सुबह की लाली / खंड 1 / भाग 1 / जीतेन्द्र वर्मा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ट्रिन-ट्रिन, ट्रिन-ट्रिन, ट्रिन-ट्रिन

“हैलो!”

“अनिता!”

“हाँ, एकराम!”

“कैसी हो?”

“बिल्कुल ठीक हूँ। तुम कैसी हो?”

“ठीक हूँ। कल का प्रोग्राम याद है न?”

“यह भी भला भूलने की बात है।”

“तो फोन रखूँ। अधिक देर बात करना ठीक नहीं है।”

“ओ0के0”

और फोन कट गया। अनिता एक बार कल की योजना को याद करके उसके सफलता के प्रति आश्वस्त हो गई। आज कितना अपनापन महसूस हो रहा था घर के एक-एक वस्तु से। वह पलंग पर आँख बंद कर लेट गई। फरानी समृतियाँ न चाहते हुए भी मानस पटल पर चलचित्र की भाँति घूमने लगी।

एम0बी0ए0 का अंतिम वर्ष था। अनिता को रात में रंगीन सपने आने लगे थे। कॉलेज के लड़के यदा-कदा प्रेम पत्र लिखते, फिल्मी हाव भाव से उसे आकर्षित करने का प्रयास करते, पर अनिता का दिल कोई कोई नहीं चुरा पाया।

एक दिन कॉलेज से लौटते समय सुनसान रास्ते में उसकी कार खराब हो गई। ड्राइवर ने बहुत प्रयास किया कि किसी तरह कार घर पहुँच जाए। पर कार थी कि एक बार इंकार किया तो इकरार किया ही नहीं। सुनसान रास्ता देख कर अनिता किसी अनहोनी की आशंका से घबड़ा उठी। घर जाने के लिए दूसरी कोई गाड़ी भी नजर नहीं आ रही थी।

ड्राइवर एक मोटर मैकेनिक को बुला लाया। कुछ देर खटर-पटर करने के बाद उसने बताया कि इसे गैरेज तक ले चलना होगा। बड़ी कठिनाई से दोनों ने ठेल कर गैरेज तक पहुँचाया। कार का बर्नट खोल कर मैकेनिक उसे बनाने लेगा।

अनिता कार से बाहर निकल आई। गैरेज में बैठने के लिए कुर्सी, स्टूल या दूसरा कुछ नहीं था। गैरेज छोटा ही था। मेन रोड से हटकर एक गली में होने तथा नया-नया खुला होने के कारण यहाँ कम ही गाड़ी आती है। ड्राइवर ने बताया कि कार बनने में कम-से-कम एक घंटा लगेगा। वह यह सोच कर परेशान हुई कि एक घंटा कटेगा कैसे?

बाहर घूमते हुए उसकी नजर इंजन पर झुके मैकेनिक पर पड़ी। अन्य मैकानिकों के तरह ही वह हाफ पैंट और हाफ बनियान पहने था। उम्र पच्चीस छब्बीस के आस-पास होगी। उसकी नजर बार-बार उसके एठे हुए बाँहों में अटक जाती। न जाने कितना समय बीत गया। मैकनिक ने गाड़ी ठीक हो जाने की घोषणा की तब जाकर उसका ध्यान टूटा। न जाने कैसे समय इतना जल्दी बीत गया।

ड्राइवर पहले से तय रुपया से कम दे रहा था। उसका कहना था कि इस काम का बाजार रेट यही है। जबकि मोटर मैकेनिक बार-बार से पहले से तय बात की दुहाई दे रहा था। अनिता को तय मजदूरी देना, उसमें भी तय मजदूरी में कटौती करना अच्छा नहीं लगता है। मजदूरी देते समय वह मजदूर के आँखों में झाँक ही कर उसके भावों को पढ़ने की चेष्टा करती है। परंतु इस समय न जाने क्यों उसका ध्यान उधर नहीं जा रहा था। उसकी नजर मैकेनिक के एठी बाँहों में अटकी थी। ड्राइवर ने कितना पैसा दिया उसे पता नहीं चला। जब कार स्टार्ट हुई तो उसका ध्यान टूटा और मैकेनिक की आवाज उसके कानों में पड़ी-

“फिर कभी जरूरत पड़े तो याद कीजिएगा।"

रास्ते भर वह उसी के बारे में सोचती रही, उस दिन उसे सपने में दौड़ता हुआ घोड़ा दिखाई दिया।