हिंदी सिनेमा और दलित चेतना / जितेन्द्र विसारिया / पृष्ठ 2
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लेखक: जितेन्द्र विसारिया
आजादी के इस सामूहिक स्वप्नभंग की अवस्था 1950 से 1970 के बीस वर्षों की फिल्मों पर दृष्टिपात करते हैं तो इनमें दलित सर्वहारा की दृष्टि से कुछ ही फिल्में उल्लेखनीय हैं।
‘आवारा’ (1951) यद्धपि यह दलित विमर्श की फिल्म नहीं है किन्तु वह अपने साथ जो संदेश लिए थी कि व्यक्ति जन्मजात अपराधी नहीं होता, अपराधी उसे उसका परिवेश बनाता है फिर भले ही वह व्यक्ति किसी वंश, जाति, या गोत्र का रहा हो। उच्चकुल में जन्मा किन्तु एक अपराधी के यहाँ पलकर अपराधी बना उपेक्षित युवक ‘राज’ (राजकपूर) द्वारा ‘अवारा हूँ’ गीत के रूप में जब महान दलित गीतकार शैलेन्द्र की यह पंक्तियाँ:
घरबार नहीं संसार नहीं मुझसे किसी को प्यार नहीं,
दुनिया में तेरे तीर का या तकदीर का मारा हूँ।
दोहराता है, तो ऐसा लगता है कि गीत में स्वयं शैलेन्द्र ने सदियों से समाज के उपेक्षित अपनी धन-धरती से वंचित दुनिया (पूँजीवाद) और तकदीर (भाग्यवाद) दोनों की मार सहते आए दलित सर्वहारा जीवन की पीड़ा ही व्यक्त की हो...।
‘राही’(1952) कामरेड ख्वाजा अहमद अब्बास की आसाम के चाय बागानों में काम करने वाले श्रमिकों के शोषण को रूपायित करने वाली फिल्म है, जो मुल्कराज आनंद के उपन्यास पर आधारित है।
‘दो बीघा ज़मीन’(1953) हिन्दी सिनेमा के मील का पत्थर है। हिन्दी में प्रेमचन्द के अमर उपन्यास ‘रंगभूमि’ के बाद भूमि अधिग्रहण को लेकर यदि कोई महान रचना है तो वह ‘दो बीघा ज़मीन’ हो सकती है। यह एक ऐसे सीमांत किसान शंभू महतो (बलराज साहनी) और उसकी पत्नी पार्वती (निरुपाराय) की मर्मस्पर्शी दुखांत कथा है, जिसमें गाँव का जमींदार और शहर की पूँजीवादी ताकतें उसकी दो बीघा ज़मीन अधिग्रहीत कर उस स्थान पर एक मिल का निर्माण करती हैं। ऋण में गले तक डूबा बेचारा शंभू अपने अथक प्रयासों के बावजूद भी अपनी वह दो बीघा ज़मीन नहीं बचा पाता। फिल्म के अंत में बलराज साहनी के बूढ़े पिता की भूमिका में नाना पलसीकर तो एक प्रतीक बनकर खड़े हो जाते हैं उस किसान का, जिसके नसीब में उसकी ज़मीन की एक मुट्ठी धूल भी नहीं है जिसे वह माथे से लगा सके। इस फिल्म के बारे में तब मैनचेस्टर गार्जियन ने लिखा था, ‘भारत किसी अन्य प्रकार से न सही, लेकिन राजनैतिक दृष्टि से एक नव स्वतंत्र देश है। इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश के अर्थिक विकास को इस क्रूर निराश नज़र से देखता है।
