सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 11
चौथी दोपहर
मालवा की युवरानी देवसेना की कहानी
आँख लग जाने के थोड़ी देर बाद सहसा उमस चीरते हुए हवा का एक झोंका आया और फिर तो इतने तेज झकोरे आने लगे कि नीम की शाखें झूम उठीं। थोड़ी देर में तारों का एक काला परदा छा गया। हवाएँ अपने साथ बादल ले आई थीं। सुबह हम लोग बहुत देर तक सोए क्योंकि हवा चल रही थी और धूप का कोई सवाल नहीं था।
पता नहीं देर तक सोने का नतीजा हो या बादलों का, क्योंकि कालिदास ने भी कहा है -'रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च...' पर मेरा मन बहुत उदास-सा था और मैं लेट कर कोई किताब पढ़ने लगा, शायद 'स्कंदगुप्त' जिसमें अंत में नायिका देवसेना राग विहाग में 'आह वेदना मिली विदाई' गाती है और घुटने टेक कर विदा माँगती है - इस जीवन के देवता और उस जन्म के प्राप्य क्षमा! और उसके बाद अनंत विरह के साथ परदा गिर जाता है।
उसको पढ़ने से मेरा मन और भी उदास हो गया और मैंने सोचा चलो माणिक मुल्ला के यहाँ ही चला जाए। मैं पहुँचा तो देखा कि माणिक मुल्ला चुपचाप बैठे खिड़की की राह बादलों की ओर देख रहे हैं और कुरसी से लटकाए हुए दोनों पाँव धीरे-धीरे हिला रहे हैं। मैं समझ गया कि माणिक मुल्ला के मन में कोई बहुत पुरानी व्यथा जाग गई है क्योंकि ये लक्षण उसी बीमारी के होते हैं। ऐसी हालत में साधारणतया माणिक-जैसे लोगों की दो प्रतिक्रियाएँ होती हैं। अगर कोई उनसे भावुकता की बात करे तो वे फौरन उसकी खिल्ली उड़ाएँगे, पर जब वह चुप हो जाएगा तो धीरे-धीरे खुद वैसी ही बातें छेड़ देंगे। यही माणिक ने भी किया। जब मैंने उनसे कहा कि मेरा मन बहुत उदास है तो वे हँसे और मैंने जब कहा कि कल रात के सपने ने मेरे मन पर बहुत असर डाला है तो वे और भी हँसे और बोले, 'उस सपने से तो दो ही बातें मालूम होती हैं।'
'क्या?' मैंने पूछा।
'पहली तो यह कि तुम्हारा हाजमा ठीक नहीं है, दूसरे यह कि तुमने डांटे की 'डिवाइना कामेडिया' पढ़ी है जिसमें नायक को स्वर्ग में नायिका मिलती है और उसे ईश्वर के सिंहासन तक ले जाती है।' जब मैंने झेंप कर यह स्वीकार किया कि दोनों बातें बिलकुल सच हैं तो फिर वे चुप हो गए और उसी तरह खिड़की की राह बादलों की ओर देख कर पाँव हिलाने लगे। थोड़ी देर बाद बोले, 'पता नहीं तुम लोगों को कैसा लगता है, मुझे तो बादलों को देख कर वैसा लगता है जैसे उस घर को देख कर लगता है जिसमें हमने अपना हँसी-खुशी से बचपन बिताया हो और जिसे छोड़ कर हम पता नहीं कहाँ-कहाँ घूमे हों और भूल कर फिर उसी मकान के सामने बरसों बाद आ पहुँचे हों।' जब मैंने स्वीकार किया कि मेरे मन में भी यही भावना होती है तो और भी उत्साह में भर कर बोले, 'देखो, अगर जिंदगी में फूल न होते, बादल न होते, पवित्रता न होती, प्रकाश न होता, सिर्फ अँधेरा होता, कीचड़ होता, गंदगी होती तो कितना अच्छा होता! हम सब उसमें कीड़े की तरह बिलबिलाते और मर जाते, कभी अंत:करण में किसी तरह की छटपटाहट न होती। लेकिन बड़ा अभागा होता है वह दिन जिस दिन हमारी आत्मा पवित्रता की एक झलक पा लेती है, रोशनी का एक कण पा लेती है क्योंकि उसके बाद सदियों तक अँधेरे में कैद रहने पर भी रोशनी की प्यास उसमें मर नहीं पाती, उसे तड़पाती रहती है। वह अँधेरे से समझौता कर ले पर उसे चैन कभी नहीं मिलती।' मैं उनकी बातों से पूर्णतया सहमत था पर लिख चाहे थोड़ा-बहुत लूँ, मुझे उन दिनों अच्छी हिंदी बोलने का इतना अभ्यास नहीं था अत: उनकी उदासी से सहमति प्रकट करने के लिए मैं चुपचाप मुँह लटकाए बैठा रहा था। बिलकुल उन्हीं की तरह मुँह लटकाए हुए बादलों की ओर देखता रहा और नीचे पाँव झुलाता रहा। माणिक मुल्ला कहते गए - 'अब यही प्रेम की बात लो। यह सच है कि प्रेम आर्थिक स्थितियों से अनुशासित होता है, लेकिन मैंने जो जोश में कह दिया था कि प्रेम आर्थिक निर्भरता का ही दूसरा नाम है, यह केवल आंशिक सत्य है। इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि प्यार - 'यहाँ माणिक मुल्ला रुक गए और मेरी ओर देख कर बोले, 'क्षमा करना, तुम्हारी अभ्यस्त शैली में कहूँ तो इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि प्यार आत्मा की गहराइयों में सोये हुए सौंदर्य के संगीत को जगा देता है, हममें अजब-सी पवित्रता, नैतिक निष्ठा और प्रकाश भर देता है आदि-आदि। लेकिन...'
