सृजन के चार आधार / राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे

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सृजन के चार आधार
जयप्रकाश चौकसे

फिल्म जगत के इस कबीर ने प्रेम के 'ढाई आखर' को समझने का प्रयास तमाम उम्र किया और इस प्रयास के तहत उनकी साढ़े अठारह फिल्में भारतीय सिनेमा की अनोखी धरोहर हैं। राजकपूर में प्रेम करने की असीमित शक्ति थी और असफल होने पर रोने का अदम्य साहस। सृजन की महत्त्वाकांक्षा के साथ अपने पिता पर अगाध श्रद्धा ने राजकपूर को राजकपूर बनाया है।

चौदह दिसम्बर, 1924 को पृथ्वीराज कपूर के घर प्रथम पुत्र का जन्म हुआ। किसी रिश्तेदार ने सुझाव दिया कि पुत्र का नाम सृष्टिनाथ रखा जाए। पृथ्वीराज को इस नाम में 'अहं' का बोध हुआ। उन्हें किसी प्रकार का घमंड पसन्द नहीं था। उन्हें सृष्टिनाथ नाम कठिन भी लगा। उन्होंने नाम रखा रणवीर राजकपूर। बड़े होने पर इसी पुत्र ने एक सृष्टि (दुनिया) की रचना तो की परन्तु ईश्वर की तरह नहीं, एक प्रेमी कलाकार की तरह। प्रेम ही राजकपूर के सृजन का शक्तिस्रोत रहा है। फिल्म माध्यम के इस कबीर ने प्रेम के ढाई आखर को समझने का प्रयास सारी उम्र किया और इस प्रयास के तहत ही साढ़े अठारह फिल्मों का निर्माण भी किया। अपनी अन्तिम फिल्म 'हिना' के तीन गीत रिकॉर्ड किए, पाँच गीतों की धुनें बनवाई और पटकथा के चार संस्करण भी तैयार किए थे। कुछ सेट्स और पोशाकों के रेखाचित्र भी बनाए थे, लेकिन शूटिंग नहीं की थी। इसीलिए इसे आधी फिल्म कह रहे हैं। निर्माण के इकतालीस वर्षों में राजकपूर ने साढ़े अठारह फिल्में बनाई, एक दर्जन पटकथाओं पर काम किया और सैकड़ों गीतों की धुनें बनाईं। अजन्ता, घूँघट के पट खोल, परमवीरचक्र, रिश्वत, मैं और मेरा दोस्त तथा जोकर भाग-2 वे पटकथाएँ हैं, जिन पर फिल्में नहीं बनाई जा सकीं।

जीवन गीत में प्रेम स्थायी भाव है। प्यार, राजकपूर के जीवन में सबसे बड़ी ताकत और सबसे खतरनाक कमजोरी भी रहा है। प्रेम की शक्ति ने उनसे फिल्में बनवाई तो प्रेम की कमजोरी के कारण वे जीवनभर ठगे भी गए। जानकर ठगे गए, अनजाने कुछ भी नहीं हुआ। ठग उनके अपने लोग थे, जिन्हें वे प्यार करते थे। वे सब कुछ जानकर, आँखें बन्द कर लेते थे। एक बार एक हितैषी ने एक मित्र की ठगी का वृत्तान्त राजकपूर को सुनाया और पूछा, 'क्या आप जानते हैं कि फलाँ आदमी आपको ठग रहा है? आपके नाम का दुरुपयोग कर रहा है?'

राजकपूर ने कहा, 'मैं जानता हूँ। यह उसका दुर्भाग्य है कि वह यह नहीं जानता कि एक बार उसने मुझ पर एक अहसान किया है, जिसके बदले वह मेरा सब कुछ ले सकता है। वह मूर्ख तो चन्द सिक्के ठगकर खुश हो रहा है।' तमाम ठगी और चोरियों के बाद राजकपूर को उनकी फिल्मों की व्यावसायिक सफलता का मात्र दस प्रतिशत ही मिल पाया। आय कर उनका 'सदा जागनेवाला हिस्सेदार' था। मृत्यु के समय भारत के सफलतम निर्माता, अभिनेता के घर और बैंक में नाममात्र की धनराशि थी। उनकी असली सम्पत्ति तो वह सिनेमा संस्कृति है, जो वह अपने पीछे छोड़ गए हैं।

