सूनी घाटी का सूरज / श्रीलाल शुक्ल / पृष्ठ 2
हिंदी साहित्य जगत के पुरोधा और परसाई, जोशी और शुक्ल की व्यंग्यत्रयी के अंतिम स्तंभ व्यंग्य उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल नहीं रहे। श्रीलाल शुक्ल के निधन के बाद प्रतिबद्धता और सरोकारों के साथ व्यंग्य लेखन की परंपरा अवरुद्ध होती दिखाई दे रही है। व्यक्ति, समाज और तंत्र जितनी परिपूर्णता के साथ श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं में परिलक्षित होता है, वह अन्यत्र दिखाई नहीं देता। श्रीलाल शुक्ल ने हिंदी साहित्य को ‘राग दरबारी’ जैसी कालजयी रचना दी। सन् 1968 में प्रकाशित व्यंग्य उपन्यास ‘राग दरबारी’ में ग्रामीण जीवन की विसंगतियों को प्याज के छिलके की तरह परत-दर-परत उधेड़ा गया है। जिन विसंगतियों को आज से लगभग पांच दशक पहले श्रीलाल शुक्ल जी ने भांप लिया था, वे आज हमारे समाज के सामने जीवंत खड़ी हैं। यह श्रीलाल शुक्ल की दूरदृष्टि ही थी कि उन्होंने भ्रष्टाचार, प्रेम, जातीयता या फिर ग्रामीण जीवन की विसंगितयों को जितनी शिद्दत से महसूस किया, उसे अपनी रचनाओं में पूरी शिद्दत के साथ उकेरा भी।
चाहे वह व्यंग्य उपन्यास ‘राग दरबारी’ हो या फिर ‘मकान’, ‘विश्रामपुर का संत’ और ‘राग विराग’ जैसे उपन्यास। उनकी रचनाओं में युग की गूंज थी। जिन दिनों व्यंग्य उपन्यास ‘राग दरबारी’ लिखा गया था, उन्हीं दिनों पूरे देश में नेहरू युग का अवसान हो रहा था। नेहरू की नीतियों और रीतियों से भारतीय जनमानस का मोहभंग हो रहा था, समाज में ऊहापोह की स्थिति थी। गरीबी और महंगाई ने अपने पंजे फैलाने शुरू कर दिए थे। ऐसी स्थितियों और मन:स्थितियों के बीच जब सबके सामने ‘राग दरबारी’ जैसा उपन्यास सामने आया, तो लोगों को लगा कि उनकी पीड़ा और सामाजिक विसंगतियों को श्रीलाल शुक्ल ने स्वर दे दिया है। शायद यही वजह है कि ‘राग दरबारी’ में कथानकों और पात्रों के माध्यम से व्यक्त की गई बातों को लोगों ने अपनी अभिव्यक्ति समझा।
श्रीलाल शुक्ल के बारे में प्रसिद्ध व्यंग्यकार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के अध्यक्ष गोपाल चतुर्वेदी कहते हैं कि श्रीलालजी एक ऐसे साहित्यकार थे, जो बहुत ही अध्ययनशील और मननशील रहे। उन्होंने अपने उपन्यासों में समाज के हर वर्ग, हर परिवर्तन और हर स्तर का वर्णन किया। यह एक दीगर विषय है कि ‘राग दरबारी’ कालजयी बन गया और लोगों ने अपने को उस तक सीमित कर लिया, अन्यथा श्रीलाल जी ने ‘विश्रामपुर का संत’ से लेकर ‘मकान’ और ‘राग विराग’ तक ऐसी रचनाएं की हैं, जो सभी हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य निधि हैं। श्री चतुर्वेदी के इस विचार के पीछे सशक्त कारण भी हैं। श्रीलाल जी को लेकर जब भी बात चलती थी, उनके व्यंग्य उपन्यास ‘राग दरबारी’ की ही चर्चा सबसे ज्यादा होती थी। उनके दूसरे उपन्यासों, कहानी संग्रहों या व्यंग्य संग्रहों की चर्चा या तो बहुत कम या बिल्कुल नहीं होती थी। आंचलिक उपन्यासों के लिए विख्यात फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ काफी मशहूर रहे हैं, लेकिन यदि श्रीलाल शुक्ल की कृतियों का सूक्ष्म विवेचन किया जाए, तो उनके कई उपन्यासों में आंचलिकता का भरपूर समावेश है।
