सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 12
'आँधी आनेवाली है बेटी! चलो खाना खा लो!' माँ ने दरवाजे पर से कहा। लड़की कुछ नहीं बोली, सिर्फ सिर हिला दिया। माँ कुछ नहीं बोली, इसरार भी नहीं किया। माँ की अकेली लड़की थी, घर-भर में माँ और बेटी ही थीं, बेटी समझो तो बेटा समझो तो! बेटी की बात काटने की हिम्मत किसी में किसी में नहीं थी। माँ थोड़ी देर चुपचाप खड़ी रही, चली गई। लड़की सूनी-सूनी आँखों से चुपचाप जामुनी रंग के घिरते हुए बादलों को देखती रही और उन पर धधकते हुए गुलाबों को और उन पर घिरती हुई आँधी को। शाम ने धुँधलके का सुरमई दुपट्टा ओढ़ लिया। वह चुपचाप वहीं बैठी रही, बेले की बनी हुई कला-प्रतिमा की तरह, निगाहों में रह-रह कर नरगिस, उदास और लजीली नरगिस झूम जाती थी। 'कहिए जनाब!' माणिक ने प्रवेश किया तो वह उठी और चुपचाप लाइट ऑन कर दी। माणिक मुल्ला ने उसकी खिन्न मन:स्थिति, उसका अश्रुसिक्त मौन देखा तो रुक गए और गंभीर हो कर बोले, 'क्या हुआ? लिली! लिली!' 'कुछ नहीं!' लड़की ने हँसने का प्रयास करते हुए कहा, मगर आँखें डबडबा आईं और वह माणिक मुल्ला के पाँवों के पास बैठ गई। माणिक ने उसके बुंदों में उलझी एक सूखी लट को सुलझाते हुए कहा, 'तो नहीं बताओगी?' 'हम कभी छिपाते हैं तुमसे कोई बात!' 'नहीं, अब तक तो नहीं छिपाती थी, आज से छिपाने लगी हो!' 'नहीं, कोई बात नहीं। सच मानो!' लड़की ने, जिसका नाम लीला था लिली नाम से पुकारी जाती थी, माणिक की कमीज के काँच के बटन खोलते और बंद करते हुए कहा। 'अच्छा मत बताओ! हम भी अब तुम्हें कुछ नहीं बताएँगे।' माणिक ने उठने का उपक्रम करते हुए कहा। 'तो चले कहाँ -' वह माणिक के कंधे पर झुक गई - 'बताती तो हूँ।' 'तो बताओ!' लिली थोड़ा झेंप गई और फिर उसने माणिक की हथेली अपनी सूजी पलकों पर रख कर कहा, 'हुआ ऐसा कि आज देवदास देखने गए थे। कम्मो भी साथ थी। खैर, उसकी समझ में आई नहीं। मुझे पता नहीं कैसा लगने लगा। माणिक, क्या होगा, बताओ? अभी तो एक दिन तुम नहीं आते हो तो न खाना अच्छा लगता है, न पढ़ना। फिर महीनों-महीनों तुम्हें नहीं देख पाएँगे। सच, वैसे चाहे जितना हँसते रहो, बोलते रहो, पर जहाँ इस बात का ध्यान आया कि मन को जैसे पाला मार जाता है।' माणिक कुछ नहीं बोले। उनकी आँखों में एक करुण व्यथा झलक आई और चुपचाप बैठे रहे। आँधी आ गई थी और मेज के नीचे सिनेमा के दो आधे फटे हुए टिकट आँधी की वजह से तमाम कमरे में घायल तितलियों के जोड़े की तरह इधर-उधर उड़ कर दीवारों से टकरा रहे थे। माणिक के पाँवों पर टप से एक गरम आँसू चू पड़ा तो उन्होंने चौंक कर देखा लिली की पलकों में आँसू छलक रहे थे। उन्होंने हाथ पकड़ कर लिली को पास खींच लिया और उसे सामने बिठा कर, उसके दो नन्हे उजले कबूतरों जैसे पाँवों पर उँगली से धारियाँ खींचते हुए बोले, 'छि:! यह सब रोना-धोना हमारी लिली को शोभा नहीं देता। यह सब कमजोरी है, मन का मोह और कुछ नहीं। तुम जानती हो कि मेरे मन में कभी तुम्हारे लिए मोह नहीं रहा, तुम्हारे मन में मेरे लिए कभी अधिकार की भावना नहीं रही। अगर हम दोनों जीवन में एक दूसरे के निकट आए भी तो इसलिए कि हमारी अधूरी आत्माएँ एक दूसरे को पूर्ण बनाएँ, एक दूसरे को बल दें, प्रकाश दें, प्रेरणा दें। और दुनिया की कोई भी ताकत कभी हमसे हमारी इस पवित्रता को छीन नहीं सकती। मैं जानता हूँ कि तमाम जीवन मैं जहाँ कहीं भी रहूँगा, जिन परिस्थितियों में भी रहूँगा, तुम्हारा प्यार मुझे बल देता रहेगा फिर तुममें इतनी अस्थिरता क्यों आ रही है? इसका मतलब यह है कि पता नहीं मुझमें कौन-सी कमी है कि तुम्हें वह आस्था नहीं दे पा