दसों दिशाएँ दोहरायेंगी कहानियाँ / राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
राजकपूर ने अपने जीवनकाल में अच्छे प्रस्ताव के बावजूद, अपनी फिल्मों के सैटलाइट अधिकार नहीं बेचे। उनका कहना था, कि यह माध्यम अजगर है और समय के साथ इसकी भूख विराट होती जाएगी, तब अकल्पनीय दाम मिलेंगे। विचारणीय है कि राजकपूर टेलीविजन के लिए सीरियल या रियल्टी शो रचते?
राजकपूर के जीवनकाल में उनके द्वारा निर्मित-निर्देशित फिल्मों ने, उनके लिए जितना लाभ कमाया, उससे हजार गुना अधिक धन, उनकी मृत्यु के बाद विगत इक्कीस वर्षों में कमाया है। प्रति तीन वर्ष सैटेलाइट पर प्रदर्शन के अधिकार अकल्पनीय धन में बिकते रहे हैं और यह सिलसिला आज भी जारी है। उनके समकालीन किसी भी फिल्मकार की रचनाओं को ये दाम नहीं मिले हैं।
फिल्मकारों की अधिकांश रचनाएँ काल कवलित हो जाती हैं और कुछ तो दूसरे, शुक्रवार तक विस्मृत हो जाती हैं। जनवरी, 2009 में लंदन की एक संस्था ने 'आवारा' का प्रदर्शन किया और उस पर वार्ता भी आयोजित की, जिसकी सदारत के लिए उनके ज्येष्ठ पुत्र रणधीर कपूर को आमन्त्रित किया गया। ज्ञातव्य है कि 'आवारा' 14 दिसम्बर, 1951 को प्रदर्शित हुई थी, अतः उसने समय की परीक्षा पास कर ली है। एक विदेशी पत्रिका का आकलन है कि पूरे विश्व में 'आवारा' सबसे अधिक देखी गई भारतीय फिल्म है, जिसे सिनेमाघर के साथ डी.वी.डी. और सैटेलाइट इत्यादि माध्यमों के द्वारा देखा गया है।
उनकी तमाम फिल्मों का संगीत आज भी बिकता है और रॉयल्टी मिलती है। सभी फिल्मों की लागत से अधिक धन संगीत रॉयल्टी से मिल चुका है और संगीत आज भी बिक रहा है।
उनकी मृत्यु के अठारह महीने बाद, सूरज बड़जात्या की पहली फिल्म 'मैंने प्यार किया' का सफल प्रदर्शन हुआ और फिल्म के लिए श्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार लेते हुए बड़जात्या ने कहा कि राजकपूर की फिल्मों ने उन्हें प्रेरित किया है और पाठ्यक्रम की तरह, वे इन फिल्मों को बार-बार देखते हैं। युवा पीढ़ी के करण जौहर और आदित्य चोपड़ा भी राजकपूर की फिल्मों से प्रेरणा लेते हैं। संजय लीला भंसाली ने 'साँवरिया' में राजकपूर को श्रद्धांजलि दी है और उनके पैशन को अपनाया है। सारांश यह है कि राजकपूर अपनी मृत्यु के इक्कीस वर्ष बाद भी प्रासंगिक हैं और उनकी सिनेमाई शैली को दोहराने के प्रयास हो रहे हैं।
फिल्मकार और लेखक अपनी पटकथा की रचना करते हुए, प्रायः राजकपूर की फिल्मों का जिक्र करते हैं और उन्हें रेफरेंस मानते हैं। फिल्मकार अपने संगीतकार को राजकपूर के किसी गीत को आधार मानकर धुन बनाने का आग्रह करते हैं। राजकपूर गुजरकर भी नहीं गुजरे हैं और फिल्म निर्माण प्रक्रिया में, वर्तमान की तरह विद्यमान हैं। राजकपूर के समकालीन फिल्मकार शांताराम, मेहबूब खान, गुरुदत्त और विमलराय महान फिल्मकार रहे हैं, परन्तु वर्तमान पीढ़ी के युवा फिल्मकार उनकी फिल्मों का नाम नहीं लेते। कुछ कला फिल्मों को बनाने वाले गुरुदत्त की फिल्मों का स्मरण करते हैं। सच्चाई यह है कि राजकपूर से बेहतर फिल्मकार पहले, उनके साथ और उनके बाद भी हुए