सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 10

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उन्हीं दिनों मुहल्ले में एक अजब की घटना हुई। जिस साबुनवाली लड़की का नाम महेसर दलाल के साथ लिया जाता था वह एक दिन मरी हुई पाई गई। उसकी लाश भी गायब कर दी गई और महेसर दलाल पुलिस के डर के मारे जा कर समधियाने में रहने लगे।

तन्ना की जिंदगी अजब-सी थी। पत्नी ज्यादा पढ़ी थी, ज्यादा धनी घर की थी, ज्यादा रूपवती थी, हमेशा ताने दिया करती थी, मँझली बहन घिसल-घिसल कर गालियाँ देती रहती थी, 'राम करे दोनों पाँव में कीड़े पड़ें!' अफसर ने उनको निकम्मा करार दिया था और उन्हें ऐसी ड्यूटी दे दी थी कि हफ्ते में चार दिन और चार रातें रेल के सफर में बीतती थीं और बाकी दिन हेडक्वार्टर में डाँट खाते-खाते। उनकी फाइल में बहुत शिकायतें लिख गई थीं। उन्हीं दिनों उनके यहाँ यूनियन बनी और वे ईमानदार होने के नाते उससे अलग रहे, नतीजा यह हुआ कि अफसर भी नाराज और साथी भी।

इसी बीच में जमुना का ब्याह हो गया, महेसर दलाल गुजर गए, पहला बच्चा होने में पत्नी मरते-मरते बची और बचने के बाद वह तन्ना से गंदी छिपकली से भी ज्यादा नफरत करने लगी। छोटी बहन ब्याह के काबिल हो गई और तन्ना सिर्फ इतना कर पाए कि सूख कर काँटा हो गए, कनपटियों के बाल सफेद हो गए, झुक कर चलने लगे, दिल का दौरा पड़ने लगा, आँख से पानी आने लगा और मेदा इतना कमजोर हो गया कि एक कौर भी हजम नहीं होता था।

डाक ले जाते हुए एक बार रेल में नीमसार जाती हुई तीर्थयात्रिणी जमुना मिली। साथ में रामधन था। जमुना बड़ी ममता से पास आ कर बैठ गई, उसके बच्चे ने मामा को प्रणाम किया। जमुना ने दोनों को खाना दिया। कौर तोड़ते हुए तन्ना की आँख में आँसू आ गए। जमुना ने कहा भी कि कोठी है, ताँगा है, खुली आबोहवा है, आ कर कुछ दिन रहो, तंदुरुस्ती सँभल जाएगी, पर बेचारे तन्ना! नैतिकता और ईमानदारी बड़ी चीज होती है।

लेकिन उस सफर से जो तन्ना लौटे तो फिर पड़ ही गए। महीनों बुखार आया। रोग के बारे में डॉक्टरों की मुख्तलिफ राय थी। कोई हड्डी का बुखार बताता था, तो कोई खून की कमी, तो कोई टी.बी. भी बता रहा था। घर का यह हाल कि एक पैसा पास नहीं, पत्नी का सारा जेवर ले कर सास अपने घर चली गई, छोटी बहन रोया करे, मँझली घिसल-घिसल कर कहे, 'अभी क्या, अभी तो कीड़े पड़ेंगे!' सिर्फ यूनियन के कुछ लोग आ कर अच्छी-भली सलाहें दे जाते थे - साफ हवा में रखो, फलों का रस दो, बिस्तर रोज बदल देना चाहिए और बेचारे करते ही क्या!

होते-होते जब नौबत यहाँ तक पहुँची कि उन्हें दफ्तर से खारिज कर दिया गया, घर में फाके होने लगे तो उनकी सास आ कर अपनी लड़की को लिवा ले गई और बोली, जब कमर में बूता नहीं था तो भाँवरें क्यों फिरायी थीं और फिर यूनियन-फूनियन के गुंडे आवारे आ कर घर में हुड़दंगा मचाते रहते हैं। तन्ना की बहनें उनके सामने चाहे निकलें चाहे नाचें-गाएँ, उनकी लड़की यह पेशा नहीं कर सकती।

इधर यूनियन उनकी नौकरी के लिए लड़ रही थी और जब वे बहाल हो गए तो लोगों ने सलाह दी, दो हफ्ते के लिए चले जाएँ, बाकी लोग उनका काम करा दिया करेंगे और उसके बाद फिर छुट्टी ले लेंगे।