राजकपूर के पास प्रेम करने की असीमित शक्ति थी और प्रेम में असफल होने पर खूब आँसू बहाने का माद्दा भी था। औद्योगिक प्रगति ने आदमी के सीने में इस्पात भर दिया है और इसी कारण वह आसानी से हँसना और सहज होकर रोना भूल-सा गया है। कामयाबी की आँधी सबसे पहले मनुष्य की संवेदना को लील जाती है। राजकपूर ने सारी जिन्दगी अपने भीतर के बच्चे को नहीं मरने दिया। इस चिरन्तन बच्चे से उनकी फिल्मों में सहजता और सरलता का निर्वाह हुआ है। आजकल के तथाकथित 'विज किड' निर्देशक सीधी बात को भी दुरूह बनाकर प्रस्तुत करते हैं और इस औघड़पन को अपनी योग्यता समझते हैं। बचपन और बालपन में यही फर्क है।

प्रेम 'नें राजकपूर को हँसना और रोना सिखाया, तो जिन्दगी ने उन्हें 'हँसते हुए रोना' और 'रोते हुए हँसना' सिखाया। जिन्दगी की पाठशाला में सीखे हुए सबक को राजकपूर ने अपनी फिल्मों में उतार दिया। उनकी अधिकांश फिल्में 'आँसू के मध्य से देखी हुई मुस्कान' हैं। राजकपूर की अन्यतम रचना 'जोकर' में तो यह विचार जस का तस ही रख दिया गया है। नायक की माँ की मृत्यु हो जाती है और 'तमाशा सदा जारी रहे' की भावना के अनुरूप नायक नाच-गाकर तमाशबीन जनता का मनोरंजन करता है। इस दृश्य के अन्त में नायक, वायलिन बजाते हुए मन्द-मन्द मुस्कराता है। यह शॉट आँसू की एक बूँद के मध्य से लिए जाने का आभास देता है। यह यादगार दृश्य ही राजकपूर के फिल्म चिन्तन की आत्मा है।

आँसू के मध्य से देखी हुई मुस्कान को सिनेमा के पर्दे पर प्रस्तुत करने का प्रयास है-आवारा, श्री 420, जागते रहो, जिस देश में गंगा बहती है और मेरा नाम जोकर। शुद्ध प्रेम-कथाओं का चित्रण हुआ है-बरसात, आह, संगम, बॉबी, सत्यम् शिवम् सुन्दरम्, प्रेम रोग और राम तेरी गंगा मैली में। बच्चों को केन्द्रीय भूमिका देकर बनाई गई फिल्में हैं-बूट पॉलिस और अब दिल्ली दूर नहीं। बीवी ओ बीवी शुद्ध हास्य फिल्म थी। 'कल, आज और कल' रणधीरकपूर की फिल्म थी और 'धरम-करम' आवारा के सिक्के का दूसरा पहलू है। राजकपूर की पहली फिल्म 'आग' को किसी भी श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि वह राजकपूर की सभी फिल्मों से अलग है और उनकी हर फिल्म में आग कहीं-न-कहीं मौजूद है। दरअसल 'आग' सर्जक राजकपूर का घोषणा-पत्र था। उनका शंखनाद था। बाइस वर्षीय युवक की आकांक्षाओं का दस्तावेज था। कथ्य और तकनीक की दृष्टि से जिन विशेषताओं की झलक आग में देखी गई, उन सभी का चरम विकास अगली फिल्मों में हुआ। 'जोकर,' 'आग' का ही विराट स्वरूप था। आग के प्रणय दृश्य बरसात और बॉबी में विकसित हुए। आग में नायक (स्टेज का दिग्दर्शक) जिस अदा से नायिका को प्रस्तुत करता है, वह अदा और भव्य सैट्स भावी शो-मेन की कल्पनाओं से परिचित कराते हैं। कमोबेश आग उस यात्रा का प्रारम्भ है, जिसका विस्तार और समापन 'जोकर' में हुआ। सत्यम् शिवम् सुन्दरम् भी आग की आणविक विकिरण मात्र थी।

