हिंदी सिनेमा और दलित चेतना / जितेन्द्र विसारिया / पृष्ठ 5
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लेखक: जितेन्द्र विसारिया
‘टारगेट’ (1994) सत्यजीत राय के बेटे संदीप राय द्वारा निर्देशित जमींदारी उत्पीड़न पर सत्यजीत राय द्वारा लिखित अंतिम पटकथा पर बनाई गई हिंदी फिल्म है। ज़मींदार किस प्रकार दलितों और किसानों के विरुद्ध शोषण का तंत्र चलाते हैं, इस बात की बारीक चित्रकारी फिल्म में है। प्रमुख कलाकार-ओमपुरी, मोहन अगाशे, चम्पा, ज्ञानेश मुखर्जी और अंजन श्रीवास्तव। ‘हजार चैरासी की माँ’ महाश्वेता देवी के बंग्ला उपन्यास ‘हजार चैरासीर माँ’ पर आधारित गोविंद निहालिनी की यह फिल्म नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर बनाई गई थी। इस फिल्म में जयाबच्चन ने शीर्षक भूमिका में एक आतंकवादी काॅ. भारती की माँ की पीड़ा को सिर्फ भावनात्मक गहराइयों के जरिए उकेर कर ही आश्वस्ति नहीं ढूँड़ी थी अपितु स्थितियों के बौद्धिक तनाव को भी रेशा-रेशा उधेड़ दिया था। मुख्य कलाकर थे अनुपमखेर, सीमा बिश्वास, मिलिंद गुणाजी, भक्ति बर्वे, जाय सेनगुप्ता, नंदिता दास आदि। ‘चाची 420’ (1998) कमल हासन निर्देशित यह फिल्मा एक दलित युवक जय उर्प जयप्रकाश पासवान (कमल हासन) और भारद्वाज लड़की जानकी (तब्बू) के अन्तर्जातीय विवाहोपरांत तलाक के लिए चल रहे मुकदमे के दौरान दलित युवक जय का ससुर दुर्गाप्रसाद भारद्वाज (अमरिश पुरी) की इच्छा के विरुद्ध अपनी पत्नी और बेटी से मिलने की उत्कट जिजीविषा और उसके लिए किए गए तमाम नाटकीय जतन और उनका पुर्नमिलन इस फिल्म का मूल कथानक है। अन्य कलाकार थे जाॅनी वाकर, ओमपुरी, परेश रावल इत्यादि।
मोहनदास’ (1999) दलितों ने आरक्षण भले ही अपने हजारों साल के शोषण और उत्पीड़न की क्षतिपूर्ति या किश्त दर किश्त हक अदायगी का माना हो, किन्तु सामन्य वर्ग इस तथ्य को कभी स्वीकार नहीं पाया। उसे यह अपना अधिकार हनन लगता है, जो दलित-आदिवासियों को भीख के रूप में दिया दिया जा रहा है। अपने जातिय दंभ में जीता यह समाज आज भी दलितों की पढ़ाई-लिखाई को पूरी तरह स्वीकार नहीं पाया, फिर भला उसके आधार पर मिली नौकरियाँ उसे कैसे होती? वह साम, दाम, दण्ड भेद से उन्हें हथियाने में जुटा हुआ है। ...कथाकार उदयप्रकाश की कहानी ‘मोहनदास’ पर मजहर कामरान निर्देशित इसी नाम से बनी फिल्म ‘मोहनदास’ एक दलित दस्तकार युवक की सवर्णों द्वारा हक और पहचान छीन लिए जाने की मार्मिक कथा पर आधारित है। मूल कहानी के समान प्रभाव संप्रेषित न कर पाने के कारण, ‘मोहनदास’ असफल रही। ‘समर’ (1999) यों तो भारत के हृदय स्थल मध्यप्रदेश को शांत प्रदेश कहा जाता है, किन्तु किसी प्रदेश की शांति को केवल उसकी समृद्धि और समरसता से जोड़कर देखना बेमानी होगा। हो सकता है वहाँ का दलित सर्वहारा इतना दबा-कुचला हो कि दबंगों के क्रूर अत्याचारों के चलते अपनी आवाज ही नहीं उठा पाता हो? शिक्षा और समुन्नति से दूर थाने और कोर्ट-कचहरियों भी उनके लिए ठाकुर का कुँआ ही रही हों? ऊपर से नीचे तक दबंगों का साम्राज्य हो? ऐसे में शांति किस चिड़िया का नाम होता है, यह उसका भुक्तभोगी ही समझ सकता है।
