सुबह की लाली / खंड 2 / भाग 2 / जीतेन्द्र वर्मा

Gadya Kosh से
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शहर का चौराहा। ढलती हुई शाम। युवकों की टोली जमी है। हिंदू-मुस्लिम का तनाव बरकरार है। दोनों की टोली अलग-अलग जमी है। चौदह से चालीस साल के लड़के हैं। चौदह-से बीस साल वाले लड़के अभी चेले हैं। वे चेल्वहि करते हैं। दौड़-धूप का काम चेले करते हैं। खर्च-वर्च का काम उनके गुरु करते हैं। बातचीत सब-से-सब करते हैं पर हर चेले का कोई-न-कोई गुरु होता है। चेले तरह-तरह से अपने-अपने गुरु की सेवा करते हैं। चेलेनुमा लड़के शाम को बन-सँवर कर निकलते हैं। जिन लड़कों को पाम्ही अभी जम रही होती है वे बड़ी ध्यान से अपनी पाम्ही पर देखते हैं और चाहते हैं कि सभी उसे पूरा मुँछ माने। यह उनके जवान होने का सबूत जो है! उनके गुरु उन्हें मुख्य रूप से लड़की फँसाने का गुरु सीखाते, सेक्स की सैद्धांतिक और प्रयोगिक दोनों तरह की शिक्षा देते। नए लड़कों का यह आकर्षण बड़ा जबर्दस्त था। शुरू में गुरु उन्हें सिगरेट लाने के लिए भेजता। फिर एक दो कश लगवाता। लड़के शुरू में लजाने का नाटक करते। गुरु उनका साहस बढ़ाते-

“पी ले यार! अब जवान हो गया है। अब तक तेरी शादी हुई रहती तो दो-चार बेटे रहते।”

सभी ठहाका लगाते। धीरे-धीरे वे निःसंकोच सिगरेट का कश लगाने लगते। फिर गुरु को सिगरेट देने के बाद अपने सिगरेट निकाल कर पीने लगते। सिगरेट से शुरू हुई यात्रा शराब तक जाती। उसमें भी वे सीढ़ी-दर-सीढ़ी आगे बढ़ती है।