‘बूट पालिश’(1954) राजकपूर की सर्वहारा (आवारा) से दलित विमर्श की ओर बढ़ा दूसरा कदम था। यह फिल्म भी संदेश प्रधान है कि कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता। भीख माँगने और चोरी करने से अच्छा है मेहनत-मजदूरी (बूट पालिस) करके जीवन यापन करना। इस फिल्म के माध्यम से राजकपूर दलितों में आत्मसम्मान की भावना जाग्रत करते प्रतीत होते हैं। भीख न माँगने की बिना पर ‘शर्मा अनाथ आश्रम’ में भर्ती हुए बालक (रतन कुमार) को चंदे के नाम पर आश्रम के संचालक (जो निश्चय ही ब्रह्मण है) की अगुवायी में अन्य अनाथ बच्चों के साथ जब घर-घर, गली-गली भीख माँगनी पड़ती है, तो भीख में मिले मोतियों को ठुकराने के आदर्श पर जीने वाला वह बालक वहाँ से भागकर पुनः अपने काम (बूट पालिश) में लौट आता है। फिल्म ‘बूट पालिश’ के इस दृश्य मे निश्चय ही कवि शैलेन्द्र की संगत में रहे निर्देशक राजकपूर, परजीवी एवं भिक्षाजीवी ब्राह्मणवाद के चुँगल से श्रमजीवी दलितों को दूर रहेने का महान संदेश, सायास और स्पष्ट रूप से देते प्रतीत होते हैं।
जिया सरहदी की ‘हमलोग’(1951), ‘फुटपाथ’(1954) और ‘आवाज’(1956) उनके वामपंथी रुझान और गंभीर सामाजिक सरोकारों से जुड़ी और जनसंघर्षों को विभिन्न कोणों से देखने परखने वाली फिल्में थीं। वहीं राजकपूर की ‘श्री 420’(1955) ‘विद्या’ (ज्ञान) और ‘माया’ (पूँजी) जैसे प्रतीक लेकर रची गई एक सामान्य फिल्म है, किन्तु अपने पीछे वह यह जो संदेश छोड़ती है कि हजारों आदमियों को भूखा रखकर एक गुलछर्रे उड़ाता है। दूसरों के खून-पसीने पर चमकदार जिंदगियाँ इतराती हैं। पर सच्चाई और ईमानदारी से कमाई गई सूखी रोटी जितनी शांति और मुहब्बत दे सकती है उतनी बेईमानी से कमाई गई करोड़ों की दौलत नहीं।’ वह अवश्य ही पूँजी और पूँजीवाद के विरुद्ध एक बड़ा किन्तु रोमानी संदेश है। गोगोल की कथा ‘द ओवर कोट’ पर आधारित और राजेन्द्र सिंह बेदी की निर्मित और अमर कुमार निर्देशित फिल्म ‘गरम कोट’(1955), भी एक सशक्त फिल्म थी जिसमें एक निम्नमध्यम वर्गीय परिवार में सौ के नोट के गुमने को प्रतीक बनाकर आर्थिक संकट की विभीषिका को व्यंग्यरू मिश्रित ढंग से बयान किया गया था। वहीं ‘सीमा’(1955) परिवार और समाज द्वारा प्रताड़ित लड़की की कथा है जिसके जीवन का कलुष एक आर्दशवादी व्यक्ति द्वारा चलाए जा रहे अनाथालय में जाकर घुलता है। यह एक गंभीर यथार्थवादी सामाजिक फिल्म है।
‘भारतीय कृषक ऋण में जन्म लेता है, ऋण में ही पलता है और अपनी मृत्यु के बाद अपने बाल-बच्चों को विरासत में ऋण दे जाता है।’
भारतीय कृषक जीवन का दृश्य महाकाव्य कही जाने वाली ‘महबूब खान’ की कालजयी फिल्म ‘मदर इण्डिया’(1957) इस वाक्य को पूर्ण रूपेण चरितार्थ करती है। फिल्म के केन्द्र में मूलतः साहूकारी प्रथा और उससे उपजे कृषक जीवन के संत्रास हैं, जिसकी कहानी गाँव की ‘राधा’ (नर्गिस) नामक स्त्री के आसपास बुनी गयी है, जिसका पति अपाहिज होकर सदा-सदा के लिए घर छोड़ गया है और एक बेटा ‘बिरजू’ (सुनील