हैं, परन्तु युवा पीढ़ी के फिल्मकार राजकपूर की फिल्मों से ' भावनात्मक तादात्म्य महसूस करते हैं। युवा दर्शक पीढ़ी भी राजकपूर के सिनेमा को स्वयं के नजदीक महसूस करती है, जिसके कारण सैटेलाइट चैनल निरन्तर महँगे दाम चुकाकर उनका प्रसारण नियमित रूप से करता है। राजकपूर की इस निरन्तरता का कारण क्या हो सकता है? राजकपूर के लिए 'पटकथा सिमटे तो दिले आशिक, फैले तो सिनेमा है' रही। उन्होंने हमेशा हृदय की तीव्रतम भावना से फिल्में रचीं और उनका यह आशिकाना अन्दाज ही पीढ़ी दर पीढ़ी दर्शकों को भाता रहा। प्रेम-पत्र की तरह रची पटकथा की प्रस्तुति में तर्क से ज्यादा महत्त्व भावना को दिया गया है। वे अपने निर्देशन से एक लहर को जन्म देते थे, जिसमें तर्क और सन्देह बह जाते थे। 'संगम' का पूरा आधार नायक को 'हिन्दी पढ़नी नहीं आती है' पर टिका है। अगर सुन्दर (राजकपूर) राधा (वैजयंतीमाला) की हिन्दी में लिखी चिट्ठी पढ़ लेते, तो उन्हें समझ में आ जाता कि राधा गोपाल (राजेन्द्र कुमार) को चाहती है और कहानी पाँचवीं रील में दम तोड़ देती। महज तीन पात्रों की चार घंटे की मनोरंजक फिल्म राजकपूर ने गढ़ी और दर्शक मन्त्र-मुग्ध देखते रहे। राजकपूर के सिनेमा का केन्द्रीय पात्र दिल रहा है और प्रेम से ही सारी ऊर्जा प्रवाहित होती रही है। शायद यही राजकपूर की 'निरन्तरता' का कारण है। दूसरा कारण यह है कि राजकपूर की फिल्में ठेठ भारतीय होते हुए भी, उनमें सार्वभौमिकता के तत्त्व मौजूद रहे हैं। सारे परिवर्तन सतह पर झाग पैदा करती लहरों की तरह हैं, परन्तु समुद्र के गर्भ में कुछ मूल्य हैं जो कभी नहीं बदलते। राजकपूर की फिल्मों में निरन्तर परिवर्तन और घोर परिवर्तनहीनता के बीच के तनाव को साधने का प्रयास स्पष्ट नजर आता है। शायद इसी कारण ये फिल्में हमेशा दर्शक को बाँधती रही हैं। उनकी मृत्यु के बाद, विगत वर्षों में उनकी फिल्में दर्शकों द्वारा देखी गई हैं और फिल्मकारों को प्रेरित व प्रभावित करती रही हैं। यदि राजकपूर जीवित होते तो बदलती हुई दुनिया का उन पर क्या प्रभाव होता?
उन्हें सोवियत रूस का विघटन बहुत पीड़ा देता। उनका प्रिय सर्कस भी मनोरंजन उद्योग से लगभग लोप हो गया है। सर्कस राजनीति में चला गया है। आर्थिक उदारवाद से जन्मे सामाजिक परिवर्तन भी राजकपूर को विचलित कर सकते थे। उन्हें सबसे अधिक दुःख भारत में पनपती सम्प्रदायवादी ताकतों से होता और देश पर बाहरी तालिबान आक्रमण तथा भीतरी तालिबानी प्रवृत्तियों से वे लगभग टूट जाते। विदेशों में भारतीय फिल्मों का फैलता प्रभाव तथा मल्टीप्लैक्स के कारण बढ़ती हुई आय उन्हें उत्साहित कर सकती थी, परन्तु सितारों का आकाश को छूता हुआ मेहनताना उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं होता, क्योंकि उन्होंने सारा जीवन फिल्मकार को प्रमुख सितारे के रूप में देखा था। जब 'प्रेमरोग' के लिए अमरीशपुरी के पाँच लाख के मेहनताने की बात उन्हें बताई गई, तब उन्होंने वर्षों से वनवास काटते रजामुराद को वह भूमिका दी। वर्तमान के लोकप्रिय सितारों का करोड़ों रुपए माँगना या 'मुनाफे में भागीदारी उन्हें कतई पसन्द