लेखक की अपनी बात / राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे

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जयप्रकाश चौकसे

लेखक की अपनी बात

श्री विठ्ठलभाई पटेल और मेरी मित्रता आधी सदी पुरानी है। उन्होंने ही 1965 में सागर के निकट की गई 'तीसरी कसम' की शूटिंग के समय राजकपूर से मिलाया और मुलाकातों का सिलसिला 1976 तक चलता रहा।

सन् 1977 से 1988 तक उनके अत्यंत निकट आने का अवसर मिला। उन्होंने मुझे आर. के. स्टूडियो के दफ्तर में जगह दी थी क्योंकि बतौर कार्यकारी निर्माता मेरी चारों फिल्मों की शूटिंग वहाँ होती थी। उन ग्यारह वर्षों में पूरे परिवार से मित्रता हुई जो आज भी कायम है। वह दौर राजकपूर के लिए फ्लैश बैक का दौर था। सच तो यह है कि विगत की जुगाली उनका हमेशा ही प्रिय शगल रहा है। राजकपूर के लिए गुजरा हुआ वक्त, कभी पूरी तौर से नहीं गुजरता था और उनके वर्तमान में हमेशा मौजूद रहता था। इसी तरह वे भी गुजर कर नहीं गुजरे हैं।

उन्हें अपनी पुरानी फिल्मों को बार-बार देखने का शौक था। उन फिल्मों के पुनरावलोकन का अवसर मुझे भी मिला। किसी भी व्यक्ति को पूरी तरह जानना या समझना मुमकिन नहीं है, परन्तु राजकपूर को स्वयं को उजागर करने की गहरी ललक थी। मेरी रुचि हमेशा सृजन प्रक्रिया को समझने में थी। राजकपूर प्याज की तरह थे, छिलके दर छिलके उतारते रहने के बाद कुछ शेष नहीं रहता और लगता है, सारा प्रयास व्यर्थ ही गया परन्तु हाथ में जो गंध रह जाती है, वही शायद प्याज का सार है।

उसी गंध को पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास है यह किताब। सन् 1991 में लिखी अपनी किताब में न केवल नए अध्याय लिखे हैं वरन् सभी अध्यायों में कुछ जोड़ा गया है। अतः यह परिवर्तित स्वरूप नई किताब बन गई है।