हिंदी सिनेमा और दलित चेतना / जितेन्द्र विसारिया / पृष्ठ 4

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » संकलनकर्ता » अशोक कुमार शुक्ला  » संग्रह: हिंदी सिनेमा और दलित चेतना
हिंदी सिनेमा और दलित चेतना (1984-1994)
लेखक: जितेन्द्र विसारिया


‘पार’ (1984) बिहार के गाँव-जवार में दलितों के चुनाव में खड़े होने और सवर्णीय कुचक्रों चलते मिली असफलता की जो एक हल्की सी झलक हम ‘दामुल’ में देखते हैं, उसका अगला रूप गोतम घोष निर्देशित फिल्म ‘पार’ में हमें देखने को मिलता हैं। फर्क बस इतना है कि यहाँ एक दलित को चुनाव में खड़ा करने का प्रयत्न बाभन-राजपूत नहीं, एक आर्दशवादी स्कूल मास्टर करता है।... चुनाव सफलतापूर्वक जीता जाता है। मास्टर के प्रगतिकामी विचार और गाँव में दलित राजनीति आने से जगी आशा की किरण से उत्साहित गाँव के मजदूर, स्थानीय ज़मींदार के यहाँ न्यूनतम वेतन पर मजदूरी करने से इन्कार कर देते हैं। ज़मींदार इस सब की जड़ स्कूल मास्टर को पहले तो धमकाता है और फिर न मानने पर एक रोड एक्सीडेन्ट में उसकी हत्या करवा देता है। इस घटना का प्रतिकार गाँव का विद्रोही दलित नौरंगिया (नसीरुद्दीन शाह) अपने अन्य साथियों के साथ, जमींदार के भाई की हत्या के रूप में करता है। बदले में जमींदार पूरी दलित बस्ती में आग लगावा देता है। उस दहशतज़दा माहौल में नौरंगिया और उसकी गर्भवती पत्नी (शबाना आजमी) भागकर किसी तरह कलकत्ता पहुँचते हैं। जहाँ रोजगार के स्थायी अभाव और मिलों में चल रही अनिश्चितकालीन हड़तालों के कारण, अंततः भूख से लड़ते थक-हारकर वे दलित दंपत्ति गाँव लौटने के लिए विवश होते हैं। किराये का पैसा जुटाने के लिए नौरंगिया को एक बेहूदा काम मिलता है-सुअरों के झुँड को नदी पार कराने का। सुअरों के झुँड को वे नदी पार तो पहुँचा देते हैं और पार पहुँचकर उन्हें रोटी भी मिल जाती है और पैसा भी, पर उसकी पत्नी के पेट में पलने वाला उसका बच्चा मर जाता है। दलित जीवन की भयानक त्रासदियों में से एक फिल्म ‘पार’ सिद्ध करती है, कि सिनेमा भी जीवन से जुड़ी सच्चाइयों को बयान करने का एक सशक्त दृश्य माध्यम है और क्यों? इसके शुरूआती दौर से लेकर अब तक परंपरागत रूढ़िवादी तबका; इससे नाक-भौं सिकोड़ता चला आ रहा है...।

के. विश्वनाथ की ‘जाग उठा इंसान’ (1984) इस वर्ष की एक अन्य महत्वपूर्ण फिल्म थी, जिसमें मिथुन ने एक हरिजन युवक ‘हरि’ और श्रीदेवी ने एक ब्राह्मण युवा नर्तकी ‘संध्या’ भूमिका निभाई थी। तमाम उतार चढ़ावों के बावजूद संध्या और हरि का मिलन होता है। ‘जन्मना जयते शूद्रः कर्मणा द्विज उच्च्यते’ जैसे प्रकारांतर में ब्राह्मण श्रेष्ठता को जीवित बनाये रखने वाले आर्यसमाजी विचार के तहत, युवति का पिता और भतीजा यह रिश्ता स्वीकार भी कर लेते हंै, किन्तु उसका भाई और गाँव समाज नहीं; जिनके क्रूर हमले में हरि और संध्या को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता हैं। सटीक अभिनय और अर्धशास्त्रीय संगीत के होते हुए भी फिल्म का दुखांत दर्शकों को भाया नहीं और फिल्म फ्लाप हुई। स्मरण रहे मिथुन चक्रवर्ती की फिल्मों का दर्शक अधिकांशतः दलित-पिछड़ा आम आदमी ही रहा है, वह अपने नायक (जो फिल्म में भी दलित है) की पराजय भला कैसे स्वीकार कर करता?

