हिंदी सिनेमा और दलित चेतना / जितेन्द्र विसारिया / पृष्ठ 3

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हिंदी सिनेमा और दलित चेतना (1975-1984)
लेखक: जितेन्द्र विसारिया

‘निषांत’ (1975) अंकुर के बाद की श्याम बेनेगल की ही फिल्म है, जिसमें वे एक कदम आगे बढ़कर जमींदारी अत्याचारों के प्रति शोषित ग्रामीणों के सामूहिक संघर्ष को चित्रित करते हैं। फिल्म में पत्नी की मर्यादा भंग होने पर मास्टर साहब (गिरीश कर्नाड) गांव को मिलाकर संगठित रूप से जमींदार (अमरीशपुरी) के घर पर हमला करते हैं। फिल्म अच्छाई पर बुराई के संघर्ष में जमींदार की हत्या के बावजूद आवाम की जीत का अहसास पैदा नहीं कर पाती।

‘दीवार’, (1975) दीवार यश चोपड़ा की बहुचर्चित और बहुदर्शित फिल्म है। फिल्म के मूल में मजदूर संघ के एक नेता आंनद (सत्येन कपूर) है। मिल मालिक आनंद को उसके परिवार सहित जान से मारने की धमकी देते है। बेवश आनंद मालिकों से समझौत कर लेता है। इससे मजदूरवर्ग आनंद को चोर और बेईमान मानकर उस पर जानलेवा हमला करता है। आनंद अपनी जान बचाकर भगता है। मजदूरों के कोप से आनंद का परिवार भी नहीं बचता। उसके दो बच्चे विजय (अमिताभ बच्चन) और रवि (शशि कपूर) और पत्नी (निरुपाराय) को वह स्थान छोड़कर मुंबई भागना पड़ता है। भागते हुए भी वे मजदूर विजय (अमिताभ बच्चन) के हाथ पर-‘मेरा बाप चोर है।’ लिख देते हैं। अपने हाथ पर लिखे इस अपराधी शिलालेख के चलते स्वाभिमानी विजय कहीं भी सम्मान नहीं पाता और वह अपराध की दुनिया में धँस जाता है। दूसरा भाई रवि (शशि कपूर) पुलिस अफसर बनता है। एक कानून का रखवाला है तो दूसरा भंजक। आगे की कहानी दानों भाइयों की इसी तकरार की कहानी है। फिल्म में विजय (अमिताभ बच्चन) का बचपन में बूटपालिश करना और उसी से जुड़ा उसका जवानी में बोला गया यह संवाद-‘मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता!’ फिल्म ‘दीवार’ को दलित स्वाभिमान अंकुरण की फिल्म बना देता है।[13]

‘मृगया’ (1976) मृणाल सेन निर्देशित यह फिल्म बीसवीं सदी के तीसरे दशक में उड़ीसा के जंगलों में रहने वाले एक आदिवासी शिकारी घिनुआ (मिथुन चक्रवर्ती) की बहादुरी की कथा कहती है। साहूकार भुवन सरदार एक आदिवासी विद्रोही का सिर काटकर ब्रिटिश सरकार को पहुँचाकर इनाम पाता है। प्रतिशोध में नायक घिनुआ उस साहूकार का सिर काटकर ब्रिटिश सरकार के अधिकारी के पास यह कहकर पहुँचाता है कि उसने जंगल के सबसे खतरनाक जानवर का शिकार किया है। वह जो दूसरों की बहू-बेटियों को बेइज्जत कर अपनी हवस पूरी करता है, उससे बड़ा शिकारी कौन हो सकता है। उसकी बहादुरी पर अंग्रेज सरकार को भी सजा सुनाते हुए दो बार सोचना पड़ता है। उपनिवेशकालीन शोषण के विरुद्ध और प्रकारांतर से आपातकाल के विरोध में खड़ी यह बहुचर्चित फिल्म, दलितों के बाद आदिवासी जीवन और उनके कथावृत्तों का चित्रपट पर उभरने के प्रारंभिक सफल प्रयासों में से एक है। यह सब अनायास ही नहीं हुआ था उस समय तक 1969 में बंगाल के नक्सलवाड़ी गाँव से शुरू हुआ नक्सलवादी आन्दोलन देश के उत्तरपूर्वी क्षेत्रों में अपना प्रभाव पकड़ चुका था। तब बंगाली फिल्मकार मृणलसेन इसके प्रभाव से कैसे बचपाते। शोषण के विरुद्ध सार्थक हिंसा इस फिल्म का मूल स्वर है।

