सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 7
ओंकार : (ऊब जाते हैं, सोचते हैं कब यह लेक्चर बंद हो।)
प्रकाश : (उत्साह से कहता जाता है) जमुना निम्न-मध्यवर्ग की भयानक समस्या है। आर्थिक नींव खोखली है। उसकी वजह से विवाह, परिवार, प्रेम - सभी की नींवें हिल गई हैं। अनैतिकता छाई हुई है। पर सब उस ओर से आँखें मूँदे हैं। असल में पूरी जिंदगी की व्यवस्था बदलनी होगी!
मैं : (ऊब कर जम्हाई लेता हूँ।)
प्रकाश : क्यों? नींद आ रही है तुम्हें? मैंने कै बार तुमसे कहा कि कुछ पढ़ो-लिखो। सिर्फ उपन्यास पढ़ते रहते हो। गंभीर चीजें पढ़ो। समाज का ढाँचा, उसकी प्रगति, उसमें अर्थ, नैतिकता, साहित्य का स्थान...
मैं : (बात काट कर) मैंने क्या पढ़ा नहीं? तुम्हीं ने पढ़ा है? (यह देख कर कि प्रकाश की विद्वत्ता का रोब लोगों पर जम रहा है, मैं क्यों पीछे रहूँ) मैं भी इसकी मार्क्सवादी व्याख्या दे सकता हूँ -
प्रकाश : क्या? क्या व्याख्या दे सकते हो?
मैं : (अकड़ कर) मार्क्सवादी!
ओंकार : अरे यार रहने भी दो!
श्याम : मुझे नींद आ रही है।
मैं : देखिए, असल में इसकी मार्क्सवादी व्याख्या इस तरह हो सकती है। जमुना मानवता का प्रतीक है, मध्यवर्ग (माणिक मुल्ला) तथा सामंतवर्ग (जमींदार) उसका उद्धार करने में असफल रहे; अंत में श्रमिकवर्ग (रामधन) ने उसको नई दिशा सुझाई!
प्रकाश : क्या? (क्षण-भर स्तब्ध। फिर माथा ठोंक कर) बेचारा मार्क्सवाद भी ऐसा अभागा निकला कि तमाम दुनिया में जीत के झंडे गाड़ आया और हिंदुस्तान में आ कर इसे बड़े-बड़े राहु ग्रस गए। तुम ही क्या, उसे ऐसे-ऐसे व्याख्याकार यहाँ मिले हैं कि वह भी अपनी किस्मत को रोता होगा। (जोरों से हँसता है, मैं अपनी हँसी उड़ते देख कर उदास हो जाता हूँ।)
हकीम जी की पत्नी : (नेपथ्य से) मैं कहती हूँ यह चबूतरा है या सब्जी मंडी। जिसे देखो खाट उठाए चला आ रहा है। आधी रात तक चख-चख चख-चख! कल से सबको निकालो यहाँ से।
हकीमजी : (नेपथ्य से काँपती हुई बूढ़ी आवाज) अरे बच्चे हैं। हँस-बोल लेने दे। तेरे अपने बच्चे नहीं हैं फिर दूसरों को क्यों खाने दौड़ती है... (हम सब पर सकता छा जाता है। मैं बहुत उदास हो कर लेट जाता हूँ। नीम पर से नींद की परियाँ उतरती हैं, पलकों पर छम-छम छम-छम नृत्य कर)।
(यवनिका-पतन)