सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 6

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अंत में रामधन से न देखा गया। उसने एक दिन कहा, 'बहूजी, आप काहे जान देय पर उतारू हौ। ऐसन तपिस्या तो गौरा माइयो नैं करिन होइहैं। बड़े-बड़े जोतसी का कहा कर लियो अब एक गरीब मनई का भी कहा कै लेव!' जमुना के पूछने पर उसने बताया, जिस घोड़े के माथे पर सफेद तिलक हो, उसके अगले बाएँ पैर की घिसी हुई नाल चंद्र-ग्रहण के समय अपने हाथ से निकाल कर उसकी अँगूठी बनवा कर पहन ले तो सभी कामनाएँ पूरी हो जाती हैं।

लेकिन जमुना को यह स्वीकार नहीं हुआ क्योंकि पता नहीं चंद्र-ग्रहण कब पड़े। रामधन ने बताया कि चंद्र-ग्रहण दो-तीन दिन बाद ही है। लेकिन कठिनाई यह है कि नाल अभी नया लगवाया है, वह तीन दिन के अंदर कैसे घिसेगा और नया कुछ प्रभाव नहीं रखता।

'तो फिर क्या हो, रामधन? तुम्हीं कोई जुगत बताओ!'

'मालकिन, एक ही जुगत है।'

'क्या?'

'ताँगा रोज कम-से-कम बारह मील चले। लेकिन मालिक कहीं जाते नहीं। अकेले मुझे ताँगा ले नहीं जाने देंगे। आप चलें तो ठीक रहे।'

'लेकिन हम बारह मील कहाँ जाएँगे?'

'क्यों नहीं सरकार! आप सुबह जरा और जल्दी दो-ढाई बजे निकल चलें! गंगापार पक्की सड़क है, बारह मील घुमा कर ठीक टाइम पर हाजिर कर दिया करूँगा। तीन दिन की ही तो बात है।'

जमुना राजी हो गई और तीन दिन तक रोज ताँगा गंगापार चला जाया करता था। रामधन का अंदाज ठीक निकला और तीसरे दिन चंद्र-ग्रहण के समय नाल उतरवा कर अँगूठी बनवाई गई और अँगूठी का प्रताप देखिए कि जमींदार साहब के यहाँ नौबत बजने लगी और नर्स ने पूरे एक सौ रुपए की बख्शीश ली।

जमींदार बेचारे वृद्ध हो चुके थे और उन्हें बहुत कष्ट था, वारिस भी हो चुका था अत: भगवान ने उन्हें अपने दरबार में बुला दिया। जमुना पति के बिछोह में धाड़ें मार-मार कर रोई, चूड़ी-कंगन फोड़ डाले, खाना-पीना छोड़ दिया। अंत में पड़ोसियों ने समझाया कि छोटा बच्चा है, उसका मुँह देखना चाहिए। जो होना था सो हो गया। काल बली है। उस पर किसका बस चलता है! पड़ोसियों के बहुत समझाने पर जमुना ने आँसू पोंछे। घर-बार सँभाला। इतनी बड़ी कोठी थी, अकेले रहना एक विधवा महिला के लिए अनुचित था, अत: उसने रामधन को एक कोठरी दी और पवित्रता से जीवन व्यतीत करने लगी।

जमुना की कहानी खत्म हो चुकी थी। लेकिन हम लोगों की शंका थी कि माणिक मुल्ला को यह घिसी नाल कहाँ से मिली, उसकी तो अँगूठी बन चुकी थी। पूछने पर मालूम हुआ कि एक दिन कहीं रेल सफर में माणिक मुल्ला को रामधन मिला। सिल्क का कुरता, पान का डब्बा, बड़े ठाठ थे उसके! माणिक मुल्ला को देखते ही उसने अपने भाग्योदय की सारी कथा सुनाई और कहा कि सचमुच घोड़े की नाल में बड़ी तासीर होती है। और फिर उसने एक नाल माणिक मुल्ला के पास भेज दी थी, यद्यपि उन्होंने उसकी अँगूठी न बनवा कर उसे हिफाजत से रख लिया।

कहानी सुना कर माणिक मुल्ला श्याम की ओर देख कर बोले, 'देखा श्याम, भगवान जो कुछ करता है भले के लिए करता है। आखिर जमुना को कितना सुख मिला। तुम व्यर्थ में दुखी हो रहे थे? क्यों?'

श्याम ने प्रसन्न हो कर स्वीकार किया कि वह व्यर्थ में दुखी हो रहा था। अंत में माणिक मुल्ला बोले, 'लेकिन अब बताओ इससे निष्कर्ष क्या निकला?'

हम लोगों में से जब कोई नहीं बता सका तो उन्होंने बताया, इससे यह निष्कर्ष निकला कि दुनिया का कोई भी श्रम बुरा नहीं। किसी भी काम को नीची निगाह से नहीं देखना चाहिए चाहे वह ताँगा हाँकना ही क्यों न हो?

