स्वामी गिरिजानन्द / अशोक अग्रवाल
कमरे में प्रवेश करते ही उनका पहला वाक्य होता — भाई साहब ! हम जल्दी में हैं। आज आपके साथ सिर्फ़ चाय पिएँगे। चाय से पहले वह पानी के लिए कहते। पानी लाता, तो कहते — भाई साहब ! लगता है, आप कुछ परेशान हैं। आपने गिलास बाएँ हाथ में पकड़ा हुआ है। मैं तुरन्त अपनी भूल का परिमार्जन करता। ऐसी नगण्य सी दिखाई देने वाली क्रिया से वह उस व्यक्ति की मनोदशा का अनुमान लगाते ।
उनसे पहली मुलाक़ात कुछ पेचीदा पस्थितियों में हुई। मैं अपने पेट रोग से पीड़ित था। किसी उपचार का कोई लाभ नहीं हो रहा था। मेरे ऐसे सहपाठी, जिनकी साहित्य में अभिरुचि न के बराबर थी, एक दिन आए और बोले — मेरे साथ चलो। आज मैं तुम्हें तुम्हारे रोग से मुक्ति दिलाता हूँ। बस, तुम अपने साथ दो-तीन पैकेट चारमीनार सिगरेट के रख लो। उनसे अधिक कुछ पूछने का अर्थ था, उनकी नाराजगी मोल ले लेना।
रेलवे की पटरियों को पार करा वह मुझे एक इमारती लकड़ी के गोदाम के भीतर लाए। वहाँ होम्योपेथी के विशेषज्ञ एक स्वामीजी ठहरे हुए थे। कमरे में सिगरेट के टोटे बिखरे पड़े थे। धुएँ में सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था। बांग्लामिश्रित हिन्दी में जो सवाल उन्होंने मुझसे किए, उनमें कुछ समझ में आए और कुछ नहीं। एक पर्चे पर कुछ दवाइयाँ लिखकर उन्होंने उसे मेरे मित्र के हाथ में पकड़ा दिया।
उनके उपचार से मुझे बीमारी से निजात तो नहीं मिली, लेकिन वे धीरे-धीरे हमारी लिखने-पढ़ने वाली मण्डली के सदस्य बन गए। शहर में उनके निवास का कोई ठिकाना नहीं था, इसलिए बारी-बारी से हमारे घरों में ठहरने लगे। कुछ दिनों बाद उनके लिए किराए के कमरे की व्यवस्था की गई। अपने स्वभाव एवं व्यवहार से वे हम सभी के प्रिय पात्र बनते चले गए। धीरे-धीरे उनके पास ऐसे मरीज़ आने लगे जो दुसाध्य रोगों से ग्रस्त थे। दूसरे डॉक्टरों से इलाज कराना उनके लिए महँगा होता। वे दवाइयों के लिए उनसे मामूली पैसे लेते और स्वयं मेरठ जाकर होम्योपैथिक स्टोर से दवाइयाँ ख़रीद कर लाते। जो थोड़ा बहुत बचता, उससे वे अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते।
उनका क़द मुश्किल से 5 फुट 4 इंच रहा होगा। चेहरे की एक एक हड्डी उभरी हुई, लेकिन शरीर बलिष्ठ और कसरती। श्वेत श्याम दाढ़ी-मूँछ। गेरुवे रंग की लुंगी और कुर्ता। बिना फीते वाले कपड़े के जूते। हर ऋतु में सिर पर रुमाल और मोज़े पहने होते। उनका कहना था कि सिर हमेशा ठण्डा और तलवे गरम रहने चाहिए।
यह बताते हुए कि बांग्ला के सुप्रसिद्ध कवि काज़ी नज़रुल इस्लाम ने उन्हें बचपन में अपनी गोदी में खिलाया था, वे बेहद गौरवान्वित होते। बांग्लादेश में पद्मा नदी के किनारे बसे किसी छोटे से गाँव में उनका परिवार खेती-बाड़ी करता था। फ़सल पककर तैयार होती तो उन दिनों पूरा गाँव जाग-जागकर पहरा देता। इसके बावजूद चोरी से फ़सल काटने वाले रात्रि के अन्धकार में अपनी दराँतियों के साथ आ जाते और फ़सल के साथ-साथ आदमियों के भी मुण्ड अन्धाधुन्ध कटते रहते। भोर होने पर पता चलता कि फ़सल के साथ-साथ कितने आदमी लहूलुहान हुए हैं। इस दृश्य का जिस अन्दाज़ में वे वर्णन करते वह काफ़ी लोमहर्षक होता। वहाँ की ग़रीबी और परिवार के पालन में हो रही कठिनाई को देखते हुए, वे बांग्लादेश छोड़ आसनसोल चले आए। आसनसोल में भी उन्हें नाकामी हासिल हुई और स्थितियाँ बदतर होती चली गईं। पत्नी से रात-दिन के क्लेश से परेशान हो उन्होंने घर छोड़ने का निर्णय लिया। परिवार से विलग हो उनके जीवन की नाव घाट-घाट का पानी पीते हापुड़ के तट पर आ लगी।