दत्त) गाँव के साहूकार सुख्खी लाला (कन्हैयालाल) के शोषण-उत्पीड़न के चलते डाकू बन जाता है। एक दिन जब सुक्खी लाला की लड़की का ब्याह हो रहा होता है, उस दिन बिरजू अपने अन्य साथियों के साथ गाँव पर हमला बोल देता है और लूटपाट एवं मारपीट के बाद बिरजू लाला की लड़की का अपहरण करके ले जा रहा होता है। आदर्शवादी ‘राधा’ अपने बेटे बिरजू को ही गोली मार देती है।... जिस तरह अपनी तमाम अच्छाइयों के उपरांत भी ‘गोदान’ का नायक ‘होरी’ दलित नहीं है, उसी प्रकार ग्रामीण भारत में व्याप्त शोषण के तमाम अनछुए पहलुओं को उजागर करने वाली फिल्म ‘मदर इण्डिया’ की नायिका ‘राधा’ भी दलित नहीं है। वह गरीब और विधवा होकर भी गाँव में ‘राधा चाची’ के रूप में सम्मान पाती है। सुख्खी लाला भी उससे जोर-जबरदस्ती नहीं कर सकता। यदि दलित होतीं तो ‘राधा’ से रधिया होकर, सुख्खीलाला द्वारा कब की रखैल बना ली जाती...। फिल्म में राधा के गैर दलित होने का प्रमाण, पुरोहित द्वारा उसके विवाह में वैदिक मंत्रोच्चार भी है, जो एक दलित के विवाह में असंभव है।
इसी तरह ‘नयादौर’(1957) पूँजीवाद और मशीनीकरण के विरुद्ध सामूहिक श्रम तथा स्वाबलंबन की महत्व को दर्शाती है। फिल्म में ग्रामीण अपनी मेहनत के बल पर सड़क तथा पुल का निर्माण करते हैं। यह हमारे लिए प्रेरण दायक है, क्योंकि आज छोटे-बड़े हर काम को सरकार के भरोसे छोड़ दिया गया है। हम कष्ट सहते रहते हैं, असुविधा का समाना करते हैं, लेकिन उससे निजात पाने का प्रयास नहीं करते।...‘रील लाइफ’ में नयादौर से तथा ‘रियल लाईफ’ में हमें दसरथ मांझी से प्रेरणा मिलती रहेगी।
‘मिलन’(1957) यों तो पुनर्जन्म की फंतासी पर आधारित है, किन्तु उसके यथार्थवादी चित्रण के चलते उसे, एक सामाजिक फिल्म की श्रेणी में भी रखा जा सकता है। एक ज़मीदार की युवती राधा (नूतन) और गरीब मल्लाह युवक (सुनीलदत्त) के प्रेम में किस प्रकार उनकी जाति और सामाजिक स्थिति बाधक बनती है कि जिसे सेहरा बाँधकर दूल्हे के रूप में आना चाहिए, वही मीराँसियों भांति उसके सामने खड़ा मुबारक गीत गाने को विवश है।... राधा के विधवा होने पर भी गोपी उसका जीवन साथी नहीं बन पाता। आपसी लगाव से मिली बदनामी और सामाजिक घेराव के चलते अंत में उन्हें नदी में डूबकर जल समाधी लेनी पड़ती है। पति-पत्नी के रूप में उनका मिलन दूसरे जन्म में ही हो पाता है। हिन्दी सिनेमा में संभवतः यह पहली फिल्म है जो सवर्ण युवक और दलित युवती के प्रेम की दुखांत कथा के बँधे-बँधाए ढर्रे को तोड़कर, फिल्मी पर्दे पर पहली बार निम्न जाति के लड़के और उच्चवर्ग की लड़की के प्रेम को इतने भव्य स्तर पर दिखाती है। प्रेम के पक्ष में पुनर्जन्म के मिथ को एक क्रांतिकारी मोड़ देती है, कि प्रेम जाति और ज़मीदारी से बढ़कर है और दो प्रेमी-प्रेमिका अंततः मिलकर ही रहते हैं।