‘आदमी और औरत’ (1984) तपन सिन्हा निर्देशित, अमोल पालेकर, महुआ राय चौधरी अभिनीत मूलतः एक यह टेलीफिल्म है जो दूरदर्शन द्वारा दूरदर्शन के लिए ही बनी थी, किन्तु जाति और धर्म से परे मन और देह के धरातल पर मात्र स्त्री-पुरुष होने की कथा कहती इस फिल्म को ‘इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टीवल’ में भी सराहा गया और अवार्ड जीते थे।

‘देव शिशु’ (1985) उत्पलेंदु चक्रवर्ती निर्देशित धार्मिक शोषण पर आधारित यह फिल्म एक ऐसे दलित माता-पिता रघुवर (ओमपुरी) और सीता (स्मिता पाटिल) के तीन सिर वाले बच्चे की कहानी है, जिसे अशुभ कहकर जिये महंत नामक तांत्रिक (साधू मेहर) ने उनसे छीन लिया था। गाँव में आई बाढ़ से लुटकर रघुवर और सीता जब अपने एक रिश्तेदार के गाँव पहुँते हैं, तो वे वहाँ देखते हैं कि उनका वही तीन सिर वाला शिशु एक ठेले पर रखा हुआ है और दो व्यक्ति उसे देवशिशु कहकर प्रचारित कर रहे हैं। अंधश्रद्धा में डूबे लोग भी उस पर पैसों की बौछार किए जा रहे हैं। रघुवर इसका तीव्र विरोध करता है, परिणाम स्वरूप वहाँ उपस्थित लोग उसे मार-मारकर अधमरा कर देते हैं। किसी तरह जान बचाकर भागा रघुवर अपनी पत्नी के पास आता है और अपनी पत्नी से पुनः उसी तरह का विचित्र बच्चा पैदा करने का आग्रह करता है, ताकि जिसके जरिये वह भी कमाई कर सके। अपने सम्पूर्ण अर्थ में ‘देवशिशु’ एक महत्वपर्ण फिल्म है, जिसका एक दर्शन (पाठ) यह भी है कि धार्मिक अंधविश्वास के आधार होने वाले अर्थोपार्जन पर जन्मजात आरक्षण केवल सवर्ण पुरोहित, पंडे-पुजारी और संत-महंतो का ही है और वे इस क्षेत्र में भूलकर भी दलित वर्ग को प्रश्रय नहीं देना चाहते/चाहेंगे।

‘गुलामी’ (1985) यद्धपि वर्ग और जाति के अपने संस्कार होते हैं और उनका प्रतिबिंब व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक छाप के रूप में अवश्य रहता है। उससे छुटकारा पाना असंभव नही ंतो आसान भी नहीं है, किन्तु जो इससे मुक्त हो जाता है वही सिद्ध पुरुष कहलाता हैं। जे.पी.दत्ता निर्देशित और उनके पिता ओ.पी दत्ता द्वारा लिखित फिल्म ‘गुलामी’ एक ऐसी ही महत्वपूर्ण कृति है, जिसे फिल्मकार ने अपने तमाम पूर्वाग्रह और संस्कारों से मुक्त होकर सहज मानवीय धरातल पर स्वतंत्रता और समानता की पैरोकार प्रतिनिधि रचना के रूप में किया है। यह फिल्मकार की दृष्टि का ही विस्तार है कि जिस दलित जीवन की दुश्वारियों को महात्मा गाँधी भी सवर्णों की आम समस्याओं से अलग करके नहीं देख सके थे, गुलामी का निर्देशक फिल्म के प्रारंभ में ही सूत्रधार (अमिताभ बच्चन) के माध्यम से, उन्हें पहले ही अलग बताता हुआ आगे बढ़ता है-‘अंग्रेजों की हुकूमत से जूझने के लिए और गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए तमाम हिन्दुस्तानी वतन के सिपाही बन चुके थे। कुछ जाने-पहचाने कुछ बेनाम और कुछ गुमनाम। आजादी का सपना तो सभी देख रहे थे, मगर एक सिपाही का सपना कुछ अपना था उसकी गुलामी की जंजीरें अलग थीं और उसकी आजादी की देवी की मूरत भी अलग थी। वह गुमनाम जरूर था मगर बेनाम न था। उसका नाम था रंजीत सिंह चौधरी।[16]’