रहा हूँ!' लिली ने आँसू डूबी निगाहें उठाईं और कायरता से माणिक की ओर देखा जिसका अर्थ था - 'ऐसा न कहो, मेरे जीवन में, मेरे व्यक्तित्व में जो कुछ है तुम्हारा ही तो दिया हुआ है।' पर लिली ने यह शब्दों से नहीं कहा, निगाहों से कह दिया। माणिक ने धीरे-से उसी के आँचल से उसके आँसू पोंछ दिए। बोले, 'जाओ, मुँह धो आओ! चलो!' लिली मुँह धो कर आ गई। माणिक बैठे हुए रेडियो की सुई इस तरह घुमा रहे थे कि कभी झम से दिल्ली बज उठता था, कभी लखनऊ की दो-एक अस्फुट संगीतलहरी सुनाई पड़ जाती थी, कभी नागपुर, कभी कलकत्ता, (इलाहाबाद में सौभाग्य से तब तक रेडियो स्टेशन था ही नहीं!) लिली चुपचाप बैठी रही, फिर उठ कर उसने रेडियो ऑफ कर दिया और आकुल आग्रह-भरे स्वर में बोली, 'माणिक, कुछ बात करो! मन बहुत घबरा रहा है।' माणिक हँसे और बोले, 'अच्छा आओ बात करें, पर हमारी लिली जितनी अच्छी बात कर लेती है, उतनी मैं थोड़े ही कर पाता हूँ। लेकिन खैर! तो तुम्हारी कम्मो की समझ में तसवीर नहीं आई!' 'उहूँक!' 'कम्मो बड़ी कुंदजेहन है, लेकिन कोशिश हमेशा यही करती है कि सब काम में टाँग अड़ाए।' 'तुम्हारी जमुना से तो अच्छी ही है!' जमुना के जिक्र पर माणिक को हँसी आ गई और फिर आग्रह से, बेहद दुलार और बेहद नशे से लिली की ओर देखते हुए बोले, 'लिली, तुमने स्कंदगुप्त खतम कर डाली!' 'हाँ।' 'कैसी लगी!' लिली ने सिर हिला कर बताया कि बहुत अच्छी लगी। माणिक ने धीरे से लिली का हाथ अपने हाथों में ले लिया और उसकी रेखाओं पर अपने काँपते हुए हाथ को रख कर बोले, 'मैं चाहता हूँ मेरी लिली उतनी ही पवित्र, उतनी ही सूक्ष्म, उतनी ही दृढ़ बने जितनी देवसेना थी। तो लिली वैसी ही बनेगी न!' किसी मानवोपरि, देवताओं के संगीत से मुग्ध, भोली हिरणी की तरह लिली ने एक क्षण माणिक की ओर देखा और उनकी हथेलियों में मुँह छिपा लिया। 'वाह! उधर देखो लिली!' माणिक ने दोनों हाथों से लिली का मुँह कमल के फूल की तरह उठाते हुए कहा। बाहर गली की बिजली पता नहीं क्यों जल नहीं रही थी, लेकिन रह-रह कर बैंजनी रंग की बिजलियाँ चमक जाती थीं और लंबी पतली गली, दोनों ओर के पक्के मकान, उनके खाली चबूतरे, बंद खिड़कियाँ, सूने बारजे, उदास छतें, उन बैंजनी बिजलियों में जाने कैसे जादू के-से, रहस्यमय-से लग रहे थे। बिजली चमकते ही अँधेरा चीर कर वे खिड़की से दीख पड़ते, और फिर सहसा अंधकार में विलीन हो जाते और उस बीच के एक क्षण में उनकी दीवारों पर तड़पती हुई बिजली की बैंजनी रोशनी लपलपाती रहती, बारजों की कोरों से पानी की धारें गिरती रहतीं, खंभे और बिजली के तार काँपते रहते और हवाओं में बूँदों की झालरें लहराती रहतीं। सारा वातावरण जैसे बिजली के एक क्षीण आघात से काँप रहा था, डोल रहा था। एक तेज झोंका आया और खिड़की के पास खड़ी लिली बौछार से भीग गई, और भौंहों से, माथे से बूँदें पोंछती हुई हटी तो माणिक बोले, 'लिली वहीं खड़ी रहो, खिड़की के पास, हाँ बिलकुल ऐसे ही। बूँदें मत पोंछो। और लिली, यह एक लट तुम्हारी भीग कर झूल आई है कितनी अच्छी लग रही है!' लिली कभी चुपचाप लजाती हुई खिड़की के बाहर, कभी लजाती हुई अंदर माणिक की ओर देखती हुई बौछार में खड़ी रही। जब बिजलियाँ चमकतीं तो ऐसा लगता जैसे प्रकाश के झरने में काँपता हुआ नील कमल। पहले माथा भीगा - लिली ने पूछा, 'हटें!' माणिक बोले, 'नहीं!' माथे से पानी गरदन पर आया, बूँदें उसके गले में पड़ी सुनहली मटरमाला को चूमती हुई नीचे उतरने लगीं, वह सिहर उठी। 'सरदी लग रही है?' माणिक ने पूछा। एक अजब-से अल्हड़ आत्म-समर्पण के स्वर में लिली बोली, 'नहीं, सरदी नहीं लग रही है! लेकिन तुम बड़े पागल हो!'