सुबह की लाली / खंड 1 / भाग 2 / जीतेन्द्र वर्मा

Gadya Kosh से
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धीरे-धीरे दिन बीतते गए। मैकेनिक की याद धूमिल पड़ने लगी। कॉलेज गर्मी की छुट्टी के लिए बंद हो गए। वह बहुत दिनों से कार चलाना सीखने की इच्छा पाले थी। एम.बी.ए. का फाइनल एक्जाम हो चुका था। वह हर तरह से फ्री थी।

उसने इसी गर्मी की छुट्टी में कार चलाना सीखन का मन बनाया। उसने अपना इरादा पापा को बताते हुए कार चलाना सीखा देने का आग्रह किया पर उन्होंने अपने संगठन के कार्यों से फुर्सत नहीं मिलने की बात कहीं। कार सिखाने की जिम्मेवारी ड्राइवर को सौंप दी। उधर ड्राइवर बहन की शादी में घर जाने के लिए तैयार बैठा था।

उसकी एक सहेली कार चलाना जानती थी। उसने तय किया कि चल कर उसे पटाया जाये। फोन पर बात की। जाने के लिए तैयार हो कर बैठी तो कार स्टार्ट ही नहीं हो रही थी।ड्राइवर अपने ठीक करने का प्रयत्न कर के हार गया। अंत में उस दिन वाले मैकेनिक को बुलाया गया।

दोहपर का सूर्य अपनी सारी ताकत लगाकर गर्मी बरसा रहा था। नीम के पेड़ के नीचे कार खड़ी थी। मैकेनिक के हावभाव से लगा कि कार ठीक होने में वक्त लगेगा। उसने शर्ट उतार कर नीम की टहनी से टाँग दिया और बनियान और हाफपैन्ट पहने काम में भिड़ गया। वह कार से कुछ दूरी पर बैठी थी। वह कार के तरफ इस आशा में देख रही थी कि कार जल्दी ठीक हो जाये तो वह सहेली के यहाँ जाए।

मैकानिक का सारा ध्यान अपने काम पर था। वह कभी कार के नीचे घूस कर, कभी इंजन के ऊपर झुक कर तो कभी भीतर बैठकर काम करता। नीम की मीठी छाया। उस कार के तरफ देखते-देखते न जाने कब उसकी नजर मैकानिक के कसे हुए बाँहों में अटक गयी।

ड्राइवर दूसरी तरफ बैठा उंघ रहा था। घर के सभी लोग सो रहे थे। मैकेनिक के सीने पर उगे काले बालों के जंगल में वह खो चुकी थी। वह कई बार ध्यान दूसरे तरफ भी मोड़ी पर मन एक अजीब बैचैनी से भर उठता और फिर नजर मैकेनिक के कसे बाँहों तथा सीने पर जाकर अटक जाती। बाँहों और सीने के बनते-बिगड़ते रूप में वह ध्यानमग्न हो गई।

मोटर मैकेनिक को प्यास लगी। वह कुछ दूर लगे नल की ओर बढ़ा। शायद उसे अनीता से पानी माँगने का साहस नहीं हुआ। वह तेजी से उठी और बोली-

“मैं पानी ला रही हूँ।”

और वह दौड़ती हुई भीतर गई। फ्रिज से पानी निकाल कर ले आई। पानी पीन कर ग्लास वापस करते समय उसने अनीता के तरफ कृतज्ञता से देखा। चार आँखें टकराई। अनीता ने पलकें झुका ली। उसे लगा कि कोई चोरी पकड़ी गई हो कुछ पल बाद उसने और पानी के लिए पूछा। उसने नकारात्मक मुद्रा में सिर हिलाया और ‘धन्यवाद’ कहा और फिर अपने काम में भिड़ गया।

अनीता ग्लास रखने के लिए भीतर गयी। उसके दिमाग में आया कि पानी के जगह शर्बत ले जाना चाहिए था। अच्छा इम्प्रेशन बनता। उसे अपने ऊपर क्रोध आया। उसने सोचा अभी से क्या बिगड़ा है। शर्बत अभी ले चलती हूँ ! फिर उसके दिमाग में आया कि अधिक महत्त्व देने से न जाने वह क्या सोचे, तरह-तरह की बातें उसके दिमाग में तेजी से आ और जा रही थी। स्मृति पटल कोरे कागज-सा साफ था। वह वापस आ कर अपने फराने जगह पर बैठ गई और सम्मोहित भाव से उसके कसे हुए बाँहों तथा गठे हुए सीने में खो गई।