फिल्म का प्रारंभ होता है राजस्थानी मरुधरा के एक अनाम गाँव के एक दलित लड़के रणजीत के विद्रोह से, जो ब्रिटिश सरकार के शोषण और दमन की जड़ें काटता, अपने गाँव-समाज में व्याप्त-अस्यपृश्यता, जातिवाद और जमींदारी की जड़ें काटने का प्रयास करता है। रणजीत अपने स्कूल में पीछे नहीं आगे और सवर्ण बच्चों के बगल में बैठना चाहता है। ऊँची जाति के बच्चों के लिए पृथक रखे मटकों से पानी पीकर, वह पानी-पानी का भेद मेटना चाहता है। पर यह हो नहीं पाता। स्कूल में जमींदार के लड़कों से लड़ी बराबरी की लड़ाई में, उसे हवेली बुलाकर मार पड़ती है। हवेली में अपना और अपने माता पिता का अपमान रणजीत सहन नहीं कर पाता और आगे की पढ़ाई पूरी करने अपने मामा के यहाँ चला जाता है।

रणजीत अपनी पढ़ाई पूरी कर भी नहीं पाता कि क़र्ज़ और जमींदार/महाजनों के शोषण के चलते बीमार और फिर मृत्यु को प्राप्त हुए पिता के देहांत की खबर सुनकर वह अपने गाँव लौट आता है। परंपरा अनुसार रणजीत के पिता द्वारा ज़मीदार से लिया क़र्ज़ रणजीत के सिर आता है, किन्तु विद्रोही रणजीत इससे इन्कार कर देता है। ज़मीदार पुलिस से मिलकर युवा रणजीत (धर्मेन्द्र) को जेल भिजवा देता है। घर में माँ अकेली माँ के रहते रणजीत का खेत और घर नीलाम हो जाता है और माँ विक्षिप्त। कुछ दिन बाद जमींदार की प्रगतिशील लड़की सुमित्रा (स्मिता पाटिल) के प्रयासों से रणजीत सिंह जेल से छूट आता है, किन्तु अपना घर और खेत नीलाम होने के कारण अपनी मानसिक स्थिति खो बैठी रणजीत की माँ (सुलोचना) उसके आने के साथ ही यह दुनिया छोड़ देती है। रणजीत अपनी ही बिरादरी की मित्र लड़की मोरा (रीनाराॅय) जो उसके जेल से आने तक उसकी माँ की सरंक्षक बन रही थी, उसे अपनी पत्नी बना लेता है।

इसके बाद गाँव में क्रमशः चार घटनाएँ घटती हैं। एक के ज़मींदार के विरुद्ध जाकर रणजीत गाँव छोड़कर जा रहे किसानों को गाँव में ही रोक लेता है और क़र्ज़ में जमींदार के कारिन्दों द्वारा खोलकर लिए जा रहे किसानों के हल-बैल वापस कराता है। दो दलितों के लिए प्रतिबंधित जमींदार के कुँए पर सामूहिक रूप से पानी भरने के लिए संघर्ष करता है। तीन दलित हवलदार गोपी (कुलभूषण खरबंदा) अपने बेटे के विवाह के अवसर पर निम्न जातियों के लिए वर्जित घुड़चढ़ी की रस्म करने के प्रयास में, अपने बेटे मोहन से हाथ धो-बैठता है। इसी क्रम में चैथी घटना अंतर्गत एक दिन रणजीत और सुमित्रा डाकुओं के बीच फँस जाते हैं। रणजीत एक शिक्षक है यह सुनकर डाकुओं का सरदार उनसे नरमी बरतता हैं। जमींदार और साहूकारी शोषण के चलते एक आम इंसान से बागी बने डाकुओं के सरदार का दृष्टिकोण पलटने के लिए, रणजीत उन्हें पढ़ने के लिए मक्सिम गोर्की का महान उपन्यास ‘माँ’ देता है।

अंत में यही उपन्यास रणजीत सिंह की बर्बादी का सबब बनता है। एक मुठभेड़ में डाकुओं के डेरे से पुलिस के हत्थे यह किताब चढ़ जाती है। पुलिस जब्त की हुई पुस्तक की पहचान कर लेती है जो गाँव के पुस्तकालय में चैधरी रणजीत सिंह के नाम चढ़ी हुई थी, रणजीत एक बार फिर जेल में होता है। कटे पर नमक यह कि एसपी सुल्तान सिंह जो सुमित्रा का पति है, उसकी विवाह के बाद वहीं आकर पोस्टिंग होती है। वहाँ आकर जब उसे यह ज्ञात होता है कि नीच जात रणजीत और उसी पत्नी सुमित्रा कभी मित्र थे, तब तो वह जेल में रणजीत को और अधिक मात्रा में यातना देता है। तंग आकर रणजीत एक दिन जेल से भाग खड़ा होता है और अपनी बेटे की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए हवलदार से बागी बने गोपी दादा की गैंग में शामिल हो जाता है। इसी क्रम में एक व्यक्ति और बागी बनता है-जाबर (मिथुन चक्रवर्ती)। दलितों के प्रति सहानुभूति रखने और बागी रणजीत की हथियारों से मदद करने के कारण, पूर्व आर्मी मैन जाबर को भी एसपी सुल्तान सिंह झूठे केश में फँसा देता है।