हम सबों को इस कहानी का यह निष्कर्ष बहुत अच्छा लगा और हम सभी ने शपथ ली कि कभी किसी प्रकार के ईमानदारी के श्रम को नीची निगाह से न देखेंगे चाहे वह कुछ भी क्यों न हो।

इस तरह माणिक मुल्ला की दूसरी निष्कर्षवादी कहानी समाप्त हुई।

अनध्याय

जमुना की जीवन-गाथा समाप्त हो चुकी थी और हम लोगों को उसके जीवन का ऐसा सुखद समाधान देख कर बहुत संतोष हुआ। ऐसा लगा कि जैसे सभी रसों की परिणति शांत या निर्वेद में होती है, वैसे ही उस अभागिन के जीवन के सारे संघर्ष और पीड़ा की परिणति मातृत्व से प्लावित, शांत, निष्कंप दीपशिखा के समान प्रकाशमान, पवित्र, निष्कलंक वैधव्य में हुई।

रात को जब हम लोग हकीम जी के चबूतरे पर अपनी-अपनी खाट और बिस्तरा ले कर एकत्र हुए तो जमुना की जीवन-गाथा हम सबों के मस्तिष्क पर छाई हुई थी और उसको ले कर जो बातचीत तथा वाद-विवाद हुआ उसका नाटकीय विवरण इस प्रकार है :

मैं : (खाट पर बैठ कर, तकिए को उठा कर गोद में रखते हुए) भई कहानी बहुत अच्छी रही।

ओंकार : (जम्हाई लेते हुए) रही होगी।

प्रकाश : (करवट बदल कर) लेकिन तुम लोगों ने उसका अर्थ भी समझा?

श्याम : (उत्साह से) क्यों, उसमें कौन कठिन भाषा थी?

प्रकाश : यही तो माणिक मुल्ला की खूबी है। अगर जरा-सा सचेत हो कर उनकी बात तुम समझते नहीं गए तो फौरन तुम्हारे हाथ से तत्व निकल जाएगा, हलका-फुलका भूसा हाथ आएगा। अब यह बताओ कि कहानी सुन कर क्या भावना उठी तुम्हारे मन में? तुम बताओ!

मैं : (यह समझ कर कि ऐसे अवसर पर थोड़ी आलोचना करना विद्वत्ता का परिचायक है) भई, मेरे तो यही समझ में नहीं आया कि माणिक मुल्ला ने जमुना-जैसी नायिका की कहानी क्यों कही? शकुंतला-जैसी भोली-भाली या राधा-जैसी पवित्र नायिका उठाते, या बड़े आधुनिक बनते हैं तो सुनीता-जैसी साहसी नायिका उठाते या देवसेना, शेखर की शशी-वशी तमाम टाइप मिल सकते थे।

प्रकाश : (सुकरात की-सी टोन में) लेकिन यह बताओ कि जिंदगी में अधिकांश नायिकाएँ जमुना-जैसी मिलती हैं या राधा और सुधा और गेसू और सुनीता और देवसेना-जैसी?

मैं : (चालाकी से अपने को बचाते हुए) पता नहीं! मेरा नायिकाओं के बारे में कोई अनुभव नहीं। यह तो आप ही बता सकते हैं।

श्याम : भाई, हमारे चारों ओर दुर्भाग्य से नब्बे प्रतिशत लोग तो जमुना और रामधन की तरह के होते हैं, पर इससे क्या! कहानीकार को शिवम का चित्रण करना चाहिए।

प्रकाश : यह तो ठीक है। पर अगर किसी जमी हुई झील पर आधा इंच बरफ और नीचे अथाह पानी और वहीं एक गाइड खड़ा है जो उस पर से आनेवालों को आधा इंच की तो सूचना दे देता है और नीचे के अथाह पानी की खबर नहीं देता तो वह राहगीरों को धोखा देता है या नहीं?

मैं : क्यों नहीं?

प्रकाश : और अगर वे राहगीर बरफ टूटने पर पानी में डूब जाएँ तो इसका पाप गाइड पर पड़ेगा न!

श्याम : और क्या?

प्रकाश : बस, माणिक मुल्ला भी तुम्हारा ध्यान उस अथाह पानी की ओर दिला रहे हैं जहाँ मौत है, अँधेरा है, कीचड़ है, गंदगी है। या तो दूसरा रास्ता बनाओ नहीं तो डूब जाओ। लेकिन आधा इंच ऊपर जमी बरफ कुछ काम न देगी। एक ओर नए लोगों का यह रोमानी दृष्टिकोण, यह भावुकता, दूसरी ओर बूढ़ों का यह थोथा आदर्श और झूठी अवैज्ञानिक मर्यादा सिर्फ आधी इंच बरफ है, जिसने पानी की खूँखार गहराई को छिपा रखा है।