सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 4

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'भूख लग रही है! अच्छा, जाना मत! मैं अभी आई।' कह जमुना फौरन पिछवाड़े के सहन में से हो कर अंदर चली गई। माणिक की समझ में नहीं आया कि आज जमुना एकाएक इतनी दयावान क्यों हो रही है, कि इतने में जमुना लौट आई और आँचल के नीचे से दो-चार पुए निकालते हुए बोली, 'लो खाओ। आज तो माँ भागवत की कथा सुनने गई हैं।' और जमुना उसी तरह माणिक को अपनी तरफ खींच कर पुए खिलाने लगी।

एक ही पुआ खाने के बाद माणिक मुल्ला उठने लगे तो जमुना बोली, 'और खाओ।' तो माणिक मुल्ला ने उसे बताया कि उन्हें मीठे पुए अच्छे नहीं लगते, उन्हें बेसन के नमकीन पुए अच्छे लगते हैं।

'अच्छा कल तुम्हारे लिए बेसन के नमकीन पुए बना रखूँगी। कल आओगे? कथा तो सात रोज तक होगी।' माणिक ने संतोष की साँस ली। उठ खड़े हुए। लौट कर आए तो भाभी सो रही थीं। माणिक मुल्ला चुपचाप गऊमाता का ध्यान करते हुए सो गए।

दूसरे दिन माणिक मुल्ला ने चलने की कोशिश की, क्योंकि उन्हें जाने में डर भी लगता था और वे जाना भी चाहते थे। और न जाने कौन-सी चीज थी जो अंदर-ही-अंदर उनसे कहती थी, 'माणिक! यह बहुत बुरी बात है। जमुना अच्छी लड़की नहीं!' और उनके ही अंदर कोई दूसरी चीज थी जो कहती थी, 'चलो माणिक! तुम्हारा क्या बिगड़ता है। चलो देखें तो क्या है?' और इन दोनों से बड़ी चीज थी नमकीन बेसन का पुआ जिसके लिए नासमझ माणिक मुल्ला अपना लोक-परलोक दोनों बिगाड़ने के लिए तैयार थे।

उस दिन माणिक मुल्ला गए तो जमुना ने धानी रंग की वाइल की साड़ी पहनी थी, अरगंडी की पतली ब्लाउज पहनी थी, दो चोटियाँ की थीं, माथे पर चमकती हुई बिंदी लगाई थी। माणिक अकसर देखते थे कि जब लड़कियाँ स्कूल जाती थीं तो ऐसे सज-धज कर जाती थीं, घर में तो मैली धोती पहन कर फर्श पर बैठ कर बातें किया करती थीं, इसलिए उन्हें बड़ा ताज्जुब हुआ। बोले, 'जमुना, क्या अभी स्कूल से लौट रही हो?'

'स्कूल? स्कूल जाना तो माँ ने चार साल से छुड़ा दिया। घर में बैठी-बैठी या तो कहानियाँ पढ़ती हूँ या फिर सोती हूँ।' माणिक मुल्ला की समझ में नहीं आया कि जब दिन-भर सोना ही है तो इस सज-धज की क्या जरूरत है। माणिक मुल्ला आश्चर्य से मुँह खोले देखते रहे कि जमुना बोली, 'आँख फाड़-फाड़ कर क्या देख रहे हो! असली जरमनी की अरगंडी है। चाचा कलकत्ते से लाये थे, ब्याह के लिए रखी थी। ये देखो छोटे-छोटे फूल भी बने हैं।'

माणिक मुल्ला को बहुत आश्चर्य हुआ उस अरगंडी को छू कर जो कलकत्ते से आई थी, असली जरमनी की थी और जिस पर छोटे-छोटे फूल बने थे।

माणिक मुल्ला जब गाय को टिक्की खिला चुके तो जमुना ने बेसन के नमकीन पुए निकाले। मगर कहा, 'पहले बैठ जाओ तब खिलाएँगे।' माणिक चुपचाप चलने लगे। जमुना ने छोटी-सी बैटरी जला दी पर माणिक मारे डर के काँप रहे थे। उन्हें हर क्षण यही लगता था कि भूसे में से अब साँप निकला, अब बिच्छू निकला, अब काँतर निकली। रुँधते गले से बोले, 'हम खाएँगे नहीं। हमें जाने दो।'