श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म ‘समर’ मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड अंतर्गत सागर जिले के कुल्लू गाँव में 1991 को घटी एक सत्य घटना पर आधारित है। तत्कालीन सागर जिले के कलेक्टर हर्षमंदर की डायरी में लिखे संस्मरणों के आधार पर अशोक मिश्रा द्वारा लिखित इस फिल्म को वर्ष 1999 का सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। कुल्लू गाँव की इस कहानी में गाँव का एक कुँआ है जिसमें उत्तर की ओर से ब्राह्मण पानी भरते हैं, पूरब की ओर से ठाकुर, पश्चिम की ओर से अहीर, नाई और धोबी पानी भरते हैं। दक्षिण के ओर से दलित पानी भरते हैं। दलितों को पानी भरने तब मिलता है जब सवर्ण पानी भर चुकते हैं। अगर इस बीच कोई दलित पानी भरने पहुँचता तो उसके इस कार्य को अपराध मानकर सवर्ण उन्हें सजा देते थे। दलित नत्थूलाल अहिरवार (रघुवीर यादव) की पत्नी दुलारी बाई (राजेश्वरी) कुँए पर पानी भरने जाती है तो उसे लोधी ठाकुर (रवि झाँकल) की पत्नी सवर्णों के साथ पानी भरने आने की वजह से पीटती है और साथ ही उसके हाथ में कोढ़ भी डायगनोस कर देती है। जब नत्थू दवाई के लिए मुआवजे के लिए ठाकुर के पास जाता है तो ठाकुर उसे डाँटकर भगा देता है।
दलितों की माँग पर सरकार हैंडपम्प खुदवाने के लिए एक अफसर को भेजती है। दलित उसे अपनी बस्ती में खुदवाना चाहते हैं और ठाकुर अपने खेत में। दलितों की बस्ती में पम्प खुदता देख ठाकुर दलितों को मारता है। फिर दलित कम मजदूरी की वजह से खेतों में काम करना बंद कर देते हैं। ठाकुर उन पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगवाता है-मसलन, नाई उनके बाल नहीं काटेगा, बरेदी जानवर नहीं चराएगा, तिवारी अपनी आटा चक्की में उनका अनाज नहीं पीसेगा, पटेल उन्हें बीड़ी बनाने के लिए तेंदूपत्ता नहीं देगा-वगैरह।
ठाकुर के प्रतिबंधों से तंग आकर नत्थू अहिरवार बीड़ी बनाने सागर चला जाता है। वहाँ बीड़ी फैक्टरी का मालिक पैसे देकर अपने भाई के खिलाफ हरिजन-एक्ट में नत्थू से रिर्पोट दर्ज़ करवा देता है और नत्थू दो बलवान भाईयों की लड़ाई में फँस जाता है। एक दिन मौका मिलते ही वह गाँव भाग आता है। घर पर वह दुलारी को कुछ पैसा देता है। उनके घर खुशियाँ लौटती हैं। नत्थू इस खुशी के अवसर पर मंदिर में झंडा चढ़ाने जाता है। पुजारी उसे मारता है। मंदिर घुसने को अपराध माना जाता है और ठाकुर उसकी सजा तय करने के लिए पंचायत बैठाते है। पंचायत के निर्णय पर ठाकुर नत्थू के सिर पर पेशाब करता है।[21]
1991 में घटी इस घटना पर फिल्म बनाने मुंबई से एक फिल्म युनिट कुल्लू गांव आती है। कार्तिक (रजत कपूर) उस फिल्म के निर्देशक होते हैं। मुरली (रवि झाँकल) लोधी ठाकुर की भूमिका निभाते हैं, जबकि फिल्म के नायक किशोर (किशोर कदम) नत्थूलाल अहिरवार की भूमिका में होते हैं। नायिका दुलारी की भूमिका निभाने का जिम्मा उमा (राजेश्वरी सचदेव) पर होता है जबकि दलित नत्थूलाल की भूमिका निभाने वाला किशोर मूल रूप से दलित ही होता है। नायिका उमा ब्राह्मण है। असल फिल्म तब शुरू होती है, जब जाति विद्वेष पर फिल्म बनाने मुंबई जैसे महानगर से आई ‘सो-काल्ड’ बुद्धिजीवी कलाकारों की वह फिल्म यूनिट खुद जाति के भ्रमजाल में या कहिए बदमाशी में फँस जाती है।
