सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 15
माणिक मुल्ला की गिनती पता नहीं क्यों सत्ती अपने मित्रों में करने लगी। एक ऐसा मित्र जिस पर पूर्ण विश्वास किया जा सकता है। एक ऐसा मित्र जिसे सभी साबुन के नुस्खे निस्संदेह बताए जा सकते थे। जिसके बारे में पूरा भरोसा था कि वह साबुन के नुस्खों को दूसरी कंपनीवालों को नहीं बता देगा। जिस पर सारा हिसाब छोड़ा जा सकता था, जिससे यह भी सलाह ली जा सकती थी कि हरधन स्टोर्स को माल उधार दिया जा सकता है या नहीं। माणिक के आते ही सत्ती सारा काम छोड़ कर उठ आती, दरी बिछा देती, जमे हुए साबुन के थाल ले आती और कमर से काला चाकू निकाल कर साबुन की सलाखें काटती जाती और माणिक को दिनभर का सारा दु:ख-सुख बताती जा बताती जाती। किस बनिए ने बेईमानी की, किसने सबसे ज्यादा साबुन बेचा, कहाँ किराने की नई दुकान खुली है, वगैरह।
माणिक मुल्ला उसके पास बैठ कर एक अजब-सी बात महसूस करते थे। इस मेहनत करनेवाली स्वाधीन लड़की के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था जो न पढ़ी-लिखी भावुक लिली में था और न अनपढ़ी दमित मनवाली जमुना में था। इसमें सहज स्वस्थ ममता थी जो हमदर्दी चाहती थी, हमदर्दी देती थी। जिसकी मित्रता का अर्थ था एक दूसरे के दु:ख-सुख, श्रम और उल्लास में हाथ बँटाना। उसमें कहीं से कोई गाँठ, कोई उलझन, कोई भय, कोई दमन, कोई कमजोरी नहीं थी, कोई बंधन नहीं था। उसका मन खुली धूप की तरह स्वच्छ था। अगर उसे लिली की तरह थोड़ी शिक्षा भी मिली होती तो सोने में सुहागा होता। मगर फिर भी उसमें जो कुछ था वह माणिक मुल्ला को आकाश के सपनों में विहार करने की प्रेरणा नहीं देता था, न उन्हें विकृतियों की अँधेरी खाइयों में गिराता था। वह उन्हें धरती पर सहज मानवीय भावना से जीने की प्रेरणा देती थी। वह कुछ ऐसी भावनाएँ जगाती थी जो ऐसी ही कोई मित्र संगिनी जगा सकती थी जो स्वाधीन हो, जो साहसी हो, जो मध्यवर्ग की मर्यादाओं के शीशों के पीछे सजी हुई गुड़िया की तरह बेजान और खोखली न हो। जो सृजन और श्रम में सामाजिक जीवन में उचित भाग लेती हो, अपना उचित देय देती हो।
मेरा यह मतलब नहीं कि माणिक मुल्ला उसके पास बैठ कर यह सब चिंतन किया करते थे। नहीं, यह सब तो उस परिस्थिति का मेरा अपना विश्लेषण है, वैसे माणिक मुल्ला को तो वह केवल बहुत अच्छी लगती थी और उन दिनों माणिक मुल्ला का मन पढ़ने में भी लगने लगा, काम करने में भी, और उनका वजन भी बढ़ गया और उन्हें भूख भी खुल कर लगने लगी, वे कॉलेज के खेलों में भी हिस्सा लेने लगे।
माणिक मुल्ला ने जरा झेंपते हुए यह भी स्वीकार किया कि उनके मन में सत्ती के लिए बहुत आकर्षण जाग गया था और अक्सर सत्ती की हाथी-दा माणिक मुल्ला ने जरा झेंपते हुए यह भी स्वीकार किया कि उनके मन में सत्ती के लिए बहुत आकर्षण जाग गया था और अक्सर सत्ती की हाथी-दाँत-सी गरदन को चूमते हुए उसके लंबे झूलते बुंदों को देख कर उनके होठ काँपने लगते थे, और माथे की नसों में गरम खून जोर से सूरज का सातवाँ घोड़ाने लगता था। पर सारी मित्रता के बावजूद कभी सत्ती के व्यवहार में उसे जमुना-सी कोई बात नहीं दिखाई पड़ी। माणिक की निगाह जब उसके झूलते हुए बुंदों पर पड़ती और उनका माथा गरम हो जाता, तभी उनकी निगाह सत्ती की कमर से झूलते हुए चाकू पर भी पड़ती और माथा फिर ठंडा हो जाता, क्योंकि सत्ती उन्हें बता चुकी थी कि एक बार एक बनिए ने साबुन की सलाखें रखवाते हुए कहा, 'साबुन तो क्या मैं साबुनवाली को भी दुकान पर रख लूँ' तो सत्ती ने फौरन चाकू खोल कर कहा, 'मुझे अपनी दुकान पर रख और ये चाकू अपनी छाती में रख कमीने!' तो सेठ ने सत्ती के पाँव छू कर कसम खाई कि वह तो मजाक कर रहा था, वरना वह तो अपनी पहली ही सेठानी नहीं रख पाया। वही दरबान के साथ चली गई अब भला सत्ती को क्या रखेगा!