नहीं आती और वे नए कलाकारों के साथ फिल्म बनाना पसन्द करते। ज्ञातव्य है कि 'जोकर' की असफलता के बाद धर्मेन्द्र, मनोज कुमार और प्राण उनके पास गए थे और पूरा सहयोग देना चाहते थे। राजकपूर ने सविनय प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए कहा था कि आप सभी शिखर पर हैं और मेरी फिल्म असफल रही है, अतः समानता की स्थिति बनते ही वे उनके साथ काम करेंगे। तीन बड़े सितारों के सहयोग को खारिज करते हुए, नए कलाकार ऋषि कपूर और डिम्पल कपाड़िया के साथ 'बॉबी' बनाना एक साहसी निर्णय था। 'जोकर' और रणधीर कपूर निर्देशित 'कल, आज और कल' की विफलता के बाद वे घोर आर्थिक संकट में थे और उनकी संस्था की साख मंडी में कम हो चुकी थी। एक और असफलता संस्था को समाप्त कर सकती थी। बतौर फिल्मकार उनका आत्मविश्वास और अपने सम्मान की रक्षा करने का भाव कमाल का था। इसके दशकों पूर्व भी अपनी 'आह' की असफलता के बाद उन्होंने दो बाल कलाकारों के साथ सुपरहिट 'बूट पॉलिस' रची थी। आज के अत्यधिक सफल और स्थापित फिल्मकार भी नए कलाकारों को लेकर फिल्म बनाने का साहस नहीं जुटा पाते और सितारों की बैसाखियों के बिना, उनसे दो कदम भी नहीं चला जाता।
वर्तमान के फिल्मकारों में राजकपूर निश्चय ही राजकुमार हीरानी को बहुत पसन्द करते और उन्हें आमिर की 'लगान', 'तारे जमीं पर' बेहद पसन्द आतीं। 'रंग दे बसन्ती' के भी वे प्रशंसक होते। उन्हें 'वेडनेसडे' सबसे अधिक पसन्द आती, क्योंकि आम आदमी का नायक होना उनके दिल के निकट रहा है।
फिल्म उद्योग के कई लोगों का, जिनमें उनके परिवार के भी कुछ सदस्य शामिल हैं, यह खयाल है कि आज के बदले हुए माहौल और फिल्म टेक्नोलॉजी के नित्य बदलते स्वरूप में राजकपूर के लिए फिल्म बनाना असम्भव होता। इस तरह के विचार रखनेवाले राजकपूर को नहीं समझने और सिनेमा माध्यम से उनके बेइन्तहा प्यार को भी अनदेखा करते हैं। बाइस वर्ष की उम्र में, जब वे स्वयं स्थापित सितारा भी नहीं थे, राजकपूर ने अपनी पहली फिल्म 'आग' का निर्माण किया था, जो लीक से हटकर कहानी थी। अर्जुन देव रश्क की लिखी 'जिस देश में गंगा बहती है' को आधा दर्जन नामी फिल्मकार अस्वीकार कर चुके थे। 'संगम' की चार घंटे की अवधि पर तमाम वितरकों को एतराज था। परन्तु उन्होंने एक मिनट भी कम करने से इनकार कर दिया। कलकत्ते में देखे एक नाटक के आधार पर उन्होंने 'जागते रहो' का निर्माण किया, जिसमें नायक केवल फिल्म की अन्तिम रील में, एक संवाद बोलता है और उनकी पारम्परिक छवि से बिलकुल जुदा थी 'जागते रहो' के नायक की भूमिका। उनके तमाम निकट सहयोगी इसे बनाने के विरुद्ध थे, परन्तु राजकपूर के मन में कथा ऐसी समाई थी कि उसे बनाए बिना वे और कुछ सोचने में स्वयं को असमर्थ पाते थे।
'प्रेमरोग' सामन्तवादी परिवेश में, एक युवा विधवा की कहानी थी। सारांश यह है कि राजकपूर एक समर्पित और साहसी फिल्मकार थे तथा आज के वातावरण में भी सफल सार्थक मनोरंजन गढ़ सकते थे। राजकपूर को अपनी पुरानी कथाओं को पुनः गढ़ने में भी महारत हासिल थी। उन्होंने 'बरसात' की पहाड़न और शहरी बाबू की प्रेमकथा में उद्योगपति और नेता के घिनौने गठबन्धन को जोड़कर, सफल 'राम तेरी गंगा मैली' की रचना की। गंगा के प्रदूषण को प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करके पूरे देश के नैतिक पतन को प्रेमकथा के साथ गूँध दिया।