इधर गाँव के स्कूल मास्टर (राम मोहन) की अनाथ बेटी और जाबर की मंगेतर तुलसी (अनीता राज) हवेली में ज़मीदार के ऐयास बेटों से अपनी मर्यादा की रक्षा करती, मारी जाती है। घुड़चढ़ी की ज़िद में अपने बेटे को खो चुके गोपी दादा के सामने भी वैसा ही दृश्य पैदा होता है। थानेदार फतेसिंह (रजामुराद) अपने बेटे की बरात लेकर जा रहा होता है। प्रतिशोध की आग में जलते गोपी दादा अपनी गैंग के साथ हमला करते हैं और फतेसिंह को मार गिराते हैं, किन्तु उसके मासूम बेटे को डाकू और पुलिस की गोलियों से बचाते हुए खुद मारे जाते हैं। इस प्रकार जुल्म की इंतिहा हो जाती है।

फिल्म के अंत में चैधरी रणजीत सिंह और जाबर गैंग के साथ गाँव पर हमला बोल देते है। वे अपने ऊपर हुए अत्याचारों का चुन-चुनकर प्रतिशोध लेते, ज़मीदार और महाजनों को मारते और लूटते-पीटते हैं। तब तक एसपी सुल्तान सिंह अपने पुलिस फोर्स के साथ गाँव का घेरा डाल देता है। पुलिस और बागियों की दो तरफा फायरिंग में पहले जाबर मारा जात है और उसके बाद जमींदारों और महाजनों की हवेलियों से इक्ट्ठा किए गए बही-खातों के ढेर पर जलती लुकाठी लगा, अंत में चैधरी रणजीत सिंह भी शहीद हो जाता है। ...सामाजिक समरसता और शोषण से मुक्ति का अधूरा सपना पूर्ण होने की आशा में मरते हुए भी चैधरी रणजीत सिंह की आँखें, खुली रह जाती हैं। समाप्त होती फिल्म डूबते सूरज की पृष्ठभूमि में रणजीत की पत्नी मोरा अपने नवजात शिशु को लिए खड़ी दिखाई देती है, जो चैधरी रणजीत सिंह के सपने के बचे रहने और आशा का प्रतीक है। शिक्षक से बाग़ी बने राजस्थान के एक दलित किसान के वास्तविक जीवन-संघर्ष का आधार लेकर बनी फिल्म ‘गुलामी’ को; जातिग्रस्त भारत में वर्गसंघर्ष की गतिशीलता समझने में, पाठ्यपुस्तक की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है।[17]

आघात (1985) गोविन्द निहालिनी निर्देशित और नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, पंकज कपूर, दीपासाही और सदाशिव अमरापुरकर अभिनीत यह फिल्म ट्रेडयूनियनों के विघटन और समाजवादी आन्दोलन के क्रमशः नष्ट होते जाने पर तीखा और विचारोत्तेजक व्यंग्य करती है। टेªेड यूनियनों की आपसी प्रतिद्वन्दिता किस प्रकार उनकी विश्वसनीयता को नष्ट करने का काम करती है और व्यक्तिवाद को प्रश्रय देती है, इसका अत्यंत सजीव चित्रण गोविंद निहालिनी ने इस फिल्म में किया है।

‘मैसी साहब’ (1986) प्रदीप कृष्ण निर्देशित और रघुवीर यादव अभिनीत इस फिल्म में रघुवीर यादव ब्रिटिश शासित भारत में फ्रैंसिस मैसी नामक एक साधारण क्लर्क की कहानी है, जो अपनी अंग्रेज नस्ल के चलते लोगों पर रुवाब दिखाता है। क़र्ज़ लेता है और एक आदिवासी युवति से विवाह भी करता है। आदिवासी समाज में दहेज युवति को नहीं युवक को देना होता है। दहेज की रकम पाने के चक्कर में फ्रैंसिस से महाजन का खून हो जाता है। इस बीच उसके चहेंते अंग्रेजी नस्ल भाई विवाह के चक्कर में इंग्लैण्ड चले जाते हैं और उसके पत्नी-बच्चे को उसका आदिवासी ससुर रकम न चुका पाने के कारण, वापस घर लिवा ले जाता है। इधर जेल में पड़े कल्पना करते मैसी साहब को भरोसा है कि एक न एक दिन उसके चाल्र्स एडम्स साहब उसे जरूर आकर बचा लेंगे और उसके बेटे को अफसर बनायेंगे। पर एडम्स साहब इंग्लैण्ड से कभी नहीं लौटते और मैसी साहब को फाँसी हो जाती है। रघुवीर यादव, बैरी जान, अंरुधती राय, सुधीर कुलकर्णी, लल्लूराम, वसंत जोगलेकर इत्यादि इसके प्रमुख अभिनेता थे।