इसी घटना को याद कर माणिक मुल्ला कभी कुछ नहीं कहते थे, पर मन-ही-मन एक अव्यक्त करुण उदासी उनकी आत्मा पर छा गई थी और उन दिनों वे कुछ कविताएँ भी लिखने लगे थे जो बहुत करुण विरहगीत होती थीं जिनमें कल्पना कर लेते थे कि सत्ती उनसे दूर कहीं चली गई है और फिर वे सत्ती को विश्वास दिलाते थे कि प्रिये, तुम्हारे प्रणय का स्वप्न मेरे हृदय में पल रहा है और सदा पलता रहेगा। कभी-कभी वे बहुत व्याकुल हो कर लिखते थे जिसका भावार्थ होता था कि मेघों की छाया में तो अब मुझसे तृषित नहीं रहा जाता, आदि-आदि। सारांश यह कि वे जो कुछ सत्ती से नहीं कह पाते थे उसे गीतों में बाँध डालते थे पर जब कभी सत्ती के सामने उन्होंने उसे गुनगुनाने का प्रयास किया तो सत्ती हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई और बोली, तुमने बन्ना सुना है? साँझी सुनी है? और तब वह मुहल्ले में गाए जानेवाले गीत इतनी दर्द-भरी आवाज में गाती थी कि माणिक मुल्ला भावविभोर हो उठते थे और अपने गीत उन्हें कृत्रिम और शब्दाडंबरपूर्ण लगने लगते थे। ऐसी थी सत्ती, सदैव निकट, सदैव दूर, अपने में एक स्वतंत्र सत्ता, जिसके साथ माणिक मुल्ला के मन को संतोष भी मिलता था और आकुलता भी।
कभी-कभी वे सोचते थे कि अपनी भावनाओं को पत्र के माध्यम से लिख डालें और वे कभी-कभी पत्र लिखते भी थे बहुत लंबे-लंबे और बहुत मधुर, यहाँ तक कि अगर वे बचे होते तो उनकी गणना नेपोलियन और सीजर के प्रेम-पत्रों के साथ की जाती, मगर जब उसमें 'आत्मा की ज्योति' - 'चाँद की राजकुमारी' आदि वे लिख चुकते तो उन्हें खयाल आता कि यह भाषा तो बेचारी सत्ती समझती नहीं, और जो भाषा उसकी समझ में आती थी उसका व्यवहार करने पर कमर में लटकनेवाले काले चाकू की तसवीर दिमाग में आ जाती थी। अत: उन्होंने वे सब खत फाड़ डाले।
उसी बीच में सत्ती की ममता माणिक के प्रति दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती गई और जब-जब माणिक मुल्ला कहीं जाते, बाहर बैठा हुआ चमन ठाकुर अपना कटा हाथ हिला कर इन्हें सलाम करता, हँसता और पीठ पीछे इन्हें बहुत खूनी निगाह से देख कर दाँत पीसता और पैर पटक कर हुक्के के अंगारे कुरेदता। सत्ती माणिक के खाने-पीने, कपड़े-लत्ते, रहन-सहन में बहुत दिलचस्पी लेती और बाद में अपनी अड़ोसिन-पड़ोसिन से बतलाती कि माणिक बारहवें दरजे में पढ़ रहे हैं और इसके बाद बड़े लाट के दफ्तर में इन्हें नौकरी मिल जाएगी और हमेशा माणिक को याद दिलाती रहती थी कि पढ़ने में ढिलाई मत करना।
पर एक बात अक्सर माणिक देखते थे कि सत्ती अब कुछ उदास-सी रहने लगी है और कोई ऐसी बात है जो यह माणिक से छिपाती है। माणिक ने बहुत पूछा पर उसने नहीं बताया। पर वह अक्सर चमन ठाकुर को झिड़क देती थी, राह में उसकी चिलम पड़ी रहती थी तो उसे ठोकर मार देती थी, खुद कभी हिसाब न करके उसके सामने कापी और वसूली के रुपए फेंक देती थी। चमन ठाकुर ने एक दिन माणिक से कहा कि मैं अगर इसे न ला कर पालता-पोसता तो इसे चील और गिद्ध नोच-नोच कर खा गए होते और यही जब माणिक ने सत्ती से कहा तो वह बोली, 'चील और गिद्ध खा गए होते तो वह अच्छा होता बजाय इसके कि यह राक्षस उसे नोचे खाए!' माणिक ने सशंकित हो कर पूछा तो वह बहुत झल्ला कर बोली, 'यह मेरा चाचा बनता है। इसीलिए पाल-पोस कर बड़ा किया था। इसकी निगाह में खोट आ गया है। पर