'अर्पण’(1957) हिन्दी सिनेमा की उन ऐतिहासिक दुर्लभ फिल्मों में से एक है, जिसका आधार दलित जीवन बना। गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद (चेतन आनंद) और इतिहास प्रसिद्ध भिक्षुणी चांडालिका (प्रिया राजवंश) के प्रेम के इर्द-गिर्द बुनी गई प्रेमकथा है, जिसमें अपनी माँ के तंत्र-मंत्र और जादू के बल पर दलित युवति चांडालिका आनंद को वश में कर लेती है। बंधन में पड़कर आनंद अपना स्वाभाविक स्वरूप खो देते हैं। चांडालिका आनंद की दयनीय और विरूप स्थिति देखकर स्तब्ध रह जाती है। वह वासना भाव से ऊपर उठकर आनंद को मुक्त कर देती है और स्वयं भी अपना सारा जीवन बुद्ध के चरणों में जाकर अर्पण करती है।
‘सुजाता’(1959) विमलराय की यह बहुचर्चित फिल्म, दलित विमर्श पर बनी पूर्व की दो फिल्में ‘अछूत कन्या’ और ‘अछूत’ का परिष्कृत रूप है और कुछ नहीं। यहाँ भी अछूत कन्या की तरह दलित युवती (नूतन) और ब्राह्मण युवक (सुनील दत्त) है। ‘अछूत’ की तरह इसमें भी एक पिता ब्राह्मण इंजीनियर उपेन्द्रनाथ चौधरी (तरूण बोस) की दो पुत्रियाँ रमा (शशिकला) और सुजाता (नूतन) हैं, जिनमें फर्क बस इतना कि फिल्म ‘अछूत’ की लक्ष्मी दत्तक है और सुजाता अछूत कुली की लड़की जिसका पिता प्लेग की बीमारी के चलते अब इस दुनिया में नहीं है और चैधरी परिवार उसका पालन-पोषण सहर्ष नहीं दयावश किया करता है। फिल्म ‘अछूत’ में अपनी पुत्री और दलित पुत्री के बीच भेद पिता के सिर पर है, तो सुजाता में माँ पर। फिल्म में सुजाता की धर्म माँ चारू (सुलोचना) सबके बीच सुजाता को अपनी ‘बेटी’ नहीं, बेटी जैसा मानती है। यह खाई तब और चैंड़ी हो जाती है, जब एक ब्राह्मण युवक अधीर (सुनील दत्त) रमा को देखने आता है किन्तु अपने परिवार की इच्छा के विरुद्ध सादगी पसंद सुजाता से विवाह का निश्चय करता है। सारा दोष सुजाता के सिर आता है। चारू के साथ-साथ सारे परिवार को दुःखी देखकर सुजाता आत्महत्या का मन बनाती है, किन्तु नदी के घाट पर खुदे महात्मा गाँधी के वाक्य ‘मरें तो कैसे? आत्महत्या करके? कभी नहीं। अगर आवश्यकता हो तो जिंदा रहने के लिए मरें।’’ पढ़कर उसका मन बदल जाता। पढ़कर उसका मन बदल जाता।... इसी बीच चारू सीढ़ियों से गिरकर अस्पताल पहुँच जाती है। उसे रक्त की गहन आवश्यकता है। परिवार में किसी का ब्लडग्रुप उससे मैच नहीं खाता। मैच खाता है तो सुजाता का और सुजाता अपनी धर्म माँ को रक्तदान करती है। सुजाता का रक्त पाकर रमा का हृदय परिर्वतन हो जाता है और वे सुजाता को केवल माफ कर देती हैं वरन अधीर से उसकी शादी भी करवाती हैं। कथानक की दृष्टि से सामान्य फिल्म ‘सुजाता’ की महानता सुजाता के रूप में नूतनजी का अभिनय है, जिन्होंने दलित होने की हीनग्रंथि से पीड़ित युवति के चरित्र को कुछ इस विश्वसनीयता से जिया है कि वह हिन्दी सिनेमा की अमर कृति बन जाती है। तब परिवार की सहमति से अन्तर्जातिय विवाह होना भी इस फिल्म का एक प्लस प्वाइन्ट कहा जा सकता है।