प्रेम और प्रेम में हँसना-रोना, राजकपूर की प्रथम प्रेरणा थी, तो सृजन शक्ति का दूसरा स्रोत उनकी अदम्य महत्त्वाकांक्षा थी। आग के नायक की तरह राजकपूर जीवन में कुछ असाधारण कर गुजरना चाहते थे। जलती हुई-सी महत्त्वाकांक्षा उनका ईधन बनी। इस अपार महत्त्वाकांक्षा ने राजकपूर को भावनाओं की तीव्रता दी और यह 'इंटेनसिटी' ही राजकपूर के दिग्दर्शन को पैनापन देती है। कम उम्र में ही राजकपूर ने महत्त्वाकांक्षा का पौधा अपने दिल में लगा लिया था, जिसे हालात ने सींचा और बड़ा किया। जोकर की असफलता ने राजकपूर को राख कर दिया, परन्तु महत्त्वाकांक्षा की चिंगारी ने फिर शोले पैदा किए और उन्होंने बॉबी बनाकर स्वयं को पुनः उच्चतम आसन पर स्थापित किया। विपरीत परिस्थितियों ने राजकपूर को नष्ट नहीं किया, वरन् इस जीवटवाले पठान का श्रेष्ठतम स्वरूप ही उजागर किया और वह कहावत के अनल-पक्षी (फोनिक्स) की तरह राख से निकलकर पुनः खुले आकाश में उड़ने लगे।

पृथ्वीराज उनकी प्रेरणा के तीसरे स्रोत रहे हैं। उन्हें अपने पिता के प्रति असीम श्रद्धा थी और वे हमेशा ऐसे कार्य करना चाहते थे कि जिनसे उनके पिता की गरिमा बढ़े। राजकपूर को जीवन में कभी ऐसा नहीं लगा कि वे अपने पिता से अधिक ख्याति अर्जित कर सके हैं। दुनियावालों ने जल्दी ही स्वीकार कर लिया कि पृथ्वीराज सिर्फ राजकपूर के पिता हैं, जबकि राजकपूर अन्तिम समय तक स्वयं को पृथ्वीराज के बेटे से अधिक कुछ नहीं मानते रहे। कभी-कभी राजकपूर शराब पीकर आधी रात के बाद (राजकपूर का मनपसन्द समय) अपने पिता के मकान के नीचे खड़े रहकर उन्हें आवाज देते थे। जब पृथ्वीजी बॉलकनी में आते, तो राजकपूर कहते- 'आप नीचे नहीं आइए, मैं ही कोशिश करूँगा कि आपके बराबर आ सकूँ।' इतना कहकर राजकपूर गाड़ी में बैठकर भागे हुए काफिर नशे की तलाश में निकल जाते थे। बाप-बेटे के बीच ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर आना महज चन्द सीढ़ियों का चढ़ना-उतरना नहीं था, बल्कि एक पूरी उम्र का फासला, श्रद्धा के चन्द लम्हों में पार करना था।