मैं डरती नहीं। यह चाकू मेरे पास हमेशा रहता है।' और उसके बाद उन्होंने सत्ती को पहली बार रोते देखा और वह अनाथ, मेहनती और निराश्रित लड़की फूट-फूट कर रोई और उन्हें कई घटनाएँ बतायीं। यह बात सुन कर माणिक मुल्ला को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ पर वे बहुत व्यथित हुए और यह जान कर कि ऐसा भी हो सकता है उनके मन पर बहुत धक्का लगा। उस दिन शाम को उनसे खाना नहीं खाया गया और यह सोच कर उनकी आँख में आँसू भी आ गए कि यह जिंदगी इतनी गंदी और विकृत क्यों है।
उसके बाद उन्होंने देखा कि सत्ती और चमन ठाकुर में कटुता बढ़ती ही गई, साबुन का रोजगार भी ठंडा होता गया और अक्सर माणिक के जाने पर सत्ती रोती हुई मिलती और चमन ठाकुर चीखते-गरजते हुए मिलते। वे रिटायर्ड सोल्जर थे अत: कहते थे - शूट कर दूँगा तुझे। संगीन से दो टुकड़े कर दूँगा। तूने समझा क्या है? आदि-आदि।
सत्ती के चेहरे पर थोड़ी खुशी उस दिन आई जिस दिन उसे मालूम हुआ कि माणिक बारहवाँ दरजा पास हो गए हैं। उसने उस दिन महीनों बाद पहली बार चमन ठाकुर से जा कर दो रुपए माँगे, एक की मिठाई मँगाई और दूसरे के फूल-बताशे चंडी के चौतरे पर चढ़ा आई। पर उस दिन माणिक आए ही नहीं। जिस दिन माणिक आए उस दिन उसे यह जान कर बड़ी निराशा हुई कि माणिक नौकरी नहीं करेंगे, बल्कि पढ़ेंगे, हालाँकि भैया-भाभी ने साफ मना कर दिया है कि अब जमाना बुरा है और वे माणिक का खर्चा नहीं उठा सकते। सत्ती की राय भैया-भाभी के साथ थी; क्योंकि वह अपनी आँख से माणिक को बड़े लाट के दफ्तर में देखना चाहती थी, पर जब उसने माणिक की इच्छा पढ़ने की देखी तो कहा, 'उदास मत होओ। अगर मैं यहीं रही तो मैं दूँगी तुम्हें रुपए। अगर नहीं रही तो देखा जाएगा।'
माणिक मुल्ला ने घबरा कर पूछा कि 'कहाँ जाओगी तुम?' तो सत्ती ने एक और बात बताई जिससे माणिक स्तब्ध रह गए।
महेसर दलाल, यानी जमुनावाले तन्ना का पिता, अक्सर आया करता था और चूँकि दलाल होने के नाते उसकी सुनारों और सर्राफों से काफी जान-पहचान थी अत: वह गिलट के कड़े और पायल पर पॉलिश करा कर और चाँदी के गहनों पर नकली सुनहरा पानी चढ़वा कर लाता था और सत्ती को देने की कोशिश करता था। जब माणिक मुल्ला ने पूछा कि चमन ठाकुर कुछ नहीं कहते तो बोली कि रोजगार तो पहले ही चौपट हो चुका है, चमन गाँजा और दारू खूब पीता है। महेसर दलाल उसे रोज नए नोट ला कर देते हैं। रोज उसे अपने साथ ले जाते हैं। रात को वह पिए हुए आता है और ऐसी बातें बकता है कि सत्ती अपना दरवाजा अंदर से बंद कर लेती है और रात-भर डर के मारे उसे नींद नहीं आती। इतना कह कर वह रो पड़ी और बोली, सिवा माणिक के उसका अपना कोई नहीं है और माणिक भी उसे कोई रास्ता नहीं बताते।
माणिक उस दिन बहुत ही व्यथित हुए और उस दिन उन्होंने एक बहुत ही करुण कविता लिखी और उसे ले कर किसी स्थानीय पत्र में देने ही जा रहे थे कि रास्ते में सत्ती मिली। वह बहुत घबराई हुई थी और रोते-रोते उसकी आँखें सूज आई थीं। उसने माणिक को रोक कर कहा, 'तुम मेरे यहाँ मत आना। चमन ठाकुर तुम्हारा कत्ल करने पर उतारू है। चौबीसों घंटे नशे में धुत रहता है। तुम्हें मेरी माँग की कसम है। तुम फिकर न करना। मेरे पास चाकू रहता है और फिर कोई मौका पड़ा तो तुम तो हो ही। जानते हो, वह बूढ़ा पोपला महेसरा मुझसे ब्याह करने को कह रहा है!'