‘परख’(1960) विमल राय निर्देशित और शैलेन्द्र के संवादों से सजी यह फिल्म, चुनाव माध्यम से लोकतंत्र में गलत व्यक्तियों के चुनकर पहुँने पर निशाना साधती है। इसी के साथ इस फिल्म में गाँव के दलित डाकिया हराधन (मोतीलाल) के माध्यम से निर्देशक ने अस्यपृश्यता और जातिवाद पर भी गहरे व्यंग्य किए हैं।
‘गंगा जमना(1960) दिलीप कुमार के फिल्म मदर इण्डिया में न होने की टीस का परिणाम है थी इसमें भी ज़मीदार के अत्याचार और एक सामान्य किसान गंगा के बागी होने की दुखांत गाथा है, किन्तु इसमें दलित युवति धन्नो (बैजंयती माला) और गैर ब्राह्मण युवक जमुना (दिलीप कुमार) की मार्मिक प्रेमगाथ भी शामिल है। फिल्म में जमना और धन्नो के विवाह के पूर्व हाथ में जनेऊ लेकर पुरोहित जमना से यह कहता है कि यह विवाह इसलिए नहीं हो सकता कि तेरी जात धन्नो की जात से ऊँची है, उस समय गंगा का पुरोहित को भगवान के महामंत्री संबोधित करते हुए प्रतिउत्तर में यह कहना कि, ‘‘जब ऊँची जात वाले ऊकी गत बना रहे थे, तब तुम कहाँ गए थे? जब हमरी कुत्ते जैसी दशा हुय रही थी, जब हम भूखे पेट जंगल में मारे-मारे फिर रहे थे। चल-चल के हमरे पैरों में छाले पड़ गए थे, उत्ते समय हमरे सर पे हाथ रखे कोई नहीं आया। ई आई थी और तुमरे सामने खड़ी है। उस दिन हम येके काँधे पे सर रख के रोये थे...।’’ इस रूप में यह फिल्म ब्राह्मणवाद और जातिवाद के विरुद्ध जाते हुए, सामंतवाद के खिलाफ लड़ाई का हथियार भी बनती है।
‘फूल और पत्थर’ (1966) ओ.पी. रल्हन निर्देशित और धर्मेन्द्र और मीनाकुमारी अभिनीत इस फिल्म में धर्मेन्द्र ने एक अपराधी दलित की भूमिका निभाई थी, जिसे उच्च जाति की विधवा युवती (मीना कुमारी) से प्रेम हो जाता है। अब यह फिल्मकारों की सोच की बिडंबना ही कही जा सकती है कि एक ओर बाबा साहेब आम्बेडकर राष्ट्रीय स्तर पर डाॅ. शारदा कबीर से आपसी सहमति के आधार पर विवाह कर चुके थे और हिन्दी सिनेेमा का फिल्मकार अभी भी डरता हुआ दलित युवक और सवर्ण विधवाओं के प्रेम प्रसंग ही दर्शाने का साहस जुटा पाया था।
सगीना महतो (1970) तपन सिन्हा की यह फिल्म इस दशक अन्तिम महत्वपूर्ण फिल्म है। इस फिल्म में ब्रिटिस राज के दौरान उत्तर भारत के पूर्वी क्षेत्र के एक चाय बागान के श्रमिक नेता की कहानी है। सगीना महतो ब्रिटिस मालिकों के अत्याचार का सामना करते हुए मजदूरों के अधिकार के लिए लड़ता हैं। वहीं एक युवा कम्युनिस्ट अमल है जो गरीब और पिछड़े वर्ग की जनता की सहायता करने के लिए आता है। सामाजिक पदानुक्रम में उच्च और एक बिहारी नेता के आने पर निम्नवर्गीय ‘सगीना’ अलग-थलग पड़ जाता है। इस फिल्म से पहली बार कट्र मानवतावादी दृष्टिकोण रखने वाले संगठनों के बीच में भी (सेनामुख/आगे रहने की प्रवृत्ति) होने की अशिष्ट प्रवृत्ति का पता चलता है।