आज के युवा का मस्ती के प्रति आग्रह, अनौपचारिकता और एक किस्म की बेचैनी को राजकपूर आसानी से पकड़ लेते। उसका सुविधाभोगी होना भी उनसे छुपा नहीं रहता। राजकपूर की सृजन प्रक्रिया में यादों की जुगाली शामिल रही है। उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन की घटनाओं को, अपनी फिल्मों में प्रस्तुत किया है। इस जुगाली में अपनी पुरानी फिल्मों का पुनरावलोकन भी शामिल रहा है। अतः यह सम्भव है कि वे वर्तमान के विरोधाभास और शाइनिंग इंडिया की नाक के नीचे, मौजूद झोंपड़पट्टी और साधनहीन जीवन पर एक व्यंग्य रचना प्रस्तुत करने का विचार करते क्योंकि इस युग की विडम्बनाओं और विरोधाभास को प्रस्तुत करने के लिए व्यंग्य ही उन्हें अनुकूल लगता। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल हमें स्वतन्त्रता के बाद का भारत समझने में जितनी मदद करते हैं, उतनी मदद उस कालखंड के अन्य लेखकों से नहीं मिलती। बहरहाल इस विचार के आते ही वे अपनी * 'श्री 420' को देखते और उसे आज के रंग में प्रस्तुत करते। ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी 'श्री 420' में, रातोंरात अमीर होने के ख्वाब के साथ भ्रष्ट समाज अपने सभी रूपों में मौजूद है और सामाजिक सोद्देश्यता एक प्रेमकथा के ताने-बाने के साथ मजबूती से गूँथी गई है। फिल्म में अभूतपूर्व चरित्र भूमिकाओं की भरमार है। ईमानदारी का मैडल और स्नातक की डिग्री लिए इलाहाबाद से एक युवा सपनों को साकार करने मुम्बई आया है। उसका प्रेम होता है एक युवा लड़की से, जो झोंपड़पट्टी के बच्चों को पढ़ाकर अपने अपाहिज पिता की सेवा करती है। प्रेमिका आदर्शवाद की प्रतीक है और उसका प्रेमी बेहतर जिन्दगी की तलाश में, सफेदपोश लोगों के धन कमाने के दुष्चक्र में फँस जाता है। प्रेमिका उसे इस दलदल से बाहर निकलने की प्रेरणा देती है।
9 सितम्बर, 1955 को प्रदर्शित 'श्री 420' आधी सदी के बाद भी ताजा लगती है। राजकपूर इस विषय को वर्तमान के स्पर्श से नई धार प्रदान करते। ज्ञातव्य है कि राजकपूर की ज्येष्ठ पुत्री रितु नन्दा ने श्री 420 क्लाइमेक्स की तर्ज पर गरीबों के आवास की पहल छोटे स्केल पर की। रितु नन्दा ने राजकपूर पर दो किताबें भी सम्पादित की हैं। एक किताब के साथ ऑडियो सीडी में राजकपूर की गैर सिनेमाई बातें भी हैं। राजकपूर बाजार की ताकतों से शासित युवा मन की महत्त्वाकांक्षा, उसकी तड़प और मोबाइल के हंटर से चौबीसों घंटे नौकरी पर चुस्त-दुरुस्त रहने की बात भी महसूस करते। न्योन रोशनी की बाँहों में बसे बाजार में खुद को खर्च करता युवा नायक होता। 'श्री 420' का खलनायक भ्रष्ट अमीर सोनाचन्द धर्मानन्द आज प्रस्तुत खलनायकों की तुलना में निहायत ही मासूम नजर आता है। उनकी इस फिल्म का खलनायक सत्ता की जमावट का पॉवर ब्रोकर होता या हर्षद मेहता जैसा, दलाल स्ट्रीट का कोई चतुर खिलाड़ी होता। यह भी सम्भव है कि उनके सारे पात्र आर्थिक मन्दी की गिरफ्त में पीड़ा भोगते हुए लोग होते। उनका केन्द्रीय पात्र विराट बाजार तन्त्र का हिस्सा होते हुए भी, उसके तिलिस्म को तोड़ने का प्रयास करता। यह फिल्म निश्चित ही वे अपने पोते रनबीर के साथ बनाते।
