सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 5
दूसरी दोपहर घोड़े की नाल अर्थात किस प्रकार घोड़े की नाल सौभाग्य का लक्षण सिद्ध हुई? दूसरे दिन खा-पी कर हम लोग फिर उस बैठक में एकत्र हुए और हम लोगों के साथ श्याम भी आया। जब हम लोगों ने माणिक मुल्ला को बताया कि श्याम जमुना की कहानी को सुन कर रोने लगा था तो श्याम झेंप कर बोला, 'मैं कहाँ रो रहा था?' माणिक मुल्ला हँसे और बोले कि 'हमारी जिंदगी में जरा-सी पर्त उखाड़ कर देखो तो हर तरफ इतनी गंदगी और कीचड़ छिपा हुआ है कि सचमुच उस पर रोना आता है। लेकिन प्यारे बंधुओ, मैं तो इतना रो चुका हूँ कि अब आँख में आँसू आता ही नहीं, अत: लाचार हो कर हँसना पड़ता है। एक बात और है - जो लोग भावुक होते हैं और सिर्फ रोते हैं, वे रो-धो कर रह जाते हैं, पर जो लोग हँसना सीख लेते हैं वे कभी-कभी हँसते-हँसते उस जिंदगी को बदल भी डालते हैं।' फिर खरबूजा काटते हुए बोले, 'हटाओ जी इन बातों को। लो आज जौनपुरी खरबूजे हैं। इनकी महक तो देखो। गुलाब मात है। क्या है श्याम? क्यों मुँह लटकाए बैठे हो? अजी मुँह लटकाने से क्या होता है! मैं अभी तुम्हें बताऊँगा कि जमुना का विवाह कैसे हुआ?' हम लोग तो यह सुनना ही चाहते थे अत: एक स्वर में बोल उठे, 'हाँ-हाँ, आज जमुना के विवाह की कहानी रहे।' पर माणिक मुल्ला बोले, 'नहीं, पहले खरबूजे के छिलके बाहर फेंक आओ।' जब हम लोगों ने कमरा साफ कर दिया तो माणिक मुल्ला ने सबको आराम से बैठ जाने का आदेश दिया, ताख पर से घोड़े की पुरानी नाल उठा लाए और उसे हाथ में ले कर ऊपर उठा कर बोले, 'यह क्या है?' 'घोड़े की नाल।' हम लोगों ने एक स्वर में उत्तर दिया। 'ठीक!' माणिक मुल्ला ने जादूगर की तरह नाल को आश्चर्यजनक तेजी से उँगली पर नचाते हुए कहा, 'यह नाल जमुना के वैवाहिक जीवन का एक महत्वपूर्ण स्मृति-चिह्न है। तुम लोग पूछोगे, कैसे? वह मैं पूरे विस्तार में बताता हूँ।' और माणिक मुल्ला ने विस्तार में जो बताया वह संक्षेप में इस प्रकार है : जब बहुत दिनों तक जमुना की शादी नहीं तय हो पाई और निराश हो कर उसकी माँ पूजा-पाठ करने लगीं और पिता बैंक में ओवरटाइम करने लगे तो एक दिन अकस्मात उनके घर दूर की एक रिश्तेदार रामो बीबी आईं और उन्होंने बीज छीलते हुए कहा, 'हरे राम-राम! बिटिया की बाढ़ तो देखो। जैसन नाम तैसन करनी। भादों की जमुना अस फाटी पड़त है।' और फिर झुक कर माँ के कान में धीमे से बोलीं, 'ए कर बियाह-उआह कहूँ नाहीं तय कियो?' जब माँ ने बताया कि बिरादरीवाले दहेज बहुत माँग रहे हैं, कहीं जात-परजात में दे देने से तो अच्छा है कि माँ-बेटी गले से रस्सी बाँध कर कुएँ में गिर पड़ें तो रामो बीबी फौरन तमक कर बोलीं, 'ऐ हे! कैसी कुभाखा जिभ्या से निकालत हो जमुना की अम्मा! कहत कुच्छौ नाहीं लगत! और कुएँ में गिरैं तुम्हारे दुश्मन, कुएँ में गिरैं अड़ोस-पड़ोसवाले, कुएँ में गिरैं तन्ना और महेसर दलाल, दूसरे का सुख देख के जिनके हिया फाटत हैं।' बहरहाल हुआ यह कि रामो बीबी ने फौरन अपनी कुरती में से अपने भतीजे की कुंडली निकाल