उनका तन हड्डी का ढाँचा-भर रह गया था। चलते हुए आप नजदीक से पसलियों की खड़बड़ाहट तक सुन सकते थे। किसी तरह हिम्मत बाँध कर गए। अफसर लोग चिढ़े हुए थे। मेल ट्रेन पर रात की ड्यूटी लगा दी और वह भी ऐन होली के दिन। रंग में भीगते हुए भी थर-थर काँपते हुए स्टेशन गए। सारा बदन जल रहा था। काम तो साथियों ने मिल कर कर दिया, वे चुपचाप पड़े रहे। डिब्बे में अंदर सीलन थी। बदन टूट रहा था, नसें ढीली पड़ गई थीं। सुबह हुई। टूंडला आया। थोड़ी-थोड़ी धूप निकल आई थी। वे जा कर दरवाजे के पास खड़े हो गए। गाड़ी चल दी। पाँव थर-थर काँप रहे थे, सहसा इंजन के पानी की टंकी की झूलती हुई बाल्टी इनकी कनपटी में लगी और फिर इन्हें होश नहीं रहा।

आँख खुली तो टूंडला के रेलवे अस्पताल में थे। दोनों पाँव नहीं थे। आस-पास कोई नहीं था, बेहद दर्द था। खून इतना निकल चुका था कि आँख से कुछ ठीक दिखाई नहीं पड़ता था। सोचा, किसी को बुलावें तो मुँह से जमुना का नाम निकला, फिर अपने बच्चे का, फिर बापू (महेसर) का और फिर चुप हो गए।

लोगों ने बहुत पूछा, 'किसे तार दे दें, क्या किया जाए?' पर वे कुछ नहीं बोले। सिर्फ मरने के पहले उन्होंने अपनी दोनों कटी टाँगें देखने की इच्छा प्रकट की और वे लाई गईं तो ठीक से देख नहीं सकते थे, अत: बार-बार उन्हें छूते थे, दबाते थे, उठाने की कोशिश करते थे, और हाथ खींच लेते थे और थर-थर काँपने लगते थे।

पता नहीं मुझे कैसा लगा कि मैं निष्कर्ष सुनने की प्रतीक्षा किए बिना चुपचाप उठ कर चला आया।

अनध्याय

बेहद उमस! मन की गहरी से गहरी पर्त में एक अजब-सी बेचैनी। नींद आ भी रही है और नहीं भी आ रही। नीम की डालियाँ खामोश हैं। बिजली के प्रकाश में उनकी छायाएँ मकानों, खपरैलों, बारजों और गलियों में सहमी खड़ी हैं।

मेरे अर्धसुप्त मन में असंबद्ध स्वप्न-विचारों का सिलसिला।

स्वर्ग का फाटक। रूप, रेखा, रंग, आकार कुछ नहीं जैसा अनुमान कर लें। अतियथार्थवादी कविताएँ जिनका अर्थ कुछ नहीं जैसा अनुमान कर लें। फाटक पर रामधन बाहर बैठा है। अंदर जमुना श्वेतवसना, शांत, गंभीर। उसकी विश्रृंखल वासना, उसका वैधव्य, पुरइन के पत्तों पर पड़ी ओस की तरह बिखर चुका है, वह वैसी ही है जैसी तन्ना को प्रथम बार मिली थी।

फाटक पर घोड़े की नालें जड़ी हैं। एक, दो, असंख्य! दूर धुँधले क्षितिज से एक पतला धुएँ की रेखा-सा रास्ता चला आ रहा है। उस पर कोई दो चीजें रेंग रही हैं। रास्ता रह-रह कर काँप उठता है, जैसे तार का पुल।

बादलों में एक टार्च जल उठती है। राह पर तन्ना चले आ रहे हैं। आगे-आगे तन्ना, कटे पाँवों से घिसलते हुए, पीछे-पीछे उनकी दो कटी टाँगें लड़खड़ाती चली आ रही है। टाँगों पर आर.एम.एस. के रजिस्टर लदे हैं।

फाटक पर पाँव रुक जाते हैं। फाटक खुल जाते हैं। तन्ना फाइल उठा कर अंदर चले जाते हैं। दोनों पाँव बाहर छूट जाते हैं। बिस्तुइया की कटी हुई पूँछ की तरह छटपटाते हैं।

कोई बच्चा रो रहा है। वह तन्ना का बच्चा है। दबे हुए स्वर : यूनियन, एस.एम.आर., एम.आर.एस., आर.एम.एस., यूनियन। दोनों कटे पाँव वापस चल पड़ते हैं, धुएँ का रास्ता तार के पुल की तरह काँपता है।

दूर किसी स्टेशन से कोई डाकगाड़ी छूटती है।...