पम्प खुदवाते हुए दलितों को ठाकुर आकर पीटता है। निर्देशक, फिल्मी नत्थू (किशोर कदम) से कहता है, इस रोल को करने में तुम्हें तो कोई प्राब्लम नहीं होनी चाहिए तुम तो दलित ही हो...। फिर किशोर तुम्हारी बाॅडी से ‘दलित बाॅडी लेंग्वेज’ भी निकल रही है...। पूरी फिल्म-यूनिट भी किशोर से कहती है कि तुम्हें तो दलित का रोल बेहतर करना ही चाहिए क्योंकि तुम तो दलित ही हो। किशोर हैरान होता है कि यह ‘दलित बाॅडी लेंग्वेज’ कैसी होती है? दूसरे दृश्य में संवाद याद कर रहे किशोर से असली नत्थू कहता है, भैया किशोर तुम ने ये पहले काहे नहीं बताई कि तुम हमौरों कि जात वाले हो...आओ हमार घर आओ, तुमाई भौजी ने गुड़ के लडुआ बनाए हैं...तकन खा जाते...। किशोर नत्थू को डांटकर भगाता है। जाते-जाते नत्थू कहता है, भैया आप ही दलित का सर्पोट नहीं करोगे तब दूसरे तो दुत्कारेंगे ही...।
एक और दृश्य में यूनिट बस से सागर लौट रही होती है। मुरली कहता है, समय बिताने के लिए करना है कुछ काम, शुरू करो अंताक्षरी लेकर प्रभु का नाम...। सिया पति रामचंन्द्र की जै। पवन सुत हनुमान की जै। सारे दलितजनों कह जै...। किशोर खीजकर बस की पीछे वाली सीट पर जाकर बैठ जाता है। उमा (राजेश्वरी सचदेव) उसके पास आकर बैठती है, मैं यहाँ बैठ सकती हूँ आपको कोई एतराज तो नहीं? किशोर कहता है कि अगर आपको नही ंतो मुझे क्या हो सकता है...? उमा कहती है कि आप गलत समझ रहे हैं कि सारी यूनिट आपको अलग मानती है...। किशोर कहता है कि बिल्कुल समझती है। होटल के डयरेक्टर के लिए एसी कमरा। हीरोइन के लिए एसी कमरा। विलेन के लिए एसी कमरा और मुझे हीरो के लिए आॅर्डिनरी रूम...। सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं दलित हूँ...। गर्मी में सो जाऊँगा...।
नहीं ऐसी बात नहीं है। उस होटल में सिर्फ तीन एसी रूम हैं। आप क्योंकि सबसे बाद में आए थे इसलिए एसी रूम आपको नहीं मिला...। उमा बात स्पष्ट करती है, लेकिन किशोर उसे अपने यानि दलितों के खिलाफ षड़यंत्र मानता है।
फिल्म में छोटे-छोटे प्रसंगों के जरिए गाँव और शहर में अंदर तक घुसी जातिवाद की शैतानी को दिखाया गया है। गाँव की दूकान का दृश्य फिल्माने निर्देशक दूकान पर जाते हैं। तभी दो महिलाएँ आकर एक पाव गुड़ और चाय पत्ती माँगती हैं। दूकानदार उन्हें सामान तो फेंककर देता है लेकिन पैसे हाथ से लेता है। निर्देशक पूछता है-ये आप पैकेट फेंककर क्यों दे रहे हैं? तो दूकानदार कहता है कि यहाँ ऐसा होता हैै साहब। अहिरवारों को सौदा हाथ में नहीं दिया जाता है...।
-लेकिन जब उन्होंने पैसे दिए तो आपने हाथ से ही ले लिए...।
-लक्ष्मी अपवित्र नहीं होत है...।
तभी फिल्म का हीरो किशोर आकर बीड़ी माँगता है। दूकानदार उसे इज्जत से बीड़ी देता है। निर्देशक यह हमारे हीरो साहब है, किशोर...। इन्हें भी हाथ से बीड़ी दे रहे हैं ना...। अरे ये भी दलित हैं...।
-क्या बात करत हो साहब। सहर के हीरो दलित तो हो ही नहीं सकत हैं....।
मतलब यह कि हर जगह दलित को बार-बार कोंच-कोंचकर यह अहसास कराया जाता है कि वह दलित है, दलित है, दलित है। और यह नश्तर चुभो रहे होते हैं, समाज के ऐसे लोग, जिन्हें कलाकार, निर्देशक, लेखक वगैरह कहा जाता है।[22]