जमुना बोली, 'कैथे की चटनी भी है।' अब माणिक मुल्ला मजबूर हो गए। कैथा उन्हें विशेष प्रिय था। अंत में साँप-बिच्छू के भय का निरोध करके किसी तरह वे बैठ गए। फिर वही आलम कि जमुना को माणिक चुपचाप देखें और माणिक को जमुना और गाय इन दोनों को। जमुना बोली, 'कुछ बात करो, माणिक।' जमुना चाहती थी माणिक कुछ उसके कपड़े के बारे में बातें करे, पर जब माणिक नहीं समझे तो वह खुद बोली, 'माणिक, यह कपड़ा अच्छा है?' 'बहुत अच्छा है जमुना!' माणिक बोले। 'पर देखो, तन्ना है न, वही अपना तन्ना। उसी के साथ जब बातचीत चल रही थी तभी चाचा कलकत्ते से ये सब कपड़े लाए थे। पाँच सौ रुपए के कपड़े थे। पंचम बनिया से एक सेट गिरवी रख के कपड़े लाये थे, फिर बात टूट गई। अभी तो मैं उसी के यहाँ गई थी। अकेले मन घबराता है। लेकिन अब तो तन्ना बात भी नहीं करता। इसीलिए कपड़े भी बदले थे।'

'बात क्यों टूट गई जमुना?'

'अरे तन्ना बहुत डरपोक है। मैंने तो माँ को राजी कर लिया था पर तन्ना को महेसर दलाल ने बहुत डाँटा। तब से तन्ना डर गया और अब तो तन्ना ठीक से बोलता भी नहीं।' माणिक ने कुछ जवाब नहीं दिया तो फिर जमुना बोली, 'असल में तन्ना बुरा नहीं है पर महेसर बहुत कमीना आदमी है और जब से तन्ना की माँ मर गई तब से तन्ना बहुत दुखी रहता है।' फिर सहसा जमुना ने स्वर बदल दिया और बोली, 'लेकिन फिर तन्ना ने मुझे आसा में क्यों रखा? माणिक, अब न मुझे खाना अच्छा लगता है न पीना। स्कूल जाना छूट गया। दिन-भर रोते-रोते बीतता है। हाँ, माणिक।' और उसके बाद वह चुपचाप बैठ गई। माणिक बोले, 'तन्ना बहुत डरपोक था। उसने बड़ी गलती की!' तो जमुना बोली, 'दुनिया में यही होता आया है!' और उदाहरण स्वरूप उसने कई कहानियाँ सुनाईं जो उसने पढ़ी थीं या चित्रपट पर देखी थीं।

माणिक उठे तो जमुना ने पूछा कि 'रोज आओगे न!' माणिक ने आना-कानी की तो जमुना बोली, 'देखो माणिक, तुमने नमक खाया है और नमक खा कर जो अदा नहीं करता उस पर बहुत पाप पड़ता है क्योंकि ऊपर भगवान देखता है और सब बही में दर्ज करता है।' माणिक विवश हो गए और उन्हें रोज जाना पड़ा और जमुना उन्हें बिठा कर रोज तन्ना की बातें करती रही।

'फिर क्या हुआ!' जब हम लोगों ने पूछा तो माणिक बोले, 'एक दिन वह तन्ना की बातें करते-करते मेरे कंधे पर सिर रख कर खूब रोई, खूब रोई और चुप हुई तो आँसू पोंछे और एकाएक मुझसे वैसी बातें करने लगी जैसी कहानियों में लिखी होती हैं। मुझे बड़ा बुरा लगा और सोचा अब कभी उधर नहीं जाऊँगा, पर मैंने नमक खाया था और ऊपर भगवान सब देखता है। हाँ, यह जरूर था कि जमुना के रोने पर मैं चाहता था कि उसे अपने स्कूल की बातें बताऊँ, अपनी किताबों की बातें बता कर उसका मन बहलाऊँ। पर वह आँसू पोंछ कर कहानियों-जैसी बातें करने लगी। यहाँ तक कि एक दिन मेरे मुँह से भी वैसी ही बातें निकल गईं।'

'फिर क्या हुआ?' हम लोगों ने पूछा।

'अजब बात हुई। असल में इन लोगों को समझना बड़ा मुश्किल है। जमुना चुपचाप मेरी ओर देखती रही और फिर रोने लगी। बोली, 'मैं बहुत खराब लड़की हूँ। मेरा मन घबराता था इसीलिए तुमसे बात करने आती हूँ, पर मैं तुम्हारा नुकसान नहीं चाहती। अब मैं नहीं आया करूँगी।' लेकिन दूसरे दिन जब मैं गया तो देखा, फिर जमुना मौजूद है।'

फिर माणिक मुल्ला को रोज जाना पड़ा। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन, पाँच दिन - यहाँ तक कि हम लोगों ने ऊब कर पूछा कि अंत में क्या हुआ तो माणिक मुल्ला बोले, 'कुछ नहीं, होता क्या? जब मैं जाता तो मुझे लगता कोई कह रहा है माणिक उधर मत जाओ यह बहुत खराब रास्ता है, पर मैं जानता था कि मेरा कुछ बस नहीं है। और धीरे-धीरे मैंने देखा कि न मैं वहाँ जाए बिना रह सकता था न जमुना आए बिना।'

'हाँ, यह तो ठीक है पर इसका अंत क्या हुआ?'