राजकपूर ने अपने जीवनकाल में अच्छे प्रस्ताव के बावजूद, अपनी फिल्मों के सैटलाइट अधिकार नहीं बेचे। उनका कहना था, कि यह माध्यम अजगर है और समय के साथ इसकी भूख विराट होती जाएगी, तब अकल्पनीय दाम मिलेंगे। विचारणीय है कि राजकपूर टेलीविजन के लिए सीरियल या रियल्टी शो रचते? ऋषि कपूर का कहना है कि राजकपूर भव्य फिल्मों के रचनेवाले व्यक्ति थे और छोटे पर्दे के लिए वे कभी कुछ नहीं करते। ज्ञातव्य है कि आर. के. स्टूडियो को चार वर्ष पूर्व ही वातानुकूलित किया गया है और साठ वर्ष पूर्व बनाई गई इमारत की जमकर मरम्मत की गई है। उनके पुत्रों ने उन तमाम प्रस्तावों को अस्वीकार किया कि स्टूडियो को ध्वस्त करके वहाँ मॉल और मल्टीप्लैक्स बनाया जाए। भारी मुनाफे के प्रस्ताव को अस्वीकार किया गया, क्योंकि यह राजकपूर के मिजाज के खिलाफ होता। शो मस्ट गो ऑन के विरुद्ध हो जाता। 'जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ' गीत नहीं, इस परिवार का जीवन मन्त्र रहा है। पूना के निकट लोनी ग्राम में स्थित राजकपूर के लगभग सौ एकड़ के फार्म हाउस को, बाजार दाम से बहुत कम में एक शिक्षा संस्थान को (राजकपूर की इच्छा के अनुसार) बेचा गया है, क्योंकि वहाँ बार-बार अतिक्रमण होते थे और मुम्बई में बैठकर उसकी देखभाल सम्भव नहीं थी। शिक्षा संस्थान को इस शर्त पर दिया गया है कि वहाँ स्थित पृथ्वीराज एवं राजकपूर
की समाधियों को अक्षुण्ण रखा जाएगा। बहरहाल, विगत दो वर्षों से आर. के. स्टूडियो में सोनी कम्पनी के रियल्टी शोज की शूटिंग होती है। वातानुकूलित करने की भारी लागत टेलीविजन से ही निकल सकती है। विगत वर्ष सलमान खान का शो 'दस का दम' की शूटिंग की तैयारी के समय, सोनी के अधिकारी ने प्रार्थना की कि राजकपूर की व्यक्तिगत कॉटेज इतनी जर्जर अवस्था में है कि कभी भी गिर सकती है, अतः उसी जगह वे नया शैले बनाना चाहते हैं, जिसमें सलमान खान रहेंगे। सोनी की अनुबन्ध अवधि के बाद मालिकाना हक आर. के. का ही होगा। यह एक व्यावहारिक सुझाव था और इसे इसलिए भी स्वीकार किया गया कि सलीम खान और राजकपूर गहरे मित्र थे तथा दोनों परिवारों में आज भी अच्छे रिश्ते हैं। श्रीमती कृष्णा राजकपूर और सलीम खान की पत्नी सलमा अनन्य सहेलियाँ हैं और एक-दूसरे के घर प्रायः आती-जाती रहती हैं।
सलमान खान को यह मालूम पड़ते ही उसने राजकपूर की दो पेन्टिग्स बनाईं और उस ऐतिहासिक कॉटेज की जगह बने नए कक्ष में प्रवेश करते ही दोनों कृतियों को दीवारों पर लगा दिया। सलमान खान ने कहा कि वहाँ रहते समय उन्हें उस जगह के ऐतिहासिक महत्त्व का बोध भी है और संकोच के साथ भय भी है, कि राजकपूर सपनों में उन्हें डराएँगे तो नहीं। एक गैर कपूर उनके निजी कक्ष में रह रहा है। सलमान खान को विदित था कि राजकपूर ने वहाँ सारा सृजन का काम कॉटेज में किया था और सहयोगियों के साथ शराबनोशी भी की थी। उन्हें सलीम खान ने बताया कि राजकपूर ने काम के समय कभी शराब नहीं पी, क्योंकि वे अपने काम को इबादत की तरह लेते थे। अनेक बार अलसभोर में सुबह 4 बजे शूटिंग समाप्त हुई तब राजकपूर ने स्नान-ध्यान के बाद शराब पी है। ज्ञातव्य है कि 'जोकर' की शूटिंग के समय एक दिन धर्मेन्द्र शराब पीकर सैट पर आए तो राजकपूर ने शूटिंग ही नहीं की।