‘मंथन’ (1976) श्वेत क्रांति के जनक और गुजरात के नेशलन डेरी डेवलपमेंट कार्पोरेशन के अध्यक्ष वी. कुरियन के सहयोग से बनी और श्याम बेनेगल निदेर्शित यह फिल्म यथार्थ जीवन की कथा पर आधारित है। इसमें सहकारिता की शक्ति को प्रदर्शित किया गया है और इसके साथ ही उन बाधाओं का भी निरूपण किया गया है जो सामाजिक कार्यों के बीच आ खड़ी होती हैं। इनमें सिर्फ शोषक वर्ग ही नहीं होता अपितु जातिवाद और अस्यपृश्यता जैसी अनेक सामाजिक कुरीतियाँ और अंधविश्वास भी होते हैं जो सृजानत्मक कार्यों में अवांछित अवरोध खड़े करते हैं।

गंगा की सौगंध (1976) राबिनहुड टाइप में डाकुओं पर बनने वाली तत्कालीन मसाला फिल्मों के दौर सुल्तान अहमद निर्देशित ‘गंगा की सौंगध’ एक दलित युवति धनिया (रेखा) और गैर ब्राह्मण गंगा(ंगंगा) जमींदारी अत्याचारों से तंग आकर डाकू बनने और चुन-चुनकर बदला लेने की सामान्य सी कहानी है। फिल्म में ध्यान देने योग्य एक चीज़ यह है कि फिल्मकार के मुस्लिम होने के कारण इसमें दलितों के ज़मीदारी अत्याचारों से तंग आकर गाँव से पलायन का दृश्य, पूरी तरह पैगंबर हजरत मुहम्मद के मदीना से मक्का ‘हिजरत’ करने की शैली में फिल्माया गया है। जमींदारों और सवर्णीय अत्याचारों के विरुद्ध दलितों का अपना निवास छोड़ सुरक्षित स्थान की ओर हिजरत (पलायन) कर जाने का विचार गाँधी का भी था। फिल्म में यह प्रभाव मिलाजुला माना जा सकता है, क्योंकि धनिया का पिता कालू चमार(प्राण) अपनी जूते दुकान में गाँधी की तस्वीर लगाए हुए दिखाया गया है दूसरे जमींदार के अत्याचारों से पलायन अपनी जाति-बिरादरी के साथ कालू जिन उदार मुस्लिमों के यहाँ शरण पाता है वहाँ उसका स्वागत ठीक वैसे ही होता है, जैसे मदीना छोड़कर गए हजरत मुहम्मद का मक्का में स्वागत होना बताया गया है। फिल्म में प्राण का कालू चमार के रूप में विद्रोही अभिनय एक स्मरणीय हिस्सा है।

‘आक्रोश’ (1980) आदिवासी विद्रोह की जो शुरूआत ‘मृगया’ से हुई थी, उसकी समकालीन समय के क्रूर यथार्थ में परणिति, गोविन्द निहालनी निर्देशित व विजय तेन्दुलकर कृत फिल्म ‘आक्रोश’ में होती है। यह फिल्म भीखू लहन्या (ओमपुरी) नामक आदिवासी की व्यथा बयान करती है जो अपनी ही पत्नी नागी लहन्या (स्मिता पाटिल) के कत्ल के जु़र्म में मुज़रिम है और अपने बचाव में एक भी शब्द नहीं बोलता! स्थानीय राजनेता, पूँजीपति और पुलिस तीनों ने मिलकर ही उसकी पत्नी से बलात्कार करने के बाद उसकी जघन्य हत्या की है। निरक्षर होने बावजूद लहन्या मूर्ख नहीं है वह जानता है कि उसे यह स्वार्थी व्यवस्था न्याय नहीं दे सकती और व्यवस्था के इस ढोंग में पड़कर अपनी पत्नी की अस्मिता की और छीछालेदर नहीं करवाना चाहता, इसलिए वह न अदालत में एक शब्द बोलता है और न सरकार द्वारा न्युक्त किए गए वकील को कुछ बतलाता है। उसे जब अपने पिता के अन्तिम संस्कार की इजाजत मिलती है तो वह मौके का फायदा उठाकर अपने पिता का अन्तिम संस्कार करने के साथ ही अपनी बहन की हत्या भी कर देता है ताकि उसकी असहाय बहन भी उसकी पत्नी की तरह ही समाज के बेईमानों की दरिंदगी का शिकार न हो। दलित-आदिवासी जीवन के नग्न यथार्थ को रूपायित करने वाली इस फिल्म में नक्सलवाद की स्पष्ट अनुगूँज है और कथा परिदृश्य में एक अनाम नक्सली (महेश एलंकुचवार) भी है जो आदिवासियों के बीच संगठन का काम करता है। वहीं दूसरी ओर भास्कर कुलकर्णी (नसीरुद्दीन शाह) है जिसका कानून और न्यायवस्था पर से अभी विश्वास छूटा नहीं है उन दोनों के निम्न संवाद से हम फिल्म ‘आक्रोश’ की पक्षधरता समझ सकते हैं-

