सुबह की लाली / खंड 1 / भाग 5 / जीतेन्द्र वर्मा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कमरे में तीन व्यक्ति बैठे हैं। टेबुल पर छोटे-बड़े तथा कई रंगों के पंपलेट भारी मात्रा में नजर आ रहे हैं। कुछ बुकलेट हैं। कुछ कुर्सियाँ खाली हैं। कमरे में उपस्थित लोग बड़े तन्मयता से पंपलेट पढ़ते हुए दिखाई पड़ रहे हैं।

एक प्रौढ़ दिखने वाले सज्जन स्थानीय कॉलेज में प्रोफेसर हैं, वे साधारण शर्ट-पैंट पहने हुए हैं। एक बुजुर्ग व्यक्ति बार-बार चश्मा ठीक करते रहे हैं। वे धोती-कुर्ता धारण किए हुए हैं। तीसरे सज्जन देखने में बड़े भव्य व्यक्तित्व के मालिक हैं। मुख मंडल पर तेज बरस रहा है। ललाट पर सेन्दूरी टीका खूब फब रहा है। वे चुस्त कुर्त्ता और पैजामा पहने हैं।

दीवार पर कुछ चित्र लगे हैं। चित्रों पर माला पहनाया गया है। चित्रों को देखकर यह कमरा किसी धार्मिक संस्था का कार्यालय लग रहा हैं

कमरे में लगी घड़ी ने तीन बजने की सूचना दी। बुजुर्ग से दिखने वाले व्यक्ति ने खीज भरे स्वर में कहा-

“बैठक के लिए निर्धारित समय पर कोई आता ही नहीं है। ऐसे लोगों से भला यह लड़ाई लड़ी जा सकेगी?”

“कैसी बैठक, गुरुजी?”

-आश्चर्य के स्वर में भव्य व्यक्तित्व वाले व्यक्ति ने कहा।

“यह आप मुझसे पूछ रहे हैं, शाही जी? आप यहाँ क्यों आए हैं?”

गुरू जी ने तेज आवाज में कहा। शाही उत्तेजित मुद्रा में कुछ कहने जा रहे थे कि प्रोफेसर बीच में ही बोल उठे -

“गुरूजी! इस बैठक में सभी लोगों को आमंत्रित नहीं किया गया है।”

“क्यों?”

-गुरूजी का स्वर कठोर था।

“अधिक आदमी को बुलाने से बेमतलब का हाँव-काँव होता है। कोई सार्थक बातचीत नहीं हो पाती है। गोपनीयता भंग होने का बराबर भय बना रहता है। और आपको मालूम ही है कि इस समय जो कुछ करना है उसको गोपनीय बनाए रखना सबसे आवश्यक है।”

अब गुरू जी के चेहरे का तनाव ढीला होने लगा। ठसक के साथ उन्होंने कहा -

“तब तो ठीक है। अब काम की बात कीजिए।”

शाही ने उपेक्षा से मुँह बिचकाया जबकि प्रोफेसर साहब ने राहत की साँस लेकर कहा -

“चार व्यक्तियों को बैठक में आमंत्रित किया गया था। एक तिवारी जी अभी तक नहीं आए हैं। लगता है कहीं फँस गए हैं। नहीं तो अब तक आ गए होते। समय के बड़े पक्के हैं।”

फिर गुरू जी तथा पाठक के तरफ बारी-बारी से देखकर पूछा-

“मैं समझता हूँ कि आप लोगों ने पंपलेटों को पढ़ लिया होगा।”

-शाही ने तुरंत स्वीकृति में सिर हिलाकर कनखियों से गुरू जी के तरफ इशारा किया। उनके इशारा का तात्पर्य गुरू जी कमजोर आँखों की तरफ था। प्रोफेसर साहब ने आँखों से इशारा कर चुप रहने को कहा। अब तक गुरू जी ने पंपलेटों को पढ़ लेने की स्वीकृति दे दी।

प्रोफेसर साहब ने अब गंभीर आवाज में कहना शुरू किया-

“आप लागों को इन पंपलेटों के महत्त्व के बारे में बताने की जरूरत नहीं है। इनके माध्यम से हम अपनी बात गाँव-गाँव में पहुँचा देंगे। आप दोनों ने पढ़ा ही होगा कि इनकी भाषा कितनी उत्तेजक है। इसका असर जनमानस पर पड़ेगा।

असली मुद्दा है कि इन पंपलेटों को इस तरीके से जनता के बीच पहुँचाया जाए कि किसी को हमारे ऊपर संदेह नहीं हो। ऐसा लगे कि इसे स्थानीय लोगों ने ही छपवाया है।”

फिर तीनों अपना तरीका बनाने में मशगूल हो गए।