सुष्मन’ (1986) आंध्रप्रदेश के सिल्क कारीगरों, सरकारी अमले और सहकारी संस्थाओं के अंतःसंघर्ष को बयान करती श्याम बेनेगल की इस फिल्म में, बुनकर रामुल के माध्यम से उनकी कथा कही गई है जो ‘इकत’ की बारीक सिल्क कारीगरी करता है। पूँजीवादी शोषण और मशीनीकरण के कारण किस प्रकार कुशल कारीगर अपने हुनर से दूर चले जाते हैं। वे कारीगर जो सिर्फ अपने हाथों से नहीं अपनी आत्मा से वस्त्रों का निर्माण करते हैं। एसोसिएशन आॅफ कोआपरेटिव्स एंड अपेक्स सोसाइटी आॅफ हेन्डलूम्स निर्मित इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे-ओमपुरी, शबाना आज़मी, कुलभूषण खरबंदा, के.के. रैना, अन्नू कपूर, इला अरुण, मीना गुप्ता और मोहन अगाशे इत्यादि।

‘महायात्रा (1987) गौतम घोष की एन.एफ.डी.सी द्वारा हिन्दी और बंगला में एक साथ बनी इस पीरियड फिल्म में उन्नीसवीं शताब्दी के बंगाल में गंगा तट पर शवों को जलाने वाले एक अछूत बैजू का भी वर्णन है, जो मृत्युशैया पर पड़े एक विधुर ब्राह्मण के मोक्ष के लिए खरीदकर लाई गई गरीब ब्राह्मण युवति को, सती कराने का विरोध करता है। मुख्य कलाकार थे शुत्रघन सिन्हा, शंपा घोष, बसंत चैधरी, मोहन अगाशे प्रमोद गांगुली और राॅबी घोष।

‘बँटवारा’ (1989) राजस्थान के जातिय और साम्प्रदायिक संघर्ष को जमींदारी परिवेश के अन्तर्गत प्रस्तुत करने वाली जे.पी. दत्ता निर्देशित इस बहु सितारा फिल्म में भी अभिनेता धर्मेन्द्र ने एक बार एक दलित युवा की भूमिका निभाई थी। यह चरित्र गुलामी के रणजीत से हटकर एक अपेक्षाकृत संयमित दलित युवा है। अन्य कलाकार थे-विनोद खन्ना, डिंपल कपाड़िया, आशा पारेख, शम्मी कपूर, पूनम ढिल्लों, अमरीशपुरी, विजयेन्द्र घाटगे, नीना गुप्ता और कुलभूषण खरबंदा इत्यादि।

‘भीम गर्जना’ (1989) बाबा साहेब आम्बेडकर के जीवनवृत्त को पहली बार चित्रपट पर दर्शाने वाली विजय पवार निर्देशित यह फिल्म अपने सार्थक अभिनेता चयन और निर्देशकीय गड़बड़ियों बावजूद भी दलित वर्ग में इसे काफी सराहना प्राप्त हुई थी।

‘धारावी’ (1991) एन.एफ.डी.सी. और दूरदर्शन के सहयोग से बनाई गई प्रयोगधर्मी निर्देशक सुधीर मिश्रा की यह फिल्म एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी धारावी में हिन्दुस्तान के कोने-कोने से आकर पनाह पाने वाले गरीब, दलित और बेरोजगारों की फौज के संतापों, आकांक्षाओं और स्वप्नों के बनने और टूटने की कहानी है। मुख्य कलाकार थे-ओमपुरी, शबाना आजमी, माधुरी दीक्षित, चंदू पारखी, रघुवीर यादव, सतीश खोपकर, मुश्ताकखान, प्रमोदबाला, वीरेन्द्र सक्सेना इत्यादि।

