सो गया ये जहाँ / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
कभी-कभी ऐसा लगता जैसे जिंदगी एक रात से भी छोटी होती ।
बारिश से गीली सड़कें चाँदनी का आईना बन जातीं और दिलों में अकारथ की चाहना का एक रस्ता खिंच आता ।
गाड़ी का शीशा टूटा होता और चेहरों पर घाव के लाल फूल खिले होते । तभी कोई बेपरवाही से कहता कि हवा इसलिए बनाई गई थी, ताकि वो हमारे रूखे बालों में गुम हो सके ।
और रातें ? उन पर उस आवारा मन की मिल्कियत होती, जिसके अपना कोई ध्रुव तारा तक ना था ।
एक मीठी धुन गले में घर बनाकर पैठ जाती । उसको किसी इकतारे की ज़रूरत ना होती, सीटियों और चुटकियों की टेक से वो अपनी रोशनी खोज निकालती।
खोने को कुछ पास नहीं होता, इसके बावजूद दिल हारी होड़ को हँसध्वनि की तरह गाता। या, खोने को अब कुछ नहीं होता, शायद इसीलिए तो !
ईश्वर अपनी टकसाल में हज़ार खोटे के साथ चंद खरे लम्हे भी गढ़ता, और उनको रात की संदूक़ में छुपा देता । वो हर किसी को ना मिलते, और जिनको मिलते, उनके लिए परछाइयों के दिन सस्तई से भरे अफ़साने बन जाते ।
रात के कांचघर में एक काफ़िला दूर तलक चलता रहता । माउथ ऑर्गन की रिदम पर एक गाना सुबह तलक गूँजता रहता -
'इस गली उस गली इस नगर उस नगर
जाएँ भी तो कहाँ जाना चाहें अगर !
सो गई हैं सारी मंज़िलें ओ सारी मंज़िलें
सो गया है रस्ता!'
कभी-कभी ऐसा लगता जैसे रात किसी सपने से भी लंबी होती !