'अंत क्या हुआ?' माणिक मुल्ला ने ताने के स्वर में कहा, 'तब तो तुम लोग खूब नाम कमाओगे। अरे क्या प्रेम-कहानियों के दो-चार अंत होते हैं। एक ही तो अंत होता है - नायिका का विवाह हो गया, माणिक मुँह ताकते रह गए। अब इसी को चाहे जितने ढंग से कह लो।'

बहरहाल इतनी दिलचस्प कहानी का इतना साधारण अंत हम लोगों को पसंद नहीं आया।

फिर भी प्रकाश ने पूछा, 'लेकिन इससे यह कहाँ साबित हुआ कि प्रेम-भावना की नींव आर्थिक संबंधों पर है और वर्ग-संघर्ष उसे प्रभावित करता है।'

'क्यों? यह तो बिलकुल स्पष्ट है।' माणिक मुल्ला ने कहा, 'अगर हरेक के घर में गाय होती तो यह स्थिति कैसे पैदा होती? संपत्ति की विषमता ही इस प्रेम का मूल कारण है। न उनके घर गाय होती, न मैं उनके वहाँ जाता, न नमक खाता, न नमक अदा करना पड़ता।'

'लेकिन फिर इससे सामाजिक कल्याण के लिए क्या निष्कर्ष निकला?' हम लोगों ने पूछा।

'बिना निष्कर्ष के मैं कुछ नहीं कहता मित्रो! इससे यह निष्कर्ष निकला कि हर घर में एक गाय होनी चाहिए जिसमें राष्ट्र का पशुधन भी बढ़े, संतानों का स्वास्थ्य भी बने। पड़ोसियों का भी उपकार हो और भारत में फिर से दूध-घी की नदियाँ बहें।'

यद्यपि हम लोग आर्थिक आधारवाले सिद्धांत से सहमत नहीं थे पर यह निष्कर्ष हम सबों को पसंद आया और हम लोगों ने प्रतिज्ञा की कि बड़े होने पर एक-एक गाय अवश्य पालेंगे।

इस प्रकार माणिक मुल्ला की प्रथम निष्कर्षवादी प्रेम-कहानी समाप्त हुई।

अनध्याय

इस कहानी ने वास्तव में हम लोगों को प्रभावित किया था। गरमी के दिन थे। मुहल्ले के जिस हिस्से में हम लोग रहते उधर छतें बहुत तपती थीं, अत: हम सभी लोग हकीम जी के चबूतरे पर सोया करते थे।

रात को जब हम लोग लेटे तो नींद नहीं आ रही थी और रह-रह कर जमुना की कहानी हम लोगों के दिमाग में घूम जाती थी और कभी कलकत्ते की अरगंडी और कभी बेसन के पुए की याद करके हम लोग हँस रहे थे।

इतने में श्याम भी हाथ में एक बँसखट लिए और बगल में दरी-तकिया दबाए हुए आया। वह दोपहर की मजलिस में शामिल नहीं था अत: हम लोगों को हँसते देख उत्सुकता हुई और उसने पूछा कि माणिक मुल्ला ने कौन-सी कहानी हम लोगों को बताई है। जब हम लोगों ने जमुना की कहानी उसे बताई तो आश्चर्य से देखा गया कि बजाय हँसने के वह उदास हो गया। हम लोगों ने एक स्वर से पूछा कि 'कहो श्याम, इस कहानी को सुन कर दुखी क्यों हो गए? क्या तुम जमुना को जानते थे?' तो श्याम रुँधे हुए गले से बोला, 'नहीं, मैं जमुना को नहीं जानता, लेकिन आज नब्बे प्रतिशत लड़कियाँ जमुना की परिस्थिति में हैं। वे बेचारी क्या करें! तन्ना से उसकी शादी हो नहीं पाई, उसके बाप दहेज जुटा नहीं पाए, शिक्षा और मन-बहलाव के नाम पर उसे मिलीं 'मीठी कहानियाँ', 'सच्ची कहानियाँ', 'रसभरी कहानियाँ' तो बेचारी और कर ही क्या सकती थी। यह तो रोने की बात है, इसमें हँसने की क्या बात! दूसरे पर हँसना नहीं चाहिए। हर घर में मिट्टी के चूल्हे होते हैं', आदि-आदि।

श्याम की बात सुन कर हम लोगों का जी भर आया और धीरे-धीरे हम लोग सो गए।