‘दीक्षा’ (1991) अरुण कौल निर्देशित यह फिल्म भी ‘महा यात्रा’ की तरह एक काल विशेष पर आधारित है। पृष्ठभूमि है बीसवीं सदी के आरंभ का कर्नाटक, जब सुधारवादी आन्दोलनों के प्रभाववश एक प्रगतिशील ब्राह्मण शेषादि; परंपरावादियों से बैर मोल लेता अस्पृश्यों के यहाँ धार्मिक कृत्य सम्पन्न कराने लगता है। शेषाद्रि की निर्भीकता और पारंपरिक मूल्यों से हटकर चलने की सजा उसकी विधवा युवा बेटी को मिलती तब मिलती है, जब वह गाँव के एक शिक्षक के प्रेमपाश में पड़कर गर्भवती हो जाती है। शेषाद्रि, ब्राह्मण समाज के दबाव में आकर अपनी पुत्री का घटश्राद्ध (जीवित रहते शवायात्रा निकालने का दंड) करने को बेवश है। इस मनुष्यता विरोधी पाखंड के विरुद्ध तब सिर्फ अस्पुश्य ‘कोगा’ ही आवाज उठाता है, जिसके यहाँ शेषाद्रि ने धार्मिक आचार संपन्न किया था। प्रगतिशील ब्राह्मण और विद्रोही दलित के संयुक्त प्रयत्नों से धर्म के अन्तर्गत टूटती जड़ता का दर्शन कराने वाली, मनोहर सिंह, नाना पाटेकर और राजश्री सांवत अभिनीत ‘दीक्षा’ भी एक सराहनीय फिल्म है।

‘रूदाली’ (1992) महाश्वेता दी के उपन्यास पर आधारित कल्पना लाजिमी की यह काव्यात्मक अभिव्यक्ति सही मायनों में स्त्रीत्व को श्रद्धांजली है। फिल्म के अनुसार राजस्थान के गाँव में समृद्ध व्यक्तियों की मृत्यु पर रूदाली कहलाने वाली निम्न जाति की पेशेवर रोने वाली स्त्रियों को बुलाया जाता था। सनीचरी (डिंपल कपाड़िया) एक ऐसी ही औरत की बेटी है, जिसकी माँ बचपन में ही उसे छोड़कर चली गई थी। उसका शराबी पति विवाह के कुछ समय बाद ही मर जाता है। गाँव के ठाकुर की हवेली में वह काम करके अपना जीवन यापन करती है। वह जीवन से लड़ने वाली स्त्री है, हथियार डाल देने वाली नहीं। भले ही एक रूदाली उसकी माँ थी लेकिन वह रोना नहीं जानती। सनीचरी का बेटा बुधुआ, जो एक वेश्या से ब्याह कर लेता है, उसकी कोख में पलने वाले अपने बेटे के बच्चे की खातिर अपने घर में आश्रय देती है। लेकिन वह वेश्या गर्भपात करवाकर अपनी दुनिया में वापस लौट जाती है। हर तरफ से रूसवाई की शिकार सनीचरी हवेली के छोटे ठाकुर के भावनात्मक शोषण का भी शिकार होती है। बड़े ज़मीदार गंभीर रूप से बीमार हैं और अपने परिवार के बारे में अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी मौत पर कोई रोने वाला नहीं होगा। भीकनी (राखी) नामक रूदाली ठाकुर को आश्वस्त करती है। वह सनीचरी के पास आती है और उसकी अंतरंग बन जाती है। एक दिन भीकनी को दूसरे गाँव में रोने के लिए जाना पड़ता है। सनीचरी कुछ समय बाद ही जान पाती है कि भीकनी उसकी खोई हुई माँ थी जो अब इस दुनिया में नहीं है। उसका पत्थर का कालजा फूट पड़ता है। इसी बीच बड़े ठाकुर की मृत्यु हो जाती है और उसे हवेली में रोने के लिए बुलाया जाता है, जहाँ सनीचरी के भीतर जिंदगी भर के जमे हुए आँसू आँखों से फूट पड़ते हैं। उसके मर्माहत कर देने वाले क्रंदन को सुनकर लोग स्तब्ध रह जाते हैं। उसके रूदन का असली मर्म उसके सिवा भला और कौन जान सकता है। मूल रूप से असम के ग्रामीण परिवेश को लिखे गए महाश्वेता देवी के इस उपन्यास को कल्पना लाजमी ने राजस्थानी पृष्ठभूमि देकर इस तरह फिल्माया है, कि वह राजपूताने की मौलिक लोककथा लगती है।

‘बैंडिट क्वीन’ (1994) इस फिल्म पर कुछ लिखने से पूर्व हमें दो कथन आ रहे हैं, पहला तेलुगु दलित स्त्री रचनाकार चल्लापल्ली स्वरूपारानी का यह मार्मिक कथन-

’सवर्ण तो हमें भोग्या समझाते हैं, दलित पुरुष भी मात्र्ा सम्पत्ति के रूप में देखते हैं। ऐसे में हम प्रेम करें तो किससे? बेहतर मानवता की उम्मीद में हम अपना प्रेम स्थगित करती हैं।

