सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 13

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'हूँ तो नहीं, कभी-कभी हो जाता हूँ! लिली, एक अँग्रेजी की कविता है - 'ए लिली गर्ल नॉट मेड फॉर दिस वर्ल्डस पेन!' एक फूल-सी लड़की जो इस दुनिया के दु:ख-दर्द के लिए नहीं बनी। लिली यह कवि तुम्हें जानता था क्या? 'लिली' - तुम्हारा नाम तक लिख दिया है।'

'हूँ! हमें तो जरूर जानता था। तुम्हें भी एक नई बात रोज सूझती रहती है।'

'नहीं! देखो उसने यहाँ तक तो लिखा है - 'एंड लांगिंग आइज हाफ वेल्ड विद स्लंबरस टीयर्स, लाइक ब्लूएस्ट वाटर्स सोन थ्रू मिस्ट्स, ऑफ रेन' - लालसा-भरी निगाहें, उनींदे आँसुओं से आच्छादित जैसे पानी की बौछार में धुँधली दीखने वाली नील झील...'

सहसा तड़प कर दूर कहीं बिजली गिरी और लिली चौंक कर भागी और बदहवास माणिक के पास आ गिरी। दो पल तक बिजली की दिल दहला देनेवाली आवाज गूँजती रही और लिली सहमी हुई गौरैया की तरह माणिक की बाँहों के घेरे में खड़ी रही। फिर उसने आँखें खोलीं, और झुक कर माणिक के पाँवों पर दो गरम होंठ रख दिए। माणिक की आँखों में आँसू आ गए। बाहर बारिश धीमी पड़ गई थी। सिर्फ छज्जों से, खपरैलों से टप-टप कर बूँदें चू रही थीं। हल्के-हल्के बादल अँधेरे में उड़े जा रहे थे।

सुबह लिली जागी - लेकिन नहीं, जागी नहीं - लिली को रात-भर नींद आई नहीं थी। उसे पता नहीं कब माँ ने खाने के लिए जगाया, उसने कब मना कर दिया, कब और किसने उसे पलँग पर लिटाया - उसे सिर्फ इतना याद है कि रात-भर वह पता नहीं किसके पाँवों पर सिर रख कर रोती रही। तकिया आँसुओं से भीग गया था, आँखें सूज आई थीं।

कम्मो सुबह ही आ गई थी। आज लिली को जेवर पहनाया जानेवाला था, शाम को सात बजे लोग आनेवाले थे, सास तो थी ही नहीं, ससुर आनेवाले थे और कम्मो, जो लिली की घनिष्ट मित्र थी, पर उस घर को सजाने का पूरा भार था और लिली थी कि कम्मो के कंधे पर सिर रख कर इस तरह बिलखती थी कि कुछ पूछो मत!

कम्मो बड़ी यथार्थवादिनी, बड़ी ही अभावुक लड़की थी। उसने इतनी सहेलियों की शादियाँ होते देखी थीं। पर लिली की तरह बिना बात के बिलख-बिलख कर रोते किसी को नहीं देखा था। जब विदा होने लगे तो उस समय तो रोना ठीक है, वरना चार बड़ी-बूढ़ियाँ कहने लगती हैं कि देखो! आजकल की लड़कियाँ हया-शरम धो के पी गई हैं। कैसी ऊँट-सी गरदन उठाए ससुराल चली जा रही हैं। अरे हम लोग थे कि रोते-रोते भोर हो गई थी और जब हाथ-पाँव पकड़ के भैया ने डोली में ढकेल दिया तो बैठे थे। एक ये हैं! आदि।

लेकिन इस तरह रोने से क्या फायदा और वह भी तब जब माँ या और लोग सामने न हों। सामने रोए तो एक बात भी है! बहरहाल कम्मो बिगड़ती रही और लिली के आँसू थमते ही न थे।

कम्मो ने काम बहुत जल्दी ही निबटा लिया लेकिन वह घर में कह आई थी कि अब दिन-भर वहीं रहेगी। कम्मो ठहरी घूमने-फिरनेवाली कामकाजी लड़की। उसे खयाल आया कि उसे एलनगंज जाना है, वहाँ से अपनी कढ़ाई की किताबें वगैरह वापस लानी हैं, और फिर उसे एक क्षण चैन नहीं पड़ा। उसने लिली की माँ से पूछा, जल्दी से लिली को मार-पीट कर जबरदस्ती तैयार किया और दोनों सखियाँ चल पड़ीं।