'बरसात' की अपार सफलता ने राजकपूर को भारतीय सिनेमा का महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर बना दिया था। वे अपने पिता की महानता से इतने आतंकित थे कि 'आवारा' की पटकथा सुनाने स्वयं नहीं गए। जब के.ए. अब्बास और वी.पी. साठे जब पृथ्वीराज को 'आवारा' सुना रहे थे, राजकपूर ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि पापाजी को 'आवारा' पसन्द आ जाए। उस जमाने में पृथ्वीराज अत्यन्त सफल और गरिमामय सितारे थे। फिल्म के बाजार में नायक के रूप में उनका दबदबा था। आज धर्मेन्द्र और सुनील दत्त किसी फिल्म में अपने बेटों के बाप की भूमिका करने से कतराते हैं, क्योंकि नायक की छवि से हटकर अपने बेटों के बाप वे नहीं दिखाई देना चाहते हैं। आज उम्र के इस दौर में धर्मेन्द्र नेकर और शार्ट्स (फरिश्ते, मस्त कलन्दर) पहनकर अपने से आधी से भी कम उम्र की नायिका के साथ इश्क करने में शान समझते हैं। 'रुस्तम और सोहराब' जैसी महान कथा में भी धर्मेन्द्र और सनी देओल पिता-पुत्र की भूमिका नहीं करना चाहते हैं। 'आवारा' के जमाने में पृथ्वीराज कपूर आज के धर्मेन्द्र से कहीं अधिक बड़े और गरिमामय सितारे थे। पृथ्वीराज ने 'आवारा' की पटकथा सुनकर बगैर अपनी छवि आदि की परवाह किए पिता की भूमिका करना स्वीकार किया। राजकपूर अपने पिता का इतना आदर करते थे कि उनके सामने कभी सिगरेट और शराब का सेवन नहीं किया। हर फिल्म के प्रारम्भ में ईश्वर से आशीर्वाद लेने के बाद पिता का आशीर्वाद लेते रहे और आर. के. के प्रतीक चिन्ह के पहले पृथ्वीराज की पूजा का दृश्य पर्दे पर आता रहा। बचपन से ही राजकपूर पर अपने पिता के भव्य व्यक्तित्व का दबदबा रहा, उन्होंने सदैव पिता को ही अपना आदर्श माना। पृथ्वी-थियेटर में शो के बाद पृथ्वी के कमरे में दिग्गजों की महफिल लगती थी। राजकपूर एक कोने में बैठकर विद्वानों की बातें सुना करते थे। सभा के अन्त में पृथ्वीराज सारी बातों को अत्यन्त सरल शब्दों में प्रस्तुत करते थे और उनकी इस योग्यता का राजकपूर पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। राजकपूर ने बहुत गौर से देखा कि किस प्रकार उनके पिता अपनी मनपसन्द धीम पर लेखकों से से नाटकों की पटकथा लिखवाते थे। पृथ्वीराज की ये बौद्धिक सभाएँ बहुत देर तक चलती थीं। सबके जाने के बाद साफ-सफाई कराके राजकपूर ऑपेरा हाउस से मादूँगा की ओर पैदल रवाना होते थे। उतनी रात बस या ट्रेन मिलने का सवाल नहीं था और टैक्सी के लिए पैसे नहीं होते थे। अतः सारे वार्तालाप की जुगाली करते हुए राजकपूर अलसभोर में घर पहुंचते थे। यह अनुभव सारी उम्र राजकपूर के काम आया नाटक की पटकथा बनाते समय पृथ्वीराज दर्शकों पर दृश्यों के प्रभाव के बारे में बहुत जागरूक रहते थे। उनके सभी नाटकों में संवाद सामाजिक उद्देश्यों के साथ पर्याप्त मनोरंजक रहता था। संवादों पर दर्शकों की प्रतिक्रिया जान लेने के बाद आवश्यक परिवर्तन भी किया जाता था। सिनेमा में यह सम्भव नहीं है। पृथ्वी थियेटर में राजकपूर ने दर्शकों की प्रतिक्रिया का गहराई से अध्ययन किया। सारी उम्र राजकपूर का दर्शकों से गहरा तादात्म्य रहा, क्योंकि दर्शक राजकपूर के लिए अजनबी नहीं थे और दर्शकों के लिए राजकपूर कोई गैर नहीं थे। इस अटूट सम्बन्ध की आधारशिला पृथ्वी थियेटर था। अनुभव और समय के साथ इस अटूट सम्बन्ध पर राजकपूर की पकड़ इतनी गहरी हो गई थी कि पटकथा बनाते समय ही वह कह देते थे कि किस दृश्य पर ताली पड़ेगी। 'राम तेरी गंगा मैली' के प्रदर्शन के पूर्व ही उन्होंने मुझसे कहा था कि रील नम्बर चार में जब मंदाकिनी का पहला 'क्लोज अप' आएगा और वह कहेगी 'मैं ही तो हूँ गंगा' इस दृश्य पर अगर ताली पड़ती है, तो समझना कि दर्शकों ने मंदाकिनी को गंगा के रूप में स्वीकार कर लिया है और फिल्म सफल सिद्ध होगी। इन्दौर में फिल्में गुरुवार को प्रारम्भ होती हैं और बम्बई में शुक्रवार को। अतः उनकी हिदायत थी कि इस दृश्य के बाद मैं उन्हें फोन करूँ और निश्चित समय का कॉल पहले से ही बुक करा लूँ। इन्दौर के संगीता सिनेमा में मैंने दर्शकों को इस दृश्य पर ताली बजाते हुए देखा और फोन पर राज साहब को बधाई दी। फोन पर ही राजकपूर ने ऑपरेटर को लाइन पर से हटने को कहा। मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्हें ऑपरेटर की मौजूदगी का अहसास कैसे हुआ। मैंने पूछा भी। उन्होंने कहा कि अति उत्साहित ऑपरेटर की साँस स्पष्ट सुनाई दे रही थी। उम्र के उस दौर (60 वर्ष) में भी राजकपूर की सारी इन्द्रियाँ कितनी सचेत थीं। कोई आश्चर्य नहीं कि हवा में मौजूद अनसुनी-सी ध्वनि को भी पकड़कर राजकपूर कोई गीत रच लिया करते होंगे। राजकपूर कहते भी थे कि प्रकृति के हर क्रिया-कलाप में संगीत होता है। जब सब ओर सन्नाटा छाया रहता है, तब भी सन्नाटे की सिम्फनी बजती रहती है। सचमुच राजकपूर ध्वनि का पुरुष रूपान्तर थे।

