सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 14
पाँचवीं दोपहर
काले बेंट का चाकू
अगले दिन दोपहर को जब हम सब लोग मिले तो एक अजब-सी मन:स्थिति थी हम लोगों की। हम सब इस रंगीन रूमानी प्रेम के प्रति अपना मोह तोड़ नहीं पाते थे, और दूसरी ओर उस पर हँसी भी आती थी, तीसरी ओर एक अजब-सी ग्लानि थी अपने मन में कि हम सब, और हम सबके ये किशोरावस्था के सपने कितने निस्सार होते हैं और इन सभी भावनाओं का संघर्ष हमें एक अजीब-सी झेंप और झुँझलाहट - बल्कि उसे खिसियाहट कहना बेहतर होगा - की स्थिति में छोड़ गया था। लेकिन माणिक मुल्ला बिलकुल निर्द्वंद्व भाव से प्रसन्नचित्त हम लोगों से हँस-हँस कर बातें करते जा रहे थे और आलमारी तथा मेज पर से धूल झाड़ते जा रहे थे जो रात को आँधी के कारण जम जाती है, और ऐसा लगता था कि जैसे आदमी पुराने फटे हुए मोजों को कूड़े पर फेंक देता है उसी तरह अपने उस सारे रूमानी भ्रम को, सारी ममता छोड़ कर फेंक दिया है और उधर मुड़ कर देखने का भी मोह नहीं रखा।
सहसा मैंने पूछा, 'इस घटना ने तो आपके मन पर बहुत गहरा प्रभाव डाला होगा?'
मेरे इस प्रश्न से उनके चेहरे पर दो-चार बहुत करुण रेखाएँ उभर आईं लेकिन उन्होंने बड़ी चतुरता से अपनी मन:स्थिति छिपाते हुए कहा, 'मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी, कोई घटना ऐसी नहीं जो आदमी के अंतर्मन पर गहरी छाप न छोड़ जाए।'
'कम-से-कम अगर मेरे जीवन में ऐसा हो, तो मेरी तो सारी जिंदगी बिलकुल मरुस्थल हो जाए। शायद दुनिया की कोई चीज मेरे मन में कभी रस का संचार न कर सके।' मैंने कहा।
माणिक मुल्ला मेरी ओर देख कर हँसे और बोले, 'इसके यह मतलब हैं कि तुमने अभी न तो जिंदगी देखी है और न अभी अच्छे उपन्यास ही पढ़े हैं। ज्यादातर ऐसा ही हुआ है, और ऐसा ही सुना गया है मित्रवर, कि इस प्रकार की निष्फल उपासना के बाद फिर जिंदगी में कोई दूसरी लड़की आती है जो बौद्धिक, नैतिक तथा आर्थिक दृष्टि से निम्नतर स्तर की होती है पर जिसमें अधिक ईमानदारी, अधिक चरित्र, अधिक वफादारी और अधिक बल होता है। मसलन शरत चटर्जी के देवदास मुखर्जी को ही ले लो। पारो के बाद उन्हें चंद्रा मिली। इसी तरह के अन्य कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं। माणिक मुल्ला को क्या तुम कम समझते हो? माणिक मुल्ला ने लिली के बाद गांधारी की तरह अपनी आँखों पर जीवन भर के लिए पट्टी बाँध लेने की कसम खा ली। लेकिन अच्छा होता कि पट्टी ही बाँध लेता क्योंकि लिली के बाद सत्ती का आकर्षण मेरे लिए शुभ नहीं हुआ और न उसके ही लिए। लेकिन वह बिलकुल दूसरी धातु की थी, जमुना से भी अलग और लिली से भी अलग। बड़ी विचित्र है उसकी कहानी भी...'
'लेकिन मुल्ला भाई! एक बात मैं कहूँगा, अगर तुम बुरा न मानो
तो - 'प्रकाश ने बात काट कर कहा, 'ये कहानियाँ जो तुम कहते हो बिलकुल सीधे-सादे विवरण की भाँति होती हैं। उनमें कुछ कथाशिल्प, कुछ काट-छाँट, कुछ टेकनीक भी तो होना चाहिए!'
