं उतरा हूँ।'
मैंने कुछ कोमलता से कहा, 'तो बताइए न ! जानने की मुझे बहुत उत्सुकता है।'
क्या करोगी जान कर?
अचार डालूँगी। आप बताइए तो।
मेरे पिता जी मेरे बचपन में ही मर गए थे। पर वे काफी संपत्ति छोड़ गए थे। मैं माँ-बाप की अकेली संतान था। जिस दिन मेरा ग्रेजुएशन का रिजल्ट आया, उसी दिन माँ चल बसी। अब मैं एकदम अकेला था। संपत्ति की देखभाल करना मेरे लिए संभव नहीं था। वह मुझ पर एक नैतिक बोझ भी थी। इसलिए सब बेच-बाच कर जो पैसा मिला, उसका एक ट्रस्ट बना दिया। ट्रस्ट एक स्कूल और एक अस्पताल चलाता है। उसने एक बड़ा-सा रैनबसेरा भी बनाया है। वहाँ दिन में या रात को कोई भी जा कर बैठ या लेट सकता है। उसके साथ दो ट्वायलेट भी हैं। बस यही मेरा छोटा-सा पारिवारिक इतिहास है।
तो आपको कभी परिवार की कमी नहीं खलती ?
असल में, परिवार की परिभाषा मैंने बदल ली है। खून के रिश्ते पर आधारित मेरा कोई परिवार नहीं है। मैं इसे आदर्श या अच्छा भी नहीं मानता। मेरा परिवार मित्रों से बना है। हम एक-दूसरे को चाहते हैं और एक-दूसरे का साथ देते हैं। यह जरूर खलता है कि मेरे सभी दोस्त देश भर में इधर-उधर बिखरे हुए हैं। एक समय में एक ही के साथ रह सकता हूँ। सो देश भर का दौरा करता रहता हूँ। हर साल हम किसी खास जगह पर जमा होते हैं और मौज करते हैं।
आप लोगों का आखिरी कुंभ कहाँ हुआ था ?
दो-ढाई साल पहले हम पचमढ़ी में मिले थे। बरसात के महीने में। खूब मजा आया था। हम सभी को अपूर्व पारिवारिक सुख मिलता है। हो सकता है, कुछ दिन बाद तुम भी इस परिवार में शामिल हो जाओ।
जरूर। आप मेरा आवेदन पत्र अभी से अपने पास रख लीजिए।
इतना आसान नहीं है, सुनंदा रानी, हमारे परिवार का सदस्य बनना। हम आवेदन पत्र नहीं लेते, निमंत्रण देते हैं।
आपके इस परिवार में महिलाएँ भी हैं न !
जो इस तरह के सवाल पूछता है, उसकी सदस्यता पर हम विचार तक नहीं करते।
अरे नहीं, मैं तो वैसे ही पूछ रही थी।
हाँ, हैं, दो महिलाएँ हैं। लेकिन यह तुम्हारे लिए कोई आश्वासन नहीं है। हममें से हरएक का जीने का तरीका अलग-अलग है।
सुरक्षा से मैं भी बहुत ऊब चुकी हूँ। अब मैं खुले में जीना चाहती हूँ। इसके लिए कोई भी जोखिम उठाने के लिए तैयार हूँ।
इतने बड़े फैसले इतनी तेजी से नहीं किए जाते। आगे तुम्हारे पास बहुत समय है।
मैंने जितने फैसले झटके से लिए हैं, वे सभी अच्छे साबित हुए हैं और जो एक फैसला खूब सोच-समझ कर किया, वही गलत निकला।
वह एक फैसला क्या था, बताना चाहो तो बताओ, वरना कोई बात नहीं।
कोई खास बात नहीं थी। मैंने अपने एक कई वर्ष पुराने दोस्त से शादी कर ली थी। यह फैसला मैंने खूब सोच-समझ कर लिया था। हम दोनों कई महीने इस पर विचार-विमर्श करते रहे। लेकिन शादी के छह महीने के भीतर ही हमें अलग होना पड़ा। किसी ने ठीक ही कहा है, पति दोस्त नहीं हो सकता।
