सुनंदा की डायरी / विवाह / राजकिशोर

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आज गेस्ट हाउस में किसी के विवाह का आयोजन था। पूरा मकान दुल्हन की तरह सजा हुआ था। हम दोनों को छोड़ कर बाकी सभी कमरे आयोजकों की ओर से बुक करा लिए गए थे। मेहमान शाम को आनेवाले थे, इसलिए ऐसा लग रहा था जैसे सजावट किसी का इंतजार कर रही हो। जैसे सजी-धजी नववधू सेज पर अकेली बैठी अपने पति की प्रतीक्षा करती है।

इस वातावरण में अचानक मुझे घुटन होने लगी। इसकी कोई साफ वजह मेरी समझ में नहीं आ रही थी। किसी की किसी से शादी हो रही है, इससे मुझे क्या ? या, गेस्ट हाउस की सजावट और वीरानगी का अनजोड़ सम्मिश्रण मुझे परेशान कर रहा था? खाना मैं जल्दी ही खा चुकी थी। कमरे मे बैठा नहीं जा रहा था। सो टहलते-टहलते ताल के किनारे चली गई और एक बेंच पर बैठ गई। साथ में कविताओं की एक किताब भी ले गई थी। लेकिन दो-चार कविताएँ पढ़ने के बाद मन उचट गया। बैठे-बैठे मैं ऊँघने लगी।

बंद आँखों के सामने एक स्वप्न चलने लगा। मेरे विवाह के दृश्य आ-जा रहे थे। रिसेप्शन की पार्टी बहुत ही शानदार थी। बेयरे खाने-पीने की चीजें ले कर मेहमानों के बीच घूम रहे थे। तभी किसी के हाथ से काँच के गिलासों की तश्तरी जमीन पर आ गिरी। तड़ाक्। अब हम गोवा में थे। हम सागर के किनारे बैठे हुए थे। हवा बहुत तेज थी। मलय, मेरा कई वर्षों का मित्र और अब पति, मेरे बाल सहला रहा था। वह उन्हें तरतीब में लाने की जितनी कोशिश करता, वे उतना ही उड़ते जाते। यह खेल मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। उसने मेरे बाल पहले भी सहलाए थे। पर आज कुछ खास बात थी। अचानक मैं उसका सिर अपने हाथों में ले लेती हूँ और उसके होंठों, गालों, पलकों, ललाट पर चुंबनों की बौछार करने लगती हूँ। हम दोनों हवा में उड़ने लगते हैं। हमारे सभी तरफ रूई के फाहों की तरह सफेद बादल टहल रहे हैं। कुछ देर तक बादलों में विचरने के बाद जब हम नीचे उतरते हैं, तो सीधे बेड रूम में जा गिरते हैं।

दृश्य बदलता है। शाम का समय है। मलय कहता है, चलो, थियेटर चलें। नाटक देखे बहुत दिन हो गए हैं। मैं बताती हूँ, मेरे सिर में तेज दर्द हो रहा है। मैं कहीं नहीं जा सकती। वह अकेले निकल जाता है। रात दस बजे के आसपास लौटता है। मैं बिस्तर पर लेटी हुई हूँ। सिर दर्द बढ़ गया है। मैं कहती हूँ, खाना बाहर से मँगा लो। ऐसी स्थितियों में पहले कई बार हम खाना पास के एक होटल से मँगा चुके थे। आज वह इनकार कर देता है। साफ है कि कुछ गुस्से में है। हम दोनों भूखे सो जाते हैं।

एक और दृश्य। सुबह उठती हूँ, तो कमरे में अपने आपको अकेला पाती हूँ। मलय रात को तो मेरे साथ ही सोया था। उसकी खोज में मैंने स्टडी, किचन, बाथरूम सब छान डाला, पर वह कहीं नहीं था। दरवाजे के पास गई। वह खुला हुआ था। अचानक आशंका हुई, उसके साथ कुछ हो तो नहीं गया? मसलन वह बाहर निकला हो और रास्ते में ...। लौटी तो बिस्तर पर बैठी-बैठी सोचने लगी। अब क्या करना चाहिए? क्या पुलिस को फोन किया जाए? या, शहर के अस्पतालों में पता लगाया जाए? तभी तकिए की ओर निगाह गई। उसके नीचे से कागज का एक पन्ना झाँक रहा था। मैंने बदहवासी में वह कागज खींच लिया। उस पर तीन-चार लाइनें जल्दबाजी में घसीटी हुई थीं - अब और नहीं सह सकता। हमारे रास्ते जुदा-जुदा हैं। अलविदा। मुझे खोजने की कोशिश बेकार है।

