सुबह की लाली / खंड 1 / भाग 7 / जीतेन्द्र वर्मा

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दोपहर की नमाज अदा करने के बाद लोग अपने घर को लौटने लगे। अंत में वहाँ तीन व्यक्ति ही बच गए। सबके जाते वे झट से एक चटाई पर बैठ गए। मानों पहले से तय हो। तीनों के हाव-भाव से ऐसा लग रहा है कि किसी गंभीर विषय पर चर्चा होनी है।

“स्थिति बड़ी नाजुक है। समय रहते सचेत होना होगा वरना कहीं के नहीं रहेंगे।”

-यह स्वर कत्थी अचकन तथा सफेद पैजामा पहने जवानी और प्रौढ़ावस्था के संधि स्थल पर खड़े व्यक्ति था। चेहरे पर दाढ़ी, आँखों पर चश्मा, मुख मंडल पर गंभीरता उम्र को ज्यादा बता रही है। लोग इन्हें मौलाना जौहर अब्दुल के नाम से जानते हैं। हरदम साफ कपड़े में दिखते हैं। किसी मुद्दे पर आप इनसे चर्चा छेड़िए- अगर एक बार इन्हें बोलने का मौका हाथ लग गया तो वे जल्दी किसी को बोलने का अवसर ही नहीं देंगे औरा बात को इस्लाम तक जरूर खींच कर ले जाएगे। वैसे कुरानशरीफ की कभी सूरत नहीं देखी है पर कुरानशरीफ पर घंटों धाराप्रवाह बोलते हैं। इस्लाम के नाम पर चंदा वसूलने में माहिर हैं। घर-परिवार से संपन्न हैं। इनके पूर्वज जमींदार हुआ करते थे। अब बिजनेस है। इनके अब्बा ने पैतृक संपत्ति में अपने भाइयों का हिस्सा नहीं दिया। मौलाना अब्दुल का कहना है कि अल्लाह ने उनके तकदीर में यही लिखा है।

“इस बार ये काफिर संगठित होकर लड़ रहे हैं। हमें और अधिक संगठित होना होगा।”

-यह आवाज कुर्त्ता-पैजाम पहने व्यक्ति की थी। इनको लोग डॉ0 रहमत हुसैन के नाम से जानते हैं

“यही तो रोना है कि उधर काफिर संगठित हो रहे हैं और इधर हम लोगों में संगठित होने की भावना खत्म हो रही है।”

-लूंगी और गंजी पहने थूलथूल शरीर वाले रहमत खाँ ने चिंतित स्वर में कहा।

एम0बी0बी0एस0 डाक्टर रहमत हुसैन दाढ़ी-मूँछ से सफाचट है। इनकी बीबी भी एम0बी0बी0एस0 डाक्टर हैं। दोनों पहले प्राइवेट प्रैक्टिस करते थे पर प्रैक्टिस चली नहीं । डॉ0 हुसैन का कहना है कि इस्लाम के प्रचार-प्रसार में व्यस्त रहने के कारण वे क्लिनिक में नहीं रह पाते हैं। जब रहते हैं तो अधिकांश मरीजों को बिना फीस के ही देखते हैं। इसी कारण उनकी प्रैक्टिस नहीं चलती। वैसे उनसे इलाज कराए लोगों का कहना है कि आज तक उनके दवा से कोई बीमारी ठीक नहीं हुई। प्रैक्टिस नहीं चलने का उन्हें जरा भी मलाल नहीं है। वे बड़े शान-शौकत से रहते हैं। असल में उनकी आय का स्रोत एक कॉलेज हैं, जिसके सचिव उनके पिता हैं।