वह अपने काम में मशगूल था। इंजन के पार्ट-पुर्जों को खोल कर चेक कर रहा था। एक पल के लिए उसे लगा कि मैकेनिक के हाथ का ही कमाल कि देखने में भद्दे लगने वाले ये पार्ट-पुर्जे जीवंत से हो उठते हैं। सचमुच यह कोई जादूगर है।

लगभग दो-तीन घंटे बाद।

वह कार में बैठा और कार स्टार्ट। वह बाहर निकल कर बोला-

“कार ठीक हो गयी, मेम साहब।”

अनीता का ध्यान दूसरे तरफ था। वह अपना भाव छिपाते हुए बोली-

“अब कार ठीक होने से कोई फायदा नहीं। काफी समय हो गया है।”

वह कुछ मायूस हुआ। रूक कर उसने पूछा-

‘क्यों?”

अनीता तेज स्वर में बोली-

“मुझे जहाँ जाना था वहाँ अब जा नहीं सकती और कल से यह ड्राइवर छुट्टी पर जा रहा है। कार खड़ी की खड़ी रहेगी।”

रूक कर धीरे से बोली-

“सोचा था इस बार कार सीखूँगी पर अब सिखायेगा कौन?”

“क्यों किसी और को रख लीजिए।”

“किसे रखूँ?”

“बहुत मिल जाएगे।”

मैकेनिक ने धाक जमाई।

“तो तुम्ही ढूँढ़ कर लाना जितना पैसा कहोगे मिलेगा।”

वह ड्राइवर को जगाने चला ताकि वह कार कुछ दूर चला कर ट्राई कर ले। अनीता ड्राइवर पर चिड़ी थी उसने मनाकर दिया। मैकेनिक स्वयं ट्राई करने के उद्देश्य से कार स्टार्ट करने लगा। उसके दिमाग में न जाने क्या आया। वह ड्राइवर के बगल वाली सीट पर बैठ गई और बोली-

“चलो।”

मैकेनिक पूरी सावधानी के साथ गाड़ी चलाने लगा। गाड़ी ठीक से बन गई है- संभवतः यही दिखाने के लिए उसने स्पीड तेज कर दी। सामने स्पीड ब्रेकर आया। उसने एकाएक ब्रेक मारा। वह उसके सीने पर थी। एक पल के लिए रोम-रोम तृप्त हो उठा उसका। झटके से वह अपने सीट पर वापस आ गई। हाव-भाव नाराजगी के थे पर मन प्रसन्न था। वह सहमा-सहमा था। उसे लग रहा था कि सारा गुड़-गोबर हो गया। अब वह और अधिक सावधानी से गाड़ी चलाने लगा। उधर वह सोच रही थी कि कितना अच्छा होता कि एक बार फिर ब्रेक लगता और उसके बाँहों में होती, इस बार जल्दी नहीं हटती। परंतु उसे निराशा ही हाथ लगी।

कार वापस आकर कंपाउंड में खड़ी हो गई। उसने वापस जाने की अनुमति माँगी। धीमे स्वर में अनीता ने पूछा-

“नाम क्या है?”

“एकराम”

एक बार फिर दो जोड़ी आँखें मिली।

एकराम कुछ कदम बढ़ा चुका था। अनीता बोली- “अरे रुको तो, कितने रुपये हुए।”

“जितना उचित समझिए दे दीजिए।”

“मुझे भला क्या पता है। तुम्ही बताओ।”

“मैं कुछ नहीं कहूँगा।”

“क्यों?”

“बस इसी तरह।”

“बड़े जिद्दी बनते हो। तब मैं कानी कौड़ी भी नहीं दूँगी। समझे।”

“कोई बात नहीं। कहिए तो इसी तरह चला जाउफँ।”

“अच्छा तो चले जाओ। मेरा रुपया बचेगा।”

और उसने साइकिल उठाई और जाने लगा। वह कुछ समझ पाती तब तक वह गेट के पास जा चुका था। वह चिल्ला कर बोली-

“अरे, ड्राइवर कब खोजोगे?”

वह वही रूका और जोर से बोला-

“दो-चार दिन में खोज दूँगा।”

और फिर साइकिल तेज कर चला गया। आँखों से ओझल होने तक वह उसे देखती रही।