सुबह की लाली / खंड 2 / भाग 1 / जीतेन्द्र वर्मा

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आठ साल बाद।

“मेरी बेटी अनिता मर गई।”

“मेरी बेटी अनिता मर गई।”

“मेरी बेटी अनिता मर गई।”

आज प्रो0 रवींद्र कुमार पांडेय सबसे यही कह रहे हैं। सुबह में टहलने के समय वे सबको घेर-घेर कर यही बता रहे थे। साथ ही वे यह भी बताते थे कि-

“जलने से अनिता को थोड़ा भी कष्ट नहीं हुआ।”

लोग घृणा और आश्चर्य से प्रो0 पांडेय को देखते। वे तुरंत अपनी बात का प्रमाण पेश करते-

“जलने के बाद अनिता थोड़ा भी नहीं रोई। तुरंत मर गई।”

लोग आगे बढ़ जाते और प्रो0 पांडेय किसी दूसरे के आगे खड़ा होकर-

“मेरी बेटी अनिता मर गई।”

“मेरी बेटी अनिता मर गई।”

“...................................।”

‘मेरी बेटी अनिता मर ...........’ प्रकरण पर लोढ़ेवाली आंटी बहुत गर्म हुई। सुबह से ही प्रो0 पांडेय को किसिम- किसिम की गालियाँ दे रही हैं-

“बेटी को मार डाला। अब कह रहा है कि उसे कोई कष्ट नहीं हुआ। अरे ....... कौन-सा दुख बाकी रखा था कि मरने में कष्ट होगा।”

लोढ़ेवाली आंटी मोटी हैं। चलने-फिरने में बड़ी दिक्कत होती है। सो अपने दरवाजे से बहुत दूर नहीं जा सकती थीं। यह बात प्रो0 पांडेय के लिए वरदान साबित हुई। नहीं तो वे प्रो0 पांडेय के ‘मेरी बेटी अनिता मर...............’ के पीछे-पीछे अपना अभियान चलाती। इसकी कमी उन्होंने अपने दरवाजे पर मुहल्ले भर की महिलाओं को जुटाकर पूरा करने की कोशिश की। वे आँख नचा-नचा कर साँय-साँय कहती-

“आरे दोनों पति-पत्नी ने मिलकर मार डाला बाछी को। बड़ा धर्मात्मा बनते हैं! ........ बेटी को मारने में पाप नहीं लगा।......... पुलिस आई थी तो कैसे डर के मारे धोती में मूत दिए। ......... मामला सेटल हो गया तो शेर बन रहे हैं। ......... पर भगवान सब देखता है। .........”

लोढ़ेवाली आंटी का असली नाम कोई नहीं जानता है। सभी उन्हें इसी नाम से जानते-पहचानते हैं। पर यह जरूर है कि कोई उनके मुँह पर ऐसा नहीं कहता। अगर किसी ने कह दिया तो उसे वे तार देतीं। सभी उनके मुँह पर अपनी उम्र के मुताबिक चाची, भाभी, दादी आदि का नाता जोड़ लेते थे। उनका नाम लोढ़ेवाली आंटी कैसे पड़ा इसका एक संयोग है।

सिंह साहब के लड़के की शादी थी। लड़का अमेरिका में कोई अच्छी नौकरी करता था। वहीं से लड़की भी लेता आया था। वे हनीमून मना चुके थे पर कादो शादी अभी बाकी थी! सिंह साहब पैसे वाले थे। पहले तो वे बहुत बिगड़े पर जब उन्हें मालूम हुआ कि लड़की भी पैसेवाली है तब वे शांत हो गए। परंतु कहने लगे कि बिना शादी के कैसे साथ रहेंगे! सो लड़की को एक निकट के रिश्तेदार के यहाँ रखने की योजना बनाई गई। सुनने में आया कि पहले तो उसने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया। शादी की बात सुनकर सिंह साहब के लड़के को मारने दौड़ी। खूब जोर-जोर से बोल रही थी। वह तो कबूतरी की माई को थोड़ी भी अंग्रेजी नहीं आती है। नहीं तो सारी बात पूरे मुहल्ले में पहुँच जाती। कबूतरी की माई ने सिर्फ इतना बताया कि ‘जब हम कपड़ा फींच रहे थे कि गोरकी मेम जोर-जोर से बोलने लगी। उसका देह तो बहुते उघार था। सिंह साहेब का तनिको लेहाज नहीं किया। ऊ तो सिंह साहेब का लड़िकवा हाथ-गोड़ जोड़ के रूम में ले गया। फिर ना जाने क्या हुआ!’