यह मेरे लिए जिंदगी का सबसे बड़ा शॉक था। मैं मूर्छित हो कर बिस्तर पर गिर गई।

तभी लगा, कोई मेरा सिर सहला रहा है। मुझे लगता है, मलय है। स्वप्न टूट जाता है। सामने सुमित था। उसे देख कर मुझे बहुत राहत मिलती है। मैं उसका हाथ पकड़ कर उसे अपने बगल में बैठा लेती हूँ। वह मुझे देर तक अपलक देखता रहता है। मुझे कुछ संकोच-सा होता है। मैं चलने का इशारा करती हूँ। हम दोनों उठ जाते हैं। एक-दूसरे का हाथ पकड़े टहलने लगते हैं।

क्या बात है ? आज आप बहुत संजीदा नजर आ रहे हैं !

गलत। संजीदा तो तुम लग रही हो। कुछ हो गया क्या?

नहीं, होना क्या है ? बस यों ही।


फिर भी?

अच्छा सुमित, यह बताओ, विवाह के बारे में तुम्हारी राय क्या है ?

विवाह ? वही, जो आम लोगों की राय है। यह दिल्ली का लड्डू है। जो खाए वह भी पछताए, जो न खाए वह भी पछताए।

मजाक छोड़िए। ठीक-ठीक बतलाइए।


मजाक क्यों छोड़ दूँ? विवाह मानव इतिहास का सबसे बड़ा मजाक है।

प्लीज, ठिठोली मत कीजिए। कभी-कभी आप बेहद गैर-संजीदा हो जाते हैं।


तभी तो मैं जी पा रहा हूँ। ज्यादा संजीदगी आदमी को मार डालती है। मर जाने की इच्छा अभी तक मेरे मन में पैदा नहीं हुई है।


लेकिन विवाह तो बहुत ही संजीदा मामला है। उसके बारे में आप इस तरह कैसे बात कर सकते हैं ?

यही तो बात है। एक सीधी-सादी चीज को इतना संजीदा बना दिया गया है कि उसका सारा रस समाप्त हो गया है। इस बारे में मुझे तुलसी की यह पंक्ति याद आती है -तुलसी गाय-बजाय के देत काठ में पाँव। तुलसी अगर कुछ और नहीं लिखते, सिर्फ यह पंक्ति लिखते और उसके साथ-साथ यह पंक्ति भी कि पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं, तब भी वे अमर हो जाते।

तो आप विवाह को बंधन मानते हैं ?


कुछ और मानने का उपाय ही कहाँ है? विवाह के निमंत्रण में लिखा भी जाता है - अमुक तारीख को इतने बजे राकेश और राका परिणय पाश में बँधने जा रहे हैं। पाश का अर्थ बंधन नहीं तो क्या होता है?


क्या कुछ बंधन ऐसे नहीं होते जो प्रिय लगते हैं ?

जैसे ?

जैसे माँ और संतान का बंधन।

माफ करना, मानव समाज में ही यह अप्राकृतिक बंधन देखा जाता है।

क्या कहते हैं आप ! दुनिया की नजर में तो यह सबसे ज्यादा प्राकृतिक बंधन है। माँ और बेटे के प्रेम को सबसे पवित्र माना जाता है।

पवित्र तो मंदिर को भी माना जाता है। क्या वहाँ वास्तव में किसी किस्म की पवित्रता होती है? देवता जैसी काल्पनिक चीज के इर्द-गिर्द जिस पवित्रता की आभा हम महसूस करते हैं, उसे कोई चाहे तो किसी वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में या लेखक की मेज के इर्द-गिर्द भी महसूस कर सकता है। मुझे तो इस 'पवित्र' शब्द पर ही आपत्ति है। इस दुनिया में जो कुछ है, वह सब पवित्र है। नहीं तो कुछ भी पवित्र नहीं है।