'लेकिन क्या?' मैंने पूछा।
'लेकिन हम सब परंपराओं, सामाजिक परिस्थितियों, झूठे बंधनों में इस तरह कसे हुए हैं कि उसे सामाजिक स्तर ग्रहण नहीं करा पाते, उसके लिए संघर्ष नहीं कर पाते और बाद में अपनी कायरता और विवशताओं पर सुनहरा पानी फेर कर उसे चमकाने की कोशिश करते रहते हैं। इस रूमानी प्रेम का महत्व है, पर मुसीबत यह है कि वह कच्चे मन का प्यार होता है, उसमें सपने, इंद्रधनुष और फूल तो काफी मिकदार में होते हैं पर वह साहस और परिपक्वता नहीं होती जो इन सपनों और फूलों को स्वस्थ सामाजिक संबंध में बदल सके। नतीजा यह होता है कि थोड़े दिन बाद यह सब मन से उसी तरह गायब हो जाता है जैसे बादल की छाँह। आखिर हम हवा में तो नहीं रहते हैं और जो भी भावना हमारे सामाजिक जीवन की खाद नहीं बन पाती, जिंदगी उसे झाड़-झंखाड़ की तरह उखाड़ फेंकती है।'
ओंकार, श्याम और प्रकाश भी तब तक आ गए थे। और हम सब लोग मन-ही-मन इंतजार कर रहे थे कि माणिक मुल्ला कब अपनी कहानी शुरू करें, पर उनकी खोई-सी मन:स्थिति देख कर हम लोगों की हिम्मत नहीं पड़ रही थी।
इतने में माणिक मुल्ला खुद हम लोगों के मन की बात समझ गए और सहसा अपने दिवास्वप्नों की दुनिया से लौटते हुए फीकी हँसी हँस कर बोले, 'आज मैं तुम लोगों को एक ऐसी लड़की की कहानी सुनाऊँगा, जो ऐसे बादलों के दिन मुझे बार-बार याद आ जाती है। अजब थी वह लड़की!'
इसके बाद माणिक मुल्ला ने जब कहानी प्रारंभ की तभी मैंने टोका और उनको याद दिलाई कि उनकी कहानी में समय का विस्तार इतना सीमाहीन था कि घटनाओं का क्रम बहुत तेजी से चलता गया और वे विवरण में इतनी तेजी से चले कि वैयक्तिक मनोविश्लेषण और मन:स्थिति निरूपण पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाए। माणिक मुल्ला ने पिछली कहानी की इस कमी को स्वीकार किया, लेकिन लगता है अंदर-अंदर उन्हें कुछ लगा क्योंकि उन्होंने चिढ़ कर बहुत कड़वे स्वर में कहा, 'अच्छा लो, आज की कहानी का घटनाकाल केवल चौबीस घंटे में ही सीमित रहेगा - 29 जुलाई, सन 19...को सायंकाल छह बजे से 30 जुलाई सायंकाल छह बजे तक, और उसके बाद उन्होंने कहानी प्रारंभ की : (कहानी कहने के पहले मुझसे बोले, 'शैली में तुम्हारी झलक आ जाए तो क्षमा करना।')
खिड़की पर झूलते हुए जार्जेट के हवा से भी हल्के परदों को चूमते हुए शाम के सूरज की उदास पीली किरणों ने झाँक कर उस लड़की को देखा जो तकिए में मुँह छिपाए सिसक रही थी। उसकी रूखी अलकें खारे आँसू से धुले गालों को छू कर सिहर उठती थीं। चंपे की कलियों-सी उसकी लंबी पतली कलात्मक उँगलियाँ, सिसकियों-से काँप-काँप उठनेवाला उसका सोनजुही-सा तन, उसके गुलाब की सूखी पाँखुरियों-से होठ, और कमरे का उदास वातावरण; पता नहीं कौन-सा वह दर्द था जिसकी उदास उँगलियाँ रह-रह कर उसके व्यक्तित्व के मृणाल-तंतुओं के संगीत को झकझोर रही थीं।
थोड़ी देर बाद वह उठी। उसकी आँखों के नीचे एक हलकी फालसाई छाँह थी जो सूज आई थी। उसकी चाल हंस की थी, पर ऐसे हंस की जो मानसरोवर से न जाने कितने दिनों के लिए विदा ले रहा हो। उसने एक गहरी साँस ली और लगा जैसे हवाओं में केसर के डोरे बिखर गए हों। वह उठी और खिड़की के पास जा कर बैठ गई। हवाओं से जार्जेट के परदे उठ कर उसे गुदगुदा जाते थे, कभी कानों के पास, कभी होठों के पास, कभी... खैर!
बाहर सूरज की आखरी किरणें नीम और पीपल के शिखरों पर सुनहली उदासी बिखेर रही थीं। क्षितिज के पास एक गहरी जामुनी पर्त जमी थी, जिस पर गुलाब बिखरे हुए थे और उसके बाद हल्की पीली आँधी की आभा लहरा रही थी।