खैर किसी तरह लड़की को एक निकट के रिश्तेदार के यहाँ रखा गया। फिर शादी की बात शुरू हुई। सबसे पहले एक नामी पंडित से जन्मपत्री मिलवाई गई। पंडित जी के अनुसार दोनों की जन्मपत्री खूब मिली। फिर शुरू हुआ शादी का रस्मो-रिवाज। सिंह साहब का कहना था कि शादी पूरे विधि-विधान के साथ होने चाहिए। एक भी नेग-चार छुटने नहीं पाए। सचमुच में शायद ही कोई ऐसा नेग-चार हो जो छूटा हो। नेगचार बताने के लिए सिंह साहब के रिश्ते की एक बहन को खास तौर पर बुलवाया गया। अब गाँवों में भी जो नेग-चार नहीं होता है वह भी सिंह साहब के यहाँ होने लगा। इसी क्रम में बारात निकलते समय परीछावन होने लगा। मुहल्ले भर की औरतें सज-धज कर गईं थीं। परीछावन के लिए लोढ़े की जरूरत पड़ी और लोढ़ा था नहीं। बिना लोढ़े के परीछावन कैसे हो! बिना परीछावन के बारात कैसे निकले। सिंह साहब की बहन गरजने लगीं-

“अरे दुल्हिन! मैंने लिस्ट में लोढ़ा लिखवाया था। तुमसे एक काम नहीं हो सकता है। पतोह क्या खाक उतारोगी।”

“गाँव वाले लिस्ट में लोढ़ा था। हरीश-पालो तो आया पर......... ”

शहर में अब तो घर-घर मिक्सी है। बच्चों ने तो लोढ़े का नाम भी नहीं सुना है। औरों के घर तो अब औरतें हाथ में लोढ़ा लेने का स्वांग कर परीछावन कर देती हैं। लोढ़े के बिना किसी की बारात में व्यवधान नहीं हुआ है पर बाबू साहेब की बात ही दूसरी है। शादी पूरे नेग-चार के साथ होने वाली थी। पर लोढ़ा ही नहीं था कि परीछावन हो। औरतों के दल में खलबली मच गई। अब क्या होगा? तभी कबूतरी की माई ने याद दिलाया कि आंटी के घर सिलवट-लोढ़ा कबाड़खाना में पड़ा है। उसने परसों ही सफाई के दौरान देखा है। तारणहार बन गई कबूतरी की माई। सिंह साहब की पत्नी तुरंत आंटी के पास आईं। औरतों की हुजूम में एकाएक आंटी का मान बढ़ गया। सभी उसी की तरफ देख रही थीं। लोढ़ा आया। धो-पोंछ कर परीछावन हुआ। खुशी-खुशी बारात विदा हुई पर उस दिन से आंटी का नाम हो गया लोढ़ेवाली आंटी।

शुरू में तो आंटी को अच्छा लगता। लोढ़ेवाली आंटी कहने पर परीछावन वाली घटना की याद ताजी हो जाती। कितने मौके पर काम आई थी वह! पर धीरे-धीरे लोग उस घटना को भूलने लगे, नए लोग तो एकदम नहीं जानते। आंटी को इस नाम में पिछड़ेपन की बू आने लगी। उन्होंने इस नाम से अपना पीछा छुड़ाना चाहा पर सफल नहीं हुई। वे लोगों को मना करती तो लोग और चाव से, रस लेकर इसी नाम से पुकारते। हार-पाछ कर आंटी ने भीतर से अपने को लोढ़ेवाली आंटी मान लिया।

आज तो उनका जलवा देखते ही बनता है। वे सबको प्रो0 रवींद्र कुमार पांडेय की बेटी के मरने की असलियत बताने के लिए जमीन-आसमान एक किए हुए हैं। वे इसे हत्या बता रहीं हैं। उनके पास कबूतरी की माई जैसे विश्वसनीय गवाह है जिसने प्रो0 पांडेय और उनकी पत्नी को अनिता का गला दबाते देखा है। कबूतरी के माई का कहना है कि हमेशा की तरह प्रो0 पांडेय पूजा से उठकर अपनी बेटी को पीट रहे थे। वैसे तो प्रो0 पांडेय अपनी बेटी के पिटाई दिन में कई बाद करते परंतु पूजा के बाद की पिटाई इतनी नियमित थी कि लगता था कि यह भी पूजा का ही अंग है। इस बात को पास-पड़ोस, नाते-रिश्तेदार सभी जानते थे। प्रो0 पांडेय भी इसे छिपाने का प्रयास नहीं करते थे। अनिता के पीटे जाने पर लोगों की दो तरह की प्रतिक्रिया थी। कुछ लोग कहते हे भगवान! बाप होकर जवान बेटी को कसाई की तरह पीटते हैं। पीटने ही के मारे वह पागल हो गई है। अर्द्धविक्षिप्त की तरह रहती है।

कुछ लोग कहते अच्छा कर रहे हैं। इस कुलबोरनी को तो मार डालना चाहिए। मुसलामन के साथ भाग कर सात पुश्तों की इज्जत मिट्टी में मिला दिया। पीटने के क्रम में प्रो0 पांडेय आक्रामक हो जाते। अनीता कई बार घर से भाग कर लोगों के यहाँ छिप जाती।

लोढ़ेवाली आंटी का बखान चालू था। एक औरत ने कहा- “हो सकता है कि प्रोफेसर ने जान कर नहीं मारा हो। कई बार तो पहले भी गला दबाते थे।”

इस पर लोढ़ेवाली आंटी भड़क गई-

“उससे क्या! बेटी को मुआया न! बड़ा धर्मात्मा बनता है।”

आंटी बीते दिनों की एक-एक घटना सबको याद दिलाती। अगल-बगल बैठी महिलाएँ हुंकारी भरती। कुछ चालू महिलाएँ कोई-कोई बात याद दिलाती।