राजकपूर की सृजन शक्ति की चौथी प्रेरणा उनकी धार्मिक आस्था रही है।

राजकपूर ने पृथ्वीराज से जन्मजात संस्कारों के अतिरिक्त धर्म के प्रति अटूट आस्था भी पाई थी। पृथ्वीराज कार में बैठकर, जहाँ कहीं जाते थे, तो रास्ते में सभी मन्दिरों, मस्जिदों और गिरजाघरों के सामने अपना सिर झुकाते थे। यही आदत सभी कपूरों में है। आज भी वे लोग आस्था के सभी केन्द्रों पर सिर नवाते हैं। दरअसल कपूर परिवार ने ही फिल्मों में धार्मिक अनुष्ठानों, हवन और पूजा को इतना महत्त्व दिया। कपूर परिवार के लिए धर्म का अर्थ कट्टरता नहीं है, क्योंकि उनके अत्यन्त प्रिय मित्र और सहयोगी विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों से आए थे। राजकपूर की कॉटेज में सभी धर्मों के ग्रन्य रखे होते थे और वे सबको समान आदर देते थे। राजकपूर के घाट पर शैलेन्द्र और हसरत ने सदैव एक साथ शराब पी और किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया। यदि बंगाली कैमरामैन राधू करमाकर, निर्देशक राजकपूर की आँखें थीं, तो साउंड रिकॉर्डिस्ट मुसलमान अलाउद्दीन खान निर्देशक राजकपूर के कान थे। गुजराती मुकेश यदि कलाकार राजकपूर की आवाज थे, तो मुसलमान नरगिस उनकी फिल्मों की आत्मा थीं। राजकपूर के स्थायी लेखकद्वय थे, ख्वाजा अहमद अब्बास और वी.पी. साठे। राजकपूर के सृजन का आधार विराट हिन्दू धर्म था, परन्तु धार्मिक संकीर्णता के लिए उनके जीवन में कोई स्थान नहीं था।