फिर भी माँ का प्रेम क्या एक अनोखी चीज नहीं है ? दुनिया भर में इसका कोई जोड़ दिखाई नहीं देता।


इसीलिए तो इस पर शक होता है। अपनी संतान से सभी को लगाव होता है। लेकिन मानव जाति में यह लगाव सीमा से बहुत ज्यादा है। इसके पीछे स्वामित्व की इच्छा है। भले ही संतान से किसी प्रकार की भौतिक अपेक्षा न हो, लेकिन उसके प्रति अप्रत्यक्ष किस्म की अधिकार भावना तो होती है। यह मेरे पेट से निकला है, इसलिए मेरा है। और इसलिए इसे वह सब कुछ करना होगा जो मैं चाहती हूँ। इस तरह प्रत्येक माँ अपनी संतान पर अपनी मान्यताओं और विश्वासों को थोपना चाहती है। जब उसकी संतान कोई ऐसा फैसला लेती है जो माँ को पसंद नहीं है, तो दोनों के रिश्तों में खटास आ जाती है। यह उस नवजात शिशु के प्रति अन्याय है जो एक अपरिचित दुनिया में, अपनी इच्छा के विरुद्ध, दाखिल हुआ है और जिसे सब कुछ देखना और समझना है ताकि वह तय कर सके कि उसे किस तरह जिंदगी बितानी है। माँ-बाप का बंधन इसे लगभग असंभव बना देता है।

तो आपकी राय में बच्चों को सांस्कृतिक दृष्टि से शून्य बना कर रखना चाहिए ? तब तो वे कभी कुछ सीख नहीं पाएँगे।


मेरा मतलब यह नहीं है। संस्कृति का हस्तांतरण नहीं होगा, तो हर पीढ़ी को सब कुछ नए सिरे से सीखना होगा। इस तरह मनुष्य की लाखों वर्षों की कमाई बेकार चली जाएगी। लेकिन सच्ची माँ वह होगी जो अपनी मान्यताएँ अपनी संतान पर थोपना नहीं चाहेगी। वह उसे सब कुछ सिखाएगी, लेकिन सबसे पहले उसके भीतर वह तर्क भावना पैदा करने की कोशिश करेगी जिससे आदमी सही और गलत, आवश्यक और अनावश्यक तथा जिसकी चाहना करनी चाहिए और जिसकी चाहना नहीं करनी चाहिए, इसके बीच तमीज करना सीखता है। माँ अपने प्रेम में अकसर अपनी इस बुनियादी जिम्मेदारी को भूल जाती है।

लगता है, हम विषय से भटक रहे हैं। हम विवाह पर बातचीत कर रहे थे।


सुनंदा, मातृत्व का विवाह से गहरा रिश्ता है। विवाह हर रिश्ते को प्रभावित करता है। अगर वह स्त्री को गुलाम बनाता है या उसे किसी भी रूप में प्रतिबंधित करता है, तो जाहिर है वह स्त्री को स्वतंत्र व्यक्ति नहीं रहने देता। दरअसल, स्त्री को प्रतिबंधित कर पुरुष भी अपने लिए तरह-तरह की समस्याएँ पैदा कर लेता है। इस तरह, विवाह दोनों के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। इसका असर उनके बच्चों पर पड़ता है, तो इसमें अचरज की बात क्या है ?

आपका मतलब शायद यह है कि विवाह के भीतर चूँकि स्त्री पराधीन हो जाती है या उसकी हैसियत दोयम दर्जे की हो जाती है, इसलिए अपनी संतुष्टि के लिए या अपने व्यक्तित्व का विस्तार करने के लिए वह अपना सारा जोर अपने बच्चों पर डाल देती है। लेकिन बच्चा जैसे ही बड़ा होने लगता है, पिता उसका अपहरण कर लेता है। चूँकि परिवार के भीतर और परिवार के बाहर भी सत्ता पुरुष के ही हाथ में होती है, इसलिए बच्चा अपने पिता को रोल मॉडल के रूप में स्वीकार करने लगता है। इस तरह, एक बार फिर, स्त्री अपने स्वत्व से वंचित हो जाती है। यही बच्चे के प्रति माँ के असीम प्रेम के रूप में व्यक्त होता है। यह प्रेम हमेशा अतृप्त रह जाता है, इसलिए दिन-प्रतिदिन गहरा भी होता जाता है। आपकी यह बात विचारणीय लगती है।