यह गौरतलब है कि सलमान का जो स्वरूप उनकी फिल्मों में देखा गया, उससे बिलकुल अलग रूप में वे 'दस का दम' में नजर आए। उनकी सहज स्वाभाविकता और आवाम के साथ अनौपचारिक व्यवहार ही उस शो की जान सिद्ध हुआ। पहली बार असल व्यक्ति कुछ हद तक उजागर हुआ। बहरहाल विचारणीय यह है कि क्या राजकपूर टेलीविजन से जुड़ते? उनके परिवार और मित्रों का खयाल है कि यह सम्भव नहीं होता। मुझे लगता है कि टेलीविजन के व्यापक क्षेत्रों में पहुँचने के कारण राजकपूर इसे अनदेखा नहीं करते। उन्होंने ऐसी कई साहसी पटकथाओं पर विचार किया था जिन्हें शायद वे छोटे पर्दे पर प्रस्तुत करना पसन्द करते। राजकपूर में स्वयं को उजागर करने की गहरी लालसा थी। शायद अभिनय के लिए, यह लालसा ही उनका प्रेरक तत्त्व रही। उनकी अधूरी कथा 'घूँघट के पट खोल' के लिए रवीन्द्र जैन का मुखड़ा था- 'गुण अवगुण का डर भय कैसा, जाहिर हो भीतर तू है जैसा।' राजकपूर हमेशा अधिकतम लोगों से संवाद स्थापित करने के लिए बेचैन रहते थे। बॉक्स ऑफिस का सार भी तो अधिकतम ही है। वे आम आदमी के लिए फिल्में बनाते थे। आज टेलीविजन आम आदमी के जीवन का हिस्सा बन गया है तो राजकपूर कैसे अपने को रोकते? राजकपूर ने अभिनव फिल्म 'आग' द्वारा फिल्मों में प्रवेश किया था, तो टेलीविजन के लिए भी कोई अभिनव विचार ही लाते। शायद वे आतंकवाद और देश के भीतर पनपती तालिबानी प्रवृत्तियों पर टेलीविजन के लिए कथाएँ रचते।
क्या राजकपूर आत्म-कथा लिखते? उनकी फिल्मों में उनके जीवन की बहुत-सी बातें अभिव्यक्त हुईं। अतः इसकी कोई सम्भावना नहीं है। सृजन करनेवालों पर अनेक प्रभाव होते हैं और उन्हें समझने की कुंजी भी वहाँ से ही मिल सकती है, मसलन दिलीपकुमार को समझने के लिए एमिल ब्रोन्टों की 'वुदरिंग हाइट्स' ही सच्ची मदद कर सकती है। राजकपूर को समझने के लिए पृथ्वीराज कपूर द्वारा मंचित नाटक सहायता कर सकते हैं, क्योंकि जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही, वे पृथ्वी थियेटर्स से जुड़ गए थे। वही उनकी सच्ची पाठशाला थी। पृथ्वी में मंचित नाटक शकुन्तला, आहुति, पठान, दीवार सबसे अधिक लोकप्रिय थे। दर्शक की प्रतिक्रिया के अध्ययन से नाटकों में परिवर्तन किया जाता था। इन सभी नाटकों में धार्मिक सौहार्द, मानवीय करुणा, प्रेम और देशभक्ति की भावनाएँ समान रूप से मौजूद थीं और सोद्देश्यता के साथ भरपूर मनोरंजन था। राजकपूर का व्यक्तित्व और फिल्में सबसे अधिक इन्हीं से प्रभावित हैं।