कर दी और कहा, 'बखत पड़े पर आदमियै आदमी के काम आवत है। जो हारेगाढ़े कबौ काम न आवै ऊ आदमी के रूप में जनावर है। अब ई हमार भतीजा है। घर का अकेला, न सास न ससुर, न ननद न जिठानी, कौनो किचाइन नाहीं है घर में। नाना ओके नाम जागीर लिख गए हैं। घर में घोड़ा है, ताँगा है। पुराना नामी खानदान है। लड़की रानी-महारानी अस बिलसिहै।' जब शाम को जमुना की माँ ने यह खबर बाप को दी तो उसने सामने से थाली खिसका दी और कहा, 'उसकी दो बीवियाँ मर चुकी हैं। तेहाजू है लड़का। मुझसे चार-पाँच बरस छोटा होगा।' 'थाली काहे खिसका दी? न खाओ मेरी बला से। क्यों नहीं ढूँढ़ के लाते? जब लड़की की उमर मेरे बराबर हो रही है तो लड़का कहाँ से ग्यारह साल का मिल जाएगा।' इस बात को ले कर पति और पत्नी में बहुत कहा-सुनी हुई। अंत में जब पत्नी पान बना कर ले गई और पति को समझा कर कहा, 'लड़का तिहाजू है तो क्या हुआ। मरद और दीवार - जितना पानी खाते हैं उतना पुख्ता होते हैं।' जब जमुना के द्वारे बारात चढ़ी तो माणिक मुल्ला ने देखा और उन्होंने उस पुख्ता दीवार का जो वर्णन दिया उससे हम लोग लोट-पोट हो गए। जमुना ने उसे देखा तो बहुत रोई, जेवर चढ़ा तो बहुत खुश हुई, चलने लगी तो यह आलम था कि आँखों से आँसू नहीं थमते थे और हृदय में उमंगें नहीं थमती थीं। जब जमुना लौट कर मैके आई तो सभी सखियों के यहाँ गई। अंग-अंग पर जेवर लदा था, रोम-रोम पुलकित था और पति की तारीफ करते जबान नहीं थकती थी। 'अरी कम्मो, वो तो इतने सीधे हैं कि जरा-सी तीन-पाँच नहीं जानते। ऐ, जैसे छोटे-से बच्चे हों। पहली दोनों के मैकेवाले सारी जायदाद लूट ले गए, नहीं तो धन फटा पड़ता था। मैंने कहा अब तुम्हारे साले-साली आवेंगे तो बाहर ही से विदा करूँगी, तुम देखते रहना। तो बोले, 'तुम घर की मालकिन हो। सुबह-शाम दाल-रोटी दे दो बस, मुझे क्या करना है।' चौबीसों घंटा मुँह देखते रहते हैं। जरा-सी कहीं गई - बस सुनती हो, ओ जी सुनती हो, अजी कहाँ गई! मेरी तो नाक में दम है कम्मो! मुहल्ला-पड़ोसवाले देख-देख कर जलते हैं। मैंने कहा, जितना जलोगे उतना जलाऊँगी। मैं भी तब दरवाजा खोलती हूँ जब धूप सिर पर चढ़ आती है। और खयाल इतना रखते हैं कि मैं आई तो ढाई सौ रुपए जबरदस्ती ट्रंक में रख दिए। कहा, हमारी कसम है जो इसे न ले जाओ।' लेकिन जमुना को जल्दी ही ससुराल लौट जाना पड़ा, क्योंकि एक दिन उसके बाप बहुत परेशान हालत में रात को आठ बजे बैंक से लौटे और बताया कि हिसाब में एक सौ सत्ताईस रुपया तेरह आने की कमी पड़ गई है, अगर कल सुबह जाते ही उन्होंने जमा न कर दिया तो हिरासत में ले लिए जाएँगे। यह सुनते ही घर में सियापा छा गया और जमुना ने झट ट्रंक से नोट की गड्डी निकाल कर छप्पर में खोंस दी और जब माँ ने कहा, 'बेटी उधार दे दो!' तो ताली माँ के हाथ में दे कर बोली, 'देख लो न, संदूक में दो-चार दुअन्नियाँ पड़ी होंगी।' लेकिन जमुना ने सोचा आज बला टल गई तो टल गई, आखिर बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी। इतना तो पहले लुट गया है, अब अगर जमुना भी माँ-बाप पर लुटा