बड़ी कृपा है आपकी।

धत्, मजाक करने की आपकी आदत कभी नहीं जाएगी।


दरअसल, मुझे लगता है कि विवाह दुनिया का सबसे बड़ा मजाक है। इसने पूरी सभ्यता को प्रदूषित कर दिया है। जब तक विवाह है, समाज का कोई भी हिस्सा स्वस्थ नहीं हो सकता। यह निजी संपत्ति का ही एक रूप है। निजी संपत्ति आदमी के नजरिए को संकीर्ण बना देती है। वह स्व-बद्ध हो जाता है और समाज की सभी संस्थाओं को इसी आधार पर बनाना चाहता है। विवाह इसी नजरिए का प्रतिबिंब है।


लेकिन सुमित, सोवियत संघ में तो निजी संपत्ति को समाप्त कर दिया गया था। फिर भी वहाँ विवाह संस्था बनी रही। बल्कि सरकार द्वारा उसे और मजबूत किया गया।


इसीलिए तो सोवियत सिस्टम नहीं चल पाया। जब किसी क्रांति को अवरुद्ध करने का प्रयास किया जाता है, तो उसमें विकृतियाँ आने लगती हैं। सोवियत संघ के शासक हमेशा डरे रहते थे। यह डर अमेरिका या अन्य पूँजीवादी देशों से कम, अपनी जनता से ज्यादा था। इसीलिए उन्होंने सोवियत समाज की स्वतंत्रता का विस्तार नहीं किया, बल्कि उसे सीमित किया। विवाह की समाप्ति से सोवियत संघ के स्त्री-पुरुष स्वतंत्रता के फल को चखते और स्वतंत्रता के उस वातावरण में पलने वाले बच्चे भी स्वतंत्र और निर्भीक होते। इससे वास्तव में एक नया समाज बनता। इस समाज में सत्ता का केंद्रीकरण हो ही नहीं सकता था। सोवियत संघ के शासकों को यह बात मंजूर नहीं थी। इसलिए उन्होंने परिवार के ढाँचे को बदलने की कोई कोशिश नहीं की। वहाँ की व्यवस्था पहले की तरह पुरुष-प्रधान बनी रही। जिस व्यवस्था में आधी आबादी को उसकी मूल मानव स्वतंत्रताओं से वंचित रखने की कोशिश की जाती है, वह व्यवस्था ज्यादा दिनों तक टिक नहीं सकती। उसका नाश होना निश्चित है।


शायद तुम ठीक कह रहे हो। यही कारण है कि अमेरिका, यूरोप आदि देशों में विवाह संस्था को शक की निगाह से देखा जा रहा है। अखबारों में पढ़ती रहती हूँ कि वहाँ बिना शादी किए साथ रहने का चलन बढ़ रहा है। शादी करने की औसत उम्र भी बढ़ती जाती है। बिनव्याही माँ आम बात हो गई है। क्या पश्चिमी देशों में विवाह संस्था के दिन पूरे हो चुके हैं ?


हो सकता है। पूँजीवाद अपने ऊपर किसी तरह का बंधन स्वीकार करना नहीं चाहता। निरंकुश और उच्छृंखल होना उसके अस्तित्व की जरूरत है। इसलिए अचरज नहीं कि पूँजीवादी देशों के स्त्री-पुरुष व्यक्तिगत स्वतंत्रता को इस हद तक ले जा रहे हैं जहाँ एक-दूसरे के प्रति न तो किसी तरह की प्रतिबद्धता रह जाती है, न किसी तरह की जिम्मेदारी। इससे विवाह संस्था टूटती जरूर है, पर उसकी जगह कोई बेहतर व्यवस्था पैदा नहीं होती। यही वजह है कि विवाह के साथ-साथ समाज का भी विघटन हो रहा है। यों भी कह सकते हैं कि चूँकि समाज विघटित हो रहा है, इसलिए विवाह और परिवार भी विघटित हो रहे हैं।