कामरेड: दया आती है तुम्हें?

भास्कर कुलकर्णी: ये लोग सोचते क्यों नहीं, जब तक ये बोलेंगे नहीं तब तक कोई इनकी मदद नहीं कर सकता? कामरेड: आप उन्हें साँस भी लेने दें, तब ना? दोष उनका नहीं आपकी व्यवस्था का...? भास्कर कुलकर्णी: जी हाँ जानता हूँ, मार्क्सिस्ट लोग तो हर...। कामरेड: हर्ट करना चाहते हो...। भास्कर कुलकर्णी: सो सारी...! कामरेड: मुझे घिन आती है तुम्हारे एटीट्यूड पर... तुम्हें दया आती है लेकिन जो कुछ चल रहा है उस पर गुस्सा नहीं आता। खिचाई की तो आदत बन गई है, बड़ा नाॅवेल फील कर लेते हैं आप...फिर उसके बाद कुछ करने की जरूरत ही नहीं। भास्कर कुलकर्णी: और किया भी क्या जा सकता है...? काॅमरेड: टिपीकल पेटी बुर्जुआ एटीट्यूड, क्रांति तो दूर इस घिनौनी परिस्थिति को बदलने का ख्याल तक नहीं आता हमें... ऐसा तो रोज़ ही होता है कहकर चुप हो जाते हैं सब... क्या हो गया हमें; हमें शर्म ही नहीं आती? गुस्सा भी नहीं आता? भास्कर कुलकर्णी: यश! आई डू हिम वट वरी सैम....लेकिन हमारी इतनी ताकत नहीं है; मैं सिर्फ लहन्या की मदद कर सकता हूँ...।

कामरेड: लहन्या जैसे इक्के-दुक्के की की मदद करने से क्या यह समस्या हल हो जाएगी? इस व्यवस्था को जब तक जड़ से नहीं उखाड़ा जाए, तब तक कुछ नहीं होने वाला...।’’ भास्कर कुलकर्णी: लेकिन, देखिए यदि मैं एक भी गरीब आदिवासी की मदद कर सकूँ, उसे न्याय दिला सकूँ, तो कहीं तो कुछ तो फर्क पड़ेगा...।’’

कामरेड: तो तुम यह समझतो हो कि तुम्हारी इस व्यवस्था में इंसाफ मिलना मुमकिन है? भास्कर कुलकर्णी: इंसाफ दिलाना हमार फ़र्ज़ है...।

फिल्म का एक पक्ष दुसाणे वकील (अमरीश पुरी) है, जो स्वयं आदिवासी होकर भी पूँजीपति, नेताओं और वकीलों के केस लड़ता है। उन्हीं के साथ उसका उठना-बैठना है और उन्हीं की गालियाँ भी खाता है। किन्तु वह अपने को इस तरह डी-कास्ट कर चुका है कि सिर्फ केस लड़ने के अलावा उसकी न तो ह्यूमनिटी में आस्था है न ही आत्मसम्मान और खुद्दारी में। बाबा साहेब ने संभवतः ऐसे ही पढ़े-लिखे प्रशासनिक दलित-आदिवासियों को ध्यान में रखकर कहा था, कि मुझे सबसे ज्यादा धोखा पढ़े-लिखे लोगों ने ही दिया है। ‘चक्र’ (1980) रवीन्द्र धर्मराज की इकलौती फीचर फिल्म जो मुंबई में झोपड़पट्टियों में रहने वालों के जीवन की आशा-निराशाओं की मार्मिक कथा बयान करती है। उन कारणों की ओर इशारा करती है जो उनको विपदाग्रस्त वीभत्स जीवन से बाहर नहीं निकलने देते। व्यवस्था की उनकी कुटिलताओं को भी रेखांकित करती है जो उन्हें पशुवत जीवनयापन के लिए मजबूर कर रही हैं। जयंत दलवी के मराठी उपन्यास पर आधारित इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, कुलभूषण खरबंदा, रंजीता चैधरी, सविता बजाज और रोहिणी हट्टंगड़ी।