माणिक का मन बहुत आकुल रहा। कई बार उन्होंने चाहा कि सत्ती की ओर जाएँ पर सच बात है कि नशेबाज चमन का क्या ठिकाना, एक ही हाथ है पर सिपाही का हाथ ठहरा।
इस बीच में एक बात और हुई। यह सारा किस्सा माणिक मुल्ला के नाम के साथ बहुत नमक-मिर्च के साथ फैल गया और मुहल्ले की कई बूढ़ियों ने आ कर बीजा छीलते हुए माणिक की भाभी को कहानी बताई और ताकीद की कि उसका ब्याह कर देना चाहिए, कई ने तो अपने नातेदारों की सुंदर सुशील लड़कियाँ तक बताईं। भाभी ने थोड़ी अपनी तरफ से भी जोड़ कर भइया से पूरा किस्सा बताया और भइया ने दूसरे दिन माणिक को बुला कर समझाया कि उन्हें माणिक पर पूरा विश्वास है, लेकिन माणिक अब बच्चे नहीं हैं, उन्हें दुनिया को देख कर चलना चाहिए। इन छोटे लोगों को मुँह लगाने से कोई फायदा नहीं। ये सब बहुत गंदे और कमीने किस्म के होते हैं। माणिक के खानदान का इतना नाम है। माणिक अपने भइया के स्नेह पर बहुत रोए और उन्होंने वायदा किया कि अब वे इन लोगों से नहीं घुले-मिलेंगे।
दो-तीन बार सत्ती आई पर माणिक मुल्ला अपने घर से बाहर नहीं निकले और कहला दिया कि नहीं हैं। माणिक अक्सर जमुना के यहाँ जाया करते थे और एक दिन जमुना के दरवाजे पर सत्ती मिली। माणिक कुछ नहीं बोले तो सत्ती रो कर बोली, 'नसीब रूठ गया तो तुमने भी साथ छोड़ दिया। क्या गलती हो गई मुझसे?' माणिक ने घबरा कर चारों ओर देखा। भइया के दफ्तर से लौटने का वक्त हो गया था। सत्ती उनकी घबराहट समझ गई, क्षण-भर उनकी ओर बड़ी अजब निगाह से देखती रही फिर बोली, 'घबराओ न माणिक! हम जा रहे हैं।' और आँसू पोंछ कर धीरे-धीरे चली गई।
उन्हीं दिनों भाभी और माणिक के बीच अक्सर झगड़ा हुआ करता था क्योंकि भाभी-भइया साफ कह चुके थे कि माणिक को अब कहीं नौकरी कर लेनी चाहिए। पढ़ने की कोई जरूरत नहीं। पर माणिक पढ़ना चाहते थे। भाभी ने एक दिन जब बहुत जली-कटी सुनाई तो माणिक उदास हो कर एक बाग में जा कर बरगद के नीचे बेंच पर बैठ गए और सोचने लगे कि क्या करना चाहिए।
थोड़ी देर बाद उन्हें किसी ने पुकारा तो देखा सामने सत्ती। बिलकुल शांत, मुरदे की तरह सफेद चेहरा, भावहीन जड़ आँखें, आई और आ कर पाँवों के पास जमीन पर बैठ गई और बोली, 'आखिर जो सब चाहते थे वह हो गया।'