शायद दोनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलती हैं। ऐसा नहीं होता कि पहले यह होता है, बाद में वह। भारत के महानगरों में भी यही हो रहा है। सहजीवन का प्रयोग युवाओं को आकर्षित कर रहा है। देश के उच्चतम न्यायालय ने भी विवाह किए बिना स्त्री-पुरुष को साथ-साथ रहने को मान्यता प्रदान कर दी है।


वास्तव में इस मान्यता की कोई जरूरत नहीं थी। भारत के कानून में इसकी मनाही न पहले थी, न अब है। बस साहस का अभाव था। जैसे-जैसे आसपास के समाज की पकड़ कमजोर हो रही है, लोग अपनी मर्जी की जिंदगी जीना चाहते हैं।

तो क्या भारत में भी समाज विघटित हो रहा है ?

जरूर। यह महानगर संस्कृति का अचूक चिह्न है।


सुमित, तब तो तुम्हें खुशी हो रही होगी। तुम भी तो यही चाहते हो कि स्त्री-पुरुष अपने कंधों से विवाह का जुआ उतार फेंकें !


हाँ, लेकिन इस रूप में नहीं। सहजीवन विवाह से बेहतर है, पर इससे किसी नए और विवेकसंगत समाज का दरवाजा नहीं खुलता। यह पश्चिम की नकल है जहाँ स्वतंत्रता की तमन्ना है, पर समानता की नहीं। चूँकि इसके पीछे जीवन के कोई मूल्य नहीं है, सिर्फ अप्रतिबद्ध सुख की कामना है, एक-दूसरे को समझने की कोशिश कम, जिम्मेदारी की भावना उससे भी कम और निजपन पर जोर ज्यादा है, इसलिए सहजीवन से जिस तरह के संबंध बन रहे हैं, वे सफल नहीं हो पा रहे हैं। सुख भी एक मूल्य है, पर वह दूसरे और बड़े मूल्यों के अधीन होना चाहिए। नहीं तो वह अधूरा तो रहेगा ही, टिकाऊ भी नहीं होगा। जीवन साथी और बिजनेस पार्टनर दो अलग-अलग चीजें हैं। जब दोनों अपने-अपने लाभ का हिस्सा बढ़ाना चाहते हैं, तब दोनों के दुख बढ़ते जाते हैं। अंत में पार्टनरशिप टूट जाती है और सहजीवन असंभव हो जाता है।


तो आप वर्तमान स्थितियों में सहजीवन के पक्ष में नहीं हैं ?

ऐसा तो मैंने नहीं कहा। आज के समाज में भी सहजीवन विवाह से बेहतर है, क्योंकि इसमें मुक्ति की एक खिड़की हमेशा खुली रहती है। इससे दोनों पक्षों पर यह दबाव बना रहता है कि वे एक-दूसरे के साथ बेहतर ढंग से पेश आएँ। जैसे शराब पी कर गाड़ी चलाना सुरक्षित नहीं है, वैसे ही हमेशा अहंकार और संवेदनहीनता की लहरों पर सवार रहने से संबंध का निर्वाह नहीं हो पाता। विवाह में नहीं, सहजीवन में ही यह निर्वाह अधिक संभव हो पाता है।

अच्छा बताओ, विवाह की सबसे बड़ी सीमा क्या है ?

विवाह की सबसे बड़ी सीमा है यह मान कर चलना कि एक व्यक्ति एक समय में एक ही व्यक्ति से प्रेम कर सकता है। एकनिष्ठता की यह माँग मानव स्वभाव के अनुकूल नहीं है। कोई भी आदमी अपनी भावनात्मक दुनिया को एक ही व्यक्ति तक सीमित कर ले, यह न तो उसके लिए ठीक है न दूसरों के लिए।

कहा तो यही जाता है कि यह समस्या स्त्री की नहीं, पुरुष की है। स्त्री जिसे प्रेम करती है, उसके प्रति वह एकाग्र और निष्ठावान बनी रहती है। वह किसी अन्य पुरुष के बारे में सोचती भी नहीं - सामयिक आकर्षण की बात और है। पर पुरुष हमेशा एक नई स्त्री की तलाश में जुटा रहता है। वह स्वभाव से ही बहुगामी होता है।