अंधेर नगरी’ (1980) गुजराती लोककथा ‘अछूत नो वेश’ पर आधारित केतन मेहता की यह पहली फिल्म में अछूतों की हीन दशा और उनके साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार को दर्शाया गया है। एक राजा की दो रानियों के आपसी संघर्ष में बड़ी रानी के बेटे को छोटी रानी मरवा डालने का प्रयत्न करती है परंतु वह दलित-आदिवासियों द्वारा बचा लिया जाता है और उसके समुदाय की ही एक लड़की से प्यार करने लगता है। गुजरात के ‘भवाई’ लोकनाट्य शैली में फिल्म के अंत में सूत्रधार यह संदेश देता दिखाया गया है कि यदि हम अपने अधिकारों की प्राप्ति के प्रति सचेत और सघर्षशील हो जाएँ तो अन्याय का उन्मूलन कर सकते हैं। नसीरुद्दीन शाह, मोहन गोखले, ओमपुरी, स्मिता पाटिल और दीना पाठक इसके मुख्य कलाकार थे।

‘सदगति’ (1981) सत्यजीत राय निर्देशित और प्रेमचंद की अमर कहानी ‘सद्गति’ पर आधारित यह एक मात्र फिल्म है, जो उस अप्रतिम कथाशिल्पी के साथ न्याय करती है। जिस तरह प्रेमचन्द ने ‘सद्गति’ में ब्राह्मणवाद पर गहरी चोट की थी उसी प्रकार सत्यजीत राय ने भी उसी तुर्श अभिव्यंजना की है। ओमपुरी, मोहन अगाशे, स्मिता पाटिल और गीता सिद्धार्थ इसके मुख्य कलाकार थे।

‘आरोहण’ (1982) समाज में व्याप्त सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी से उत्पन्न वर्गसंघर्ष को केन्द्र में रखकर बनाई गई श्याम बेनेगल की यह फिल्म एक ग्रामीण हरिमंडल की कहानी है जो जमींदार के अत्याचार से उत्पीड़ित है। पुलिस और प्रशासन भी हरि की जगह जमींदार की सहायता करते हैं। हरि लेकिन तब भी हिम्मत नहीं हारता और निरंतर संघर्ष के पथ पर आगे बढ़ने को ही शोषण से मुक्ति का साधन मापता है। मुख्य कलाकार थे ओमपुरी, शीला मजूमदार, पकंज कपूर ओर विक्टर बैनर्जी।

‘सौतन’ (1983) सावन कुमार निर्देशित और राजेश खन्ना के नायकत्व वाली इस फिल्म में टीना मुनीम के विरुद्ध सौतन के रूप में एक दलित युवति राधा की भूमिका का निर्वहन पद्मिनी कोल्हापुरे ने किया था।

‘दामुल’ (1984) ‘शुरू होता है जहाँ से भय और अंधेरा/शुरू होती है भय और अंधेरे को भेदने की इच्छा भी वहीं से।’ कुमार अंबुज की ‘गुफा’ कविता की यह पंक्तियाँ प्रकाश झा निर्देशित फिल्म ‘दामुल’ पर सटीक बैठती हैं। यह फिल्म आईना है बिहार का, जिसके समाजार्थिक स्थितियों का खुलासा वह करती है। वर्गीय चरित्र को परत दर परत उघाड़ती है। राजनीतिक भ्रष्टाचार से जूझते और जातिवाद के दंश झेलते उन दलितों की असाहयता को बिना किसी तर्क और लाग-लपेट के परोसती है, जिसे देखकर हिन्दू समाज की उस जड़ता को समझ सकते हैं, जहाँ आदमी जानवर होने को अभिशप्त है। ‘दामुल’ है तो एक बंधुआ मजदूर की कहानी, लेकिन कोई बंधुआ मजदूर कैसे बनता है, उसे किन-किन नारकीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ता, न चाहते हुए भी उसे वह काम करना पड़ता है, जो वह नहीं चाहता। इसके अलावा फिल्म में ब्राह्मण और राजपूतों के आपसी वर्चस्व में हरिजन (दलित) कैसे पिसते है, यह प्रकाश झा की आँख देखती है।