बहुत पहले उनके पिता ने एक कॉलेज की स्थापना की थी। इसकी एक अलग कहानी है। शहर के एक व्यक्ति, जिन्होंने अमेरिका में जाकर अपना अच्छा खास कारोबार जमा लिया था। मन में कई शिक्षण संस्था खोलने की बात आई। उनहोंने अमेरिका में बैठे-बैठे ही शहर के कई पूर्व परिचितों से इस संबंध में हल्के ढंग से परिचय साधा। बहुतों को तो विश्वास नहीं हुआ। कुछ लोगों ने सोचा कौन इसमें समय जाया करे। डॉ0 हुसैन के पिता उन दिनों मक्खी मारा करते थे। उन्होंने इसे गंभीरता से लिया। उन्होंने अपने तरफ से जमीन देने की बात कही तथा अमेरिकी बंधु से भवन व अन्य सारे कार्यों में लगने वाली राशि की अपेक्षा की। कॉलेज का अमेरिकी बंधु की माँ को बड़े श्रद्धा के साथ याद करते हुए कॉलेज का नाम उन्हीं के नाम पर करने कर प्रस्ताव किया। अमेरिकी बंधु को लगा कि डॉ0 हुसैन के पिता से बढ़कर कोई दूसरा शुभचिंतक मिलना कठिन है। हुसैन के पिता ने बड़े योजनाबद्ध ढंग से काम की शुरुआत की। शहर की आबादी से दूर बीस एकड़ जमीन खरीदी। जमीन काफी सस्ते दाम में मिली परंतु कागज में उसकी कीमत बढ़ा कर लिख दिया। इस बात की भनक अमेरिकी बंधु को कौन कहे चार दोस्तों को नहीं लगी। वे स्वयं सचिव बन गए। प्रबंध समिति में घर, रिश्तेदार तथा ऐसे लोगों को भर दिया जिनसे विरोध की संभावना नहीं थी। अमेरिकी बंधु ने मोटी रकम भेजी। प्रोफेसरों तथा अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति में उन्होंने सबसे अच्छा-खास चंदा लिया। कोई पूछने वाला था नहीं।

कॉलेज की स्थापना अल्पसंख्यक कानून के तहत हुई ताकि सरकार कभी इसका अधिग्रहण नहीं कर सके। सारे अधिकार सचिव के पास रहें।

अधिकांश पदों पर ऐसे आदमियों की नियुक्ति हुई जो कभी जन्मे ही नहीं थे। उनका वेतन सचिव महोदय के जेब में चला जाता। उनके बदले रोजगार युवकों को नाममात्र का वेतन देर कर पढ़ाने की व्यवस्था थी। बेरोजगार युवक सचिव के कृतज्ञता के बोझ तले दबे रहते हैं।

नामांकन से लेकर अन्य सारे कार्यों में छात्रों से निर्धारित फीस के अलावा कॉलेज के विकास के नाम पर पैसा वसूला जाता। प्रोफेसर तथा कर्मचारियों के वेतन का कुछ प्रतिशत सचिव ले लेते। कॉलेज के अधिकांश स्टाफ मुसलमान ही हैं।

एक बार सारे स्टापों ने मिलकर स्थानीय सांसद के माध्यम से प्रयास किया कि सरकार कॉलेज को अधिग्रहण कर ले। कॉलेज में होने वाले धाँधली का कच्चा चिट्ठा मुख्यमंत्री तक पहुँचाया गया। सरकार ने जाँच कराने का निर्णय लिया। अभी जाँच शुरू भी नहीं हुई थी कि सचिव ने अपनी सारी ताकत लगा कर यह प्रचार करना शुरू किया कि सरकार अल्संख्यकों के धार्मिक मामलों में दखल दे रही है। यह मुसलमानों के साथ घोर अन्याय है ही, साथ में संविधान विरोधी भी है। विपक्षी पार्टियों को अच्छा मुद्दा मिल गया। उन्होंने सरकार पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगाया। रोज अखबार में कुछ-न-कुछ छपते रहता। घबड़ा कर सरकार ने जाँच कार्य बंद कर दिया तथा घोषणा कर दी कि वह कॉलेज के कामों में हस्तक्षेप नहीं करेगी।

इस कांड के बाद सचिव सावधान हो गए। उन्होंने बिना जन्मे हुए व्यक्तियों की जगह मोटी रकम लेकर बहाली कर दी।

रहमान खाँ नव धनाढ़य हैं परंतु रहन-सहन पहले की तरह ही है। अभी भी मोटे कपड़े का कुर्त्ता, लूंगी तथा पुरनी चप्पल पहने घूमते रहते हैं। पहले खेती-बारी करते थे। जमीन काफी कम थी। दो बेटा अरब कमाने गए। उन्होंने स्वयं एक किराने की दूकान की। अरब के पैसे से गल्ला का व्यवसाय किया। यह व्यवसाय चल निकला।

अब एक मकान, गाड़ी तथा दो दूकानें हैं। व्यवसाय अब दोनों बेटा अच्छी तरह देख रहे हैं। रहमान मियाँ घर-परिवार से निश्चिंत हैं।

“हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। आपसी एकजुटता के लिए कुछ कार्यक्रम बनाने होंगे।”

-यह सुझाव डा0 हुसैन ने दिया।

काफी देर विचार-विमर्श के बाद तय हुआ कि कुछ प्रशिक्षित लोगों को गाँव-गाँव में भेजकर इस्लाम के ऊपर मंडरा रहे खतरों से अवगत कराया जाए, आत्मरक्षा के लिए हथियार खरीदा जाए तथा युवकों को इस्लाम के लिए कुर्बानी देने के लिए प्रेरित किया जाए।