सामान्य मान्यता तो यही है। पर सचाई क्या है, यह कौन जानता है? पुरुष के बारे में जितना हमें पता है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उसका रुझान बहुगामिता की ओर है। लेकिन ताली एक हाथ से तो बज नहीं सकती। इसलिए पुरुष की बहुगामिता से स्त्री की बहुगामिता भी कुछ हद तक अपने आप साबित हो जाती है। फिर स्त्री और पुरुष की स्थिति और हैसियत में भी फर्क है। स्त्री कम आजाद और बहुधा साधनहीन होती है। कह सकते हैं, वह एक कृत्रिम और अस्वाभाविक व्यक्ति है। इसलिए वह अपनी कामनाओं का दमन किए रहती है।

फिर भी आप यह तो स्वीकार करेंगे ही कि पुरुष एक नई स्त्री के साथ संबंध बनाने के लिए जितना उत्सुक रहता है, स्त्री नए पुरुष के साथ संबंध बनाने के लिए उतनी उत्सुक नहीं रहती।


तुम ठीक कह रही हो। पर स्त्री का मूल स्वभाव क्या है, यह हम नहीं जानते। पश्चिम की स्त्री उतनी छुईमुई नहीं है जितनी भारत की। उसके संबंधों का दायरा विस्तृत होता है। इस दायरे में उसके पुरुष मित्र भी आ सकते हैं। पर भारतीय स्त्री की दुनिया उसके पति, परिवार और बच्चों तक सीमित रहती है। इसका मतलब यह है कि मानव स्वभाव में लचीलापन होता है। सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार वह बदलता रहता है। स्त्री जब पूरी तरह मुक्त हो जाएगी, वह आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होगी, अपने फैसले खुद करने लगेगी, तब देखना है कि वह किस तरह व्यवहार करती है। आज हम जिस स्त्री को जानते हैं, वह एक खास तरह के इतिहास की देन है। इस मायने में कह सकते हैं कि पुरुष भी एक खास इतिहास की देन है। इसलिए जब तक समाज में आर्थिक और सामाजिक समानता स्थापित नहीं होती, लिंगगत पूर्वाग्रह खत्म नहीं होते, तब तक यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि असली आदमी कैसा होता है और असली औरत कैसी होती है।

सुमित, तुम्हारी यह बात पूरी तरह जम तो नहीं रही है, फिर भी विचारणीय तो है ही। हो सकता है, जैसा कि वैज्ञानिक बताते हैं, स्त्री और पुरुष का स्वभाव अलग-अलग होने के पीछे जैविक कारण भी हों।


आजकल हर चीज के पीछे जैविक कारण खोजने की स्पर्धा चल रही है। रोज किसी न किसी नए हारमोन के बारे में बताया जा रहा है कि वह अमुक चीज के लिए जिम्मेदार है। मैं इसे विज्ञान की दीवानगी मानता हूँ। जब तक कोई सिद्धांत अच्छी तरह प्रमाणित न हो जाए, तब तक उसके बारे में वैज्ञानिकों को चुप रहना ही शोभा देता है। अधकचरी घोषणाओं से मतिभ्रम फैलता है। एक सवाल यह भी है : जब हर चीज के लिए कोई न कोई हारमोन या कोई और जैविक द्रव्य जिम्मेदार है, तो आदमी किस चीज के लिए जिम्मेदार है?

तुम्हारा आक्रोश जायज है। मेरी समझ से, यह लंबी बहस का मामला है। लेकिन यह तो तुम मानोगे ही कि विवाह व्यवस्था खत्म हो जाने पर समाज में व्यभिचार बढ़ जाएगा, लोग मनमानी करने लगेंगे...


क्या बात करती हो? व्यभिचार तो तभी तक है जब तक विवाह है। जब आदमी और औरत पर किसी तरह का अंकुश नहीं रह जाएगा, तब जिसके मन में जो आएगा, वह करेगा। इसमें बुराई क्या है? क्या वही काम ठीक होता है जो अपनी इच्छा से न किया जाए?

तुम शायद दोस्तों के समाज की बात कर रहे हो, जब पति-पत्नी नहीं होंगे, सब आपस में दोस्त होंगे। वर्तमान समाज के लिए तुम्हारा सुझाव क्या है ?