लेकिन वह पहले तो दोस्त ही था।
हाँ था, पर शादी के पहले तक। शादी के दो-तीन महीने बाद तक भी उसने दोस्ती मुझे निबाही। उसके बाद वह पति बनता चला गया। पत्नी का जीवन मुझे मंजूर नहीं था। अच्छा हुआ कि हम जल्द ही अलग हो गए। नहीं तो आगे तनाव ही तनाव ही था। उनसे लड़ना-झगड़ना सबसे ज्यादा कष्टकर होता है, जो हमारे सबसे करीब होते हैं। जैसे हम अपनी ही चमड़ी को चाकू से छील रहे हों।
ओह ! मुझे अनुमान नहीं था कि तुम्हारे भीतर इतना दर्द जमा है। सॉरी।
सुमित, सॉरी किस बात के लिए ? इस सबसे मैं बहुत पहले ही उबर चुकी हूँ। यह तो मैंने प्रसंगवश कह डाला, वरना मुझे तो यह सब अब याद भी नहीं रहता। वैसे भी, मेरे साथ कुछ नया नहीं गुजरा। सौ में निन्यानबे मामलों में यही होता है। जहाँ स्त्री अपने को नंबर दो मान लेती है, वहीं शांति बची रहती है।
तुमने सुना ही होगा कि जिसे शांति काल कहते हैं, वह दो युद्धों के बीच की अवधि का नाम है।
अच्छा यह बताइए कि जिसे जैविक परिवार कहते हैं, आप उसका विरोध क्यों करते हैं ?
क्योंकि परिवार व्यक्ति और समाज के विकास में बाधक है।
अजीब हैं आप। यह बात मैं पहली बार सुन रहा हूँ।
घबराओ मत। अभी तुम्हें बहुत-सी बातें पहली बार सुननी हैं।
लेकिन परिवार को तो समाज की बुनियाद और आदमी की पहली पाठशाला माना जाता है। क्या आप सचमुच मानते हैं कि परिवार सामाजिक विकास में बाधक है ?
वर्तमान परिस्थिति में इस बात को नहीं समझा जा सकता। परिवार हमारे समाज की एक बुनियादी इकाई है। सभ्यता की शुरुआत से ही ऐसा रहा है और आज भी दुनिया के अधिकतर हिस्सों में ऐसा ही है। इसलिए जब मैं परिवार को समाज-विरोधी संस्था कहता हूँ, तो इसे समझने में किसी को भी कठिनाई होगी। यह स्वाभाविक ही है। परिवार के बिना समाज की कल्पना कर पाना आसान नहीं है।
यह बात पूरी तरह सही नहीं लगती, क्योंकि पश्चिमी देशों में परिवार लगभग विघटित हो चुका है। पहले संयुक्त परिवार गया, फिर एकल परिवार भी टूटने लगा। अब तो विवाह संस्था पर भी गंभीर खतरा मँडरा रहा है। युवा लोगों की बहुत बड़ी आबादी बिना विवाह किए एक ही छत के नीचे रह रही है। उनके बच्चे भी हो रहे हैं। बल्कि भारत के महानगरों में भी यह चलन शुरू हो गया है। बहुत-से युवक और युवतियाँ सिंगल रहना चुन रहे हैं। वे किसी स्थायी बंधन में बँधना नहीं चाहते।
तुम तो मेरा ही समर्थन कर रही हो। पहले मैं भी यही सोचता था कि परिवार का कोई विकल्प नहीं है। लेकिन अब लगता है, जब तक परिवार बचा हुआ है, न पूँजीवाद खत्म हो सकता है न समाजवाद आ सकता है। दरअसल, जब तक समाजवाद नहीं आता, मानव समाज की कोई भी समस्या हल नहीं हो सकती। भारत अपनी समस्याओं को हल नहीं कर पा रहा है तो इसीलिए कि उसने विकास का पूँजीवादी रास्ता चुना है।
क्यों, परिवार के विघटन से पूँजीवाद का क्या संबंध है ?