तो दूसरा महान फ्रैंच नारीवादी लेखिका सिमोन द बोउवा का प्रसिद्ध कथन-

‘स्त्री पैदा नहीं होती उसे बना दिया जाता है।’

एक सामन्य दलित पिछड़ी युवति से बागी बनी फूलन देवी (मैं उन्हें यहाँ जानबूझकर दस्यु या डाकू नहीं कह रहा, क्योंकि शोषण और अपमान के खि़लाफ़ बन्दूक लेकर बीहड़ में कूद जाने वाले व्यक्ति का, हमारे चंबल में डाकू नहीं बागी कहा जाता है!) के ऊपर यह दोनों ही पंक्तियाँ खरी उतरती हैं। उनके जीवन वृत्त को छोड़ दिया जाए और बात केवल शेखर कपूर निर्देशित इस महान यथार्थवादी फिल्म की ही की जाए तो भी हम पाते हैं कि एक अदद साइकिल और एक गाय के बदले अपने से तिगुनी उम्र के व्यक्ति पुत्तीलाल (आदित्य श्रीवास्तव) से मात्र ग्यारह वर्ष की उम्र में फूलन (सीमा विश्वास)को ब्याह दिया जाता है।

पुत्तीलाल दलित होने के साथ-साथ पुरुष भी है और वह विवाह के बाद घर आई बालिका वधू के उम्र पूरी होने का इंतजार नहीं करता। ब्याह के साथ बलात्कार करने के कानूनी हक का उपयोग वह क्रूरता के साथ करता है कि फिल्म के पर्दे पर गूँजती बालिका फूलन की मर्माहत चीखें, हमारा कलेजा चीर डालती हैं कि क्या यह वही समाज है, जिसमें हम रहते हैं। क्या यह वही माता-पिता है, जिन्हें हम शिव और गौरी का रूप मानते हैं? क्या यह वही पति है, जिसे हमारे शास्त्र ईश्वर का दर्जा देता हैं? अर्थात नहीं। और आश्चर्य, इसकी भुक्तभोगी फूलन भी यह नहीं मानती। वह ससुराल छोड़कर घर भाग आती है। परन्तु बेटी और बैल में अन्तर न समझने वाले आम भारतीय माता-पिता दान (कन्यादान) करने के बाद फिर नहीं चाहते कि उनकी बेटी ससुराल का खूँटा तोड़कर सदा-सदा के लिए फिर कभी लौटे, फिर भले ही उसक मालिक मारे-पीटे या काट कर बहा दे। लेकिन विद्रोही फूलन रूकने का प्रयास करती है। किन्तु ठाकुरों से भरे-पूरे गाँव में भला एक युवा दलित लड़की कब सुरक्षित रही है। फूलन भी इसका अपवाद रह पातीं। अर्थात नहीं। उस पर भी फब्तियाँ कसी जातीं। छेड़खानी होती। लेकिन फूलन मल्लहिनियाँ की हिम्मत देखो कि वह गाँव के ठाकुर और उस पर सरपंच के बेटे को भी तरजीह नहीं देती। उसकी यही हिम्मत उसे गाँव की पंचायत में ला खड़ा कर देती है। तब जाहिर है कि फैसला उसके पक्ष में नहीं होना था। बेटी पर पिता के सामने ही झूठा इल्जाम लगाकर, उसे गाँव से खदेड़ दिया जाता है।

फूलन के सामने अब सारे रास्ते बंद है। वह अपने चचेरे भाई मय्यादीन (सौरभ शुक्ला) के साथ उसके घर जाती है, लेकिन ससुराल से भागी और मायके से परित्यक्त स्त्री का शरण स्थल फिर कहीं स्थिर नहीं रहता। डाकुओं के साथ रहने के झूँठे लाँछन के बीच पुलिस हिरासत में पुलिस उसकी देह से खेलती है। जमानत करने वाला गाँव ठाकुर उसका उपभोग कर पाता, उससे पहले ही बागी उसे उसके घर ही धर ले जाते हैं। इसके बाद फिर शुरू होता है यातनाओं का लंबा सिलसिला। बागियों के गिरोह में बाबू गूजर (अनिरुद्ध अग्रवाल) उसके साथ बर्बरता के साथ बलात्कार करता है। बाबू पिछड़ी जाति का है किन्तु सवर्णों की भाँति उसके लिए भी फूलन मात्र देह है और उपभोग की वस्तु भी, वह भला इस बहती गंगा में हाथ कैसे न धोता? तब यहाँ फूलन का मददगार होता है विक्रम मल्लाह मस्ताना (निर्मल पाण्डेय), जो उसी की जाति का है। अब वह मात्र सहानुभूति थी या अपनी जाति की स्त्री को अपनी इज्ज़त माानने का गुरूर कि विक्रम मल्लाह आवेश में आकर बाबू गुर्जर की हत्या कर स्वयं गैंग का मुखिया बन जाता है।