फिलहाल तो संयम की व्यवस्था करनी ही होगी। नहीं तो गरीब लोग मारे जाएँगे। पुरुष भी और स्त्रियाँ भी। उन्हें खोजने पर भी साथी नहीं मिलेंगे। बलात्कार बढ़ जाएगा। आज की सर्वोत्तम व्यवस्था यही हो सकती है कि पति-पत्नी दोनों को इतनी आजादी होनी हो कि वे विवाह के बाहर भी अपने-अपने दोस्त बना सकें। इनमें से कुछ कॉमन भी हो सकते हैं।


क्या इन दोस्तों के साथ यौन संबंध हो सकता है ?

पता नहीं। सामान्यतः होना तो नहीं चाहिए। कभी हो भी गया, तो मातम मनाने की जरूरत नहीं है। नियम जितने सख्त होते हैं, उन्हें तोड़ने की इच्छा उतनी ही प्रबल हो जाती है। वर्तमान समाज और वर्तमान मानसिकता की सीमाएँ हैं। इन सीमाओं को एक दिन में नहीं तोड़ना अराजकता को निमंत्रण है।


विवाह-पूर्व सेक्स के बारे में तुम्हारी क्या धारणा है ?

मैं इसका समर्थन करता हूँ।


समर्थन करते हो ? किस आधार पर?

सेक्स की माँग पैदा होने की एक खास उम्र है, जबकि विवाह के लिए कोई तय उम्र नहीं है। जब तक विवाह न हो, तब तक किसी के प्राकृतिक संवेग पर रोक लगाए रखने का औचित्य क्या है? दूसरी बात यह है कि आप रोक लगाते रहिए, कोई मानेगा, तब तो। इसलिए लड़के-लड़कियों में फालतू ग्लानि या अपराध भाव पैदा करने से बेहतर है उन्हें आश्वस्त करना कि ऐसा करके वे कोई पाप नहीं कर रहे हैं।


हाँ, इससे जीवन साथी चुनने में भी सहायता मिलेगी। भावनात्मक अंतरंगता का यह एक अहम पहलू है।

एक और बात मेरे मन में है।

कह डालो। मैं कोई बच्ची नहीं हूँ।

बहुत पहले मैंने एक किताब पढ़ी थी। उसमें सुझाव दिया गया था कि जो लोग किसी परिस्थिति के कारण सेक्स से वंचित हैं, उनके लिए ऐसी सामाजिक कार्यकर्ताओं का सिस्टम बनाया जा सकता है जो उन्हें एक निश्चित शुल्क पर यह आनंद प्रदान करें। पुरुषों के लिए भी और स्त्रियों के लिए भी।


यह तो देह व्यवसाय का ही एक रूप हुआ।

नहीं, उस रूप में नहीं। यह व्यवसाय नहीं होगा, सोशल वर्क होगा। जो ग्राहक इनके पास आएँगे, उनके प्रति इनका दृष्टिकोण सहानुभूति और उदारता का होगा। चाहो तो ऐसे केंद्रों को सेक्स अस्पताल कह सकती हो।


तुम्हारी कोई-कोई बात मेरी समझ में बिलकुल नहीं आती।

मैंने भी इस पर ज्यादा विचार थोड़े ही किया है। यह सुझाव देह व्यवसाय पर शोध करने वाले एक विद्वान का है। मैं उसी की बात कह रहा था। वैसे, सच तो यह है कि किसी भी बीमार समाज में कोई भी अच्छी बात लागू नहीं की जा सकती। समुद्र हर चीज को खारा बना देता है।


बहुत हुआ। चलो, गेस्ट हाउस वापस चलते हैं। तुम्हारी गोद में सिर रख कर सोने का मन कर रहा है।


तो अपनी इच्छा यहीं पूरी कर लो न! किसी बेंच पर बैठ जाते हैं।

धत्। कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा ?



हम टहलते हुए गेस्ट हाउस की ओर बढ़ने लगे। मेरी आँखों में नींद ज्यादा थी या नशा, कह नहीं सकती। सुमित के कमरे में पहुँचने के बाद क्या हुआ, यह बताना जरूरी नहीं है। इतना जरूर कह सकती हूँ कि उसकी गोद में सिर रख कर बहुत देर तक सोती रही।