राजकपूर ने आर.के. स्टूडियो के प्रारम्भ ही से गणपति की स्थापना की परम्परा डाली थी, जो आज भी जारी है। चेम्बूर के गणपति उत्सव में आर. के. के गणपति का विशेष स्थान है। राजकपूर सार्वजनिक गणपति के सामाजिक महत्त्व से भली-भाँति परिचित थे। गणपति उत्सव पर स्थापना और विसर्जन का प्रारम्भ सच्ची आस्था से ही हुआ है। कल्पना कीजिए आवारा की असीम सफलता के बादवाले गणपति विसर्जन में राजकपूर, नरगिस, शंकर, जयकिशन, मुकेश, लता, शैलेन्द्र, हसरत नाचते-गाते हुए बम्बई की सड़कों पर निकलते थे, तो आम आदमी का उत्साह क्या होता होगा? ये परम्परा आज भी जारी है। एक बार गणपति उत्सव के समय हिना की शूटिंग यूरोप में हो रही थी, तब राजीव कपूर को बम्बई भेजा गया, जहाँ उन्होंने गणपति उत्सव की तैयारियाँ कराईं। आर. के. गणपति उत्सव बम्बई के सामाजिक जीवन में बहुत महत्त्व रखता है। क्या राजकपूर जैसे बुद्धिमान व्यक्ति ने गणपति उत्सव के 'बॉक्स आफिस' मूल्य का अन्दाजा नहीं लगाया होगा? यह प्रश्नचिन्ह उनकी आस्था पर नहीं है वरन् राजकपूर नामक किंवदन्ती के बनने के कारण खोजता है और राजकपूर तथा आम आदमी के सम्पर्क का ज्ञान हमें कराता है। इससे यह भी समझना आसान होता है कि पृथ्वीराज का प्रभाव राजकपूर पर कितना गहरा था। पूजन और हवन की परम्परा इस तरह फिल्मों में विकसित हुई। हिन्दी थियेटर के इतिहास में पृथ्वी थियेटर का बहुत महत्त्व है। पृथ्वी थियेटर के मोनोग्राम पर लिखा होता था 'कला देश की सेवा में'। उस जमाने में नाटकों में फूहड़ता होती थी। पृथ्वीराज ने अपने नाटकों में सामाजिक समस्याओं के सरल निदान प्रस्तुत किए थे। दर्शकों को अपने कर्तव्य और दायित्व के प्रति जागरूक किया था। अपने जमाने के सुपर स्टार पृथ्वीराज ने फिल्मों से पैसा कमाकर नाटक कम्पनी पर खर्च किया। उस जमाने में समाज का एक बड़ा वर्ग नाटक को हिकारत की निगाह से देखता था। पृथ्वीराज ने इस दृष्टिकोण में बदलाव लाने के लिए बहुत मेहनत की। उनके इस संघर्ष को राजकपूर ने बहुत नजदीक से देखा था और उन्हें इस बात का भी ज्ञान था कि जब पृथ्वीराज अभिनेता बनना चाहते थे, तो उनके पिता और अन्य रिश्तेदारों ने इसका जबरदस्त विरोध किया था। वे लोग चाहते थे कि पृथ्वीराज वकील या सरकारी अफसर बनें। 1924 के जमाने में भला कौन समझदार आदमी अपने पढ़े-लिखे बेटे को अभिनेता बनने की इजाजत देता? उस समय भारत में सिनेमा को विकसित हुए सिर्फ ग्यारह वर्ष हुए थे। इसी बात ने राजकपूर के सीने में आग को जन्म दिया। आग का नायक भी सफल बैरिस्टर की सन्तान है और पिता से विद्रोह कर वह नाटकों की दुनिया में चला जाता है। प्रारम्भ में तीन दिन का भूखा-प्यासा, थका-हारा नायक पिछले अधखुले दरवाजे से वर्षों से बन्द नाटक-घर में जा पहुँचता है। कबूतरों ने थियेटर को अपना घर बना लिया है। जगह-जगह मकड़जाले हैं। धूल-मिट्टी से सनी बाँसुरी और पायल पर नायक की निगाह जाती है। अँधेरे-बन्द थियेटर में स्टेज पर रोशनी हो जाती है और नायक कहता है-यह अकेले मेरी कहानी नहीं है। मुझ जैसे लाखों नौजवान हैं। जिन्दगी तो उनकी है, परन्तु उसे बनानेवाला कोई और है। हम अपना जीवन खुद क्यों नहीं बना सकते। माँ, मैंने तेरे प्यार का अपमान नहीं किया है, सिर्फ वह घर छोड़ा है, जिसकी पथरीली दीवारें मेरी आवाज नहीं सुन सकती। माँ, पिताजी को समझाना कि मैं उनके माथे का धब्बा नहीं बनूँगा। "मैं थियेटर को उस ऊँचाई पर ले जाऊँगा, जहाँ लोग उसे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं...।"