वह स्थिरचित्त व्यक्ति नहीं थे। एक स्थान पर रहते हुए उनका मन बहुत जल्दी उखड़ जाता। एक दिन वे बिना किसी को कुछ बताए, शहर से दूर असोड़ा गाँव में रहने चले गए। लगभग एक माह तक उनके दर्शन नहीं हुए, फिर अचानक एक दिन उपस्थित होकर बोले — भाई साहब ! हमें 300 रुपए की कुछ ऐसी किताबें चाहिए, जो पढ़ने में सरल हों और जिन्हें गाँव के आदमी और बच्चे रुचि के साथ पढ़ सकें। फिर भोजन करते हुए उन्होंने गाँव के एक किसान की विलक्षण प्रेमकथा सुनाई। पत्नी के निधन के बाद उसने अपनी बैलगाड़ी को ब्रश और रंगों से फूल पत्तियों से सजाया। तीन किलोमीटर दूर सड़क पर बैलगाड़ी लिए वह उन बच्चों की प्रतीक्षा करता रहता, जो स्कूलों से छुट्टी के बाद कड़ी धूप में पैदल लौटते थे। उन बच्चों को अपनी बैलगाड़ी में सवार करा रोचक कहानियाँ सुनाता हुआ उनके घर पहुँचाता। मेरी ’आहार घोंसला’ कहानी की यही पृष्ठभूमि बनी।
स्वामीजी ग्रामीणों के उपचार के अलावा उनको जागरूक करने की दिशा में भी कुछ ना कुछ सोचते रहते। वहाँ भी वह अधिक दिनों तक नहीं ठहर सके। एक दिन जिस तरह गए थे, उसी तरह वापस लौट आए।
एक दिन सुबह-सुबह आकर बोले — जल्दी से तैयार होकर हमारे साथ चलिए, भाई साहब ! आज हम आपको बांग्लादेश के पद्मा नदी के किनारे बसे अपने गाँव ले चलते हैं। मैं अचकचाया सा उनकी ओर देखता रहा। उनकी कोई बात मेरी समझ में नहीं आई। वे झुँझलाकर बोले — आप, बस, मेरे साथ चले चलिए। मेरे पास उनके साथ चलने के अलावा कोई बचाव नहीं था।
वे मुझे अपने साथ बस में बैठाकर बृजघाट ले आए। गंगा नदी के सुरम्य तट के साथ-साथ चलते हुए, श्मशान घाट को पार कराते उस स्थल पर पहुँचे, जहाँ गँगा कई धाराओं में विभक्त होती हुई बीच में एक टापू का निर्माण करती है। इस टापू तक पहुँचने के लिए एक-दो जगह एड़ी-एड़ी पानी में भी चलना पड़ता है। उस टापू में बसे तीस-चालीस घरों के गाँव को देख मैं विस्मित रह गया। उन कच्ची झोंपड़ियों का निर्माण-शिल्प इधर के स्थानीय निर्माण से भिन्न था। स्वामीजी अपनत्व से उस ओर देखते हुए बोले कि बांग्लादेश में भी गाँवों में झोपड़ियां इसी तरह खड़ी की जाती हैं। परवल की बेलें हर झोंपड़ी पर फैली थीं। वहाँ रहने वाले सभी स्त्री-पुरुष बांग्ला भाषा का प्रयोग कर रहे थे। स्वामीजी उनसे बांग्ला में वार्तालाप करते रहे। बांग्लादेश से आए विस्थापितों ने पद्मा नदी के किनारे बसे अपने गाँव का यहाँ पुनः निर्माण कर लिया था। तीन-चार घण्टे तक मैं स्वामीजी के साथ उनके बांग्लादेश के उस गाँव में घूमता रहा।