प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह मानते हैं कि रेणु के आंचलिक उपन्यासों में रोमानियत प्रचुर मात्रा में मौजूद है, लेकिन श्रीलाल शुक्ल के उपन्यासों में एक कटु यथार्थ है। सचमुच की जिÞंदगी की पूरी कड़वाहट उनके साहित्य में मिलती है। आम जन के लड़ने की ताकत उभर कर सामने आती है। नामवर सिंह की बात का प्रमाण देखना हो, तो श्रीलाल शुक्ल का 1957 में प्रकाशित पहला उपन्यास ‘सूनी घाटी का सूरज’ को लिया जा सकता है। पहली रचना होने के बावजूद इस उपन्यास में स्वाधीन भारत के खेतिहर मजदूरों के उत्पीड़न का विशद् वर्णन उन्होंने किया है।
पूरा उपन्यास एक भूमिहीन मजदूर के बेटे रामदास के संघर्ष के इर्द-गिर्द ही घूमता है। जमींदारी प्रथा उन दिनों पूरी तरह से खत्म नहीं हुई थी। उसके अवशेष अभी बाकी थे। उसकी बानगी श्रीलाल शुक्ल ने पेश किया है छठी कक्षा के छात्र रामदास के माध्यम से। गांव के सामंत ठाकुर साहब के हुक्म की तामील करते-करते रामदास के पिता की मृत्यु हो जाती है। अनाथ रामदास ठाकुर की कृपा पर निर्भर है। बाप की बलि ले लेने के बावजूद ठाकुर रामदास के बारे में कहते हैं,
'यह टुकड़खोर फीस के पैसे मांगता है। क्या इसके बाप ने कमाकर दिया था?’
ठाकुर की मंशा है कि रामदास स्कूल से नाम कटा ले, भैंस चराए, भीख मांगे या फिर अपनी औकात के अनुसार कुत्ते जैसा पड़ा रहे। यदि हम 1957 के आसपास हिन्दी साहित्य पर नजर डालें, तो उन दिनों सक्रिय ज्यादातर साहित्यकार अपनी रचनाओं में शहरी मध्यवर्ग के अंतर्विरोधों और स्त्री-पुरुष संबंधों की अश्लील प्रस्तुति में लिप्त थे, लेकिन उस जमाने में भी भू-स्वामित्व के उन्मूलन और देहाती जीवन में हो रहे लोकतांत्रिक बदलाव को प्रस्तुत कर जैसे, श्रीलाल शुक्ल ने कथा सृजन की नई कार्यसूची पेश कर दी थी।
1968 में प्रकाशित 'राग दरबारी' के पहले 'अज्ञात वास' आ चुका था, किंतु आजाद हिन्दुस्तान की तीखी सच्चाइयों के आख्यान के लिए जैसी कथाशैली श्रीलाल शुक्ल ने 'राग दरबारी' में आविष्कृत की थी, उसके परिणामस्वरूप यह उपन्यास हिन्दी तथा हिन्दी से इतर भाषाओं के पाठकों के लिए मानो हकीकत को समझाने वाली गीता बन गया। इसका अंग्रेजी में भी अनुवाद हुआ और इस उपन्यास पर साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी श्रीलाल जी को मिला।
झूठ, फरेब और मक्कारी को उघाड़ कर सच्चाई अपने नंगे रूप में 'राग दरबारी' के माध्यम से सामने आ गई थी। बाद में ‘आदमी का जहर’ (1972), ‘सीमाएं टूटती हैं’(1973), ‘मकान’ (1976), ‘पहला पड़ाव’(1987) जैसे उपन्यासों की रचना के माध्यम से श्रीलाल शुक्ल भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते रहे। पर 1998 में प्रकाशित 'बिश्रामपुर का संत' और 2001 में प्रकाशित 'राग-विराग' इन दोनों उपन्यासों की कथावस्तुओं और पात्रों के चयन के माध्यम से फिर उन्होंने नए प्रस्थानबिंदु बनाए।
पहले में सामंतवाद की अकड़न-जकड़न और जुगुत्सापूर्ण यौन आकांक्षाओं के माध्यम से भूदान आंदोलन का आलोचनात्मक पर्चा पेश किया। दूसरे उपन्यास में सवर्ण समाज की ऐंठन तथा दलितों के बीच पनपते विचारधारात्मक दृष्टिकोण के द्वंद्व की कथा एक ट्रेजेडी का सृजन करती है।