बहुत गहरा संबंध है। जैसे सामंतवाद में पिता के मरने के बाद उसकी संपत्ति पुत्र की हो जाती थी, वैसे ही पूँजीवाद में पिता की सारी संपत्ति बेटे-बेटियों में बँट जाती है। जरा सोचो, एक आदमी ने भारी मेहनत कर, तमाम तरह के छल-कपट कर, मजदूरों का लगातार शोषण कर पैसा कमाया और उसकी मौत के बाद उसके लड़के इस पैसे के मालिक बन बैठे। यह कहाँ का न्याय है? एक लड़के के करियर की शुरुआत पिता की पूँजी से होती है और दूसरा लड़का, जिसका पिता गरीब था और अपने पीछे कुछ भी छोड़ कर नहीं जा पाया, खाली मुट्ठी से अपने करियर की शुरुआत करता है। जिस समाज में जन्म से ही इतनी विषमता हो, वह प्रगति कैसे कर सकता है? उसमें समानता कहाँ से आएगी?
एक और बात है। ज्यादातर लोग इसीलिए कमाने में अपने आपको झोंक देते हैं क्योंकि वे अपनी संतान को प्यार करते हैं और उसका जीवन आसान बनाना चाहते हैं। अगर उत्तराधिकार का वर्तमान कानून खत्म कर दिया जाए और यह नियम बना दिया जाए कि किसी के मरने के बाद उसकी सारी संपत्ति राज्य के पास चली जाएगी, तो हो सकता है, धन-संपत्ति जमा करने की वह ललक ही समाप्त हो जाए जो आज चारों तरफ दिखाई पड़ती है।
एकदम ठीक। संपत्ति का मोह दरअसल परिवार के मोह से ही शुरू होता है। पूँजीवाद के पैरवीकार 'लेवेल प्लेइंग फील्ड' की बात करते हैं। इसका मतलब यह है कि किसी को विशेष अवसर नहीं मिलना चाहिए, सभी समान परिस्थितियों में एक-दूसरे से प्रतिद्वंद्विता करें। लेकिन यह बहुत बड़ा ढोंग है। जब तक उत्तराधिकार का वर्तमान कानून बना हुआ है, तब तक अमीर की संतान और गरीब की संतान को 'लेवेल प्लेइंग फील्ड' मिल ही नहीं सकता। एक नौकरी पर रखेगा और दूसरा नौकरी करेगा। इससे बेतुकी बात और क्या हो सकती है?
तब तो आपको खुश होना चाहिए कि दुनिया के विकसित देशों में परिवार के दिन गिने-चुने लगते हैं। परिवार खत्म हो जाएगा, तो पूँजीवाद का भी अंत हो जाएगा। इसी बात पर एक-एक पेग हो जाए।
मेरे लिए यह खुशी की नहीं, अफसोस की बात है।
क्यों, आखिर क्यों ? आप जो चाहते हैं, वही तो हो रहा है।
तुम मुझे गलत समझ रही हो। बल्कि एकदम उलटा समझ रही हो। एक तो परिवार पूँजीपतियों के कुनबों में खत्म नहीं हो रहा है। वहाँ यह और मजबूत हो रहा है। परिवार खत्म हो रहा है मध्य वर्ग में, मजदूर वर्ग में । ज्यादातर लोग इन्हीं दो वर्गों के सदस्य हैं। यहाँ परिवार को मजबूत होना चाहिए, ताकि किसी को अकेलापन महसूस न हो और विपत्ति के समय परिवार के लोग एक-दूसरे की मदद कर सकें। इस समय की सबसे बड़ी समस्या इन दोनों वर्गों के लोगों के जीवन में व्याप्त भयावह अकेलापन है। परिवार से निकल आने के बाद लोग असामाजिक हो रहे हैं। वे खुद को किसी और के प्रति नहीं, सिर्फ अपने प्रति जिम्मेदार समझते हैं। उनकी खुशी भी सिर्फ उनकी है, उनके गम भी सिर्फ उनके हैं। वो फिल्मी गाना है न - हम किसी के न रहे, कोई हमारा न रहा । जरा सोचो, अपने-अपने अकेलों का समाज कैसा होगा? यह तो अपनी जड़ों से पूरी तरह कट जाना है। प्रकृति ऐसा नहीं चाहती। वह तो सबको जोड़ कर रखना चाहती है। इसलिए इस प्रकार का जीवन पूरी तरह अप्राकृतिक है।
लेकिन आप प्राकृतिक होने पर इतना जोर क्यों दे रहे हैं ? मनुष्य सांस्कृतिक प्राणी भी तो है। कह सकते हैं, इस तरह एक नई संस्कृति की रचना हो रही है। हो सकता है, भविष्य में इसके परिणाम अच्छे निकलें। अभी तो संक्रमण काल है। संक्रमण काल हमेशा पीड़ादायक होता है। इसलिए क्या हमें इस पीड़ा का स्वागत नहीं करना चाहिए ?