बादल छाए हुए थे और बहुत ही सुहावना मौसम था। सडक़ों पर जगह-जगह पानी जमा था, जिनमें चिड़ियाँ नहा रही थीं। एलनगंज में अपना काम निबटा कर दोनों पैदल टहलने चल दीं। थोड़ी ही दूर आगे बाँध था, जिसके नीचे से एक पुरानी रेल की लाइन गई थी जो अब बंद पड़ी थी। लाइनों के बीच में घास उग आई थी और बारिश के बाद घास में लाल हीरों की तरह जगमगाती हुई बीरबहूटियाँ रेंग रही थीं। दोनों सखियाँ वहीं बैठ गईं - एक बीरबहूटी रह-रह कर उस जंग खाए हुए लोहे की लाइन को पार करने की कोशिश कर रही थी और बार-बार फिसल कर गिर जाती थी। लिली थोड़ी देर उसे देखती रही और फिर बहुत उदास हो कर कम्मो से बोली, 'कम्मो रानी! अब उस पिंजरे से निस्तार नहीं होगा, कहाँ ये घूमना-फिरना, कहाँ तुम।' कम्मो जो एक घास की डंठल चबा रही थी, तमक कर बोली, 'देखो लिल्ली घोड़ी! मेरे सामने ये अँसुआ ढरकाने से कोई फायदा नहीं। समझीं! हमें ये सब चोचला अच्छा नहीं लगता। दुनिया की सब लड़कियाँ तो पैदा होके ब्याह करती हैं, एक तुम अनोखी पैदा हुई हो क्या? और ब्याह के पहले सभी ये कहती हैं, ब्याह के बाद भूल भी जाओगी कि कम्मो कंबख्त किस खेत की मूली थी!'

लिली कुछ नहीं बोली, खिसियानी-सी हँसी हँस दी। दोनों सखियाँ आगे चलीं। धीरे-धीरे लिली बीरबहूटियाँ बटोरने लगी। सहसा कम्मो ने उसे एक झाड़ी के पास पड़ी साँप की केंचुल दिखाई, फिर दोनों एक बहुत बड़े अमरूद के बाग के पास आईं और दो-तीन बरसाती अमरूद तोड़ कर खाए जो काफी बकठे थे, और अंत में पुरानी कब्रों और खेतों में से होती हुई वे एक बहुत बड़े-से पोखरे के पास आईं जहाँ धोबियों के पत्थर लगे हुए थे। केंचुल, बीरबहूटी, अमरूद और हरियाली ने लिली के मन को एक अजीब-सी राहत दी और रो-रो कर थके हुए उसके मन ने उल्लास की एक करवट ली। उसने चप्पल उतार दी और भीगी हुई घास पर टहलने लगी। थोड़ी देर में लिली बिलकुल दूसरी ही लिली थी, हँसी की तरंगों पर धूप की तरह जगमगाने वाली, और शाम को पाँच बजे जब दोनों घर लौटीं तो उनकी खिलखिलाहट से मुहल्ला हिल उठा और लिली को बहुत कस कर भूख लग आई थी।

दिन-भर घूमने से लिली को इतनी जोर की भूख लग आई थी कि आते ही उसने माँ से नाश्ता माँगा और जब अपने आप अलमारी से निकालने लगी तो माँ ने टोका कि खुद खा जाएगी तो तेरे ससुर क्या खाएँगे तो हँस के बोली, 'अरे उन्हें मैं बचा-खुचा अपने हाथ से खिला दूँगी। पहले चख तो लूँ, नहीं बदनामी हो बाद में!' इतने में मालूम हुआ वे लोग आ गए तो झट से वह नाश्ता आधा छोड़ कर अंदर गई। कम्मो ने उसे साड़ी पहनाई, उसे सजाया-सँवारा लेकिन उसे भूख इतनी लगी थी कि उन लोगों के सामने जाने के पहले वह फिर बैठ गई और खाने लगी, यहाँ तक कि कम्मो ने जबरदस्ती उसके सामने से तश्तरी हटा ली और उसे खींच ले गई।

दिन-भर खुली हवा में घूमने से और पेट भर कर खाने से सुबह लिली के चेहरे पर जो उदासी छाई थी वह बिलकुल गायब हो गई थी और उन लोगों को लड़की बहुत पसंद आई और पिछले दिन शाम को उसके जीवन में जो जलजला शुरू हुआ था वह दूसरे दिन शाम को शांत हो गया।

इतना कह कर माणिक मुल्ला बोले, 'और प्यारे बंधुओ! देखा तुम लोगों ने! खुली हवा में घूमने और सूर्यास्त के पहले खाना खाने से सभी शारीरिक और मानसिक व्याधियाँ शांत हो जाती हैं अत: इससे क्या निष्कर्ष निकला?'

'खाओ, बदन बनाओ!' हम लोगों ने उनके कमरे में टँगे फोटो की ओर देखते हुए एक स्वर में कहा।

'लेकिन माणिक मुल्ला!' ओंकार ने पूछा, 'यह आपने नहीं बताया कि लड़की को आप कैसे जानते थे, क्यों जानते थे, कौन थी यह लड़की?'

'अच्छा! आप लोग चाहते हैं कि मैं कहानी का घटनाकाल भी चौबीस घंटे रखूँ और उसमें आपको सारा महाभारत और इनसाइक्लोपीडिया भी सुनाऊँ! मैं कैसे जानता था इससे आपको क्या मतलब? हाँ, यह मैं आपको बता दूँ कि यह लीला वही लड़की थी जिसका ब्याह तन्ना से हुआ था और उस दिन शाम को महेसर दलाल उसे देखने आनेवाले थे!'