सुबह की लाली / खंड 1 / भाग 3 / जीतेन्द्र वर्मा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तीसरे दिन एकराम आया। ये दो दिन अनीता ने उसके याद में गुजारे। कभी सोचती कि उस दिन पैसा के लिए ड्राइवर से कैसे लड़ रहा था और उससे कैसे लाटशाही दिखा कर चला गया। कभी उसके व्यवहार पर गुस्सा आता तो दूसरे पल इस बात के लिए अफसोस होता कि क्यों न उसने ही कुछ ज्यादा पैसे दे दिए। कितना देती? पचास, नहीं, नहीं यह तो बहुत कम है। कितनी मेहनत की थी बेचारे ने। दो सौ रुपया देना ठीक होता? दो सौ भी कम लग रहे हैं। चार सौ ठीक रहता। क्या पता कम होता या अधिक? कभी तो काम कराया नहीं। गाड़ी के पार्ट-पुर्जों का साइज देखकर उसके दाम का अंदाजा लगाना कठिन है, काम में लगे टाइम को देखकर मजदूरी तय नहीं की जा सकती।

यह सब सोंच-सोंच कर उसे कभी अपने ऊपर गुस्सा आता, कभी उसके ऊपर। सपने में उसे दौड़ता हुआ घोड़ा दिखाई देता। घोड़े पर वह बैठी होती। घोड़ा खूब तेजी से दौड़ता। वह घोड़े से लिपट जाती। घोड़ा और तेजी से दौड़ता.......। यात्रा के अंत में दोनों पसीने से तर-ब-तर होते। तन और मन दोनों तृप्त होता।

बार-बार यह सपना आता। कहते हैं कि प्रेम की भाषा मौन होती है। प्रेम की अभिव्यक्ति मुँह की जगह आँखों से होती है। उसे यह सब सही लग रहा था। एकराम के सामने होने की कल्पना से वही वह उसके आँखों में तरलता छा जाती।

शाम का समय था। वह अपने माँ के साथ लान में बैठी चाय पी रही थी। अभिवादन के बाद एकराम ने बताया कि कोई ड्राइवर नहीं मिल पाया। वह इसकी सूचना देने आया है। बातचीत में उसने अप्रत्यक्ष रूप से जाहिर किया कि उसे ड्राइवर खोजने की जिम्मेवारी से मुक्त कर दिया जाए। बातचीत सीधे माँ से कर रहा था पर उसे कनखियों से देखते रहता। अनीता ने मुस्कुराते हुए कहा-

“क्यों जी, कहीं पैसा नहीं मिलने के डर के मारे तो ड्राइवर नहीं मिल रहा है।”

उस दिन की घटना का भंडाफोड़ होने के डर से सकपका गया एकराम-

“नहीं, नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। मैं दो-तीन दिन में जरूर ड्राइवर खोज दूँगा।”

और वह जाने के लिए एकदम तैयार हो गया। माँ समझ नहीं पाई कि क्या हुआ। उन्होंने कहा-

“अरे बैठो तो, इतनी जल्दी क्या है?

उसे लग रहा था कि अनीता उस दिन के घटना का पोल खोल देगी। इसलिए वह जल्दी से जल्दी खिसक जाना चाहता था। सहमे नजरों से उसने अनीता की तरफ देखा। अनीता के चेहरे पर हास्य का भाव था। अनीता ने एकराम की तरफ देखा। कितना मासूम दिख रहा है, गैरेज में दो-दो जरूरी गाड़ी खड़े होने की बात कर वह चलते बना।

दो-तीन दिनों में अनीता ने मन ही मन कुछ नया तय किया। चौथे दिन वह उसके इंतजार में सुबह से ही बैठी थी। अब वह सोच रही थी कि ड्राइवर नहीं ही मिले तो अच्छा है। उसने जैसे ही कहा-

“सॉरी, ड्राइवर नहीं मिला। आप कहे........”

उसके मन की मुराद पूरी हो गई। उसने अपनी खुशी जाहिर नहीं होने दी और बात काटते हुए गुस्से में भर कर बोली-

“तुम बड़े लफाजी आदमी हो जी। अरे ड्राइवर का अकाल पड़ा है क्या? तुमसे नहीं मिलने वाले थे तो पहले ही बता देते। एक सप्ताह का समय बर्बाद कर दिया। अब तक तो हमीं खोज लेते।”

वह घबड़ा गया। इस हमले की उसे आशा नहीं थी। अपने सफाई में वह कुछ कहना चाह रहा था। तभी अनीता ने उसके सामने कार चलाना सीखाने का प्रस्ताव रख दिया। उसने बिना सोचे-समझे हाँ कर दिया।

एक दिन कार में-

“तुम मुझे आप मत कहो।”

-अनीता।

“तो क्या कहूँ?”

-एकराम।

“और कुछ भी कहो।”

“आप ही बता दीजिए।”

“फिर आप........”

नाराजगी भरे स्वर में वह बोली।

“तो क्या कहूँ?”

“इतना भी नहीं समझते। तुम कहो। मैं तुम्हें यही कहती हूँ ”

“पर मैं डरता हूँ।”

“किससे?”

“आपके घरवालों से।”

“फिर आप ! गाड़ी रोको मैं उतर जाती हूँ।”

और उसने चलती कार का दरवाजा खोल दिया। एकराम ने उसका हाथ पकड़कर माफी माँगा-

“अब नहीं बाबा। माफ करो।”

अनीता ने उसके तरफ देखा। कितना प्यारा लग रहा था। वह जलने लगी। इसके बाद दोनों बराबर एक-दूसरे से मिलते रहते।