सूनी घाटी का सूरज / श्रीलाल शुक्ल / पृष्ठ 1
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प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह मानते हैं कि रेणु के आंचलिक उपन्यासों में रोमानियत प्रचुर मात्रा में मौजूद है, लेकिन श्रीलाल शुक्ल के उपन्यासों में एक कटु यथार्थ है। सचमुच की जिदगी की पूरी कड़वाहट उनके साहित्य में मिलती है। आम जन के लड़ने की ताकत उभर कर सामने आती है। नामवर सिंह की बात का प्रमाण देखना हो, तो श्रीलाल शुक्ल का 1957 में प्रकाशित पहला उपन्यास ‘सूनी घाटी का सूरज’ को लिया जा सकता है।
पहली रचना होने के बावजूद इस उपन्यास में स्वाधीन भारत के खेतिहर मजदूरों के उत्पीड़न का विशद् वर्णन उन्होंने किया है। पूरा उपन्यास एक भूमिहीन मजदूर के बेटे रामदास के संघर्ष के इर्द-गिर्द ही घूमता है। जमींदारी प्रथा उन दिनों पूरी तरह से खत्म नहीं हुई थी। उसके अवशेष अभी बाकी थे। उसकी बानगी श्रीलाल शुक्ल ने पेश किया है छठी कक्षा के छात्र रामदास के माध्यम से। गांव के सामंत ठाकुर साहब के हुक्म की तामील करते-करते रामदास के पिता की मृत्यु हो जाती है। अनाथ रामदास ठाकुर की कृपा पर निर्भर है। बाप की बलि ले लेने के बावजूद ठाकुर रामदास के बारे में कहते हैं,
'यह टुकड़खोर फीस के पैसे मांगता है। क्या इसके बाप ने कमाकर दिया था?’
ठाकुर की मंशा है कि रामदास स्कूल से नाम कटा ले, भैंस चराए, भीख मांगे या फिर अपनी औकात के अनुसार कुत्ते जैसा पड़ा रहे।
यदि हम 1957 के आसपास हिन्दी साहित्य पर नजर डालें, तो उन दिनों सक्रिय ज्यादातर साहित्यकार अपनी रचनाओं में शहरी मध्यवर्ग के अंतर्विरोधों और स्त्री-पुरुष संबंधों की अश्लील प्रस्तुति में लिप्त थे, लेकिन उस जमाने में भी भू-स्वामित्व के उन्मूलन और देहाती जीवन में हो रहे लोकतांत्रिक बदलाव को प्रस्तुत कर जैसे, श्रीलाल शुक्ल ने कथा सृजन की नई कार्यसूची पेश कर दी थी।
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