सुबह की लाली / खंड 1 / भाग 6 / जीतेन्द्र वर्मा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शाही का पूरा नाम रघुनंदन शाही है। वे हिंदुत्व के उत्थान के लिए होल टाइमर बन गए हैं। उनकी संस्था उन्हें जहाँ भेजती है वहाँ रह कर वे प्रचार कार्य करते हैं। उन्होंने संस्था के नियमों के मुताबिक शादी नहीं की हैं कुछ लोग, जिसमें उनके संस्था के लोग भी शामिल हैं, उनको संस्था में आने वाले किशोरवय के लड़कों के साथ समलैंगिक होने की बात कहते हैं।

वे एक संपन्न परिवार से आते हैं। उनकी वाणी मधुर है। रात-दिन संस्था के काम में लगे रहते हैं। उनहोंने उच्च शिक्षा पाई है। अपने खाने-पहनने तथा घर-परिवापर की आर्थिक चिंता से मुक्त हैं।

प्रोफेसर साहब का नाम रवीन्द्र कुमार पांडेय है। इनके पिता ने कई शिक्षण संस्थानों की स्थापना की थी। इन संस्थानों में इनके घर परिवार, नाते-रिश्तेदार ही अधिकांश पदों पर नियुक्त है। रवीन्द्र कुमार पांडेय भी एक कॉलेज में प्रोफेसर बन गए। बाप सचिव, एक बेटा प्राचार्य, एक बेटा प्रोफेसर, कोई संबंधी किरानी, कोई चपरासी यानि घर-परिवार, नाते-रिश्तेदार में जो जिस लायक था उस पद पर फिट हो गया।

उनके पिता को जजमनिका का धंधा विरासत में मिला था, पर उन्होंने छात्रा जीवन में ही इस पैतृक पेशे को नहीं अपनाने का निर्णय कर लिया। उन्हें इस बात का एहसास हो चला था कि भविष्य में इस पेशे को अपेक्षित सम्मान नहीं मिलेगा। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे समाज सेवा का धंधा करने लगे। उन्हीं दिनों असहयोग आंदोलन चला। जगह-जगह स्कूल कॉलेज खुलने लगे। स्थानीय स्तर पर आर्य समाज ने इस दिशा में पहल की। बस वे बिना देर किये आर्य समाजी बन गए। यद्यपि आर्य समाज के सिद्धांतों में उन्हें लेशमात्रा भी आस्था नहीं थी पर बन गए पक्के आर्य समाजी। इससे स्कूल-कॉलेज के नाम पर दान मिलने में बड़ी सहूलियत हुई। सबसे पहले आर्य समाज के कार्यालय में ही विद्या दान का शुभारंभ हुआ। वे शिक्षक नियुक्त हुए। उन्होंने अपने कार्य कुशलता से ऐसी धाक जमाई कि विद्यालय के सर्वेसर्वा बन गये। इनके देख-रेख में आर्य समाज के प्राथमिक विद्यालय, मध्य विद्यालय, उच्च विद्यालय, कन्या विद्यालय, दलितोद्धार पाठशाला । 1921-22 से शुरू हुआ यह क्रम 1940-42 में कॉलेज तक पहुँचा।

किसी की जय-जयकार मना कर रुपया-पैसा, जमीन लेने में वे खूब माहिर थे। आखिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी से वे उनके यहाँ यही जो होता आया था। इस गुण के कारण जल्दी कोई उनका विरोध नहीं कर पाता।

प्रोफेसर रवीन्द्र कुमार पांडेय अपने पिता के सुयोग्य पुत्र निकले। वे एक ओजस्वी वक्ता हैं। जोड़-तोड़ करने में उनका जवाब नहीं है। दस बात सुनकर भी उत्तेजित नहीं होना उनकी एक विशेषता है।

गुरू जी की उम्र तिरसठ पार कर चुकी है। शरीर से वे बिल्कुल स्वस्थ हैं। सिर्फ आँखों की रोशनी कम हो गई है। उम्र के अनुसार तुनकमिजाजी हो चले हैं। इनका नाम बटुकेश्वर दीक्षित है पर लोग इन्हें गुरू जी के नाम से जानते हैं।

इनकी वाणी बड़ी कटु हैं धीरे से बोलना कभी सीखा ही नहीं है। वे बड़े गर्व से कहते हैं कि मैं ब्राह्मण हूँ और असली ब्राह्मणों की बोली कठोर ही होती है। वे हर बात में नियम-कानून तथा परंपरा की दुहाई देते रहते हैं। वे वर्ण-व्यवस्था के कसाव के ढीलेपन से बहुत दुःखी रहते हैं। उनके अनुसार दुनिया में होने वाले सारे अनर्थ वर्ण-व्यवस्था टूटने के कारण ही हो रहे हैं। अगर फिर से मनुस्मृति के अनुसार जाति-व्यवस्था लागू हो जाती तो सारे समस्याओं का समाधान हो जाता | वे इस बात का बड़े जोर-शोर से प्रचार करते हैं कि वर्ण-व्यवस्था ईश्वरकृत है। इसे तोड़ने वाले हिंदू धर्म के हत्यारे हैं। वे किसी का मूल्यांकन जाति के आधार पर ही करते हैं। एक बार शहर में एक उच्च पदाधिकारी आया। उसके नाम के टाइटिल से जाति का पता नहीं चल पा रहा था। बहुत-से लोगों को, जिसमें गुरू जी भी शामिल थे, यह लगा कि वह कथित उच्च जाति का है, उसमें भी ब्राह्मण। गुरू जी नित्य हनुमान चालीसा की तरह उसकी प्रशंसा करते। तभी एक दिन उन्हें मालूम हुआ कि वह अफसर कथित निम्न जाति का है। गुरू जी बिना देर किए उस अफसर को घूसखोर, संस्कारहीन, डरपोक, अयोग्य बताने लगे।

वे अपने विचारधारा के संस्था से जुड़ कर काम कर रहे हैं।

जब घड़ी ने छः बजने की सूचना दी तब तक बैठक की कार्यवाही लगभग समाप्त हो चुकी थी। पंपलेटों को कौन-कौन व्यक्ति के माध्यम से किस-किस गाँव में पहुँचाना है- इसकी सूची बनायी गई थी। योजना को सफलतापूर्वक पूरा करने तथा उसके प्रभाव पर निगरानी रखने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों की जिम्मेवारी तय की गई। तीन दिन के बाद फिर बैठक करने की बात तय हुई।

तीनों के आँखों में गंभीरता झलक रही थी।