बिहार के जिला मोतीहारी के बच्चा सिंह राजपूत की खुन्नस यह है कि परधानी में ब्राह्मण माधो पांड़े ही जीतते आ रहे हैं। उन्हें हराने की चाल स्वरूप वे इस वार हरिजन टोले के गोकुल को चुनाव में खड़ा कर देते हैं। बच्चा सिंह हरिजन टोले में जाकर माधो पांड़े का कच्चा चिट्ठा खोलते हैं। कहते हैं छुआछूत, भेदभाव ई बाभन लोग का बनाया हुआ है। अपनी इस चाल में बच्चा सिंह सफल तो हो जाते है, लेकिन गोकुल चुनाव नहीं जीत पाता, क्योंकि बच्चासिंह को छोड़कर सभी राजपूत टोले के लोग अपने मत का प्रयोग करने नहीं जाते। बच्चासिंह का तर्क भी कि, खड़ा किए हम, जिताएंगे हम तो राज कौन करेगा, चमार? कोई असर नहीं करता। उधर, बोगस वोट के जरिए माधो पांडे़ चुनाव जीत जाते हैं। बाहर के गुंडे को बुलाकर हरिजनों को उन्हीं के अहाते में बंधक बना देने वाले माधो पांडे़ अपनी चाल में सफल हो जाते हैं। पर, लंबे समय से चुनाव जीतने की तैयारी कर रहे बच्चा सिंह अपने ही लोगों से हार जाते हैं। मेले में उनका हरिजनों के साथ उठना बैठना, उनकी बस्तियों में आना-जाना, उनके साथ अपनापन पैदा करना सब कुछ बेकार चला जाता है। इधर गोकुल की वह आशंका भी सच साबित होती है कि इस चुनाव में बहुत खून-खराबा होगा। उनका तो कुछ नहीं बिगड़ता। लेकिन हरिजन टोला मातमी माहौल में बदल जाता है। आगजनी और हत्याओं के नंगे-नाच के बीच अंततः सारे गिले-शिकवे मिटाकर माधो पांड़े और बच्चासिंह का बाभन-राजपूती मेल हो जाता है। इसके बाद तो फिर पुलिस, नेता, कानून हरिजनों के दर्द को कैसे समझते?

गाँव की विधवा महत्माइन जिसकी जर-ज़मीन ही नहीं, माधो पाड़ें उसका शारीरिक शोषण भी करता है, एक रात वह उसकी हत्या करवा देता है। केस में फँसा दिया जाता है संजीवना। संजीवना माधो पाड़ें का बंधुआ है। कानून तो ताकतवर के लिए है। बंधुआ संजीवना के लिए महत्माइन की हत्या का झूठा केस दामुल साबित होता है। उसे इसमें फाँसी हो जाती है।...गौर करने की बात है कि जो दलित बस्ती जमींदारों के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ उठा खड़ा नहीं होती, उस समाज की एक औरत प्रतिकार करती है। जब माधो पांड़ें ठंड की रात में अपने गुर्गों के साथ अलाव ताप रहे थे, रजुली (संजीवना की पत्नी) गंड़ासा लेकर आती है और माधो पांड़े के गले पर प्रहार करती है। माधो कुर्सी से गिरकर छटपटाने लगता है और अंततः दम तोड़ देता है। रजुली को लोग पकड़ लेते हैं, रजुली तीव्र आक्रोश में फूट पड़ती है-‘तू मुखिवा को मारकर दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे...!’ यशस्वी कथाकर शैवाल की कहानी पर आधारित ‘दामुल’ में मुख्य कलाकार थे मनोहर सिंह, अन्नू कपूर, दीप्ति नवल, सीमा मजूमदार, रंजना कामथ, प्यारे मोहन सहाय इत्यादि।[15]