राजकपूर की मृत्यु को बीस वर्ष हो चुके हैं और पुनर्जन्म की अवधारणा के अनुरूप वे अपने नए जन्म में बीस का होते-होते एक- दो प्रेम प्रकरण का आनन्द और अवसाद भोग चुके होंगे, क्योंकि प्रेमल स्वरूप ही उनका सार रहेगा जन्म-जन्मान्तर तक अगर विगत जन्मस्थल पेशावर में जन्मे हैं तो मुम्बई आना बहुत कठिन होगा। जहाँ उन्होंने बादाम, अखरोट खरीदे थे, वहाँ अब हथियार बिकते हैं। हथियार पेशावर की धरती और पठानों की आत्मा तक में धँस गए हैं। उन्हें लगेगा जैसे 'जिस देश' का डफवाला राजू डाकुओं की बस्ती में आ गया है। उन्हें सबसे अधिक पसन्द पहलगाम (काश्मीर) और इन्टरलॉकन (स्विट्जरलैंड) था। पहलगाम सुलग रहा है। देसी ठाठ का बंजारा इन्टरलॉकन में क्योंकर जन्मेगा? कुछ संस्कार जन्म-जन्मान्तर तक साथ चलते हैं। अतः राजकपूर गंगातट के किसी स्थान पर जन्मे होंगे। अपने नए चोले में वे कहीं भी जन्में हों, मुम्बई अवश्य आएँगे, क्योंकि यह शहर उनकी आत्मा और फिल्मों का अविभाज्य हिस्सा रहा है। यह भी सम्भव है कि वे 'श्री 420' के नायक की तरह ईमानदारी का मैडल और शिक्षा की डिग्री लिए मुम्बई आएँ। उन्हें विद्या (नरगिस का नाम, श्री 420 में) की तलाश में माया (नादिरा) से टकराना होगा। उन्हें धारावी देखकर आश्चर्य होगा कि नया जन्म हो गया परन्तु झोंपड़पट्टियाँ कायम हैं और कुमार (भिखारी) आज भी कहेगा कि ईमानदार और मेहनतकश हो तो काम नहीं मिलेगा, परन्तु छल-कपट से धन कमाने के रास्ते अब 840 हो चुके हैं। केलेवाली दिलवाली (ललिता पवार) के निकट ही राज ठाकरे का सवैतनिक गुण्डा उनसे कहेगा कि वापस जाओ, तुम्हें यहाँ नहीं बसने देंगे। सब जगह से खदेड़े जाने के बाद उन्हें सेठ सोनानन्द धर्मानन्द के विशाल बंगले के सामने के फुटपाथ की तलाश होगी। पुलिसवाला फुटपाथ पर सोने नहीं देगा तो वे कहेंगे, 'यह पासबाँ हमारा, यह सन्तरी हमारा, रहने को घर नहीं कहने को सारा जहाँ हमारा' (फिर सुबह होगी)। जब राजकपूर अभिनय के अवसर तलाश करेंगे तब निर्माता कहेगा कि जिम जाकर सिक्स पैक बनाओ, घुड़सवारी सीखो, जूड़ो कराटे की संस्था में जाओ, क्योंकि अभिनय छोड़कर बाकी सब कुछ आना चाहिए। एक शाम वे जुहू में शशिकपूर द्वारा निर्मित पृथ्वी थियेटर्स में पहुँचते हैं। मंचन की व्यवस्था और सहूलियतें उन्हें प्रभावित करती हैं। उनके पिता के जमाने से आज का थियेटर अलग है। नए-नए प्रयोग हो रहे हैं।
किसी निर्माण संस्था में अवसर नहीं मिलने से हताश राजकपूर चेम्बूर के आर.के. स्टूडियो पहुँचते हैं। उन्हें चौकीदार भीतर नहीं जाने देता। उन्हें बताया जाता है कि विगत नौ वर्षों से आर. के. ने कोई फिल्म नहीं बनाई है। वे पिछली दीवार फाँदकर स्टूडियो में पहुँचते हैं। प्यास लगी है, नल खोलते हैं, तो उन्हें 'जागते रहो' के गवई गाँव का आदमी समझकर खदेड़ दिया जाता है। बार-बार अस्वीकृत होने पर भी अभिनय की लालसा कायम है। वे अपनी तरह अस्वीकृत युवा लोगों के साथ नुक्कड़ नाटक खेलना प्रारम्भ करते हैं।
राजकपूर की 'आवारा' और 'जोकर' कथा के अन्तिम हिस्से से शुरू हुई और फ्लैशबैक में घटनाक्रम प्रस्तुत करके क्लाइमैक्स पर लौट आई।
इस किताब का प्रारम्भ भी हमने कुछ वैसा ही किया है और अब हम राजकपूर की सृजन प्रक्रिया देखते हुए, उनकी किंवदंती बनने को भी समझ सकेंगे। इस सारे प्रयास में भारत को समझने का अल्प प्रयास भी शामिल है।