दे तो अपने बाल-बच्चों के लिए क्या बचाएगी? अरे माँ-बाप कै दिन के हैं? उसे सहारा तो उसके बच्चे ही देंगे न! यहाँ पर माणिक मुल्ला कहानी कहते-कहते रुक गए और हम लोगों की ओर देख कर बोले, 'प्यारे मित्रो! हमेशा याद रखो कि नारी पहले माँ होती है तब और कुछ! इसका जन्म ही इसलिए होता है कि वह माँ बने। सृष्टि का क्रम आगे बढ़ावे। यही उसकी महानता है। तुमने देखा कि जमुना के मन में पहले अपने बच्चों का खयाल आया।' अस्तु। जमुना अपने भावी बाल-बच्चों का खयाल करके अपनी ससुराल चली गई और सुख से रहने लगी। सच पूछो तो यहीं जमुना की कहानी का खात्मा होता है। 'लेकिन आपने तो घोड़े की नाल दिखाई थी। इसका तो जिक्र आया ही नहीं?' 'ओह! मैंने सोचा देखूँ तुम लोग कितने ध्यान से सुन रहे हो।' और तब उन्होंने उस नाल की घटना भी बताई। असल में जमुना के पति तिहाजू यानी पुख्ता दीवार, पर उनमें और जमुना में उतना ही अंतर था जितना पलस्तर उखड़ी हुई पुरानी दीवार और लिपे-पुते तुलसी के चौतरे में। इधर-उधर के लोग इधर-उधर की बातें करते थे पर जमुना तन-मन से पति-परायणा थी। पति भी जहाँ उसके गहने-कपड़े का ध्यान रखते थे वहीं उसे भजनामृत, गंगा-माहात्म्य, गुटका रामायण आदि ग्रंथ-रत्न ला कर दिया करते थे। और वह भी उसमें 'उत्तम के अस बस मन माहीं' आदि पढ़ कर लाभान्वित हुआ करती थी। होते-होते यह हुआ कि धर्म का बीज उसके मन में जड़ पकड़ गया और भजन-कीर्तन, कथा-सत्संग में उसका चित रम गया और ऐसा रमा कि सुबह-शाम, दोपहर-रात वह दीवानी घूमती रहे। रोज उसके यहाँ साधु-संतों का भोजन होता रहे और साधु-संत भी ऐसे तपस्वी और रूपवान कि मस्तक से प्रकाश फूटता था। वैसे उसकी भक्ति बहुत निष्काम थी किंतु जब साधु-संत उसे आशीर्वाद दें कि 'संतानवती भव' तो वह उदास हो जाया करे। उसके पति उसे बहुत समझाया करते थे, 'अजी यह तो भगवान की माया है इसमें उदास क्यों होती हो?' लेकिन संतान की चिंता उन्हें भी थी क्योंकि इतनी बड़ी जागीर के जमींदार का वारिस कोई नहीं था। अंत में एक दिन वे और जमुना दोनों एक ज्योतिषी के यहाँ गए जिसने जमुना को बताया कि उसे कार्तिक-भर सुबह गंगा नहा कर चंडी देवी को पीले फूल और ब्राह्मणों को चना, जौ और सोने का दान करना चाहिए। जमुना इस अनुष्ठान के लिए तत्काल राजी हो गई। लेकिन इतनी सुबह किसके साथ जाए! जमुना ने पति (जमींदार साहब) से कहा कि वे साथ चला करें पर वे ठहरे बूढ़े आदमी, सुबह जरा-सी ठंडी हवा लगते ही उन्हें खाँसी का दौरा आ जाता था। अंत में यह तय हुआ कि रामधन ताँगेवाला शाम को जल्दी छुट्टी लिया करेगा और सुबह चार बजे आ कर ताँगा जोत दिया करेगा। जमुना नित्य नियम से नहाने जाने लगी। कार्तिक में काफी सर्दी पड़ने लगती है और घाट से मंदिर तक उसे केवल एक पतली रेशमी धोती पहन कर फूल चढ़ाने जाना पड़ता था। वह थर-थर थर-थर काँपती थी। एक दिन मारे सर्दी के उसके हाथ-पैर सुन्न पड़ गए। और वह वहीं ठंडी बालू पर बैठ गई और यह कहा कि रामधन अगर उसे समूची उठा कर ताँगे पर न बैठा देता तो वह वहीं बैठी-बैठी ठंड से गल जाती।