एक मुठभेड़ दौरान विक्रम के पैर में लगी गोली लगने पर फूलन, इलाज के लिए उसे शहर (उरई) ले जाती है, जहाँ उनका सहानुभूति से शुरू हुआ प्रेम देह की यात्रा पूरी करता है। विक्रम के साथ फूलन कई डकैतियों में भाग लेती है और ब्याह के नाम पर बचपन में उसके मासूम मन को कुचलने वाले पति से प्रतिशोध लेती फूलन पति पुत्तीलाल को भी पीट-पीटकर लहूलुहान कर देती है। उसके बाद लगता है कि स्थितियाँ कुछ सहज हुईं कि उसी समय पुलिस की गोली से विक्रम मल्लाह मारा जाता है और फूलन को हिरासत में ले लिया जाता है। पुलिस के संरक्षण में उस पर फिर शारीरिक अत्याचार होते हैं। विक्रम मल्लाह से बैर रखने वाला एक ठाकुर श्रीराम (गोविन्द नामदेव) फूलन की जमानत कराता है और उन्हें बेहमई के एक गाँव लेजाकर कैद कर देता है, जहाँ कई दिनों तक फूलन ठाकुरों के सामूहिक बलात्कार का शिकार होती हैं। अधमरी अवस्था में उन्हें निर्वस्त्र कर गाँव के कुँए से पानी लाने को कहा जाता है। पानी भरने से पहले ही उन्हें निर्वस्त्र घसीट कर उनकी नुमाइश की जाती है!!!

इस अमानवीय घृणित कृत्य जो एक स्त्री के सम्पूर्ण वजूद को कुचलने का सदियों से से स्त्री पर आजमाया गया हथियार था। फूलन की जिजीविषा के आगे भोथरा पड़ जाता है। फूलन वहाँ से चलकर कुँआ-नदी नहीं तरतीं। वह अपने चाचा कैलाश के साथ बागी मानसिंह (मनोज बाजपेयी) के पास जाती हैं। मान सिंह विक्रम मल्लाह का पुराना मित्र था। वहाँ से वे दोनों मिलकर बागियों के सरगना बाबा मुस्तकीम (राजेश विवेक) के पास जाते हैं। जो फूलन देवी और मानसिंह को एक नई गैंग बनाने की सलाह देते हैं। गैंग बनती है और वहीं से शुरू हो जाती है उत्पीड़न के खिलाफ एक जंग, जिसमें वे अपने को समर्थ बनाने के लिए डकैतियाँ भी डालते हैं और लोगों की मदद भी करते हैं। इसी बीच बाबा मुस्तकीम को पता चलता है कि ठाकुर श्रीराम एक विवाह के उपलक्ष्य में बेमही गाँव में रुका हुआ है। फूलन और मानसिंह अपनी पूरी गैंग के साथ बेमही गाँव पर हमला करते हैं, लेकिन ठाकुर श्रीराम वहाँ से बच निकलता है। प्रतिशोध की आग में जलती फूलन गाँव के ठाकुरों को एक स्थान पर खड़ाकर उनसे श्रीराम का पूछती है, किन्तु वे उसका कोई सुराग नहीं देते। फूलन पूर्व में अपने ऊपर हुए उस जघन्य कृत्य के समय उपस्थित और सहयोगी रहे उन ठाकुरों को एक कतार में खड़ा करके, गोलियों से भून देती है। (फरवरी 1981)[20]

जिस फूलन को इतनी घोर यातनाएँ दी गईं, जिसमें पुलिस और प्रशासन बराबर का सहयोगी रहा, वही फूलन के इस कृत्य पर सचेत हो गया। उसे चंबल के बीहड़ में चारो ओर से घेरने की कबायद शुरू हो गई। दिल्ली से स्पेशल फोर्स मँगा लिया गया। पर्याप्त रसद-पानी के अभाव में चारो ओर से घिरी फूलन के गिरोह के एक-एक कर सारे साथी मारे जाने लगे। हताश फूलन देवी को फरवरी 1983 में आत्मसमपर्ण करना पड़ता है। ‘इण्डिया‘ज बैंडिट क्वीन: द ट्रू स्टोरी आॅफ फूलन देवी’ इस नाम के मालसेन के उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ निश्चय ही भारत में दलित स्त्री के शोषण और उत्पीड़न का महान यथार्थवादी आख्यान है।