सुबह की लाली / खंड 2 / भाग 11 / जीतेन्द्र वर्मा

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“मेरा बेटा न जाने किस हाल में होगा? मेरे बिना खाता भी नहीं था। स्कूल के लिए कौन तैयार करता होगा। ......”

-अनीता रो-रो कर लोगों से कहती।

“क्या नाम है तेरे बेटे का?”

-कबूतरी की माई ने पूछा। सभी उसकी कथा सुनना चाहते थे।

“ कबीर !”

“कबीर!.... कबीर क्या?”

“कबीर में क्या बुराई है?”

“बुराई नहीं है। हम पूछ रहे हैं क्या कबीर ? कबीर पांडेय कि कबीर अहदम ?”

खिलखिला कर हँसने लगी अनीता।

“साँचो पगली है क्या रे ? ”

“मैं नहीं! तुम सब पागल हो। मैं, एकराम और मेरा बेटा न हिंदू हैं न मुस्लिम।”

“तो क्या हैं जानवर?”

“हम इंसान हैं। तुम सब जानवर हो।”

“ऊ सब तो ठीक है बेटी! पर समाज में रहने के लिए तो कुछ-न-कुछ तो बनना पड़ेगा न! इसके बिना कैसे जिया जा सकता है?”

-मास्टरनी ने कहा ।

“कबीर कैसे जिए भाभी!”

“पर बिना धर्म माने लोग सम्मान नहीं देते हैं बेटी?”

फिर पागलों की तरह हँसने लगी अनीता-

“कबीर को नहीं देखा भाभी! कोई नहीं जानता था कि किस जाति, धर्म में पैदा हुए। मरने पर हिंदू अपना कहते, मुसलमान अपना। जबकि दोनों को जुतियाया था कबीर ने। ............. असल चीज सत है, प्रेम है। .........”

वह बेतहाशा हँसते हुए चली गई। कबूतरी की माई ने कहा-

“बड़ी पगली है।”

“नहीं रे पागल तो हम सब हैं।”

-नम आँखों से मास्टरनी ने कहा।