खाली थियेटर में तालियों की गड़गड़ाहट गूँजती है। फिर खामोशी के बाद ताली बजाते हुए प्रेमनाथ प्रवेश करते हैं, जो उस बन्द थियेटर के मालिक हैं और नायक को कहते हैं कि थियेटर शुरू करो। प्रेमनाथ लाखों रुपए लगाने को तैयार हैं।

राजकपूर कहते हैं, "क्या आपके पास चार आने हैं, मैंने दो रोज से खाना नहीं खाया।" यह राजकपूर की प्रतिभा थी कि एक गम्भीर नाटकीय दृश्य का अन्त हास्य के स्पर्श से होता है जो दृश्य को मार्मिक भी बना देता है।

आग के इस दृश्य से राजकपूर पर पृथ्वीराज के गहरे प्रभाव का पता चलता है। पृथ्वीराज ने सफल सितारे का आरामवाला जीवन छोड़कर नाटक का कठिन मार्ग चुना था। राजकपूर ने भी निर्माता होने का जोखिम बहुत ही कम उम्र में लिया था। पिता-पुत्र में जीवन की चुनौती को स्वीकार करने की अद्भुत क्षमता थी। दोनों ही बड़े जीवट के लड़ाकू थे। आग का यह दृश्य जोकर के 'खाली-खाली कुर्सियाँ हैं' में दोहराया गया है। पिता एक सफल जोकर थे, जो लोगों का मनोरंजन करते हुए मर गए। पुत्र का आदर्श भी यही है और वह महान जोकर होना चाहता है। संगम का नायक हिन्दी नहीं पढ़ सकता है। पृथ्वीराज के जमाने में महिलाएँ हिन्दी पढ़ती थीं और पुरुष उर्दू। दरअसल राजकपूर की सारी फिल्मों में उनके स्वयं के जीवन की घटनाएँ हैं और अपने पिता के जीवन की घटनाएँ हैं। पृथ्वीराज को मरणोपरान्त दादा फाल्के पुरस्कार मिला था, जिसे लेने के लिए ज्येष्ठ पुत्र राजकपूर दिल्ली गए थे। जब स्वयं राजकपूर को दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिला, तो खराब तबियत के बावजूद भी वे दिल्ली गए, क्योंकि पिता द्वारा पाए गए इस पुरस्कार को भी स्वयं अर्जित करना, उनके लिए विशेष महत्त्व रखता था। राजकपूर की प्रिय जोकर में पिता का पात्र अपने श्रेष्ठतम तमाशे के समय ही मरता है और जीवन में राजकपूर के साथ भी लगभग यही हुआ कि दादा फाल्के पुरस्कार लेते समय ही वे लगभग मर गए। बाद का एक महीना तो मशीनों ने कृत्रिम तौर पर उन्हें जिन्दा रखा। राजकपूर के जीवन में हकीकत और अफसाना गले मिलते हुए-से नजर आते हैं।!

राजकपूर की फिल्मों के निर्माण में प्रेरणा के चार बिन्दु थे-राजकपूर के प्रेम करने की असीमित शक्ति, प्रेम में असफल होने पर रोने का साहस तथा राजकपूर की अदम्य महत्त्वाकांक्षा। अपने पिता पर अगाध श्रद्धा और अपार धार्मिक श्रद्धा जो जन्मजात संस्कार के अतिरिक्त उन्हें अपने पिता द्वारा दी गई शिक्षा से प्राप्त हुई थी। इन चारों शक्तियों ने राजकपूर को प्रेरणा दी और यही शक्तियाँ वे आधार स्तम्भबनीं, जिन पर राजकपूर ने सृजन किया है।