'टेकनीक! हाँ टेकनीक पर ज्यादा जोर वही देता है जो कहीं-न-कहीं अपरिपक्व होता है, जो अभ्यास कर रहा है, जिसे उचित माध्यम नहीं मिल पाया। लेकिन फिर भी टेकनीक पर ध्यान देना बहुत स्वस्थ प्रवृत्ति है बशर्ते वह अनुपात से अधिक न हो जाए। जहाँ तक मेरा सवाल है मुझे तो कहानी कहने के दृष्टिकोण से फ्लाबेयर और मोपासा बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि उनमें पाठक को अपने जादू में बाँध लेने की ताकत है, वैसे उनके बाद चेखव कहानी के क्षेत्र में विचित्र व्यक्ति रहा है और मैं उसका लोहा मानता हूँ। चेखव ने एक बार किसी महिला से कहा था, 'कहानी कहना कठिन बात नहीं है। आप कोई चीज मेरे सामने रख दें, यह शीशे का गिलास, यह ऐश-ट्रे और कहें कि मैं इस पर कहानी कहूँ। थोड़ी देर में मेरी कल्पना जागृत हो जाएगी और उससे संबद्ध कितने लोगों के जीवन मुझे याद आ जाएँगे और वह चीज कहानी का सुंदर विषय बन जाएगी।'
मैंने अवसर का लाभ उठाते हुए फौरन वह काले बेंटवाला चाकू ताख पर से उठाया और बीच में रखते हुए कहा, 'अच्छा इसको सत्ती की कहानी का केंद्र-बिंदु बनाइए!'
'बनाइए!' माणिक मुल्ला गंभीर हो कर बोले, 'यह तो उसकी कहानी का केंद्र-बिंदु है ही! जब मैं यह चाकू देखता हूँ तो कल्पना करता हूँ - इसके काले बेंट पर बहुत सुंदर फूल की पाँखुरियों जैसे गुलाबी नाखूनोंवाली लंबी पतली उँगलियाँ आवेश से काँप रही हैं, एक चेहरा जो आवेश से आरक्त है, थोड़ी निराशा से नीला है और थोड़े डर से विवर्ण है! यह स्मृति-चित्र है सत्ती का जब वह अंतिम बार मुझे मिली थी और मैं आँख उठा कर उसकी ओर देख भी नहीं सका था। उसके हाथ में यही चाकू था।'
उसके बाद उन्होंने सत्ती की जो कहानी बताई, उसे टेकनीक न निबाह कर मैं संक्षेप में बताए देता हूँ :
माणिक मुल्ला का कहना था कि वह लड़की अच्छी नहीं कही जा सकती थी क्योंकि उसके रहन-सहन में एक अजब-सी विलासिता झलकती थी, चाल-ढाल भी बहुत उद्दीप्त करनेवाली थी, वह हर आने-जानेवाले, परिचित-अपरिचित से बोलने-बतियाने के लिए उत्सुक रहती थी, गली में चलते-चलते गुनगुनाती रहती थी और अकारण ही लोगों की ओर देख कर मुसकरा दिया करती थी।
लेकिन माणिक मुल्ला का कहना था कि वह लड़की बुरी भी नहीं कही जा सकती थी क्योंकि उसके बारे में कोई वैसी अफवाह नहीं थी और सभी लोग अच्छी तरह जानते थे कि अगर कोई उसकी तरफ ऐसी-वैसी निगाह से देखता तो वह आँखें निकाल सकती है। उसकी कमर में एक काले बेंट का चाकू हमेशा रहा करता था।