अगर यह पीड़ा रचनात्मक होती, तो इसके साथ एक तरह की खुशी भी जुड़ी हुई होती। प्रसव के समय माँ को भयंकर पीड़ा होती है, लेकिन वह इस पीड़ा को खुशी-खुशी सहती है, क्योंकि वह जानती है कि वह एक नए जीव को जन्म दे रही है। रचना की पीड़ा और रचना का आनंद, दोनों जुड़वा बहनें हैं। आज जो स्थितियाँ बन रही हैं, उनमें पीड़ा ही पीड़ा दिखाई देती है, आनंद का कहीं नाम-निशान नहीं है। सुनंदा, यह सृजन नहीं, संहार है।
चलिए, पूँजीवाद जब खत्म होगा, तब होगा। अभी तो इसके जाने के आसार नहीं दिखाई दे रहे हैं। यह बताइए कि परिवार से आपको कोई और भी समस्या है ?
समस्या ही समस्या है। लेकिन मूल समस्या वही है जिसकी चर्चा हमने अभी-अभी की है। यानी मनुष्य की प्रेम करने की क्षमता को एक बहुत सीमित दायरे में बाँध देना। परिवार का मतलब है मैं, मेरे माता-पिता, मेरी पत्नी और मेरे बच्चे। शहरों के मध्य वर्ग में अब तो माता-पिता के लिए भी जगह नहीं रही। एकल परिवार की भावना मनुष्य को असामाजिक बनाती है। जो परिवार का हो गया, वह समाज के काबिल नहीं रह जाता। कुल मिला कर परिवार समाज के विरुद्ध एक षड्यंत्र है। पहले परिवार बनाम परिवार, फिर परिवार बनाम समाज। व्यक्ति और समाज के बीच दीवारें नहीं होनी चाहिए। पूँजीवादी देशों में परिवार का जिस तरह विघटन हो रहा है, उसके कारण मामला व्यक्ति बनाम समाज का होता जा रहा है। यह तो और भी बुरा है, क्योंकि व्यक्ति के स्नेह का दायरा और सिमट कर उसके अपने तक सीमित हो रहा है। पारिवारिक व्यक्ति को फिर भी समाज की कुछ चिंता रहती है, क्योंकि पारिवारिक मूल्यों को सामाजिक मूल्यों से पोषण मिलता है। अकेला आदमी सामाजिक अनुशासन के दायरे से बाहर निकल आता है। सुख-दुख की उसकी परिभाषा स्व-केंद्रित हो जाती है।
तब तो यह भी कह सकते हैं कि परिवार इसलिए खराब है, क्योंकि उसके ढाँचे में लोकतंत्र नहीं है।
कह सकते हैं नहीं, कहना ही होगा। जिस संस्था में भी लोकतंत्र के लिए गुंजाइश नहीं है, उसका कोई भविष्य नहीं है। परिवार इसलिए कमजोर हो रहा है, क्योंकि उसके ढाँचे को लोकतांत्रिक नहीं बनाया जा सका। लेकिन आज जिस तरह परिवार खत्म हो रहा है, उससे व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिल रहा है। इसके केंद्र में लोक नहीं है, व्यक्ति है।
तो परिवार को किस तरह समाप्त करना वाजिब होगा ?
सभ्यता को अगर सचमुच आगे ले जाना है, तो उसे पीछे ले जाना होगा।
यानी ?