सत्तर के दशक का सिनेमा हमारे आजादी से स्वप्नभंग का समय था। इस दशक की फिल्मे अहसास कराती हैं कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारत से सामंती उत्पीड़न का खात्मा नहीं हुआ है। इस उत्पीड़न से सामना हुए बगैर नये समाज का निर्माण संभव नहीं है। इसलिए इस दशक की दलित-आदिवासी विमर्श आधारित फिल्मों में ग्रामीण परिवेश रोमानियत से अलग एक कड़वी सच्चाई के रूप में प्रकट हुआ है।
‘अंकुर’ (1973) श्याम बेनेगल की पहली फिल्म है। ग्रामीण परिवेश उसके पूरे रंग-ओ-आब के साथ सामंती मूल्यों के खिलाफ खड़ी यह फिल्म फिल्मों के बाजार में एक सशक्त चुनौती है। फिल्म में गरीब किसान (साधू मेहर) अनाज चोरी में पकड़ा जाता है। गांव का जमींदार (अनंत नाग) उसके मुँह पर कालिख पोतकर उसे पूरे गांव में गधे पर बैठाकर घुमाता है। इतना ही नहीं गांव का क्रूर जमींदार किसान की पत्नी (शबाना आजमी) को भी अपनी गिरफ्त में करता है। किसान की वह गर्भवती हुई पत्नी ज़मींदार के कहने पर भी गर्भपात नहीं कराती। गुस्साया ज़मींदार साधू को सजा देता है, इससे आहत हो उसकी पत्नी जमींदार को बहुत कोसती है। ज़मींदार दरवाजा बंद किए हुए बैचेनी से सुन रहा है। इस दृश्य में जमींदार युवक के प्रति निर्देशक की सहानुभूति का बोध खटकता है। परंतु फिल्म के अंत में एक छोटा बच्चा जमींदार के घर पर पत्थर फेंकता है। खिड़की का कांच चटक जाता है। इसका एक अभिप्राय यह है कि नयी पीढ़ी को युवक जमींदार की बेचैनी, उसकी आत्मस्वीकृति की परवाह नहीं है। नयी पीढ़ी हर घर का कांच तोड़ देगी। फिल्म इस साहस और जोखिम से टकराती है। एकल साहस, एकल जोखिम के बाद भी, फिल्म का संदेश है, नयी पीढ़ी गांव के उत्पीड़न को बर्दाश्त नहीं करेगी।
‘बाबी’ (1973) इस वर्ष की दूसरी फिल्म है जो एक मुंबई के एग्लों-इण्डियन दलित मछुआरे की लड़की बाबी (डिंपल कपाड़िया) और एक उच्चवर्गीय लड़के राज (ऋषि कपूर) के किशोर रोमांस के उपफनते प्रेम के बीच वर्ग और जाति के उपबंध तोड़ती सुन्दर प्रेम कहानी है। बहुत सारे नए आयाम लिए इस फिल्म में एक नयापन यह है, कि बदलते परिवेश में सम्पन्न हुआ दलित मछुआरा कहीं से भी दीनहीन नहीं है। वह अपनी लड़की के हक़ में किसी भी सीमा तक जाने को तैयार है। संभवतः इसका श्रेय उत्तर की अपेक्षा महाराष्ट्र में सर्वप्रथम उठी सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति की लहर को दिया जा सकता है, जिसने दलितों को आर्थिक रूप से सम्पन्न और सामाजिक रूप ये सुदृढ़ होने का मार्ग सुझाया था।