लोगों का यह कहना था कि उसका चाचा, जिसके साथ वह रहती थी, रिश्ते में उसका कोई नहीं है, वह असल में फतेहपुर के पास के किसी गाँव का नाई है जो सफरमैना पल्टन में भरती हो कर क्वेटा बलूचिस्तान की ओर गया था और वहाँ किसी गाँव के नेस्तनाबूद हो जाने के बाद यह तीन-चार बरस की लड़की उसे रोती हुई मिली थी जिसे वह उठा लाया और पालने-पोसने लगा था। बहुत दिनों तक वह लड़की उधर ही रही, और अंत में उसका एक हाथ कट जाने के बाद उसे पेंशन मिल गई और वह आ कर यहीं रहने लगा। एक हाथ कट जाने से वह अपना पुश्तैनी पेशा तो नहीं कर सकता था, लेकिन उसने यहाँ आ कर साबुनसाजी शुरू कर दी थी और चमन ठाकुर का पहिया छाप साबुन न सिर्फ मुहल्ले में, वरन चौक तक की दुकानों पर बेचा जाता था। चूँकि उसका एक हाथ कटा हुआ था, अत: सोलह-सत्रह साल की अनिंद्य सुंदरी सत्ती साबुन जमाती थी, उसके टुकड़े उसी काले बेंट के चाकू से काटती थी, उन्हें दुकानदारों के यहाँ पहुँचाती थी और हर पखवारे के अंत में जा कर उसका दाम वसूल कर लाती थी। हर दुकानदार उसके सिर पर बँधे रंग-बिरंगे रूमाल, उसके बलूची कुरते, उसके चौड़े गरारे की ओर एक दबी निगाह डालता और दूसरे साबुनों के बजाय पहिया छाप साबुन दुकान पर रखता, ग्राहकों से उसकी सिफारिश करता और उसकी यह तमन्ना रहती कि कैसे सत्ती को पखवारे के अंत में ज्यादा-से-ज्यादा कलदार दे सके।
चमन ठाकुर कारखाने के बाहर खाट डाल कर नारियल का हुक्का पीते रहते थे और सत्ती अंदर काम करती थी। श्रम ने सत्ती के बदन में एक ऐसा गठन, चेहरे पर एक ऐसा तेज, बातों में एक ऐसा अदम्य आत्मविश्वास पैदा कर दिया था कि जब उसे माणिक मुल्ला ने देखा तो उनके मन में लिली का अभाव बहुत हद तक भर गया और सत्ती के व्यक्तित्व से मंत्र-मुग्ध हो गए।
सत्ती से उनकी भेंट अजब ढंग से हुई। कारखाने के बाहर चमन और सत्ती मिल कर गंगा महाजन के यहाँ का देना-पावना जोड़ रहे थे। चमन ने जो कुछ पढ़ा-लिखा था वह भूल चुके थे, सत्ती ने थोड़ा पढ़ा था पर यह हिसाब काफी जटिल था। उधर माणिक मुल्ला दही ले कर घर जा रहे थे कि दोनों को हिसाब पर झगड़ते देखा। सत्ती सिर झटकती थी तो उसके कानों के दोनों बुंदे चमक उठते थे और हँसती थी तो मोती-से दाँत चमक जाते थे, मुड़ती थी तो कंचन-सा बदन झलमला उठता था और सिर झुकाती थी तो नागिन-सी अलकें झूल जाती थीं। अब अगर माणिक मुल्ला के कदम धरती से चिपक ही गए तो इसमें माणिक मुल्ला का कौन कसूर?
इतने में चमन ठाकुर बोले, 'जै राम जी की भइया!' और उनके कटे हुए दाएँ हाथ ने जुंबिश खाई और फिर लटक गया। सत्ती हँस कर बोली, 'लो जरा हिसाब जोड़ दो माणिक बाबू!' और माणिक बाबू भाभी के लिए दही ले जाना भूल कर इतनी देर तक हिसाब लगाते रहे कि भाभी ने खूब डाँटा। लेकिन उस दिन से अक्सर उनके जिम्मे सत्ती का हिसाब जोड़ना आता रहा और गणितशास्त्र में एकाएक उनकी जैसी दिलचस्पी बढ़ गई, उसे देख कर ताज्जुब होता था।