यानी यह कि सभ्यता के सफर में जिन विकृतियों ने हमें अपनी गिरफ्त में ले लिया है, उन्हें अलविदा कह कर। मसलन, जो सभ्यता दुनिया भर में विकसित हुई है, उसका आधार निजी संपत्ति है। निजी संपत्ति को खत्म कर हमें सामुदायिक संपत्ति की ओर जाना होगा। बच्चे भी परिवार के नहीं, समुदाय के होंगे। जन्म के कुछ समय बाद ही बच्चों को सामुदायिक पालन-पोषण के हवाले कर दिया जाएगा।
और माता-पिता ?
बच्चा जब समुदाय के हवाले कर दिया जाएगा, तब माता-पिता भी अलोप हो जाएँगे। कोई माता-पिता नहीं जान पाएँगे कि उनका अपना बच्चा कौन है। इसलिए सभी स्त्रियाँ और सभी पुरुष सभी बच्चों को प्यार कर पाएँगे।
ग्रीक दार्शनिक प्लेटो भी कुछ ऐसा ही कहता था। क्या आप प्लेटो की योजना का समर्थन कर रहे हैं ?
जी नहीं, मैं प्लेटो की योजना का समर्थन नहीं कर रहा हूँ। प्लेटो की विचारधारा नस्लवाद पर आधारित है। जैसे ब्रीडिंग के द्वारा अच्छी नस्ल के घोड़े और कुत्ते पैदा किए जाते हैं, वैसे ही वह चाहता था कि बलिष्ठ और सुंदर स्त्री-पुरुष ही एक-दूसरे से समागम करें, ताकि मजबूत और खूबसूरत बच्चे पैदा हों। बाकी लोगों को बच्चे पैदा करने से रोक दिया जाए। मुझे यह विचार मंजूर नहीं है। मेरी नजर में, हर आदमी बराबर है। स्त्री-पुरुष के प्रत्येक जोड़े को समागम और बच्चा पैदा करने का जन्मसिद्ध अधिकार है।
और विवाह ?
तुम तो इस तरह पूछ रही हो, जैसे भगवती चरण वर्मा के उपन्यास 'चित्रलेखा' में श्वेतांक अपने गुरु आचार्य रत्नांबर से पूछता है - 'और पाप?'
हम दोनों ठठा कर हँस पड़े। मैंने आँखें नचा कर कहा, इसका मतलब यह है कि आप जंगली सभ्यता के, अगर उसे सभ्यता कहा जा सकता है, समर्थक हैं।
सुनंदा, तुम मुझे फिर गलत समझ रही हो। मैं जिस सभ्यता का स्वप्न देख रहा हूँ, वह एक अत्यंत विकसित सभ्यता होगी। जंगलवाली पुरानी सभ्यता में भौतिक अभाव तथा आत्मिक अविकास था। वह प्रकृति पर बहुत ज्यादा अवलंबित थी। इसलिए मनुष्य की स्वतंत्रता भी बहुत सीमित थी। प्रकृति ही उसकी सीमा थी, इसलिए वह संस्कृति का तेजी से विकास नहीं कर सकता था। बाद में संस्कृति ने इतना भयावह रूप ले लिया कि प्राकृतिक संबंध नष्ट होने लगे। नई सभ्यता के केंद्र छोटे-छोटे समुदाय होंगे, लेकिन वे भौतिक अभाव से मुक्त होंगे। वह ज्ञान और प्रेम पर आधारित एक आधुनिक सभ्यता होगी।
फिलहाल तो यह एक स्वप्न ही है - एक यूटोपिया !
सुनंदा, हर सुंदर चीज यूटोपिया ही होती है, जैसे संस्कृति, जैसे लोकतंत्र, जैसे समाजवाद। मैं तो कहूँगा, प्रेम भी। इससे इनका महत्व कम नहीं हो जाता, बल्कि और बढ़ जाता है। हर चलनेवाले को अपनी मंजिल का कुछ आभास होना चाहिए, नहीं तो वह सही दिशा में चल नहीं पाएगा। यह यूटोपिया ही है जो अँधेरे समुद्र में प्रकाश स्तंभ की तरह बताता है कि रास्ता इधर से है।
ऐसा कहते समय सुमित के चेहरा नूर से जगमगा रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे मेरे सामने कोई आदमी नहीं, प्रकाश का एक लंबोतरा बिंब झिलमिला रहा था। मैं सुमित की ओर एकटक देखती रह गई