उस टापू से निकलकर हम रेलवे का पुल पारकर तट की ओर धीरे-धीरे चलने लगे। वहाँ बँधी एक नाव को देखकर स्वामी जी बोले — भाई साहब ! हम भी सोचते हैं कि एक नाव बना ली जाए। उसी में ज़रूरत-भर का सामान रख लें। कहीं घूमने का मन करे तो नाव को खोलकर आगे बढ़ जाएँ। हमने इतना पैसा जोड़ लिया है कि ऐसी नाव बनवा सकते हैं। आप क्या सोचते हैं, भाई साहब ? मैं मुस्कुराकर रह गया। इस तरह के नए-नए विचार अक्सर उनके मस्तिष्क में आया करते।
कुछ दिन पहले उन्होंने कहा था कि वे गाँव में ज़मीन लेकर एक गाय पालेंगे। शहर से दूर वहीं रहेंगे। गाँव के रोगियों का इलाज करने में आसानी रहेगी। चार दिन बाद उन्होंने अपना विचार बदल दिया। गाय का पालना महँगा ठहरा, इसलिए उसकी जगह बकरी ने ले ली। एक बार उनका मन रेगिस्तान घूमने का हो आया। उस वक़्त उन्हें एक ऊँट की ज़रूरत महसूस हुई।
एक बार उनकी भेंट मेरे घर विदिशा से आए छायाकार मित्र अशोक माहेश्वरी से हुई । अशोक माहेश्वरी भी उनके प्रतिरूप ठहरे । उन दोनों में मित्रता हो गई। स्वामीजी ने तय किया कि उन्होंने एक लाख के आसपास जो पैसा जोड़ा है, उससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ बनने वाला नहीं। उन्हें मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़ चले जाना चाहिए, जहाँ ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा ख़रीदकर वे उसमें फूल-सब्ज़ी उगाएँगे।
अशोक माहेश्वरी उन दिनों रहने के लिए साँची चले आए थे। स्वामी जी ने मेरे साथ साँची का कार्यक्रम बनाया। कई जगहों की पड़ताल की, लेकिन कोई भी उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं निकली। कहीं की ज़मीन बंजर थी तो कहीं एकदम विराना छाया था। कहीं वृक्ष नहीं थे तो कहीं पानी की समस्या थी। अन्ततोगत्वा अशोक माहेश्वरी और स्वामीजी दोनों एक दूसरे से निराश हो आए।
एक दिन स्वामीजी आकर बोले — भाई साहब ! आप हमारा कोलकाता का रिजर्वेशन करवा दें। उनका मन अपनी बेटी से मिलने को कुलबुला रहा था। कुछ दिन पहले उन्हें उसका पत्र भी मिला था। उन्हें इस बात का पछतावा भी था कि उनकी अनुपस्थिति में ही उसका विवाह हुआ था। इस बहाने वे अपने दामाद और बेटी के बच्चों को भी देखना चाहते थे। उन्होंने बैंक में जमा सारी पूँजी निकाली और कोलकाता के लिए रवाना हो गए। चलते वक्त उन्होंने कहा — भाई साहब ! लगता है, आपकी हमारी यह आख़िरी मुलाक़ात है। बेटी का मन है कि अब उन्हीं के साथ रहने लगूँ।
तीन माह बाद स्वामी जी को अपने सामने पा मुझे विस्मय हुआ। उन्होंने कहा कि वहाँ उनका मन नहीं लगा, इसलिए वापस लौट आए हैं। ख़ैर, कारण कुछ भी रहा हो, एक बार फिर हमारे शहर में उनकी ज़िन्दगी उसी गति से चलने लगी।
ऐसा पहली बार हुआ कि दो माह से स्वामीजी का कोई अता-पता नहीं था। स्वामीजी सप्ताह में एक चक्कर ज़रूर लगा जाया करते थे। मैं उनकी खोज-ख़बर लेने उनके आवास बुर्ज मोहल्ला पहुँचा, जहाँ वे रह रहे थे। मोहल्लेवालों ने बताया कि पन्द्रह दिन पहले दिल्ली से उनका भतीजा आया था और उन्हें अपने साथ ले गया। स्वामीजी का स्वास्थ्य अच्छा नहीं चल रहा था।तीन दिन से कमरे का दरवाजा भी नहीं खोला था। उनके जाने के बाद मकान मालिक ने कमरा खोला तो पाया कि मल से भरी प्लास्टिक की कुछ थैलियाँ पलंग के नीचे रखी हुई थीं।
स्वामीजी उसके बाद फिर कभी दिखाई नहीं दिए।